Sunday, June 19, 2022

संविदा-सैनिक योजना: सुधारों की स्वाभाविक परिणति!- प्रेम सिंह


 


यह सही है कि अग्निपथ भर्ती योजना संविदा-सैनिक योजना है. यानि 17 से 21 साल की उम्र के युवाओं को चार साल के लिए ठेके पर सेना में भर्ती किया जाएगा. अभी तक सैनिकों को मिलने वाली सुविधाएं और सामाजिक सुरक्षा के वे हकदार नहीं होंगे. (योजना का बड़े पैमाने पर, और काफी जगह हिंसक विरोध के होने के बाद जिन रियायतों की बात की जा रही है, वह सरकार का उत्तर-विचार (आफ्टर थॉट) है. उसका यह उत्तर-विचार कितना टिकेगा, कहा नहीं जा सकता.) ठेके की नियुक्ति किस तरह की होती है, देश को इसका पिछले 20-25 साल का लम्बा अनुभव हो चुका है. इस बीच सभी दलों की सरकारें सत्ता में रह चुकी हैं. लिहाज़ा, उस ब्यौरे में जाने की जरूरत नहीं है. जरूरत यह देखने की है कि जब शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई सहित हर क्षेत्र में संविदा-भर्ती पर लोग काम कर रहे हैं, तो सेना की बारी भी एक दिन आनी ही थी.

 

अग्निपथ भर्ती योजना का आकांक्षियों द्वारा विरोध समझ में आने वाली बात है. लेकिन विपक्षी नेताओं, बुद्धिजीवियों और नागरिक समाज एक्टिविस्टों के विरोध का क्या आधार है? नियुक्तियों में ठेका-प्रथा नवउदारवादी सुधारों की देन है और हर जगह व्याप्त देखी जा सकती है. (दो दिन पहले एक पत्रकार मित्र ने मुझे संविदा-शिक्षण पर एक आलेख लिखने का जिम्मा सौंपा. प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कालेजों तक संविदा-शिक्षण की व्याप्ति का उल्लेख करते हुए मैंने जल्दी ही उन्हें आलेख भेज दिया. शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ा होने के चलते मुझे आलेख तैयार करने में जरा भी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा. संविदा-शिक्षण संबंधी समस्त ब्यौरा हाथ पर रखे आंवले की तरह उपलब्ध था.)

 

क्या सेना में संविदा-भर्ती का विरोध करने वाले ये लोग नवउदारवादी सुधारों के विरोधी रहे हैं? अगर हां, तो पूरे देश में इतने बड़े पैमाने पर स्थायी नियुक्तियों की जगह संविदा नियुक्तियों ने कैसे ले ली? अगर यह मान लिया जाए कि उन्हें अंदेशा नहीं था कि मामला सेनाओं में संविदा-नियुक्तियों तक पहुंच जाएगा, तो क्या अब वे इस संविधान-विरोधी प्रथा का मुकम्मल विरोध करेंगे? यानि सुधारों के नाम पर जारी नवउदारवादी अथवा निगम पूंजीवादी सरकारी नीतियों का विरोध करेंगे? अगर वे पिछले तीन दशकों से देश में जारी इस नव-साम्राज्यवादी हमले को नहीं रोकते हैं, तो उसकी चपेट से सेना को नहीं बचाया जा  सकता. फिर वे किस आधार पर योजना के खिलाफ आंदोलनरत युवाओं को 'फर्जी राष्ट्रवादियों' से सावधान रहने की नसीहत दे रहे हैं?         

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके पितृ-संगठन और 'नवरत्नों' के सेना के बारे विचित्र विचार सबके सामने रहते हैं - व्यापारी सैनिकों से ज्यादा खतरा उठाते हैं, भारत की सेना के पहले ही आरएसएस की सेना शत्रु के खिलाफ मोर्चे पर पहुंच जाएगी और फतह हासिल कर लेगी, शत्रु की घातों को नाकाम करने के लिए बंकरों को गाय के गोबर से लीपना चाहिए, सैनिकों को प्रशिक्षण और अभ्यास की जगह वीरता बनाए रखने के लिए गीता-रामायण का नियमित पाठ करना चाहिए, शत्रु को मुंह-तोड़ जवाब देने के लिए इतने इंच का सीना होना चाहिए, इतने सिरों का बदला लेने के लिए शत्रु के इतने सिर लेकर आने चाहिए, आरएसएस/भाजपा राज में भारत फिर से महान और महाशक्ति बन चुका है, अब 'अखंड भारत' का सपना साकार करने से कोई नहीं रोक सकता ... और न जाने क्या-क्या! ऐसे निज़ाम से सेना, वीरता और युद्ध के बारे में किसी गंभीर विमर्श या पहल की आशा करना बेकार है.

 

लेकिन सेना के वरिष्ठतम अधिकारियों के बारे में क्या कहा जाए? यह सही है कि लोकतंत्र में सेना नागरिक सरकार के मातहत काम करती है. इस संवैधानिक कर्तव्य को बनाए रखने में ही सेना का गौरव है. हालांकि, महत्वपूर्ण और नाजुक मुद्दों पर कम से कम अवकाश-प्राप्त सैन्य अधिकारियों को समय-समय पर अपने विवेक से राष्ट्र को निर्देशित करना चाहिए. सरकार ने अग्निपथ भर्ती योजना की पैरवी के लिए बड़े सैन्य अधिकारियों को आगे किया है. निश्चित ही इस रणनीति का भावनात्मक वजन है. तीनों सेनाओं के प्रमुखों ने समस्त विरोध के बावजूद अग्निपथ भर्ती योजना की शुरुआत की घोषणा कर दी है. यह भी स्पष्ट कह दिया है कि योजना के विरोध के दौरान हिंसक गतिविधियों में शामिल युवाओं को अग्निवीर बनने का अवसर नहीं दिया जाएगा. उन्होंने इसे सैन्य अधिकारियों द्वारा सुविचारित योजना बताते हुए सेना में युवा जोश शामिल करने का तर्क दिया है. बेहतर होता उनके मुताबिक इस सुविचारित योजना के बन जाने के बाद उस पर थोड़ा पब्लिक डोमेन में भी विचार हो जाता. तब शायद योजना के हिंसक प्रतिरोध की नौबत नहीं आती.

