Saturday, June 13, 2020

संघर्ष और समाधान: गांधीवादी परिप्रेक्ष्य- प्रेम सिंह


(यह लेख डीएवी महिला कॉलेज, यमुना नगर, हरियाणा में 'संघर्ष और समाधान: गांधीवादी परिप्रेक्ष्य' (Conflict and Conflict Resolution : A Gandhian Perspective) विषय पर आयोजित संगोष्ठी में बीज भाषण (Key-note Address) के रूप में पढ़ा गया था. अमेरिका में अश्वेत युवक जॉर्ज फ्लोयड की पुलिस हिरासत में हुई मौत के विरोध में अमेरिका और यूरोप के कई देशों में रंगभेद-विरोधी प्रदर्शन हुए हैं. इस दौरान कुछ प्रदर्शनकारियों ने अमेरिका के वाशिंगटन शहर और इंग्लैंड के लंदन शहर में स्थापित गांधी की प्रतिमाओं को विरूपित किया है. इस घटना के मद्देनज़र यह लेख यथावत जारी किया है.)  

संघर्ष और समाधान: गांधीवादी परिप्रेक्ष्य
(Conflict and Conflict Resolution : A Gandhian Perspective)

‘‘मेरा दावा उस वैज्ञानिक से जरा भी अधिक नहीं है जो अपने प्रयोग अत्यंत शुद्ध ढंग सेपहले अच्छी तरह सोच-समझ कर और पूरी बारीकी से करता है फिर भी उससे प्राप्त निष्कर्षों को अंतिम नहीं मानता बल्कि उनके बारे में अपना दिमाग खुला रखता है। मैं गहरी आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया से गुजरा हूंमैंने प्रत्येक मनोवैज्ञानिक स्थिति को परखा और उसका विश्लेषण किया है। इसके बावजूद मैं अपने निष्कर्षों के अंतिम और अचूक होने के दावे से बहुत दूर हूं।’’ (‘आत्मकथाकी प्रस्तावना से)

‘‘इस किताब (हिंद स्वराज’) में आधुनिक सभ्यता’ की सख्त टीका की गई है। यह 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रगट की गई हैवह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तानआधुनिक सभ्यता’ का त्याग करेगातो उससे उसे लाभ ही होगा।’’ (1921 में यंग इंडिया’ में लिखी टिप्पणी से)

संघर्ष-समाधान (Conflict Resolution) अकादमिक अध्ययन के एक विषय के रूप में काफी अहमियत प्राप्त कर चुका है। विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और सामान्य तौर पर राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में यह विषय उपयोगी माना जाता है। कुछ विश्वविद्यालयों में इसके अलग से विभाग भी खुले हैं। शांति अध्ययनपर्यावरण अध्ययन,हाशिए की अस्मिताओं का अध्ययननागरिक एवं मानवाधिकार अध्ययनजनांदोलनों का अध्ययन आदि के पाठ्यक्रम संघर्ष-समाधान की जरूरत के मद्देनजर बनाए और चलाए जाते हैं। संघर्ष से मुक्ति पाने के लिए सामाजिकसांस्कृतिकधार्मिक एवं ध्यान व योग के स्तर पर भी काफी प्रयास देखने को मिलते हैं। बड़े नौकरशाहकंपनियों के सीईओनेताखिलाड़ीफिल्मी कलाकार और दिन-रात गला-काट प्रतिस्पर्धा में जीने वाला मध्यवर्ग/नागरिक समाज तरह-तरह के उपायों से संघर्ष के समाधान की तलाश में लगे रहते हैं।

संघर्ष-समाधान के अकादमिक अध्ययन में गांधी के विचारोंरास्ते और उनके द्वारा किए गए कार्यों को प्रमुखता से शामिल किया जाता है। संघर्ष-समाधान के अन्य रूपों में भी गांधी की स्वीकृति कुछ न कुछ रहती है। मसलनयूएनओ द्वारा 2 अक्तूबर को शांति दिवस घोषित करने से लेकर एक फिल्म के माध्यम से चर्चा में रही गांधीगीरी तक यह देखा जा सकता है। इस तरह के परिदृश्यमेंजाहिर हैयह सेमिनार विशेष महत्व रखता है। मैं आयोजकों को इस महत्वपूर्ण और प्रासंगिक विषय के लिए बधाई देता हूं। लेकिन साथ ही यह हिदायत भी कि संघर्ष-समाधान का गांधीवादी चिंतन और रास्ता विचार और व्यवहारदोनों स्तरों पर आसान नहीं है। हम आगे देखेंगे कि गांधी ने आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का एक मुकम्मल विकल्प प्रस्तुत किया था और जहां तक संभव हो पाया उसके अनुसार जीवन जीने का प्रयोग किया था। वे अपने को व्यावहारिक आदर्शवादी कहते थे। उनके लिए विचार अथवा अध्ययन की उपयोगिता व्यवहार की कसौटी पर ही मान्य होती थी।

मानव सभ्यता के हर दौर में संघर्ष विद्यमान रहा है। आमतौर पर संघर्ष को सत्ता-संघर्ष यानी राजनीतिक क्षेत्र का विषय माना जाता है। लेकिन वह सामाजिक,आर्थिकसांस्कृतिकधार्मिक आदि स्तरों पर भी विविध रूपों में हमेशा से सक्रिय रहा है। प्राकृतिक(Humanities) और समाजविज्ञान (Social Sciences) के विद्वानों में यह बहस का विषय है कि मानव सभ्यता के निर्माण और विकास में सहयोग मूलभूत है या संघर्ष। वह एक लंबी चर्चा हैजो यहां नहीं की जा सकती। अलबत्ता गांधी की मान्यता इस मामले में स्पष्ट है। वे यूरोपीय आधुनिकता के बरक्स मनुष्य की प्रकृति को अनिवार्य रूप से शांतिप्रिय और परस्पर सहयोगी मानते हैं। उनके मुताबिक मनुष्य मूलतः अच्छाई की प्रेरणा से परिचालित होता है। 

