Thursday, August 30, 2018

छात्र राजनीति में भी विचारधारा का अंत

आईसा और सीवाईएसएस का अवसरवादी और सिद्धांतहीन गठबंधन

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव में सीपीआई (एमएल) की छात्र शाखा आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आईसा) और आम आदमी पार्टी की छात्र शाखा छात्र युवा संघर्ष संस्थान (सीवाईएसएस) ने आधिकारिक तौर पर गठबंधन का एलान किया है। इस अवसरवादी और सिद्धान्तहीन गठजोड़ से यह साफ़ हो गया है कि मुख्यधारा राजनीति की तरह छात्र राजनीति में भी विचारधारा का अंत हो गया है। आईसा की राजनीतिक पार्टी अति वामपंथी विचारधारा को मानने का दावा करती रही है और सीवाईएसएस की राजनीतिक पार्टी शुरु से ही राजनितिम में किसी भी विचारधारा की जरूरत से इनकार करती रही है। विचारधारात्मक आईसा और वैचारिक रूप से शून्य सीवाईएसएस के बीच ये गठजोड़  छात्र राजनीति में अवसरवाद और सिद्धांतहीनता का संभवत: अभी तक का बेजोड़ नमूना।  

अगर सीवाईएसएस का इतिहास देखें तो यह पूर्व में शिक्षा और रोजगार में संवैधानिक आरक्षण के ख़िलाफ बने संगठन 'यूथ फॉर इक्वलिटी' का ही विस्तार है। आईसा ने उसके साथ हाथ मिलाया है तो जाहिर सी बात है कि आरक्षण विरोध की 'राजनीति' अब केम्पसों में भी जोर-शोर से चलेगी। भारत में उच्च शिक्षा पहले से ही व्यावसायीकरण और साम्प्रदायिकरण का हमला झेल रही है। यह हमला और तेज़ होगा क्योंकि यह गठजोड़ डूसू चुनाव में भाजपा की छात्र शाखा एबीवीपी को सीधे फायदा पहुंचाएगा। अगर इस गठजोड़ को डूसू चुनाव में आंशिक सफलता भी मिलती है तो ये दोनों पार्टियां देश के बाकी कॉलेज-विश्वविद्यालयों में भी यह गठजोड़ चलाएंगी। शिक्षा में नवउदारवादी एजेंडा का रास्ता इससे और साफ़ होगा और नवउदारवादी अजेंडे के विरोध का आंदोलन कमजोर होगा। 

शिक्षा के साम्प्रदायिकरण के विरोध की लड़ाई भी इससे कमजोर पड़ेगी। आम आदमी पार्टी को शिक्षा का साम्प्रदायिकरण करने वाली भाजपा से कोई परहेज़ नहीं है। हाल में ही 'आप' मुखिया दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा देने के एवाज़ में आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा का समर्थन करने की घोषणा कर चुके हैं। भाजपा का इस गठजोड़ पर कहना है कि केजरीवाल की (कम्युनिस्ट होने की) असलियत खुल कर सामने आ गई है। जबकि केजरीवाल पिछले 3-4 सालों में ही भाजपा जैसे साम्प्रदायिक और अधिनायकवादी चरित्र का प्रदर्शन कर चुके हैं।   

दरअसल, आईसा और सीवाईएसएस के बीच गठजोड़ बेमेल नहीं है। दोनों का एक कॉमन ग्राउंड है। यह मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का पूर्व छात्र और छात्र संघ चुनाव की राजनीति में दिलचस्पी रखने के अपने अनुभव से कह सकता हूं। वह कॉमन ग्राउंड है दोनों ही संगठनों की पार्टियों का एनजीओ से संबद्ध होना। यह सब जानते हैं कि आईसा नेताओं के लिंक शुरु से ही बड़े-बड़े एनजीओ संचालकों से जुड़े हैं जो उसे फंडिंग करते हैं। आम आदमी पार्टी तो है ही एनजीओ धारा का राजनीतिक रूपांतरण। यानी वह एनजीओ से निकली हुई पार्टी है। संविधान और समाजवाद/सामाजिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को जानने वाला कोई भी छात्र यह बता सकता है कि पूरी दुनिया में फैला एनजीओ-तंत्र पूंजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने में सेफ्टी वाल्व का काम करता है। आम आदमी पार्टी की हकीकत शुरु से सबके सामने है। इस गठजोड़ से अति वामपंथ का दम भरने वाली भाकपा (माले) की हकीकत सामने आ गई है कि विचारधारा से उसका भी कोई लेना-देना नहीं है। इसे कॉर्पोरेट परस्त राजनीतिक धारा के आगे उसका समर्पण कहा जाए या आत्मस्वीकार! मजेदारी यह है कि 1990 में अपने गठन के बाद से बीते 28 सालों में आईसा हर चुनाव में एसएफआई और एआईएसएफ पर मार्क्सवादी विचारधारा से विचलन का आरोप लगाता रहा है। 