 

सवाल उठता है कि अगर सेना में युवा जोश इतना ही जरूरी है कि उसके लिए हर चार साल बाद नया खून चाहिए, जैसा कि तीनों सेना प्रमुख एवं कुछ अन्य वरिष्ठ सैन्य अधिकारी कह रहे हैं, तो सेना की अफसरशाही में भी यह जोश दाखिल करना चाहिए. सेना के बड़े अफसरों को सब कुछ उपलब्ध है. वे स्वैच्छिक अवकाश लें और नए अफसरों को अपनी जगह लेने दें. नए अफसरों ने उनकी योग्य कमान में हर जरूरी जिम्मेदारी सम्हालने का प्रशिक्षण और कौशल हासिल किया ही होगा. वैसे भी वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के लिए सरकारों में कई महत्वपूर्ण पद इंतजार कर रहे होते हैं. निगम-भारत में कारपोरेट घराने भी उनका बढ़िया ठिकाना हो सकते हैं.

 

सैन्य अधिकारियों के साथ न्याय करते हुए यह माना जा सकता है कि इस योजना पर आग्रह बना कर वे केवल चुनी हुई सरकार के आदेश का पालन नहीं कर रहे हैं. योजना को उनका अपना भी सोचा-समझा समर्थन है. जिस तरह से देश का राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व नवउदारवाद का समर्थक है, उसका प्रभाव सैन्य नेतृत्व पर भी पड़ना स्वाभाविक है. जिस तरह सिविल मामलों में पुरानी व्यवस्था के तहत अपनी ताकत हासिल करने वाले अधिकारीगणों को संविदा-भर्ती में खटने वाले युवा-अधेड़ों की पीड़ा नज़र नहीं आती, उसी तरह सैन्य अधिकारियों को भी लग सकता है कि सेना का काम बिना दीर्घावधि सेवा (और उसके साथ जुड़ी सुविधाओं के) वाले सैनिकों से चल सकता है. तीनों सेनाओं के लेफ्टिनेंट जनरल अनिल पुरी, जो सैन्य मामलों के विभाग में अतिरिक्त सचिव हैं, ने गम्भीरात्पूर्वक बताया है कि उन्होंने अडानी, अम्बानी और कारपोरेट घरानों से अच्छी तरह बात कर ली है कि वे अग्निवीरों को अपने यहां नौकरी देंगे! यानि देश का युवा खून एक ऐसी सस्ती चीज़ है जिसे जो चाहे इस्तेमाल करके फेंक सकता है.     

 

अग्निपथ भर्ती योजना के खिलाफ आंदोलनरत युवाओं को क्या कहा जाए, कुछ समझ नहीं आता है. हमारी पीढ़ी के लोग उनके अपराधी हैं. यही कहा जा सकता है कि उनका आंदोलन सही है, हिंसा नहीं. कई युवा आन्दोलनकारियों ने किसान आंदोलन का हवाला दिया है. उनकी स्थिति ऐसी नहीं है कि वे एक और लम्बा आंदोलन खड़ा कर सकें. उन्हें समझना होगा कि किसान आंदोलन की फसल भी नवउदारवादी काट कर ले गए. किसान आंदोलन के दौरान जिन लोगों पर मुकद्दमे दायर हुए थे, उन्हें अभी तक वापस नहीं लिया गया है. आपके अभी दूध के दांत हैं, और सरकार ने आपके सामने सेना को खड़ा कर दिया है, जिसका आदेश है कि प्रत्येक आकांक्षी को लिख कर देना होगा कि वे हिंसक प्रतिरोध में शामिल नहीं थे. आप में जिनके खिलाफ मामले दर्ज हो चुके हैं, वे अपने कैरियर की फ़िक्र करें. जो आपको 'अपने बच्चे' बताते हैं या जो अग्निपथ योजना का विरोध और आपका समर्थन करने वाले हैं, आपके भविष्य के साथी बनेंगे, ऐसा नहीं लगता है. आपके सामने पूरा भविष्य पड़ा है.

 

(समाजवादी आन्दोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं)

Tuesday, May 31, 2022

क्या बह जाएंगे भारतीय संविधान और राष्ट्र?-प्रेम सिंह


करीब पिछले तीन-चार दशकों से भारत सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना हुआ था। इस दौरान संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता का मूल्य राजनीतिक सत्ता के गलियारों में इधर से उधर ठोकरें खाने के लिए अभिशप्त हो चुका था। 20वीं सदी के अस्सी और नब्बे के दशक में पूरे आसार बन चुके थे कि समाज किसी भी नाजुक मोड़ पर सांप्रदायिकता की बाढ़ में बह सकता है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में वह मोड़ आया, और देखते-देखते समाज सांप्रदायिकता की तेज बाढ़ में बहने लगा।

 