जहां तक आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का संबंध है,संघर्ष उसमें बद्धमूल है। विकासवादपूंजीवाद,मार्क्सवाद और मनोविश्लेषणवाद - आधुनिकता के चारों सिद्धांतों और उन पर आधारित विचारधारा/जीवनदर्शन के मूल में समाज और व्यक्ति की प्रगति के मूलभूत उत्प्रेरक कारक के रूप में संघर्ष अथवा द्वंद्व की स्वीकृति है। डार्विन के विकासवाद में ताकतवर और कमजोर का संघर्षपूंजीवाद में मनुष्य का मनुष्य के साथ और मनुष्य समाज का प्रकृति के साथ संघर्षमार्क्सवाद में वर्ग-संघर्ष यानी शोषित और शोषक का संघर्षऔर फ्रायड व जुंग आदि के मनोविश्लेषणवाद में मनुष्य के चेतन और अवचेतन का संघर्ष स्वीकृत है। जीवन और जगत केवैज्ञानिक सत्य’ संबंधी इन आधुनिक सिद्धांतों में आपस में मान्यताओं व वर्चस्व का संघर्ष भी चलता हैहालांकि इससे यह सच्चाई निरस्त नहीं होती कि इनकी पैदाइश एक ही कोख से हुई है। 

आधुनिक ज्ञान और विज्ञान संघर्ष को बद्धमूल मानने वाले इन चार सिद्धांतों से होकर गुजरता है। आधुनिकता की अवधारणा की निर्मिति में मूलभूत मानी जाने वाली बुद्धि और तर्क (reason) की प्रकृति का निर्धारण भी इसी से होता है। यानी बुद्धि और तर्क का संघर्षमूलकता के साथ नाभि-नाल संबंध है। आधुनिक प्रगति की अवधारणा और विकास का मॉडल इसी बुद्धि से तय होता है और बदले में उसे ही पोषित करता है। इस तरह आधुनिकता और उस पर आधारित आधुनिक सभ्यता का प्रचलित स्वरूप अपनी प्रकृति में ही संघर्षमूलक है। मनुष्य और मानव सभ्यता के विकास की उत्प्रेरक शक्ति के रूप में संघर्ष की यह मान्यता आधुनिक ज्ञान-मीमांसा में सार्वभौम और सही मानी जाती है। जो ऐसा नहीं मानते, उनके चिंतन को आधुनिकता के दायरे से बाहर रखा जाता है। 

इसी अर्थ में हमने कहा है कि आधुनिक औद्योगिक सभ्यता में संघर्ष बद्धमूल है। यह परिघटना राष्ट्रों के संघर्ष से लेकर समाजोंसभ्यताओंसंस्कृतियोंधर्मों,व्यक्तियों और अस्मिताओं के संघर्ष में स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के अभी तक के विभिन्न चरणों में विभिन्न स्तरों पर विभिन्न रूपों में होने वाले संघर्ष के समाधान के प्रयास राजनैतिक और बौद्धिक नेतृत्व द्वारा लगातार किए जाते हैं। ये प्रयास अलग-अलग राष्ट्रों की सरकारों व संस्थाओं और समय-समय पर बनने वाली वैश्विक संस्थाओंमसलनमौजूदा दौर में यूएनओविश्व बैंकआईएमएफडब्ल्यूटीओ आदिके जिम्मे होते हैं। नागरिक स्तर पर संघर्ष के समाधान के स्वयंसेवी (एनजीओ) किस्म के प्रयास भी होते हैं। इस समय दुनिया में लाखों ऐसे एनजीओ का जाल फैला है। लेकिन पिछली करीब तीन शताब्दियों में देखा गया है कि संघर्ष-समाधान के निरंतर प्रयासों के बावजूद ऐसा समाधान नहीं निकलता कि संघर्ष आगे फिर सिर न उठाएं अथवा नए संघर्ष पैदा न हों।

दरअसलसंघर्ष-समाधान के जो प्रयास होते हैंउनमें ज्यादा जोर इस बात पर रहता है कि आधुनिक बुद्धि और तर्क के स्वीकृत उपयोग के आधार पर हर तरह के संघर्ष का जल्दी ही समाधान हो जाएगा और सारी मानवता आगे चल कर सुख-शांति से रहने लगेगी। इस परिप्रेक्ष्य से संघर्ष-समाधान तो नहीं ही होतायुद्धों और नरंहारों से लेकर पर्यावरण विनाश तक की कार्रवाइयों को वैधता मिल जाती है। दूसरे शब्दों मेंसंघर्ष दूर करने के सारे उपाय आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था और विकास के मॉडल के अंतर्गत खोजे और लागू किए जाते हैं। उसके विकल्प की तलाश और स्वीकृति का सच्चा प्रयास और इच्छा नहीं दिखाई जाती। उत्तर आधुनिक विमर्शों में आधुनिकता की ज्ञान-विज्ञान संबंधी धारणाओं और उन पर आधारित सार्वभौमिकता का दावा करने वाले महाख्यानों को चुनौती मिली है। लेकिन संघर्ष का समाधान वहां भी नजर नहीं आता है। उत्तर आधुनिक विमर्शों में बहुलता की स्वीकृति और हाशिए की अस्मिताओं को स्वर देने की जो बात होती हैआधुनिक ज्ञान-विज्ञान बुद्धि बहुलताओं और अस्मितावादी स्वरों को भी संघर्ष की धारा में समो लेती है।   

गांधी ने आधुनिक औद्योगिक सभ्यता (जिसे अपने समय में वे सौ-पचास वर्ष पुरानी मानते थे और यूरोप में उसके वैकल्पिक चिंतन की सशक्त उपस्थिति स्वीकार करते थे) का विकल्प प्रस्तुत किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत विकल्प इस मायने में मुकम्मल है कि उसमें गांधी ने विकल्प की विचारधारा और अन्याय के प्रतिरोध की कार्यप्रणाली अथवा रास्ता दोनों बताए हैंसाधन और साध्य को परस्परावलंबित मानते हुए दोनों की एक-सी पवित्रता का स्वीकार किया हैऔर अपने जीवन में उन विचारों और रास्ते का पालन करने का निरंतर प्रयोग भी किया है। हालांकि वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने पूर्ण सत्य पा लिया है। वे मानते हैं उनकी पहुंच केवल सापेक्ष सत्य तक हो पाई है। स्वराज्य के बारे में भी उनका कहना है कि आजादी के साथ जो मिलने जा रहा है, वह उनके सपनों का स्वराज्य नहींइंग्लैंड के संसदीय लोकतंत्र का एक रूप होगा। लेकिन पूर्ण सत्य और स्वराज्य की दिशा में वे निरंतर प्रयासरत रहे।