अभी तक डूसू छात्रसंघ के पदों पर एबीवीपी और एनएसयूआई  ही काबिज होती रही हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह चुनाव में झोंका जाने वाला अकूत धन है। इन दोनों छात्र इकाइयों को धनबल में कोई और संगठन टक्कर नहीं दे सकता। ओमप्रकाश चौटाला के लोकदल ने अपनी छात्र शाखा बना कर धनबल में टक्कर देने की कोशिश की थी। लेकिन संगठनात्मक आधार नहीं होने के चलते उसे सफलता नहीं मिल पाई। जिस तरह से आम आदमी पार्टी पैसा खींचती और प्रचार पर लुटाती है, उससे साफ़ है कि आईसा और सीवाईएसएस के गठजोड़ को धन की कमी नहीं रहेगी। 

तक़रीबन चार दशक तक डूसू चुनाव से अनुपस्थित रहने के बाद सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस) ने जब 2012 और 2013 के डूसू चुनाव में अपना पैनल उतारा तो साधनहीन होने के बावजूद उसका पैनल एनएसयूआई और एबीवीपी के बाद तीसरे नंबर पर रहा। क्योंकि उसने छात्र राजनीति के सही मुद्दों को उठाया था। न्यूनतम चंदा भी नहीं मिल पाने की वजह से एस वाई एस ने उसके बाद अपना पैनल नहीं उतारा। लेकिन रचनात्मक ढंग से उसका काम जारी रहता है। देखना है कि आईसा और सीवाईएसएस के गठजोड़ से बने डूसू चुनाव के नए हालातों में एसवाईएस इस बार क्या करती है? अपना पैनल उतारती है या एबीवीपी और आईसा-सीवाईएसएस गठजोड़ की प्रतिक्रियावादी राजनीति का मुकाबला करने के लिए किसी मॉडरेट संगठन अथवा गठबंधन को अपना समर्थन देती है?     
-राजेश कुमार

Monday, August 27, 2018

गांधी की डेढ़ सौंवी सालगिरह : एक विनम्र सुझाव-प्रेम सिंह


      गांधी की डेढ़ सौंवी सालगिरह को लेकर काफी चर्चा है. इस अवसर पर केंद्र सरके की ओर से देश और विदेश में भारी-भरकम आयोजन होंगे. इसके लिए सरकार ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक विस्तृत राष्ट्रीय समिति का गठन किया है. इसके साथ एक एग्जीक्यूटिव समिति और 6 उपसमितियां बनाई गई हैं. समितियों में केंद्र और प्रांतीय सरकारों के अनेक नेता, विपक्ष के नेता, नौकरशाह, एक-दो गांधीजन और कुछ विदेशी मेहमान शामिल हैं. संसद का एक दिन अथवा एक सप्ताह का विशेष सत्र भी इस मौके पर बुलाया जाएगा.
      केंद्र सरकार ने गांधी की डेढ़ सौंवी सालगिरह को 'ग्लोबल इवेंट' बनाने का फैसला किया है. विदेशों में स्थित सभी भारतीय मिशन कार्यक्रमों का आयोजन और प्रचार-प्रसार करेंगे. 2 अक्तूबर 2018 से शुरु होने वाले विविध कार्यक्रमों की विस्तृत सूची सामने आ चुकी है. सारा साल या दो साल तक पूरा देश गांधीमय होगा. मसलन, इस बार के गणतंत्र दिवस की हर झांकी गांधी का संदेश लिए होगी. नोबेल पुरस्कार प्राप्त विद्वानों के व्याख्यानों से लेकर 'रियलिटी शो' के रंगारंग कार्यक्रम इस 'ग्लोबल इवेंट' का हिस्सा हैं. 'ग्लोबल इवेंट' की थीम सरकार ने सांप्रदायिक सौहार्द रखी है, और लक्ष्य देश के युवाओं तक गांधी की विचारधारा पहुंचाना.
      देश में विमूढ़ता का जो विराट पर्व चल रहा है उसमें गांधी की डेढ़ सौंवी सालगिरह के इस महायोजन पर कुछ भी कहने का कोई मतलब नहीं है. गांधी के बारे में भी कुछ कहने का कोई मतलब नहीं है. यह भी कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश और विदेश के लिए अभी तक का बचा-खुचा गांधी इस डेढ़ सौंवी सालगिरह के उत्सव में एकबारगी दम तोड़ जाएगा, और वैश्वीकरण के दौर का एक नया गांधी पैदा होगा.  
      अलबत्ता एक कार्यक्रम की चर्चा हम करना चाहते हैं. इस कार्यक्रम का आईडिया शायद पिछले दिनों दिवंगत हुए नारायण देसाई से लिया गया है. जीवन की कला सिखाने के लिए मशहूर श्रीश्री रविशंकर नाम के 'अध्यात्मिक गुरु' इस अवसर पर 'गांधी-कथा' सुनाएंगे. कहने को जग्गी वासुदेव, मुरारी बापू और ब्रह्मकुमारियों का नाम भी 'गांधी-कथा' सुनाने वालों में रखा गया है, लेकिन प्रमुखता रविशंकर की ही है. राष्ट्रीय समिति ने कार्यक्रमों के बारे में नागरिकों के सुझाव मांगे हैं. हमारा विनम्र सुझाव, बल्कि प्रार्थना है कि समिति कम से कम 'गांधी-कथा' का कार्यक्रम न करे. सुधी नागरिकों को भी गांधी को 'पुराण' बनाने की इस चेष्टा को रोकने का सुझाव सरकार को देना चाहिए.         