समाज देर तक सांप्रदायिकता की बाढ़ में बहता है, तो राष्ट्र के तौर पर उसके सभी निर्धारक अंग – विधायिका, कार्यपालिका, न्याय-पालिका एवं विभिन्न संवैधानिक लोकतांत्रिक संस्थाएं - उसकी चपेट में आते हैं; इन सबको संचालित करने वाली राजनीति सांप्रदायिक दांव-पेच का अखाड़ा बन जाती है; ‘लोकतंत्र का चौथा खंभा’ अपनी धुरी से उखड़ जाता है; धर्म विद्रूप हो जाता है; दर्शन और कलाएं पनाह मांगती घूमती हैं; बौद्धिक विमर्श प्राय: स्वार्थी और कलही हो जाता है; और नागरिक जीवन घृणा, वैमनस्य, अविश्वास और भय से ग्रस्त हो जाता है। किसी भी समाज के स्वास्थ्य के लिए यह बेहद बुरी स्थिति है। इसलिए सांप्रदायिकता की बाढ़ को रोकने के उपाय किए ही जाने चाहिए।

 

काशी और मथुरा विवादों के मद्देनजर  सांप्रदायिक बाढ़ में और पानी छोड़ने की तैयारी हो चुकी है। संविधानविद और संविधानवादी ताहिर महमूद ने आशा जताई है कि प्रमुख पूजा-स्थलों पर मुसलमान अपना दावा छोड़ कर समाज में शांति बहाली की दिशा में भूमिका निभाएं। (‘वी दि पीपुल’, इंडियन एक्सप्रेस, 28 मई 2022) महबूबा मुफ्ती ने एक सुझाव रखा  है : “अगर मस्जिदों को लेने से समस्याएं हल होती हैं, तो उन्हें लेने दो।“ (इंडियन एक्सप्रेस, 12 मई 2022) लेकिन मामला उतना सीधा नहीं बचा है। आरएसएस/भाजपा नेताओं के जो बयान आए हैं, उससे स्पष्ट है कि “यह बाबरी-मस्जिद राममंदिर विवाद को दोहराने की साजिश” नहीं, खुला ऐलान है।

 

आरएसएस प्रमुख घोषणा कर चुके हैं कि भारत ‘हिंदू-राष्ट्र’ बन चुका है। उनका विश्वास है अगले 15-20 साल में अखंड भारत भी स्थापित हो जाएगा। अखंड भारत की बात फिलहाल जाने दें, ‘हिंदू-राष्ट्र’ के अपने घोषित तकाजे हैं। इसके तहत हजारों साल पहले की ‘सच्चाईयों’ को सामने लाना है, और ‘गलतियों’ को ठीक करना है। यह सूची बहुत लंबी है – मस्जिदों के साथ ऐतिहासिक इमारतों पर हिंदू-दावा करना, शहरों-कस्बों-गांवों-सड़कों-उद्यानों-स्टेशनों आदि के मुस्लिम नामों को बदलना, सभ्यता-संस्कृति-कला-साहित्य-भाषा-लिपि आदि के स्तर पर हुए आदान-प्रदान का शुद्धिकरण करना, सनातन धर्म के नाम पर हिंदू धर्म की विविध धाराओं को नकार कर एकरूपता कायम करना, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों को उस एकरूप हिंदू धर्म में समायोजित करने के प्रयास तेज करना, सामान्य नागरिक संहिता के नाम पर मुसलमानों को लक्ष्य करके कानून बनाना, आजादी की लड़ाई का विरोध और अंग्रेजों का समर्थन करने वाले अपने पुरोधा-पुरुषों को ‘हिंदू-राष्ट्र’ के पक्ष में दूरदृष्टि वाला बता कर उनका महिमा-मंडन करना, उपयुक्त मौका आने पर गांधी, अंबेडकर जैसे नेताओं के बोझ को उतार फेंकना ... यह सूची काफी लंबी है। और अंतत: संविधान को पूरी तरह बदल देना। ऐसा नहीं है कि आरएसएस यह सब करने में कामयाब हो जाएगा। यह सब राजनीतिक-सत्ता और धन-सत्ता के मद में की गई फू-फां है। लेकिन इस सब के चलते भारत का भविष्य लंबे समय तक अनेक सांप्रदायिक विवादों से भरा रहेगा।

 

विवादों को खुले अथवा छिपे रूप में हवा देने वाले विद्वानों की भी कमी नहीं रहेगी। हाल में समाजशास्त्री बदरी नारायण ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वस्तुत: सांप्रदायिक विद्वेष, गलत बयानी और वंचना की पूंजी को जनता के विश्वास की पूंजी घोषित किया है। (‘दि ट्रस्ट वोट’, इंडियन एक्सप्रेस 25 मई 2022) इतिहास के विद्वान एम राजीवलोचन ने यह ठीक कहा है कि मुसलमानों द्वारा हिंदू धर्म-स्थलों के ध्वंस की सच्चाई सामने आने पर कुछ लोग हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्म-स्थलों के विध्वंस के हवाले देने लगते हैं। (‘वायलेंस ऑफ मोनोथीज़्म’, इंडियन एक्सप्रेस, 28 मई 2022) लेकिन वे यह नहीं कहते कि अतीत की इस तरह की घटनाओं की जानकारी के बावजूद स्वतंत्र भारत को उसके नेताओं ने धर्मनिरपेक्ष रखने का फैसला किया था; और अतीत के झगड़ों को छोड़ कर भारत की गरिमा को नए विश्व में नए मूल्यों के आधार पर स्थापित करने का आह्वान किया था। बल्कि वे बताने लगते हैं कि हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्म-स्थलों के विध्वंस की केवल छिट-पुट घटनाओं के ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं। जबकि मुसलमान आक्रांताओं ने 11वीं सदी से 17वीं सदी तक हिंदुओं के नरसंहार, धर्म-स्थलों के ध्वंस और मूर्तियों की बेअदबी का सिलसिला बनाए रखा, जब तक कि मराठों ने उन्हें रोक नहीं दिया।