गांधी उन चिंतकों में हैं जो मनुष्य और सभ्यता के मूल में संघर्ष नहींसहयोगसहअस्त्तिवपरस्परता को मानते हैं। सबसे पहले वे प्रकृति और मनुष्य की परस्परता का प्रतिपादन करते हैं। वे पश्चिमी सभ्यता को लालच और मुनाफे से परिचालित मानते हैं। लालच केवल ज्यादा से ज्यादा उपभोग करने का ही नहींज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने का भी होता है। गांधी मानते हैं कि धरती के पास सबका पेट भरने के लिए इफरात हैलेकिन एक के भी लोभ-संतुष्टि के लिए उसके संसाधन कम पड़ जाएंगे। वे बार-बार जोर देकर कहते हैं कि भारत को यूरोप और अमेरिका के विकास का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। साथ ही वे यूरोप और अमेरिका को भी आगाह करते हैं। गांधी ने कहा कि हथियारों के विशाल भंडार जमा करने से सुरक्षा और शांति नहीं बनाए रखे जा सकते। वही हुआ भी। दो महायुद्धों में यूरोप में कत्लोगारत का भयानकतम रूप देखने में आया। उसके पहले यूरोपवासी उपनिवेशित दुनिया में शोषण और दमन का लंबा सिलसिला चलाए हुए थे। 

राजनीति संघर्ष का जटिल क्षेत्र मानी जाती है। इसीलिए अक्सर राजनीति को छोड़ कर संघर्ष-समाधान के प्रयास किए जाते हैं। राजनीति के विकल्प की भी बात होती है और विकल्प की राजनीति की भी। गांधी ने विकल्प की राजनीति की रचना करने की कोशिश की ताकि राजनीति संघर्ष नहींसहयोग और मानवीय उत्थान का माध्यम बन सके। जयप्रकाश नारायण ने उसे लोकनीति नाम दिया है। आजादी के संघर्ष के दौरान और आजादी मिलने के बाद उन्होंने एक पल के लिए भी खुद सत्ता पाने का विचार नहीं किया। आजादी मिलने पर उन्होंने कांग्रेस को राजनीतिक पार्टी के बजाय लोक सेवक संघ बनाने का सुझाव दिया था। हालांकि उनके राजनीतिक साथियों ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया।

गांधी भारत की आजादी के संघर्ष के राष्ट्रीय नेता थे। उन्होंने सबको साथ लेकर वह संघर्ष चलाने का अभूतपूर्व उद्यम किया। गांधी के सामने यह स्पष्ट था कि आजादी के बाद उनकी मान्यता का स्वराज हासिल नहीं होने जा रहा हैवह पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज होगा। लेकिन वे अपने आध्यात्मिक स्वराज’ के लिए अड़े नहीं। उसे वे अकेले नहींसभी देशवासियों के साथ पाने में सार्थकता समझते थे। लेकिन विभाजन के सवाल पर वे अकेले रह गए और आजादी मिलने के साढ़े पांच महीने बाद उनकी हत्या भी हो गई। ऐसा नहीं है कि जिन्ना ने ही उनकी बात नहीं सुनी। नेहरूजिन्हें उन्होंने अपना वारिस चुना थाने भी उनके सपनों का भारत बनाने की दिशा में काम करने से साफ इनकार कर दिया। लेकिन गांधी ने इसके बावजूद अपना सहयोगसक्रियता और स्वराज्य पाने की दिशा में आग्रह अंत तक बनाए रखा। खासकर विभाजन के वे इसीलिए विरोधी थे कि धर्म से राष्ट्रीयता का निर्धारण नहीं होता। यह मान्यता वे हिंद स्वराज’ में स्पष्टता के साथ व्यक्त कर चुके थे।    

यह ध्यान देने की बात है कि गांधीवादी चिंतन पर आधारित भारत और दुनिया में एक भी पार्टी या सरकार नहीं रही है। फिर भी दुनिया में सबसे ज्यादा अध्ययन गांधी का हुआ है। यह संघर्ष में फंसी दुनिया में उनके चिंतन और रास्ते की सार्थकता को बताता है। लेकिन संघर्ष-समाधान के लिए उन्हें फुटकर तौर पर नहींपूर्णता में अपनाना होगा। गांधी ने कहा है कि उन्होंने ऐसी कोई नई बात नहीं कही है जो पहले लोगों ने नहीं कही हो। उन्होंने केवल उन बातों की सच्चाई को अनुभव किया है।हिंद स्वराज’ के अंत में दी गई संदर्भग्रंथ सूची में टाल्सटॉय, शेरार्डकारपेंटरटेलरब्लाउंटथोरोरस्किन,मेजिनीप्लेटोमैक्सनोरडोमेनदादाभाई नौरोजी और दत्त की पुस्तकों की सूची दी गई है। बाईबल’, ‘कुरान’, ‘गीता’ से लेकर मार्क्स और एंगेल्स तक का अध्ययन उन्होंने किया था। अपने विशाल अध्ययन और सार्वजनिक उद्यम के साथ गांधी आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का साक्षात विकल्प बन गए थे। इस रूप में उन्होंने भरसक एक मुकम्मल राजनीतिकआर्थिक,धार्मिकसांस्कृतिकशैक्षिक दर्शन प्रदान करने की कोशिश की है।