Thursday, August 16, 2018

संकट, समाधान और बुद्धिजीवी-प्रेम सिंह

(जहां सर्वाधिक संगठित और ताकतवर बौद्धिक समूह सहित ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी, नवउदारवाद छोड़िये, साम्प्रदायिकता विरोध की अपनी भूमिका ईमानदारी से नहीं निभाते हों, वह देश एक दिन गहरे संकट का शिकार होना ही था. ज्यादा चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी देश को और ज्यादा गहरे संकट की तरफ धकेल रहे हैं. अपने तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए वे भाजपा के सामानांतर एक अन्य फासीवादी/अधिनायकवादी सत्ता-सरंचना का पोषण करने में लगे हैं. कारपोरेट पूंजीवादी प्रतिष्ठान आगे की भारतीय राजनीति में यही चाहता है.)
वर्तमान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने सभी क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोल दिया है. देश के संसाधनों और श्रम की लूट इस फैसले के साथ जुड़ी हुई है. सरकार के मंत्री संविधान बदलने सहित अक्सर तरह-तरह की संविधान-विरोधी घोषणाएं करते हैं. शिक्षा का तेज़ी से बाजारीकरण और सम्प्रदायीकरण किया जा रहा है. रोजगार की गंभीर समस्या को प्रधानमंत्री ने प्रहसन में बदल दिया है. न्यायपालिका सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट किया जा रहा है. प्रधानमंत्री समेत पूरी सरकार अज्ञान, असत्य, अंधविश्वास, पाखंड, षड्यंत्र, घृणा और प्रतिशोध का अधार लेकर चलती नज़र आती है. सरकारी कर्तव्य और धार्मिक कर्मकांड की विभाजक रेखा लगभग मिटा दी गई है. मानवता, तर्क और संवैधानिक मूल्यों का पक्ष लेने वाले नागरिकों की निशाना बना कर हत्या कर दी जाती है. सरकार के साथ सम्बद्ध गैर-राजकीय संगठन/व्यक्ति योजनाबद्ध ढंग से गौ-रक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों की हत्या कर रहे हैं. भीड़ कहीं भी किसी भी नागरिक को पकड़ कर पीटती है या हत्या कर देती है, पुलिस उपयुक्त कार्रवाई नहीं करती. पूरे देश में कानून-व्यवस्था की जगह भीड़ का राज होता जा रहा है. भारतीय-राष्ट्र गहरे संकट में पड़ गया है. कारपोरेट पूंजीवाद और सांप्रदायिक कट्टरवाद के मुकम्मल गठजोड़ से यह संकट पैदा हुआ है. ऐसी गंभीर स्थिति में संविधान और कानून-व्यवस्था में भरोसा करने वाले नागरिकों का चिंतित होना स्वाभाविक है.

भाजपा की केंद्र के अलावा देश के 22 राज्यों में सरकारें हैं. लिहाज़ा, नागरिकों का यह विचार करना भी स्वाभाविक है कि अगले आम चुनाव में इस सरकार को बदला जाए. अगले लोकसभा चुनाव में वर्तमान सरकार को बदलने की दिशा में विपक्ष प्रयास करता नज़र आता है. हालांकि अभी तक वह कोई पुख्ता रणनीति नहीं बना पाया है, जबकि चुनाव में केवल 9 महीने का समय बाकी रह गया है. यह कहा जा सकता है कि विपक्षी एकता के प्रयासों में संकट के मद्देनज़र वाजिब गंभीरता नहीं है. विपक्षी नेता उपस्थित संकट की स्थिति का फायदा उठा कर सत्ता हथियाने की नीयत से परिचालित हैं. लेकिन लोकतंत्र में इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि जो विपक्ष मौजूद है, जनता उसीसे बदलाव लाने की आशा करे. भले ही वह मात्र सत्ता के लिए सरकार का बदलाव हो.     

हालांकि देश का जागरूक नागरिक समाज विपक्ष के सत्ता की नीयत से परिचालित प्रयास को कुछ हद तक संकट के समाधान की दिशा में मोड़ सकता है. संकट के समाधान की दिशा संविधान-सम्मत नीतियों की दिशा ही हो सकती है. संकट के मद्देनज़र इस सच्चाई को समझने में अब और देरी नहीं करनी चाहिए कि प्रचलित कारपोरेट पूंजीवादी नीतियों के साथ आरएसएस/भाजपा का हिंदू-राष्ट्र ही चलेगा. भारतीय-राष्ट्र संविधान-सम्मत नीतियों के साथ ही चल सकता है, जिन्हें कांग्रेस समेत सभी सेक्युलर पार्टियों और बुद्धिजीवियों ने लगभग त्याग दिया है. हिंदू-राष्ट्र के बरक्स भारतीय-राष्ट्र का पुनर्भव होना है तो कारपोरेट परस्त नवउदारवादी नीतियों की जगह संविधान-सम्मत नीतियां अपनानी होंगी. जागरूक नागरिक समाज चाहे तो यह लगभग असंभव दिखने वाला काम हो सकता है. जागरूक नागरिक समाज विविध बुद्धिजीवी समूहों से बनता है. लेकिन भारत के ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी करीब तीन दशक बाद भी संकट की सही पहचान करने को तैयार नहीं हैं. समाधान की बात तो उसके बाद आती है. वे नवउदारवादी नीतियों को चलने देते हुए संकट के लिए केवल आरएसएस/भाजपा के फासीवादी चरित्र को जिम्मेदार मानते हैं. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी इस सदी के पहले दशक तक यह कहते थे कि नवउदारवादी नीतियों से बाद में निपट लेंगे, पहले फासीवाद के खतरे से निपटना जरूरी है. लेकिन यह उनका बहाना ही है. फासीवाद के विरुद्ध उनका संघर्ष 2004 में वाजपेयी के नेतृत्व में और 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनने से नहीं रोक पाया है. यानी समाज और राजनीति में साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियां तेज़ी से मज़बूत होती गई हैं. इस सच्चाई के बावजूद धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी उपस्थित संकट का समाधान केवल आरएसएस/भाजपा को सत्ता से बाहर करने में देखते हैं. नवउदारवादी नीतियां अब उनके विरोध का विषय ही नहीं रह गई हैं.    