 

साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मुझे आश्चर्य है कि 700 सालों के उस भयानक दौर में अखिल भारतीय स्तर पर इतना विविध और समृद्ध भक्ति-आंदोलन और उससे प्रसूत साहित्य कैसे संभव हो गया! भक्ति-साहित्य का आधार लेकर नाट्य, अभिनय, सज्जा, गायन, वादन आदि से भरपूर रामलीलाएं, रासलीलाएं, यक्षगान, बाउलगान आदि अनेक लोक कलाएं और कई शास्त्रीय कलाएं कैसे अनवरत फलती-फूलती रहीं! भक्ति-आंदोलन को दार्शनिक आधार प्रदान करने वाला वल्लभाचार्य (शुद्धाद्वैतवाद), रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैतवाद), मध्वाचार्य (द्वैतवाद) निंबार्क आचार्य (द्वैताद्वैत) का दर्शन कैसे फलीभूत और प्रचलित हो गया! यह उल्लेख मैंने इसलिए किया है कि लेखक यह कहता है कि भारत में अद्वैतवादी अथवा एकत्ववादी ब्रह्म-चिंतन की मजबूत धारा नहीं रही है। जबकि उपर्युक्त चारों दार्शनिकों का दर्शन अद्वैत एवं द्वैत की परस्पर रगड़ से पैदा होता है। भक्तिकाल के सभी निर्गुणवादी और प्रेमाख्यानवादी (सूफी) कवि एकत्ववाद को मानने वाले हैं। तुलसीदास सगुणवादी हैं, लेकिन उन्होंने सगुण-निर्गुण में भेद नहीं मानने की सलाह दी है। यहां उल्लिखित दार्शनिकों के अलावा 8वीं सदी में शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत का दर्शन विख्यात है, जिसकी परंपरा रामकृष्ण परमहंस और उनके आगे विवेकानंद में मिलती है। विद्वान यह भी मानते हैं कि इस्लाम की एकेश्वरवाद की अवधारणा उपनिषदों और बाद के भारतीय अद्वैतवादी दर्शन की देन है।  

 

लेख से यह ध्वनि भी निकलती है कि आरएसएस/भाजपा भारत में बहुदेववाद को प्रश्रय देने वाले हैं। जबकि आरएसएस/भाजपा का न बहुदेववाद से कोई गंभीर रिश्ता है, न एकत्ववाद से। लेखक ने एकत्ववाद-बहुदेववाद का प्रश्न उठाने के बावजूद यह समझा ही नहीं है कि दर्शन और भक्ति की दुनिया में कुंठित एवं पराजित मानसिकता के लोग प्रवेश नहीं कर सकते। लेखक मध्यकाल से इक्कीसवीं सदी तक चला आया है, और इस्लामी आतंकवादियों/तालीबान के हवाले से इस्लाम की मूलभूत कट्टरता का प्रतिपादन करता है। यह सही है कि कई विद्वान इस्लाम के बारे में यह मान्यता रखते हैं। यह भी सही है कि भारत में कुछ ऐसे कट्टर मुस्लिम हैं, जो दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णुता और हीनता का नजरिया रखते हैं। यह भी सही है कि भारत से, भले ही नगण्य संख्या में, मुस्लिम युवक दूसरे देशों में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा खिलाफत कायम करने के जिहाद में शामिल हुए हैं। यह भी सही है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की मांग करने वाले बहुत से मुसलमान इस्लामी देशों के धर्माधारित राज्यों को स्वाभाविक और सही मानते हैं।

 

लेकिन क्या यह संख्या उन कट्टर हिंदुओं से अधिक है, जिन्होंने देश की राजधानी में हजारों सिखों का कत्ल कर डाला था? जिन्होंने गुजरात में मुसलमानों के राज्य-प्रायोजित नरसंहार और बच्चियों-महिलाओं के बलात्कार में गर्व-पूर्वक हिस्सा लिया था? जो राम-मंदिर आंदोलन के समय से लेकर आज दिन तक मुसलमानों को अपशब्द कहने, भीड़-हत्या करने से नहीं हिचकते, उन्हें गोली मारने, उनके खिलाफ हथियार उठाने, मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार करने का आह्वान करते हैं? जिन्होंने ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जिंदा जल दिया था, जो जब-तब गिरजाघरों में जाकर तोड़-फोड़ मचा देते हैं। अगर हिंदू समाज के बारे में यह सही है कि वह बड़े पैमाने पर कट्टरपंथी नहीं हो सकता, तो भारत के मुस्लिम समाज के बारे में भी यह सही है।

 

दरअसल, स्वतंत्रता आंदोलन और संविधान के मूल्यों के परे जाकर भारत का एक “साभ्यतिक राज्य” के रूप में बखान करने वाले विद्वानों के भाषणों (‘आइडिया ऑफ इंडिया : बिफोर एण्ड बिऑन्ड’ शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित, इंडियन एक्सप्रेस, 24 मई 2022) की अकादमिक परीक्षा करने से पहले, उनकी मानसिकता को समझने की जरूरत है। ये लोग सांप्रदायिक मानसिकता में लिथड़ी किसी घटना पर मुंह नहीं खोलते। लेकिन अपने को परिवार और समाज में सभ्य दिखाने की कोशिश में महान सभ्यता का वाहक होने का भ्रम पालते हैं। यह सर्वविदित है कि परंपरागत भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर देश-विदेश के विद्वानों द्वारा आलोचनात्मक सराहना के साथ काफी महत्वपूर्ण काम हुआ है। इन लोगों को अपनी कुंठा से मुक्त होकर वह काम देखना चाहिए, और भाषणबाजी की जगह शोध की वैश्विक स्तर पर निर्धारित पद्धति का निर्वाह करते हुए भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर अपना काम करना चाहिए।