गांधी संसार में मौजूद शोषण के विभिन्न रूपोंपरंपरागत और उपनिवेशवाद के कारण पैदा हुएको संजीदगी से देखते हैं और निरंतर उनका प्रतिकार करते हैं। लेकिन प्रतिकार का उनका तरीका हिंसा और हथियार पर नहीं,अहिंसा और आत्मबल पर आधारित है। असहयोग,सविनय अवज्ञासत्याग्रह और उपवास के जरिए वे संघर्ष को मूल से मिटाने की कोशिश करते हैं। गांधी के आलोचक अक्सर आरोप लगाते हैं कि गांधी का चिंतन और रास्ता भाववादी (तर्कवादी नहीं) हैं। इस आरोप का जवाब अनिल नौरिया ने अपने एक महत्वपूर्ण लेखगांधी एंड ह्यूमनिज्म: सम नोट्स ऑन गांधी एंड रीजन’ (Gandhi and Humanism : Some Notes on Gandhi and Reason :http:/www.academia.eduमें विस्तार से दिया है। 

गांधी ने कहीं भी और कभी भी तर्क का तिरस्कार नहीं किया है। उन्होंने गीता’ समेत दुनिया के सभी धार्मिक शास्त्रों को तर्क की कसौटी पर कसने का आह्वान किया है। यह कहते हुए कि यह तर्क का युग है और हर धर्म के हर सूत्र को तर्क और सार्वभौम न्याय के एसिड टेस्ट से गुजरना होगा। जाहिर हैगांधी की अहिंसाउपवास,सत्याग्रहप्रार्थनाअंतःकरण की आवाज जैसे सिद्धांत और मान्यताएं उनके समग्र चिंतन के मद्देनजर तर्क पर आधारित हैं। आमतौर पर हिंसा के पक्षधर अपने को तर्क पर चलने वाला मानते हैं और गांधी की अहिंसा को भाववाद पर आधारित बताते हैं। लेकिन गांधी स्पष्ट करते हैं कि जब आप तर्क से किसी को अपनी बात नहीं समझा पाते तो हिंसा का सहारा लेते हैं। लिहाजातर्क का साथ गांधी नहींउनके आलोचक छोड़ते हैं। गांधी ने तर्कबुद्धि को हृदय के विपरीत नहीं माना हैन ही नैतिकता के। बल्कि वे तर्क की कसौटी हृदय और नैतिकता को स्वीकार करते हैं।

गांधी के बारे में यह भ्रांत धारणा काफी प्रचलित है कि वे गरीबी की पूजा करने वाले थे। गांधी ग्रामीण सभ्यता को आधुनिकतावादियों की तरह खारिज नहीं करते। बल्कि वे उसके उत्थान की बात करते हैं। उन्होंने गांवों में हर तरह के समूहों के लिएवे चाहे शाकाहारी हो या मांसाहारीसमुचित खाद्यान्न की व्यवस्था के साथ सफाई,शिक्षास्वाथ्य और मनोरंजन की व्यवस्था जरूरी बताई है। स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों के हक और प्रबंधन की भी वे वकालत करते हैं। विकेंद्रीकरण और विशाल उद्योगों की जगह लघु व कुटीर उद्योगों का समर्थन वे लोगों को गरीब नहींसंपन्न बनाने के लिए करते हैं। यह सही है कि गांधी समृद्धि को मनुष्य के लिए वर्चू (सद्गुण) नहीं मानते। वे ईसा मसीह के हवाले से कहते हैं कि सुई के छेद से हाथी भले निकल जाएपर एक समृद्ध व्यक्ति का ईश्वर के राज्य में प्रवेश असंभव है।

भौतिक समृद्धि अगर आत्मबोध की कीमत पर आती है, तो वह गांधी को पूरी तरह अमान्य है। आत्मबोध का विकास हो सकता हैआत्मबोध को खोकर विकास का मूल्य नहीं है। क्योंकि भौतिक अथवा किसी भी मूल्य की मीमांसा मनुष्य के आत्म अथवा चेतना में ही होती है। आत्म अथवा चेतना पर गांधी भौतिकता के नियम अथवा बंधन लागू करने के पक्ष में नहीं हैं। इस तरह वे आधुनिकता के पूरे प्रोजेक्ट को उलट देते हैं।  

हालांकि गांधी के अपरिग्रह और सादगी के सिद्धांत में सामाजिक स्तर पर आर्थिक पक्ष जुड़ा है। उनका मानना है कि प्राकृतिक संसाधनों का उत्तरोत्तर समृद्धि के लिए अंधाधुंध दोहन से लाभ के बजाय आर्थिक हानि इतनी ज्यादा है कि उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। आधुनिक सभ्यता में एक तर्क प्रकृति के रहस्यों को जानने और खोलने का दिया जाता है। लेकिन वह खोज प्रकृति के अधिकाधिक दोहन की नीयत से परिचालित होती है। गांधी इस तरह की खोजों को न मनुष्यों के लिए उचित मानते हैंन मानवेतर प्राणियों के लिएन ही प्रकृति के लिए।   

वैश्वीकरण ने संघर्ष के नए रूप और आयाम पैदा किए हैं। एक तरफ पराराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया के संसाधनों पर कब्जा और अपने बाजार का विस्तार कर रही हैं, तो दूसरी तरफ आतंकवादी कार्रवाइयां'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' और गृहयुद्धों से हिंसा का फैलाव बढ़ता जा रहा है। जाहिर हैइसके साथ हथियारों का कारोबार गरीब देशों की अर्थव्यवस्थाओं की कीमत पर तेजी से बढ़ रहा है। बच्चे तक एक तरफ बंदूकों से हत्याएं कर रहे हैं और दूसरी तरफ मानव बम के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं। यूं तो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही यूरोप और अमेरिका ने तय कर लिया था कि आगे वे आपस में नहीं लड़ेंगे। मारग्रेट थेचर और रोनाल्ड रीगन के बीच अस्सी के दशक में हुए नवउदारवादी 'क्रांति' के करार के तहत आधुनिक सभ्यता के मौजूदा चरण कारपोरेट पूंजीवाद को बचाने और बढ़ाने के लिए संघर्ष को पूर्व-उपनिवेशों की ओर धकेल दिया गया है।