राजनीति को संभावनाओं का खेल कहा जाता है. अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार से संकट के समाधान का मार्ग खुलने की संभावना बनेगी. इसलिए धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों के आरएसएस/भाजपा को परास्त करने के एकल आह्वान की सार्थकता बनती है. भले ही वह नवउदारवादी नीतियों का विरोध हमेशा के लिए ताक पर रख कर चलाया जाए. लेकिन इस संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की ईमानदारी (इंटीग्रिटी) का सवाल अहम है. फिलहाल के लिए भी और 2019 के चुनाव में भाजपा की हार हो जाने के बाद के लिए भी. अगर वे आरएसएस/ भाजपा-विरोध के साथ-साथ आरएसएस/भाजपा का समर्थन करने वाले फासीवादी-अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से परिचालित नेताओं/पार्टियों का बचाव करते हैं, तो उनके अभियान को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता. संकट के प्रति उनकी चिंता भी खोखली मानी जाएगी. बल्कि उनका बुद्धिजीवी होना ही सवालों के घेरे में आ जायेगा. एक ताज़ा प्रसंग लेकर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की ईमानदारी की पड़ताल की जा सकती है.

आम आदमी पार्टी ('आप') के सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पिछले दिनों घोषणा की कि यदि केंद्र सरकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा दे तो वे उसके बदले अगले चुनाव में भाजपा का समर्थन करने को तैयार हैं. हाल में राज्यसभा में उपसभापति के चुनाव में 'आप' के सांसदों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया. पार्टी के एक सांसद ने यह बताया कि विपक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करने के लिए केजरीवाल की शर्त थी कि राहुल गांधी उन्हें फोन करें. अब केजरीवाल ने घोषणा की है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपानीत एनडीए के खिलाफ बनने वाले विपक्ष के गठबंधन में वे शामिल नहीं होंगे. ज़ाहिर है, केजरीवाल को आरएसएस/भाजपा की तरफ से कोई संकट नज़र नहीं आता - न अभी, न भाजपा के फिर सत्ता में आने से. उनके नज़रिए से देखा जाए तो कहा जाएगा कि देश में कहीं कोई संकट की स्थिति नहीं है, संकट का केवल हौआ खड़ा किया जा रहा है.  इसमें केजरीवाल को दोष नहीं दिया जा सकता. उन्होंने एक सामान्य मांग के बदले भाजपा के समर्थन की खुली घोषणा करके एक बार फिर अपनी स्थिति स्पष्ट की है कि राजनीति में विचारधारा अथवा नैतिकता की जगह नहीं होती. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि उन्हें किसी संकट के समाधान से नहीं, सत्ता से लेना-देना है.      

धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल के उपरोक्त ताज़ा फैसलों का हल्का-सा भी विरोध नहीं किया है. यह दर्शाता है कि देश और समाज के सामने दरपेश संकट की स्थिति के बावजूद केजरीवाल द्वारा सीधे भाजपा का समर्थन करने से धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को कोई ऐतराज़ नहीं है. जबकि, ख़ास कर कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी, स्वतंत्रता आंदोलन और स्वातंत्र्योत्तर युग के नेताओं-विचारकों से लेकर समकालीन नेताओं-बुद्धिजीवियों को साम्प्रदायिक सिद्ध करने के नुक्ते निकालने में देरी नहीं करते. लेकिन केजरीवाल का सामना होते ही उनकी सारी तर्क-बुद्धि और वैज्ञानिक दृष्टि अंधी हो जाती है. वे पिछले करीब 5 साल से 'आप' और उसके सुप्रीमो के समर्थन में डट कर खड़े हुए हैं. केजरीवाल निश्चिंत रहते हैं कि दिल्ली और पूरे देश के स्तर पर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी मुख्यधारा और सोशल मीडिया में उनके समर्थन की बागडोर मुस्तैदी से सम्हाले हुए हैं. राजनीतिशास्त्र के कई प्रतिष्ठित विद्वान अंग्रेजी अखबारों और पत्रिकाओं में 'आप' और केजरीवाल की राजनीति के समर्थन/दिशा-निर्देशन में अक्सर लेख लिखते हैं. इससे केजरीवाल को अपना पूरा ध्यान सरकारी विज्ञापनों पर केंद्रित करने की सुविधा होती है, जो करदाताओं का धन खर्च करके तैयार किये जाते हैं.