 

डॉ. लोहिया की चेतावनी थी कि हिंदू धर्म की कट्टरवादी धारा के वाहक अगर जीत जाएंगे तो भारतीय राष्ट्र के टुकड़े कर देंगे। आज की सांप्रदायिक ताकतों ने भारतीय राष्ट्र को अंदर से काफी हद तक तोड़ दिया है। वह बाहर से नहीं टूटे, और अंदर की टूट जल्द से जल्द से दूर हो, ऐसा प्रयास सभी को करना चाहिए। यह कैसे होगा इस सवाल का बना-बनाया उत्तर शायद ही किसी के पास हो। अलबत्ता, जो भी यह काम करेंगे उनका कट्टरता की कैद से मुक्त होना जरूरी है।

 

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय अध्ययन संस्थान के पूर्व फ़ेलो हैं   

Tuesday, April 26, 2022

Bring back the mortal remains of Bahadur Shah Zafar- Prem Singh

  


(The following Memorandum had been submitted to the then President of India Shri Pranab Mukherjee Ji in May 2013, and again to the present President Shri Ramnath Kovind JI in May 2017 by the Socialist Party (India). Simultaneously, the Memorandum was also placed in the public domain for a wider discussion on the issue through press releases, seminars and through a march, namely kooch-e-azadi, from Mandi House to Jantar Mantar being organised by SPI on every 11 May started from 2013. The revolt of 1857 broke-out on 10 May in Meerut. The fighters of the revolt reached Delhi on 11 May 1857, and fought First War of Independence (FWI) under the supreme command of Bahadur Shah Zafar.  

 

This year's 10 May, which is approaching shortly, will be the 165th anniversary of the revolt. The country is also celebrating Azadi Ka Amrit Mahotsav i.e., 75 years of India's independence. To mark the occasions, the Memorandum is released again with a hope that the demand made therein will be addressed without further delay and will inspire a discussion on the issue among the citizens of India. If, in case, citizens think that the demand is not right or not relevant, they should come forward with their arguments.    

 

The flag saluting song of the fighters of 1857 is also placed for reading and contemplation at the end of the Memorandum. It is believed that the song was composed by krantidoot Azimullah Khan.)      

 

Date: 4 May 2013 

Memorandum

 

His Excellency

Shri Pranab Mukherjee

President of India

 

Sub: Request to bring back the mortal remains of Bahadur Shah Zafar.

 

Most Respected Sir

 

The Socialist Party would like to request you to direct the Indian government to bring back the mortal remains of Bahadur Shah Zafar from Rangoon (presently Yangon), Myanmar, to Delhi. The Socialist Party takes inspiration from the thoughts of Dr. Rammanohar Lohia. Dr. Lohia had suggested that in case a leader passes away in a foreign country, her/his last rites should be performed there itself. The Socialist Party accepts this view of Dr. Lohia that would lead to strengthen the bonds of world brotherhood. But the case of Zafar was altogether different. He was arrested by the imperialist rulers, tried and brought to Rangoon in captivity in 1857. He passed away there on 7 November 1862, at the age of 87, longing for two yards of mother land for his burial. Zafar, a poet of his own style, expressed his pains of exile in his famous couplet: ‘kitnaa hai badnaseeb Zafar dafn ke liye, do gaz zamin bhi na mili kuu-e-yaar mein’.

As you know, it is a long pending demand made by several citizens of India time to time. The first such request was made by the Bahadur Shah Zafar Memorial Society in 1949. However, the government has not conceded the demand though it knows very well that Zafar had expressed the desire to be buried in India after his death.

One can understand that the colonial rulers kept Zafar, the symbol of revolt and Hindu-Muslim unity, in captivity and then buried him in exile as a non-entity. But it remains unexplained why the rulers of free India are not ready, even symbolically, to undo the insult and injustice meted out to Zafar by at least bringing back his remains to India and put him to rest at the place of his choice – Dargah Qutbuddin Bakhtiyar Kaki at Mehrauli, where an empty grave awaits his remains.        

Sir, the demand to bring back the remains of Bahadur Shah Zafar to India is not merely an emotional issue for the Socialist Party. Zafar was the leader of our First War of Independence against the colonial powers and a symbol of Hindu-Muslim unity. Therefore, it should be the duty of the Indian government to bring back his remains. Further, a grand memorial should be constructed in the memory of the martyrs of 1857 for the benefit of present and future generations. 

We would like to draw your kind attention towards the tribute paid to Zafar by Netaji Subhash Chandra Bose, addressing a ceremonial parade of INA at his tomb at Yangon. Netaji ended his speech quoting famous couplet of Zafar: ‘Ghazion mein bu rahegi jab talak iman ki/ Takht-e-London tak chalegi tegh Hindostan ki!’ (As long as there is faith in the heart of the freedom fighters/ The sword of India will pierce through the throne of London). Netaji declared on that occasion, ‘‘This parade is the first occasion when India’s new revolutionary army is paying homage to the spirit of the supreme commander of India’s first revolutionary army.’’

Sir, we make a sincere appeal to you to kindly take personal interest in this matter of great importance and convince the government to concede to the demand at the earliest.