ऐसे में गांधी की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। लेकिन गांधी को गंभीरता पूर्वक तभी समझा और अपनाया जा सकता है जब देश-विदेश में उनसे प्रभावित चिंतकों और अन्याय का अहिंसक प्रतिरोध करने वालों ने गांधी की जो व्याख्या और विस्तार किया हैउसे गंभीरता से समझा जाए। भारत में मुख्यतः जेपी और लोहिया ने गांधीवाद की उसके समस्त आयामों में गंभीर समीक्षा प्रस्तुत की है। अन्याय के प्रतिरोध के सविनय अवज्ञा - सिवलि नाफरमानी - के गांधी के तरीके के बारे में डॉ. लोहिया ने कहा है, ‘‘ ... इसलिए हमारे युग की सबसे बड़ी क्रांति कार्यप्रणाली की क्रांति हैएक ऐसे तरीके द्वारा अन्याय का प्रतिकार जिसकी प्रकृति न्यायसम्मत हो। यहां सवाल न्याय के स्वरूप का उतना नहीं है जितना उसे प्राप्त करने के उपाय का। वैधानिक और व्यवस्थित प्रक्रियाएं अक्सर काफी नहीं होती। तब हथियारों का इस्तेमाल उनका अक्रिमण करता है। ऐसा न होमनुष्य हमेशा वोट और गोली के बीच भटकता न रहेइसलिए सिविल नाफरमानी की कार्यप्रणाली संबंधी क्रांति सामने आई है। हमारे युग की क्रांतियों में सर्वप्रमुख है हथियारों के विरुद्ध सिविल नाफरमानी की क्रांति,यद्यपि वास्तविक रूप में यह क्रांति अभी तक कमजोर रही है।’’ (‘मार्क्सगांधी एंड सोशलिज्म’, भूमिका)

लोहिया ने पूंजीवाद और साम्यवाद के बरक्स जिस समाजवाद की प्रस्तावना की हैउसमें गांधीवाद का फिल्टर लगाने की बात की है। अपने बौद्धिक और राजनीतिक जीवन में लंबे समय तक मार्क्सवादी-समाजवादी रहे जेपी 1957 में सक्रिय राजनीति छोड़ कर सर्वोदय में शामिल हुए। तब गांधी जिंदा नहीं थे। लेकिन उन्होंने गांधी के सर्वोदय के विचार की वैश्विक संदर्भों में सुंदर विवेचना की है। उन्होंने कहा कि कोरा भौतिकवाद नैतिकता और अच्छाई की प्रेरणा नहीं देता। 

यह भी ध्यान खींचने वाली बात है कि गांधी का प्रभाव और प्रेरणा भारत के बाहर के विद्वानों और नेताओं पर ज्यादा है। सरसरी नजर से देखें तो गांधी से प्रभावित लोगों और आंदोलनों की दुनिया में एक पूरी धारा मौजूद है। कई विद्वानकलाकारपत्रकार और आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक गांधी से गहराई से प्रभावित रहे हैं। नेताओं में अफ्रीका के नेल्शन मंडेलाडेस्मंड टूटूघाना के क्वामे न्क्रूमातंजानिया के जूलियस न्ययेरेजांबिया के केनेथ कोंडाअमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर,चेकोस्लोवाकिया के वैक्लाव हैवेलपोलैंड के लेश वैलेसाचीन के थ्येनमन चौक के सत्याग्रहीतिब्बत की स्वतंत्रता के अहिंसक आंदोलनकारी बहुत हद तक प्रतिरोध के गांधी द्वारा प्रवर्तित रास्ते पर चलने वाले रहे हैं। भारत में ईरोम शर्मीला पिछले 12 सालों से अफ्सपा के विरोध में अनशन सहित सत्याग्रह कर रही हैं। वे बार-बार गांधी की प्रेरणा का हवाला देती हैं।     

गांधीवाद की इस पूरी धारा को अक्सर नजरअंदाज करके गांधी के समर्थन या विरोध की बात की जाती है। ऐसे में होता यह है कि जो समर्थन होता हैवह उसी आधुनिक सभ्यता के दायरे में होता हैजिसका विकल्प गांधी ने प्रस्तुत किया है। जो विरोध होता हैवह तो आधुनिक सभ्यता की पक्षधरता के चलते होता ही है। दोनों ही मामलों में समग्र गांधी की अवहेलना होती है। समग्रता में ग्रहण किए और समझे बिना न गांधी की स्वीकृति फलप्रद हो सकती हैन अस्वीकृति से कोई अच्छा नतीजा निकल सकता है। 

आशा है इस सेमिनार में गांधीवादी विकल्प को समग्र रूप में सामने रख कर संघर्ष-समाधान के उपायों पर चर्चा होगी। उस दिशा में अकादमिक काम की चाहे थोड़ी और धीमी प्रगति होलेकिन संघर्ष-समाधान के लिए आने वाले समय में उसीसे अपेक्षित परिणाम हासिल हो सकेगा।  

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Dr. Prem Singh

Wednesday, June 10, 2020

घिर गई है भारतमाता-प्रेम सिंह

(युवा पत्रकार राजेश मिश्रा के कहने पर मैंने पिछले कुछ लेख पाठकों के अध्ययन और विचार के लिए फिर से प्रेषित करने का सिलसिला शुरू किया है. उसी कड़ी में यह लेख है. अप्रैल 2012 में लिखा गया यह लेख 'युवा संवाद' मासिक के मई 2012 अंक में समय-संवाद स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित हुआ था.)



ये भी तो मादरे हिंद की बेटी है!

करीब पांच साल पहले की बात है। हम परिवार के साथ कार में रात के करीब साढ़े ग्यारह बजे नोएडा से एक शादी से लौट रहे थे। गाजीपुर चौराहे पर अंधेरा था और कड़ाके की ठंड थी। करीब पंद्रह साल की एक लड़की लाल बत्ती पर गजरा बेच रही थी। लिबास से वह खानाबदोश या फिर आदिवासी समाज से लग रही थी। वह थोड़ी ही दूरी पर खड़ी थी, लेकिन धूसर शरीर और कपड़ों में उसकी शक्ल साफ नहीं दिख रही थी। हालांकि यह साफ था कि वह कुपोषण के चलते पतली-दुबली है। हमने इधर-उधर नजर दौड़ाई। उसके साथियों में और कोई नजर नहीं आया। वह चौराहा शहर के बाहर और सुनसान थाजहां लड़की के साथ कुछ भी हो सकता था। हमने यह मान कर मन को तसल्ली दी कि उसके कोई न कोई साथी जरूर आस-पास कहीं होंगेलड़की अकेली नहीं है। इतनी रात गए अकेली कैसे हो सकती हैहमें तब नागार्जुन की उपर्युक्त काव्य-पंक्ति अनायास याद आई थी। मादरे हिंद की एक बेटी यह भी है!