हालांकि दोहराव होगा लेकिन केजरीवाल और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों से सम्बद्ध कुछ तथ्यों को एक बार फिर देख लेना मुनासिब होगा. केजरीवाल और उनके साथी नेता बनने के पहले यूरोप-अमेरिका की बड़ी-बड़ी दानदाता संस्थाओं से मोटा धन लेकर एनजीओ चलाते थे और मनमोहन सिंह, लालकृष्ण अडवाणी, सोनिया गांधी से 'स्वराज' मांगते थे. उनका 'ज़मीनी' संघर्ष केवल 'यूथ फॉर इक्वेलिटी' का गठन कर दाखिलों और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करने की मांग तक सीमित था. इन लोगों ने अन्ना हजारे, रामदेव, श्रीश्री रविशंकर और विभिन्न विभागों के अवकाश-प्राप्त अफसरों, अन्य एनजीओ चलने वालों के साथ मिल कर दिल्ली में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की. पहली बार में आंदोलन नहीं उठ पाया. अगली बार सत्तारूढ़ कांग्रेस की बदनामी को आंदोलन की टेक बनाया गया. मीडिया को अच्छी तरह से साधा गया. 'जो आंदोलन के साथ नहीं है, वह भ्रष्टाचारियों के साथ है' यह संदेश मीडिया ने घर-घर पहुंचा दिया. बहुत-से परिपक्व जनांदोलानकारी, सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट, प्रगतिशील बुद्धिजीवी, कम्युनिस्ट, समाजवादी, गांधीवादी आंदोलन में शामिल हो गए. पिछले 25 साल की नवउदारवादी नीतियों से लाभान्वित मध्यवर्ग का आंदोलन को अभूतपूर्व समर्थन मिला. आरएसएस ने मौका भांप लिया और अंदरखाने आंदोलन का पूरा इंतजाम सम्हाल लिया. आंदोलनकारियों के गुरु अन्ना हजारे ने शुरू में ही अच्छा शासन देने के लिए पहले नंबर पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, और दूसरे नंबर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रशंसा की.

'भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की राख' से उठ कर 'आम आदमी' की नई पार्टी खड़ी हो गई. 'अन्ना क्रांति' का अध्याय जल्दी ही समाप्त हो गया; 'केजरीवाल क्रांति' का डंका चारों तरफ बजने लगा. कार्पोरेट राजनीति का रास्ता प्रशस्त करते हुए घोषणा कर दी गई कि राजनीति में विचारधारा की बात नहीं होनी चाहिए. पार्टी पर देश-विदेश से धन की बारिश होने लगी. दीवारों पर 'केंद्र में पीएम मोदी, दिल्ली में सीएम केजरीवाल' के पोस्टर लग गए. कांग्रेस की सत्ता जाती देख, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल का दामन कस कर पकड़ लिया. तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है. केजरीवाल के मोदी की जीत सुनिश्चित करने के लिए बनारस से चुनाव लड़ने, वहां गंगा में डुबकी लगा कर बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने, मुजफ्फरपुर और दिल्ली के दंगों पर मुहं न खोलने, दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली सम्पूर्ण जीत पर हवन कर उसे ईश्वर का पुरस्कार बताने, केंद्र सरकार के दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलने के फैसले का आगे बढ़ कर स्वागत करने, दिल्ली का यमुना तट विध्वंस के लिए श्रीश्री रविशंकर को सौंपने जैसे अनेक फैसलों का धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने कभी विरोध नहीं किया. वे तब भी चुप रहे जब दिल्ली सरकार के पूर्व कानून मंत्री सोमनाथ भारती ने नैतिक पुलिसगीरी करते हुए मालवीय नगर इलाके में चार विदेशी महिलाओं पर आधी रात में धावा बोला. वे तब भी चुप रहे जब फांसी पर लटकाए गए अफज़ल गुरु की पत्नी अंतिम संस्कार के लिए अपने पति का शव मांगने दिल्ली आई तो 'आप' के हुड़दंगियों ने प्रेस कांफ्रेंस में घुस कर विरोध किया. प्रशांत भूषण पर उनके चेंबर में घुस कर हमला करने वाले अन्ना हजारे और केजरीवाल के समर्थक थे, लेकिन धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी कुछ नहीं बोले. वे तब भी चुप रहे जब केजरीवाल ने पार्टी के कुछ समाजवादी नेताओं पर अभद्र टिप्पणी की. तब भी नहीं बोले जब केजरीवाल के समर्थकों ने एक बैठक में समाजवादी नेताओं के साथ हाथापाई की और अंतत: पार्टी से बाहर कर दिया. फासीवादी/अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को दर्शाने वाली यह फेहरिस्त काफी लंबी है.  