 

With best regards

 

Dr. Prem Singh

General Secretary/Spokesperson

 

9 May 2017

 

 

 

Most Respected, His Excellency Shri Ram Nath Kovind Ji

         

I would like to re-submit the attached Memorandum, sent earlier to Shri Pranab Mukherjee Ji in 2013, with great hope that you will kindly give a serious thought to our request.

 

 

With utmost regards

 

 

 

Yours faithfully

 

Dr. Prem Singh

President

Socialist Party (India) 

क्रांतिकारियों का गीत

 

हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा,

पाक वतन है कौम का ज़न्नत से भी प्यारा

यह हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा,

इसकी रूहानियत से रौशन है जग सारा।

कितना कदीम कितना नईम सब दुनिया से न्यारा,

करती है जरखेज जिसे गंगो-जमुन की धारा

ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा,

नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा

इसकी खानें उगल रहीं सोना हीरा पारा,

इसकी शान-शौकत का दुनिया में जयकारा

आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा,

लूटा दोनों हाथों से प्यारा वतन हमारा।

आज शहीदों ने है तुमको अह्लेवतन ललकारा,

तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा।

हिंदू-मुसलमां-सिख हमारा भाई-भाई प्यारा,

यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा।।

 

 


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Dr. Prem Singh
Dept. of Hindi
University of Delhi
Delhi - 110007 (INDIA)
Mob. : +918826275067

Friday, April 1, 2022

कांग्रेस: अंदर की कलह, बाहर की अपेक्षाएं-प्रेम सिंह

  



 (1)

 

फरवरी-मार्च में संपन्न हुए पांच विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के अति निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी में आतंरिक कलह तेज़ हुई है. दूसरी तरफ राजनीतिक पंडित, अन्य पार्टियों के नेता, राजनीतिक रूप से जागरूक नागरिक भविष्य की राजनीति के लिए कांग्रेस की भूमिका पर सवालिया निशान लगा रहे हैं. सवालिया निशान लगाने वालों में एक अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस से वाजिब अपेक्षाएं रखने वाले लोग भी शामिल हैं. ये दोनों मुद्दे - अंदरूनी तकरार और भविष्य की राजनीति में कांग्रेस की भूमिका - एक-दूसरे से जुड़े हैं. कांग्रेस के नेहरू-युग के बाद के इतिहास को देखते हुए यह लगता नहीं कि पार्टी गांधी परिवार को छोड़ कर अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करेगी. इन चुनाव परिणामों के बाद भी अगर कांग्रेस परिवार-मुक्त नहीं होती है, तो नरेंद्र मोदी कांग्रेस-मुक्त भारत के अपने 'मिशन' को और तेज़ करेंगे. कांग्रेस के विशाल अस्थि-पंजर में जो बचा-खुचा मांस है, उसे नोचने के लिए आम आदमी पार्टी की होड़ और तेज़ होगी. बल्कि पंजाब में मिली भारी जीत के बाद हो गई है. जो गैर-एनडीए नेता 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में क्षेत्रीय पार्टियों का गठबंधन चाहते थे, उनकी स्थिति कमजोर होगी.          

 

भारत जैसे विशाल और जटिल बनावट वाले देश की राजनीति में फिर से पहला स्थान बनाने के लिए जिस नेतृत्व क्षमता और सांगठनिक मजबूती की जरूरत है, आज की कांग्रेस में उसका स्पष्ट अभाव दिखता है. कांग्रेसी नेता आज भी पुरानी खामखयाली में रहते प्रतीत होते हैं कि परिवार और पार्टी का देश पर राज करने का जन्मसिद्ध अधिकार है; कि सत्ता घूम-फिर कर कांग्रेस के पास ही आएगी. वफ़ादारी का आलम यह है कि रणदीप सुरजेवाला जैसे लोग कांग्रेस के चीफ प्रवक्ता हैं, जो अपने संबोधन में भाजपा को हमेशा 'भाजप्पा' कहते हैं! 2014 और 2019 की कड़ी पराजय के बाद भी कांग्रेसी नेता और कार्यकर्त्ता पार्टी संगठन के लिए निरंतर कड़ी मेहनत करने को तैयार नहीं हैं. वहां, वरिष्ठ हों या जवान, प्राथमिक होड़ परिवार के प्रति वफ़ादारी को लेकर है. इस होड़ में कोई भी दूसरी पंक्ति में रहने को तैयार नहीं है. पार्टी छोड़ने वाले और अब ज्ञान बांटने वाले अश्वनी कुमार जैसे नेता भी परिवार के प्रति वफ़ादारी का प्रसाद पाते रहे हैं. 5 विधानसभा चुनाव परिणामों के तुरंत बाद हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक से परिवार के प्रति वाफदारी का सत्य एक बार फिर स्पष्ट हो गया है.   

 

कांग्रेस हाई कमान और उसके वफादार अलग-अलग अवसरों पर कुछ फौरी किस्म की गतिविधियां करके चमत्कारों की उम्मीद में जीते हैं. अगर 5 विधानसभा चुनावों के परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आ जाते, तो सारा श्रेय हाई कमान को दिया जाता और मौजूदा वफादार असंतुष्टों पर धावा बोल देते. ग्रुप 23 के असंतुष्ट कहे जाने वाले नेता भी 'सोनिया लोयलिस्ट' ही हैं. सत्ता के अभाव में वे केवल शिकायत करना जानते हैं. ज़मीन पर और लगातार काम करने की न उनकी ट्रेनिंग है, न इच्छा. लिहाज़ा, कांग्रेस का लगातार बिखराव जारी है. कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के बल पर राजनीति करने वाली दो धुर दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों - भाजपा और आम आदमी पार्टी (आप) - के विस्तार के पीछे कांग्रेस का बिखराव एक प्रमुख कारण है.  यहां ध्यान दिया जा सकता है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उसकी उपज आप के गठन के बाद से अभी तक क्षेत्रीय पार्टियों में आप की बड़ी घुसपैठ नहीं हो पाई है.    

