Tuesday, August 7, 2012

देर से आए लेकिन दुरूस्त नहीं


पिछले डेड़ साल के सक्रिय आंदोलन से पलटी मारते हुए टीम अन्ना ने देश को राजनीतिक विकल्प देने की जो बात की है, उसका स्वागत तो लोकतंत्र में किया ही जाना चाहिए भले ही मुद्दों और विचारों के आधार पर टीम अन्ना से इत्तफाक ना हो। वैसे अभी तक टीम अन्ना ने देश के तमाम मुद्दों पर अपनी राय नहीं रखी है , इसीलिए जनसरोकारी राय रखने वाले लोगों को अभी इंतज़ार करना है। लेकिन जनतंत्र में जब कोई राजनीति में आस्था जताए या फिर जनता से चुनकर व्यवस्था सुधारने की बात करे तो उसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन बावजूद इसके टीम अन्ना ने राजनीतिक विकल्प देने की जो बात कही है उसने कुछ सवाल छोड़ दिए हैं। जिसका जवाब राजनीति में आस्था रखने वाले इस देश के तमाम नागरिकों से लेकर अन्ना आंदोलन से जुड़े लोगों को भी है। बात राजनीति में आने या नहीं आने की नहीं है, बात ये है कि अपने शुरुआत से ही आंदोलन का जो चरित्र रहा उसमें रातों रात बदलाव कैसे आया। पिछले डेड़ साल में टीम अन्ना ने जितने भी दौरे किए जितनी भी बयानबाजी की और जो कुछ भी किया , आखिर क्यों उसमें टीम अन्ना को यू टर्न लेना पड़ा। क्या टीम अन्ना घटते जनसमर्थन से घबरा गई या फिर दूरदर्शी रणनीति के अभाव में जल्दी में वो फैसला कर लिया जिसके लिए बड़ी तैयारी की जरूरत पड़ती है। अगर आंदोलन अपने स्वरूप में सच्चा है तो फिर भीड़ नहीं जुटने से घबराने की कोई वजह नहीं है। 
युवा संवाद के लोहिया विशेषांक निकालने के सिलसिले में उस्मानिया यूनिवर्सिटी से अवकाश प्राप्त प्रोफेसर केशव राव जाधव से मुलाक़ात की थी। वे हैदराबाद प्रवास के दौरान डॉ राम मनोहर लोहिया के करीबी थे और उनका मैनकाइंड के संपादन में सहयोग करते थे। उन्होंने डॉ लोहिया से जुड़ा एक प्रसंग सुनाया था। एक बार केशव राव जाधव ने डॉ लोहिया से पूछा कि डॉ साहब आप इतने बड़े नेता हैं, देश में आपका इतना नाम है। फिर भी आप छोटी मोटी मीटिंग्स के सिलसिले में यहां चले आते हैं। कभी कभी तो ज्यादा भीड़ भी नहीं जुटती, फिर इतना संघर्ष क्यों। डॉ लोहिया ने जवाब दिया था कि देखो जिस वक्त ईसा मसीह को शूली पर चढ़ाया गया था उस वक्त उनके साथ केवल कुछ ही लोग थे, लेकिन आज पूरी दुनिया में उनको माननेवाले सबसे ज्यादा है। इसीलिए मायने भीड़ नहीं रखती ये मायने रखती है कि तुम्हारी बात किस रूप में किन लोगों तक पहुंच रही है। यही नहीं एक बार संसद में किसी कांग्रेसी मंत्री ने डॉ लोहिया से पूछा था , कि आप कितने मतों से जीतकर आए हैं। तब डॉ लोहिया ने कहा था कि इस सदन में जितने सांसद हैं उससे ज्यादा मतों से जीतकर आए हैं। ये दो प्रसंग उस जज्बे की बानगी भर हैं जो किसी दूरगामी लड़ाई के लिए ज़रूरी होते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि पिछले डेड़ साल से भी ज्यादा समय से चलाए जा रहे आंदोलन के रणनीतिकारों ने (जिसमें मठी गांधीवादियों से लेकर कुछ स्वघोषित लोहियावादी भी शरीक हैं ) घटती भीड़ से घबराकर आनन फानन में अपनी रणनीति ही बदल दी। लगातार एकतरफा संवाद चलता रहा हम राजनीति में नहीं आएंगे , हम राजनीति में नहीं आएंगे... हम अगर अस्पताल इलाज कराने जाएंगे तो कोई जरूरी है कि डॉक्टर ही बनकर आएं... या फिर राजनीति मैली हो चुकी है वहां हमारा काम नहीं है। लेकिन बिना किसी संगठनात्मक और वैचारिक समन्वय के अचानक पार्टी बनाने की घोषणा कर दी। इस फैसले ने पिछले डेड़ से अन्ना को परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन दे रहे अधिकांश लोगों को निराश किया।