अलबत्ता, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी समय-समय पर जनता को बताते रहते हैं कि 'आप' में कुमार विश्वास और कपिल मिश्रा जैसे संघी तत्व घुसे हुए हैं, जिनका काम केजरीवाल की छवि खराब करना है. गोया वे जानते नहीं कि 'आप' अवसरवादी तत्वों का ही जमावड़ा है! इस जमावड़े में संघी, कांग्रेसी, समाजवादी, वामपंथी और तरह-तरह के गैर-राजनीतिक लोग शामिल हैं. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों का केजरीवाल सरकार के पक्ष में हमेशा तर्क होता है कि वह लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार है. गोया केंद्र और अन्य राज्यों की सरकारें लोगों ने नहीं चुनी हैं! कपिल मिश्रा प्रकरण के समय एक लेखिका ने कहा, 'एक शेर को चारों तरफ से गीदड़ों ने घेर लिया है!' एक लेखिका बता चुकी हैं कि केजरीवाल जैसा मुख्यमंत्री अन्य कोई नहीं हो सकता. दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एक अवकाशप्राप्त प्रोफेसर शुरु से केजरीवाल के बड़े गुण-गायक हैं. कोई अवसर, कोई विषय हो, वे अपना व्याख्यान केजरीवाल की स्तुति से शुरू और समाप्त करते हैं. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों द्वारा केजरीवाल की गुण-गाथा की यह फेहरिस्त भी काफी लंबी है. चुनाव नजदीक आने पर केजरीवाल समर्थक बुद्धिजीवियों ने दिल्ली सरकार के साथ मिल कर एक नया अभियान चलाया है. 'विकास का गुजरात मॉडल' की तर्ज़ पर वे शिक्षा और स्वास्थ्य के दिल्ली मॉडल का मिथक गढ़ने में लगे हैं.

तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित ने दिल्ली और देश भर के धर्मनिरपेक्ष लेखकों-बुद्धिजीवियों को स्वतंत्रता के साथ भरपूर अनुदान, पद और पुरस्कार दिए. एक-एक नाट्य प्रस्तुति पर सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च किये. लेखकों के घर जाकर उनका सम्मान किया. बीमारी में सरकार की तरफ से आर्थिक समेत सब तरह की सहायता प्रदान की. लेकिन जैसे ही उनकी हार के आसार बने, लेखकों-बुद्धिजीवियों ने इस कदर नज़रें घुमा लीं, गोया शीला दीक्षित से कभी वास्ता ही न रहा हो! बिना किसी दुविधा के वे शीला दीक्षित को हराने वाले शख्स के 'भक्त' बन गए.    

भारत में कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी समूह सर्वाधिक संगठित और ताकतवर है. वह आरएसएस/भाजपा के फासीवाद को परास्त करने के आह्वान में प्रगतिशील और वैज्ञानिक दृष्टि के दावे के साथ सबसे आगे रहता है. लेकिन साथ ही केजरीवाल और उनकी पार्टी का भी वह सतत रूप से सबसे प्रबल समर्थक है. (भारत की तीनों आधिकारिक कम्युनिस्ट पार्टियों की भी वही लाइन है.) इसकी गहन समीक्षा में जाने की जरूरत नहीं है. यही देखना पर्याप्त है कि ऐसा है. समझना यह है कि जहां सर्वाधिक संगठित और ताकतवर बौद्धिक समूह सहित ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी, नवउदारवाद छोड़िये, साम्प्रदायिकता विरोध की अपनी भूमिका ईमानदारी से नहीं निभाते हों, वह देश एक दिन गहरे संकट का शिकार होना ही था. ज्यादा चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी देश को और ज्यादा गहरे संकट की तरफ धकेल रहे हैं. अपने तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए वे भाजपा के सामानांतर एक अन्य फासीवादी/अधिनायकवादी सत्ता-सरंचना का पोषण करने में लगे हैं. कारपोरेट पूंजीवादी प्रतिष्ठान आगे की भारतीय राजनीति में यही चाहता है.  
-डॉ प्रेम सिंह

Monday, August 13, 2018

कश्मीरनामा- दर्द को शब्द देती एक मुकम्मल क़िताब


कश्मीरनामा- दर्द को शब्द देती एक मुकम्मल क़िताब 

'कश्मीरनामा' युवा लेखक अशोक कुमार पाण्डेय की एक सार्थक रचना है। मेरी नज़र में ये क़िताब कश्मीर की अनकही दास्तां को शेष भारत के साथ साझा करने का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज है। निरंकुश राजाओं, बर्बर आक्रमणकारियों, धार्मिक कट्टरपंथियों, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के पक्षधरों, अखंड भारत के नारों, राजनीतिक अवसरों , वादाखिलाफियों और सदियों की लूट से तबाह एक क्षेत्र विशेष और वहां के लोगों की कहानी को बिना किसी पूर्वग्रह के कलमबद्ध करने की कामयाब कोशिश के लिए अशोक कुमार पाण्डेय बधाई के पात्र हैं।