हम काफी दिनों तक उस लड़की की दशा पर कोई लेख या कविता लिखने की बात सोचते रहे। हालांकि लिखा नहीं गया। सोचालोग कब से गरीबोंवंचितोंशोषितों को विषय बना कर लिखते आ रहे हैं। उसे मुक्ति काक्रांति का साहित्य कह कर उसका संघर्ष और सौंदर्य-मूल्य भी सिद्ध कर दिया जाता है। लेकिन भारत के शहरों की गंदी बस्तियोंझुग्गियोंलाल बत्तियोंफुटपाथों पर भीड़ बढ़ती ही जाती है। उन्हें मानव कहना मुश्किल लगता हैनागरिक तो कभी बन ही नहीं सकते। उस दिन खास बात थी तो यही कि वह अकेली लड़की एक-दो रुपये के लिए इतनी रात गए वहां थी।

हमें लगा कि जिस तरह पूंजीवादी कंपनियों के लिए जल,जंगलजमीन संसाधन हैंलेखकों के लिए कंपनियों द्वारा उनकी जड़ों से उजाड़ा गया जीवन भी संसाधन है। कंपनियों को जैसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा चाहिएरचना के बदले लेखकों को भी नाम और नकद पुरस्कार चाहिए - ज्यादा से ज्यादा और बड़ा से बड़ा। जो सरकार कंपनियों को ठेके देती हैंवही लिखने वालों को पद और पुरस्कार देती हैं। इधर कंपनियां भी अपने पुरस्कार देने लगी हैं।रचना सत्ता का प्रतिपक्ष होती है’, ‘सत्ता रचना/रचनाकार से भय खाती है’ - इस तरह की टेक को ऊंचा उठाए रखते हुए लेखकों ने वे पुरस्कार लेने भी शुरू कर दिए हैं। आने वाले समय में कंपनियों की ओर से कुछ पद भी ऑफर किए जा सकते हैं। यूरोप और अमेरिका में लंबे समय से यह चल रहा है।

बहरहालहमने उस लड़की पर कुछ लिखा नहीं। उसे रात के अंधंरे में वहां देख कर सहानुभूति का एक तीव्र ज्वार उठा था। आज साफ लगता है कि लिखे जाने पर जो भी मुक्ति होतीवह अपनी ही होती। उस लड़की की मुक्ति से उसका कोई साझा नहीं होता। पांच साल बाद देखते हैं कि वह लड़की और ज्यादा अकेली होती और अमानवीय परिस्थितियों में घिरती जा रही है। इतिहासविचारधारा,मुक्तिप्रतिबद्धतासरोकारसहानुभूति आदि पद निकम्मे घोषित किए जा चुके हैं। उस लड़की के संदर्भ उन्हें एक दिन निकम्मे साबित होना ही था। क्योंकि वे पूंजीवाद के पेट से उठाए गए थे। जिस दिन पूंजीवाद को मानव सभ्यता के विकास में क्रांतिकारी चरण होने का प्रमाणपत्र मिला थाउसी दिन यह तय हो गया था कि वह लड़की महानगर के चौराहे पर रात के अंधेरे में अकेली कोई सामान बेचेगी। और उसकी एक अन्य बहन को उसका मालिक ताले में बंद करके सपरिवार निश्चिंत विदेश घूमने निकल जाएगा। यह तय हो गया था कि यह भारत सहित पूरी दुनिया में अनेक जगहों पर अनेक रूपों में होगा। भारत में पिछले 20-25 सालों में इस प्रक्रिया में खासी तेजी आई है।    

पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली की मध्यवर्गीय आवास कॉलोनी द्वारिका के एक मकान से पुलिस ने एक 13 साल की घरेलू नौकरानी को डॉक्टर दंपत्ति के घर की कैद से छुड़ाया। डॉक्टर दंपत्ति मार्च (2012) के अंतिम सप्ताह में उसे घर में बंद करके अपनी बेटी के साथ थाईलैंड की सैर पर गए थे। 6 दिन बाद बालकनी से पड़ोसियों ने लड़की की पुकार सुनी। वह पहले भी पुकार करती रही थी, लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की। 30 मार्च को एक एनजीओ की मदद से पुलिस को बुलाया गया। पुलिस ने फायर इंजिन बुला कर लड़की को कैद से बाहर निकाला। यह मामला मीडिया में काफी चर्चित रहा। खबरों में आया कि लड़की भूखीडरी हुई और बेहाल थी। मालिकों ने लड़की को उसके लिए छोड़े गए खाने के अलावा रसोई से कुछ और नहीं खाने के लिए सख्ती से मना किया था। खबरों के मुताबिक लड़की ने मालिकों द्वारा अक्सर प्रताड़ित किए जाने की बात भी कही।

मामला टीवी और अखबारों में आने सेजाहिर हैडॉक्टरदंपत्ति के रिश्तेदारों ने उन्हें बैंकाक में सूचित कर दिया। वे आए और पुलिस से बचते रहे। उन्होंने कहा कि उनकी नौकरानी बच्ची नहीं, 18 साल की बालिग है और उसके साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं किया जाता रहा है। वे उसे साथ ले जाना चाहते थे, लेकिन लड़की ने जाने से इंकार कर दिया। जो भी होमामला पकड़ में आ गया थापुलिस ने डॉक्टर दंपत्ति को न्यायिक हिरासत में लिया। अब वे जमानत पर हैं और अदालत में केस दायर है। लोग अभी से उसके बारे में भूल चुके हैं। हो सकता है कोई गंभीर पत्रकार मामले में आगे रुचि ले और केस की प्रगति और नतीजे के बारे में बताए। और उस लड़की के बारे में भी कि उसका क्या हुआउसे क्या न्याय मिला