नई पीढ़ी के लिए जब टीम अन्ना जन आंदोलनों का रीमिक्स संस्करण लेकर सामने आए। तो उदारीकरण के बाद मनमोहन  सिंह के बाज़ार में खाए अघाए कुछ लोगों ने इस आंदोलन को हाथों हाथ लिया। मीडिया कवरेज भी कुछ इस तरह दी गई जैसे आज़ादी मिलने के बाद पहली बार देश में इस तरह के आंदोलन खड़े किए गए हो। जबकि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कच्छ से लेकर कामरूप तक हर जगह सच्चे आंदोलनकारी अपनी वाजिब मांगों को लेकर अड़े हुए हैं। सरकार केवल जन लोकपाल पर ही नहीं उन आंदोलनकारियों की वाजिब मांगों पर भी आंख कान बंद किए हुए है। मिट्टी से लेकर मानुष तक और जल जंगल से लेकर ज़मीन तक सब कुछ निजी कंपनियों के लाभ कमाने के लिए छोड़ दिया गया है। और जो इस सरकारी लूट का विरोध करते हैं उन्हें या तो नक्सली बताया जाता है या फिर सरेआम गोली मार दी जाती है। ज़मीन अधिग्रहण और अवैध खनन ने तो विस्थापन की भयावह इबारत ही लिख दी है। जंगलों में रहने वाले आदिवासी अपने पुरखों के आशियाने से जबरन निकाले जा रहे हैं। उन्हें प्रकृति के बीच से निकालकर शहरों में फ्लाईओवर और ओवर ब्रिाज निर्माण में मजदूर बना दिया गया है। सरकार इस तरफ से भी आंखें बंद किए हुए है। पूर्वोत्तर भारत की समस्या को लेकर इरोम शर्मिला पिछले 12 सालों से अन्न त्यागे हुए है सरकार के कान में अभी तक जूं नहीं रेंगी है। शर्मिला के संघर्ष को भी कभी भीड़ हासिल नहीं हुई। यही नहीं टेलीविजन चैनल्स के बुलेटिन जिन ख़बरों से भरे पड़े रहते हैं , उनमें भी संख्याबल के हिसाब से कोई बहुत बड़ी भागीदारी नहीं होती है। तो फिर क्या सभी आंदोलनकारियों और सरकार से लड़नेवालों को अपनी मांगों के मुताबिक राजनीतिक दल का गठन कर लेना चाहिए।                              
लेकिन लोकतंत्र में भीड़ को खारिज भी नहीं किया जा सकता। अगर शुरूआती समय में टीम अन्ना को लोगों का खूब समर्थन मिला था , और अब नहीं मिल रहा तो निश्चय ही ये टीम अन्ना के लिए सोचने वाली बात है। क्योंकि भीड़ देखकर अगर टीम अन्ना ये कहती है कि पूरे देश का उनको साथ है। तो भीड़ हटने पर वो ये नहीं कह सकती कि अभी भी उनको देश का साथ है। भीड़ की जितनी स्तुती टीम अन्ना ने की है, उससे पहले किसी जनआंदोलनकारी ने नहीं की। इसीलिए शायद टीम अन्ना ने कभी भी ना तो संगठन की मजबूती पर ध्यान दिया और ना ही मुद्दों पर। राजनीतिक चेतना का तो टीम अन्ना के संगठन में में जबर्दस्त अभाव है।
इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले भ्रष्टाचार की लड़ाई लड़ रही टीम अन्ना ने शुरुआत से ही जो सबसे बड़ी ग़लती की वो ये कि उन्होंने कभी भी समस्या के जड़ की तरफ ध्यान नहीं दिया। वे हमेशा पत्तियों और शाखों की बात करती रही। टीम अन्ना को जनलोकपाल की बजाए इस बात पर केन्द्रीत होना चाहिए था कि भ्रष्टाचार पनपता कहां से है। कौन घूसखोरी को हवा देता है, कौन सी नीतियां किसानों को उसके खेतों से ज़ुदा करती है। किस तरह की ताक़ते मिलावटखोरों और कमीशनखोरों की रक्षक बनकर खड़ी होती है और कौन सी वजह हमारी राजनीति और संसदीय प्रणाली को दीमक की तरह चाट रही है। टीम अन्ना को भूमंडलीकरण के बाद पनपी बाजार व्यवस्था के दुष्परिणाम और उसके बाद फैले भ्रष्टाचार की जड़ पर प्रहार करना चाहिए था, लेकिन टीम अन्ना ने सारी ताकत संसदीय व्यवस्था की कमियां गिनाने में लगा दी। टीम अन्ना को सांप्रदायिक राजनीति को पोषित करने वाली ताकतों के खिलाफ बोलना चाहिए था लेकिन टीम अन्ना आंकड़ों के विकास की बाजीगारी में उलझ गई। और इन सबके बीच सरकार को मौका मिल गया आंदोलन की हवा निकालने का । और आंदोलन अपने मौलिक स्वरूप से भटक गया। अब जहां तक राजनीतिक पार्टी का सवाल है तो सबसे पहले टीम अन्ना को संख्या बल नहीं बल्कि आत्मबल और नैतिक बल का आंकड़ा बढ़ाना पड़ेगा। क्योंकि सत्ता से टकराने के लिए नैतिक बल के अलावा और कोई ताक़त काम नहीं आती और गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण तक सभी ने सत्ता को केवल इसी बल के सहारे पराजित किया है।

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