 

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1991 में नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत होने और 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस होने के बाद से कापोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ उत्तरोत्तर भारतीय राजनीति के आधार के रूप में जड़ जमाता गया है. उसके मुकाबले में नई अथवा वैकल्पिक राजनीति देश में पर्याप्त ताकत नहीं हासिल कर पाई. दो समाजवादी नेताओं - मुख्यधारा राजनीति के बाहर किशन पटनायक और मुख्यधारा राजनीति के भीतर चंद्रशेखर - ने कापोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ की राजनीति के बरक्स संविधान और समाजवाद के मूल्यों पर आधारित वैकल्पिक राजनीति खड़ी करने के प्रयास किए थे. वैकल्पिक राजनीति के प्रयासों की वह धारा देर तक सक्रिय, यहां तक कि प्रभावी बनी रही थी. कापोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ की राजनीति के घोड़े पर सवार 2004 में 'शाइनिंग इंडिया' का नारा बुलंद करके चुनावों में उतरी वाजपेयी सरकार की पराजय के पीछे वैकल्पिक राजनीति की धारा की गतिमानता प्रमुख कारण था.

 

लेकिन 'सोनिया के सेकुलर सिपाहियों' ने नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ जनता के उस फैसले को सोनिया गांधी का चमत्कार घोषित कर दिया. मनमोहन सिंह, राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य के लिए निरापद होने के नाते, पार्टी के भीतर प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गांधी की पसंद भी रहे हों, उनके चयन के पीछे विश्व बैंक जैसी वैश्विक संस्थाओं का हाथ भी था. अपने 6 साल के कार्यकाल में कारपोरेट पूंजीवाद के पथ पर जैसे वाजपेयी ने नई आर्थिक नीतियों के पुरोधा मनमोहन सिंह को निराश नहीं किया था, उसी तरह मनमोहन सिंह ने भी देश की पोलिटिकल इकॉनमी को विश्व बैंक, आइएमएफ, डब्लूटीओ, डब्लूइएफ आदि की धुरी पर मजबूती से जमा कर वाजपेयी को निराश नहीं किया. इस बीच भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के चक्रव्यूह में फंस कर कारपोरेट पूंजीवाद के विरोध की वैकल्पिक राजनीति के एक बड़े हिस्से ने दम तोड़ दिया.  

 

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और तृणमूल कांग्रेस के अलग हो जाने के बावजूद 2014 के पहले तक कांग्रेस देश की पहले स्थान की पार्टी थी. भाजपा और आप कांग्रेस को कोसते हुए उसी के नेताओं/कार्यकर्ताओं/मतदाताओं को साथ मिला कर अपना संवर्धन कर रही हैं. पार्टी के भविष्य के प्रति निराश होकर कांग्रेस के कुछ नेता तृणमूल कांग्रेस में भी गए हैं. बची-खुची कांग्रेस परिवार के कब्जे में रहे, या पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र बहाल करके एक विकेन्द्रित एवं सामूहिक नेतृत्व विकासित करे, दोनों स्थितियों में 2024 के चुनाव में राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर करीब 200 सीटों पर कांग्रेस ही भाजपा के मुकाबले में होगी. यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है, जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. इनमें से अधिकांश सीटें फिलहाल भाजपा के पास हैं. इन सीटों पर कांग्रेस का मुकाबला तो तय है, लेकिन जीत इस बात पर निर्भर करेगी कि वह अपनी अंदरूनी कलह को किस रूप में निपटाती है.

 

जैसा कि ऊपर कहा गया है, कांग्रेस की अंदरूनी कलह का मसला पार्टी से बाहर के लोगों की अपेक्षाओं के साथ जुड़ा हुआ है. हाई कमान कांग्रेस पार्टी से की जाने वाली अपेक्षाओं को पहले स्थान पर रख कर विचार करेगा, तो पार्टी पर अपनी गिरफ्त कायम रखने की मंशा उसे छोड़नी होगी. कांग्रेस की मजबूती का एक रास्ता यह हो सकता है कि कांग्रेस से अलग हुईं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और तृणमूल कांग्रेस वापस कांग्रेस में आ जाएं. यह होगा तो कांग्रेस से भाजपा और आप में जाने वाले नेता-कार्यकर्त्ता भी वापस लौट सकते हैं. साथ ही आने वाले समय में कांग्रेस का बिखराव रुक सकता है. वैसी स्थिति में आगामी लोकसभा चुनावों में कांग्रेसनीत यूपीए भाजपानीत एनडीए को कड़ी टक्कर दे सकता है.     

 

(3)

कांग्रेस के नेता आरएसएस/भाजपा के बरक्स कांग्रेस की विचारधारा की बात करते हैं. लेकिन उनके दावे में दम नहीं होता. भाजपा के बरक्स बार-बार 'आईडिया ऑफ़ इंडिया' की बात करने वाले शशि थरूर जैसे कांग्रेसी नेता यह क्यों नहीं देख पाते कि कारपोरेट पूंजीवाद का प्लेटफार्म भाजपा को कांग्रेस ने ही उपलब्ध कराया है. कांग्रेस के जो लोग भाजपा के याराना पूंजीवाद की जगह सभी पूंजीपतियों के लिए खेल का समतल मैदान उपलब्ध कराने की वकालत करते हैं, क्या वे नहीं जानते कि भारतीय संविधान पूंजीवादी व्यवस्था लागू करने के लिए नहीं बना है. वह भारत के समस्त नागरिकों को अपने सर्वांगीण विकास का समतल मैदान उपलब्ध कराता है.