जैसा कि अक्सर होता हैइस मामले में भी मीडिया की खबरों में लड़की को मेड (Maid) अथवा घरेलू नौकरानी लिखा/कहा गया है। लड़की का उत्पीड़न करने वाले डॉक्टर दंपत्ति का नाम - संजय वर्मासुमित्रा वर्मा - हर खबर में पढ़ने/सुनने में आया। काफी खोजने पर हमें लड़की का नाम एक जगह सोना लिखा मिला। हालांकि हमें यह नाम असली नहीं लगता। लड़की की मां जब झारखंड से आई तो उसका नाम भी मीडिया में पढ़ने को नहीं मिला। उसे लड़की की मां लिखा और कहा गया है। भारत का मध्यवर्ग अपने बच्चों के नामकरण के पीछे कितना पागल होता हैइसकी एक झलक अशोक सेकसरिया की कहानी राइजिंग टू द अकेजन’ में देखी जा सकती है। पिछलेविशेषकर 25 सालों में सुंदर-सुंदर संस्कृतनिष्ठ नाम रखने की देश में जबरदस्त चल्ला चली हुई है। केवल द्विज जातियां ही नहींशूद्र और अनुसूचित जाति और जनजाति से मध्यवर्ग में प्रवेश पाने वाले दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लोग द्विजों की देखा-देखी यह करते हैं। लाड़लों पर लाड़ तो उंड़ेला जाता ही हैभारत का मध्यवर्ग अपने सांस्कृतिक खोखल को सांस्कृतिक किस्म के नामों से भरने की कोशिश करता है। इस समाज में झारखंड के आदिवासी इलाके से आने वाली निरक्षर मां-बेटियों का नाम नहीं होता।

यह मामला सुर्ख़ियों में आने पर नागरिक समाज ने ऐसा भाव प्रदर्शित किया मानो वे स्वयं ऐसा कुछ नहीं करते, जो डाक्टर दंपत्ति ने किया। मानो वह कॉलोनी दिल्ली या देश में एक विरल मामला थाजो भले पड़ोसियों के चलते समय पर सामने आ गया। कानून तोड़ने और लड़की के साथ अमानवीय व्यवहार करने वाले शख्स को गिरफ्तार कर लिया गया। अब पुलिस और कानून अपना काम करेगा। ऐसा सोचने में उसका पीड़िता से कोई सरोकार नहींखुद से है। ऐसा सोच कर वह अपने को कानून का पाबंद नागरिक और परम मानवीय इंसान मानने की तसल्ली पा लेता है। इस तसल्ली में अगर कुछ कमी रह जाती है तो वह बाबाओं के दर्शन और प्रवचन से पूरी करता है। इस झूठी तसल्ली में वह इतना सच्चा हो जाता है कि गंदी राजनीति और राजनेताओं पर अक्सर तीखे हमला बोलता है। उनके द्वारा कर दी गई देश की दुर्दशा पर आक्रोश व्यक्त करता है। राजनीति को बुरा बताते वक्त भी राजनैतिक सुधार उसकी इच्छा नहीं होतीवैसा करके वह अपने अच्छा होने का भ्रम पालता है। यह सच्ची बात है कि भारत की मौजूदा राजनीति बुरी बन चुकी है। लेकिन बुरी राजनीति की मलाई काटने की सच्चाई मध्यवर्ग छिपा लेता है।

हम सब जानते हैं कि भारत में कारखानोंढाबोंदुकानों से लेकर घरों तक में बाल मजदूरों की भरमार है। शहर की लाल बत्तियों पर छोटे-छोटे लड़के-लड़कियां तमाशा दिखातेकोई सामान बेचते या भीख मांगते मिलते हैं। जो 14 साल से ऊपर हो जाते हैं, उन्हें भी हाड़तोड़ श्रम के बदले सही से दो वक्त पेट भरने लायक मेहनताना नहीं मिलता। सुबह 6 बजे से रात 8 बजे तक माइयां कालोनियों में इस घर से उस घर चुका-बर्तनझाड़ु-बुहारूकपड़े धोने,बच्चे सम्हालने और खाना बनाने के काम में चकरी की तरह घूमती हैं। वे दस-बीस रुपया बढ़ाने को कह दें तो सारे मोहल्ले में हल्ला हो जाता है। उनके मेहनताने - ज्यादा से ज्यादा कामकम से कम भुगतान - को लेकर पूरे मध्यवर्गीय भारत में गजब का एका है।

दूसरी तरफमध्यवर्ग के लोग जिस महकमेकंपनी या व्यापार में काम करते हैंअपने सहित पूरे परिवार की हर तरह की सुविधा-सुरक्षा मांगते और प्राप्त करते हैं। इसमें संततियों के लिए ज्यादा से ज्यादा संपत्ति जोड़ना भी शामिल है। फिर भी उनका पूरा नहीं पड़ता। वे कमाई के और जरिए निकालते हैं। रिश्वत लेते हैं; टैक्स बचाते हैं; अपने निजी फायदे के लिए कानून तोड़ते हैं। अभिनेता,खिलाड़ीविश्व सुंदरियांकलाकारजावेद अख्तर जैसे लेखक अपने फन से होने वाली अंधी कमाई से संतुष्ट नहीं रहते। वे विज्ञापन की दुनिया में भी डट कर कमाई करते हैं। सरकारें ऐसी प्रतिभाओं से लोक-कल्याण के संदेश भी प्रसारित करवाती हैं। वे अपनी अंधी कमाई को लेकर जरा भी शंकित हुए देश की आन-बान-शान का उपदेश झाड़ते हैं। इस तरह अपनी बड़ी-छोटी सोने की लंका खड़ी करके उसे और मजबूत बनाने में जीवन के अंत काल तक जुटे रहते हैं। इनकी हविस का कोई अंत नहीं है। रोजाना सोना जैसे करोड़ों बचपन तिल-तिल दफन होते हैंतब उनकी यह दुनिया बनती और चलती है।  