जो कश्मीर अपनी सूफी पहचान के लिए जाना जाता था, जहां ऋषियों और सूफीयों की निशानियां सालों की साजिशों के बाद भी मौजूद हैं। जहां 18वीं सदी के अंतिम वर्षों में सर्वे के लिए आए एक अंग्रेज अफ़सर वॉल्टर लॉरेन्स को कश्मीरी मुसलमान और कश्मीरी हिन्दुओं में फ़र्क करना मुश्किल हो गया था(कश्मीरनामा से)। ज़ाहिर है उस धरती पर नफरत की फसल एक रात में तैयार नहीं हुई होगी। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और शासन की नाकामियों की वजह से विलय संधि और आज़ादी की एक राजनीतिक प्रक्रिया आज नासूर बन गई । कश्मीर के लोगों के इसी बेपनाह पीर को 'कश्मीरनामा' के जरिये शब्दशः काग़ज़ पर उकेरकर रख दिया है अशोक कुमार पाण्डेय ने।

कश्मीर को विस्तार से बयान करती क़रीब 450 पृष्ठों की ये क़िताब पहली नज़र में आपको भारी-भरकम लग सकती है। लेकिन एक पाठक के नाते मैं कह सकता हूं कि पूरा पढ़ने के बाद आप भी मेरी तरह सोचेंगे कि क़िताब में कुछ पन्ने और जोड़े जाने चाहिए थे। 'कश्मीरनामा' ना केवल जम्मू-कश्मीर के बारे में बनाई गई कई अवधारणाओं को खंडित करती है बल्कि कश्मीर के बारे में एक आम भारतवासी की सभी जिज्ञासाओं को भी शांत करती है।

'कश्मीरनामा' हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बरक्स कश्मीर के दो और पक्षकारों शेख अब्दुल्ला और हरि सिंह की भूमिका को भी ईमानदारी से पेश करती है। इस संवेदनशील मुद्दे पर पंडित नेहरू और सरदार पटेल की भूमिका के बारे में भी किताब नई जानकारियां देती है। आज के माहौल में जब इतिहास को लेकर तथ्यों की बात लगभग बेमानी हो गई है, 'कश्मीरनामा' जैसी गंभीर कोशिश ना केवल स्वागत योग्य है बल्कि साहसिक भी है।

अशोक कुमार पाण्डेय के मुताबिक कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए ये ज़रूरी है कि भारत के शेष भाग से कश्मीर का बेहतर संवाद स्थापित हो। कश्मीर के लोग शेष भारत के लोगों से और शेष भारत के लोग कश्मीर के लोगों से ज्यादा मिलने के मौके तलाशें ताकि ऐतिहासिक परिस्थितियों से अवगत होकर ग़लतफहमियों को दूर किया जा सके। लेखक ने 'कश्मीरनामा' की रचना कर इस समस्या के समाधान के लिए एक बेमिसाल काम किया है। हिन्दी में कश्मीर के ऊपर 'कश्मीरनामा' अकेली मुकम्मल किताब है।

ये एक ज़रूरी क़िताब है उन सबके लिए जो कश्मीर में दिलचस्पी रखते हैं, जिनके लिए कश्मीर भूमि के एक टुकड़े से बढ़कर भारत की एक धर्मनिरपेक्ष पहचान है, वे जो कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं और वो जिनके लिए कश्मीर कराहते इंसानियत का मुल्क है। कश्मीरनामा सबको पढ़नी चाहिए। एक बार फिर से कश्मीर पर शानदार कृति 'कश्मीरनामा' के लिए अशोक कुमार पाण्डे को बधाई।
-राजेश कुमार

Wednesday, August 1, 2018

असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर : जिम्मेदारी, सावधानी और संयम की जरूरत-डॉ प्रेम सिंह


असम में अवैध रूप से रहने वाले बंग्लादेशी नागरिकों की मौजूदगी की समस्या काफी जटिल और पुरानी है. असम में बांग्लादेशी घुसपैठ के विरुद्ध अस्सी के दशक में जब वहां के छात्रों ने आंदोलन किया था तो उनका समर्थन पूरे देश के समाजवादियों और गांधीवादियों ने किया था। तब वह आंदोलन धर्मनिरपेक्ष था और उसका जोर असमिया नागरिकों की अस्मिता बचाने पर था। हालांकि उसमें बांग्लाभाषियों का विरोध था, लेकिन आंदोलन में असमिया समाज के सभी तबके के लोगों ने हिस्सा लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की और जब वे ब्रह्मपुत्र घाटी में एक रैली में गईं तो वहां नारा भी लगा था कि 'हाथ में बीड़ी मुहं में पान असम बनेगा पाकिस्तान'। वह सब कांग्रेस का वोट बैंक था. बांग्लादेश से लगी सीमा पर ढीली-ढाली सुरक्षा व्यवस्था होने के कारण घुसपैठ जारी रही। इस बीच नेल्ली नरसंहार ने उस आंदोलन का सांप्रदायिक और वीभत्स रूप भी उजागर किया। उस नरसंहार में अल्पसंख्यक समुदाय के औरतों-बच्चों को काट डाला गया था। उनके बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने 1985 में असम समझौता किया. असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की परिकल्पना उसी प्रक्रिया का परिणाम है. इसके मुताबिक जिनके नाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में नहीं दर्ज होंगे, उन्हें भारत का नागरिक नहीं माना जायेगा. इसमें विदेशी नागरिकों की पहचान करके उन्हें बाहर करने का निर्णय लिया गया। लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव और बांग्लादेश से इस तरह का कोई समझौता न होने के कारण वह काम हो नहीं पाया।