 

नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रीत्व में वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में जब नई आर्थिक नीतियां लागू की थीं, तब भाजपा के शीर्ष नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कांग्रेस ने भाजपा का कारज सिद्ध कर दिया है. साम्प्रदायिकता के मामले में भी आज की कांग्रेस संविधान के नहीं, भाजपा के साथ है. यानि वह आरएसएस/भाजपा की साम्प्रदायिकता की बड़ी लकीर के पीछे अपनी छोटी लकीर लेकर चलती है. राहुल गांधी बार-बार कह चुके हैं कि वे निजीकरण\विनिवेशीकरण के खिलाफ नहीं हैं. यूपीए के वित्तमंत्री रहे पी चिदंबरम भी बार-बार हिदायत देते हैं कि लोकलुभावन योजनाओं पर धन-राशि खर्च करने के बजाय आर्थिक सुधारों की गति को तेज़ करना चाहिए. एक बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में आर्थिक नीतियों के पक्ष में नेहरू को उद्धृत किया, तो चंद्रशेखर ने उन्हें टोकते हुए कहा कि पूंजीवाद के पक्ष में नेहरू को उद्धृत करना मुनासिब नहीं है. नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह ने अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए गुहार लगाई थी कि वे गांधी के सपनों का भारत बना रहे हैं. नरेंद्र मोदी का नया अथवा निगम भारत भी गांधी के सपनों का भारत बताया जाता है. ऐसे में आरएसएस/भाजपा से अलग कांग्रेस की विचारधारा की बात करना बेमानी हो जाता है.

 

कांग्रेस को विचारधारा के मसले पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. विचारधारात्मक रूप से अब वह भाजपा का विकल्प नहीं रही. बल्कि भाजपा 1991 में अवतरित कांग्रेस का विकल्प बन चुकी है. कांग्रेस एक मुकम्मल संगठन और मुकम्मल और सुस्पष्ट विचारधारा के बल पर भाजपा का विकल्प हो सकती है. मुकम्मल संगठन पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र स्थापित करके हासिल होगा, और मुकम्मल विचारधारा संविधान को ईमानदारी से आत्मसात करके हासिल होगी. नवउदारवाद के 30 साल के अनुभव के बाद भी अगर कांग्रेस यह मानती है कि वह संविधान को किनारे रख कर निजीकरण-विनिवेशीकरण की प्रक्रिया को जारी रखने के हक़ में है, तो यह बताए कि इस रास्ते पर वह भाजपा से कैसे अलग है? साथ ही यह भी बताए कि आरएसएस/भाजपा की उग्र साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए उसकी नरम साम्प्रदायिकता की लाइन कैसे उचित है? हिंदू धर्म के मामले को उस धर्म के लोगों को देखने देना चाहिए. किसी कांग्रेसी नेता का यह काम नहीं है कि वह बताए कि हिंदू धर्म क्या है?          

 

(4)

यह कोई छिपी सच्चाई नहीं है कि भाजपा और आप कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ का खुला खेल खेलती हैं. देश-विदेश में उनके समर्थकों की कमी नहीं है. देश के ज्यादातर प्रगतिशील और सेकुलर बुद्धिजीवी भाजपा पर धारासार प्रहार करते हैं, लेकिन आप के समर्थन में रहते हैं. बल्कि यह पार्टी भारत की जनता को उन्हीं की सप्रेम भेंट है. कांग्रेस छुप कर कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ का खेल खेलना चाहती है. देहात में कहावत है, 'कुल्हिया में भेली नहीं फोड़ी जा सकती'. या तो कांग्रेस भाजपा और आप की तरह खुल कर वह खेल खेले; या खेल का अपना मैदान और नियम तैयार करे. 'ग्रैंड ओल्ड पार्टी' के लिए यह मुश्किल काम नहीं होना चाहिए.

 

दरअसल, कांग्रेस में मंथन पार्टी नेतृत्व और संगठन के साथ-साथ विचारधारा के सवाल पर भी होना चाहिए. किसी भी राजनीतिक पार्टी में विचारधारा नेतृत्व से अहम होती है. जो लोग विचारधाराहीनता अथवा विचारधारा के अंत की बात करते हैं, उन्होंने दरअसल कारपोरेट पूंजीवाद की विचारधारा को ही एकमात्र विचारधारा मान लिया है. और वे उसी विचारधारा की तानाशाही चलाना चाहते हैं. भारत के सन्दर्भ में ऐसे लोग संविधान-विरोधी हैं. विचारधारा के सवाल पर मंथन देश के प्रगतिशील और सेकुलर बुद्धिजीवी भी करें, तो उससे कांग्रेस और अन्य पार्टियों को मदद मिल सकती है. तब देश की राजनीति पर कसा कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ का शिकंजा कुछ हद तक ढीला पड़ सकता है. लेकिन समस्या यह है कि कांग्रेस के समर्थक बुद्धिजीवियों तक को भाजपा और आप की 'तेजी' और 'ताज़गी' के सामने कांग्रेस की 'सुस्ती' और 'पुरानापन' बोझ लगते हैं.

 

अंतत: फैसला कांग्रेस को करना है. आशा की जानी चाहिए कि कांग्रेस पार्टी के अंदर की कलह को इस तरह निपटाएगी कि पार्टी के बाहर की अपेक्षाएं काफी हद तक पूरी हो सकें.

 

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक हैं)  

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

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