मौजूदा सरकार ने सोमवार को जो राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जारी किया है, उसमें 40 लाख से ऊपर लोगों के नाम नहीं हैं. उनके परिवारों को जोड़ा जाए तो यह संख्या एक करोड़ से ज्यादा होगी. ऐसा बताया जा रहा है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से बाहर किये गए 40 लाख लोगों में से ज्यादातर भारतीय नागरिक हैं. इनमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं. एक राज्य में इतनी बड़ी संख्या में लोगों को असुरक्षा की स्थिति में डाल देना बताता है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करने में कर्तव्य का सही तरह से निर्वाह नहीं किया गया है. ऐसा लगता है कि सरकार को समस्या के समुचित समाधान के बजाय चुनावी फायदे के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जारी करने की जल्दी थी. इस आवश्यक कार्य को गैर-राजनीतिक तरीके से किया जाना चाहिए था. लेकिन भाजपा नेतृत्व ने वैसी परिपक्वता का प्रमाण नहीं दिया.

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के प्रकाशन को पराक्रम की तरह पेश कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल के भाजपा प्रभारी कैलाश विजयबर्गीय असम के बाद पस्श्चिम बंगाल पर धावा बोलने की शैली में बयान दे रहे हैं. अमित शाह ने पूरे मसले को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ने की बेजा बयानबाजी संसद में की है. भाजपा नेताओं की इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना बयानबाज़ी से इस मुद्दे पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा दिया गया शुरूआती संतुलित बयान निरर्थक हो गया है. सत्तारूढ़ पार्टी और उसके अध्यक्ष को समझना चाहिए कि  राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के नाम पर पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की उनकी मंशा से है. दरअसल, देश की इस पुरानी और जटिल समस्या पर भाजपा की निगाह लंबे समय से थी. केंद्र और राज्य में सत्ता में बैठने के बाद उसने रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया और जनगणना आयुक्त के कार्यालय का इस्तेमाल कर उसे ऐसा रूप दिया है कि उस पर लंबे समय तक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति की जा सके. साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के रास्ते पर भाजपा का तात्कालिक लक्ष्य 2019 के लोकसभा चुनाव हैं. हिंदी क्षेत्र में विपक्षी दलों की एकजुटता से भाजपा मध्यावधि चुनाव हार चुकी है. उसकी भरपाई वह पूर्वोत्तर और पश्चिम बंगाल से करना चाहती है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होने वाले नागरिकों के पहचान के इस कार्यक्रम में न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए यह जरूर कहा है कि यह सूची अंतिम नहीं है बल्कि एक मसविदा है और इसके आधार पर कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। चुनाव आयोग ने भी कहा है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर लोगों के मतदाता अधिकार को बाधित नहीं करेगा. लेकिन इस संवेदनशील मुद्दे पर जो राजनीति की जा रही है उसे न्यायालय कैसे रोक सकता है? जबकि सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत भी राजनीतिक बयान देकर वहां हस्तक्षेप कर चुके हैं। यह सत्तारूढ़ पार्टी सहित सभी पार्टियों के नेतृत्व की जिम्मेदारी है. सोशलिस्ट पार्टी देश के राजनैतिक नेतृत्व से अपील करती है कि इस संवेदनशील मुद्दे पर वोट की राजनीति करने के बजाय मिल कर सुनिश्चित करें कि एक भी भारतीय नागरिक राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से बाहर नहीं रहे. चाहे वह किसी भी प्रदेश का रहने वाला हो. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करते वक्त यह जिम्मा स्वयं नागरिकों का था कि वे साबित करें कि भारत के नागरिक हैं, जबकि संयुक्त राष्ट्र यह जिम्मेदारी राज्य पर भी डालता है। दूसरे, अवैध रूप से रहने वाले बंग्लादेशी नागरिकों, चाहे वे हिंदू हैं या मुस्लमान, पर भारतीय नागरिकता कानून और संयुक्त राष्ट्र (यूएनओ) के प्रावधानों की रोशनी में कार्रवाई करें.

सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि भारत को पूरा हक है कि वह अवैध तरीके से घुस आए लोगों की पहचान करे. अगर संभव है तो उन्हें उनके देश वापस भेजे, अगर नहीं संभव है तो उन्हें परमिट देने या नागरिकता देने पर विचार करे। इस बारे में नागरिकता संशोधन विधेयक 2014 में गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने की व्यवस्था तो है, लेकिन मुस्लिमों के लिए नहीं है। भारत संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है. संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य 2024 तक दुनिया से नागरिकों की राज्यविहीनता समाप्त करना है। अगर इतनी बड़ी संख्या में लोगों को राज्यविहीन किया जाएगा तो इससे एक अंतरराष्ट्रीय समस्या पैदा होगी। 'विश्वगुरु' और 'वसुधैव कुटुंबकम' का दावा करने वाले भारत को इस समस्या पर सांप्रदायिक नजरिए से नहीं, संवेदनशील मानवीय नज़रिए से विचार करना चाहिए। इसमें सभी दलों की राय लेनी चाहिए, सुप्रीम कोर्ट को संविधान और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुरूप निर्णय देना  चाहिए।  

 डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष, सोशलिस्ट पार्टी(इंडिया)

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

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