भोग की लालसा में फंसे मध्यवर्ग का एक और रोचक पहलू है, जो फिल्मों और साहित्य में भी देखा जा सकता है। यह सब करते वक्त उन्हें अपनी मजबूरी सोना की मां की मजबूरी से भी बड़ी लगती हैजिसे अपनी नाबालिग लड़की अंधेरे में धकेलनी पड़ती है। पापी पेट की मजबूरीमें वे झूठ बोलनेधोखा देनेफ्लर्ट करनेप्रपंच रचने की खुली छूट लेते हैं। कई बार यह पैंतरा भी लिया जाता है कि हम भी तो कुछ पाने के लिए अपनी आत्मा को अंधेरे में धकेलते हैं! (रोशनी दिखाने वाले बाबा लोग न हो तो जीना कितना मुश्किल हो जाए!) लोग यह भी जानते हैं कि देश में चाइल्ड लेबर (प्रोहिबिशन एंड रेगुलेशन) एक्ट 2006 है। लेकिन उसकी शायद ही कोई परवाह करता है। कुछ एनजीओ और स्वयंसेवी संस्थाएं ही इस मुद्दे पर सक्रिय रहते हैं। बाकी कहीं से कोई आवाज नहीं उठती कि बचपन को कैद और प्रताड़ित करने वालों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई होअगर मौजूदा कानून में कमी है तो उसे और प्रभावी बनाया जाए। कड़क लोकपाल की स्वतंत्र संस्था और कानून बनाने के लिए आसमान सिर पर उठाने वाले लोग ये ही हैं। उनके लिए ही बाल मजदूरी और सस्ती मजदूरी की यह प्रथा’ चल रही है। वह न चले तो इनका जीवन भी चलना असंभव हो जाएगा।

आइए सोना की बात करें। सोना अपनी मां की बेटी है। लेकिन क्या वह भारतमाता की भी बेटी हैनागार्जुन ने अपनी कविता में जब आराम फरमा मादा सुअर का चित्रण किया, तो वे उसकी मस्ती और स्वतंत्र हस्ती पर फिदा हुए लगते हैं - 'देखो मादरे हिंद की गोद में उसकी कैसी-कैसी बेटियां खेलती हैं!' कविता का शीर्षक पैने दांतों वाली ...कविता की अंतिम पंक्ति है। शायद कवि कहना चाहता है कि ‘‘जमना किनारे/मखमली दूबों पर/पूस की गुनगुनी धूप में/पसर कर लेटी .../यह ... मादरे हिंद की बेटी ...’’ अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में समर्थ है।

सोना का वह भाग्य नहीं है। उससे भारतमाता की गोद छीन ली गई है। भारतमाता सोना की मां जैसी ही मजबूर कर दी गई हैजिसे अपनी बेटी अनजाने देश भेजनी पड़ती है,जहां वह सीधे वेश्यावृत्ति के धंधे में भी धकेली जा सकती है। वह चाह कर भी अपनी बेटी को अपने पास नहीं रख सकती। पूंजीवादी आधुनिक सभ्यता आदिवासियों को उनके घर-परिवेश-परिजनों से उखाड़ कर जमती है। ऐसा नहीं है कि नागरिक समाज में ईमानदार और दयालु लोग नहीं हैं, या नवउदारवाद के चलते आगे नहीं रहेंगे। लेकिन उससे अनेकार्थी विषमताजनित शोषण नहीं रुकेगा। आदिवासी लड़कियोंमहिलाओंलड़कोंपुरुषों को अपने घर-परिवेश से निकल कर हमारे घरों और निर्माण स्थालों पर आना ही होगा।     

आपको याद होगा अन्ना आंदोलन के दौरान दिल्ली में पोस्टर लगे थे कि देश की बेटी किरण बेदी जैसी होनी चाहिए - देश की बेटी कैसी होकिरण बेदी जैसी हो।किरण बेदी काफी चर्चा में रहती हैं। कहती हैंजो भी करती हैंदेश की सेवा में करती हैं। सवाल है - मादरे हिंद की बेटी कौन हैकिरण बेदी या सोनाआप कह सकते हैं दोनों हैं। लेकिन हम सोना को मादरे हिंद की बेटी मानते हैं। इसलिए नहीं कि हमारी ज्यादा सही समझ और पक्षधरता है। सोनाएं किरण बेदियों के मुकाबले भारी सख्या में हैं, और किसी का बिना शोषण किएबिना बेईमानी किए,बिना देश-सेवा का ढिंढोरा पीटेदिन-रात श्रम करके,किफायत करके अपना जीवन चलाती हैं। यौन शोषण समेत अनेक तरह की प्रताड़नाएं सहती हैं। अपनी ऐसी गरीब बेटियों के लिए हर मां मरती-पचती और आंसू बहाती है। सोनाओं की मांओं के समुच्चय का नाम ही भारत माता है। इस भारतमाता को कपूतों ने एकजुट होकर अपनी कैद में कर लिया है।

कपूतों की करतूत

हमारे गांव के पंडित लिखीराम अब दुनिया में नहीं हैं। वे एक स्वरचित गीत गाते थे। गीत के बोल बड़े मार्मिक और रोमांच पैदा करने वाले थे। गीत की टेक थी - भारतमाता रोती जाती निकल हजारों कोस गया। हजारों कोस का बीहड़ रास्ता हमारी बचपनी नजरों के सामने खिंच जाता था, जिस पर रोती-बिलखती भारतमाता नंगे पांव चली जाती थी। गीत सुखांत नहीं था। भगत सिंह और उनके पहले के क्रांतिकारियों की शहादतसुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज और गांधी जी की हत्या पर गीत समाप्त होता था। तब हमें राष्ट्रवादउसकी विचारधारा और वर्ग-चरित्र के बारे में जानकारी नहीं थी। हम अपनी जन्म देने वाली मां के अलावा एक और मां - भारतमाता - से जुड़ाव का अनुभव करते थे, और पाते थे कि वह कष्ट में है। भावना होती थी कि भारतमाता के कष्ट का निवारण होना चाहिए। तब हमें भारतमाता साड़ीमुकुट और गहनों में सजी-धजी नहीं दिखाई देती थी। उसके हाथ में तिरंगा भी नहीं होता था। वह गांव की औरतों के वेश में उन्हीं जैसी लगती थी।

बड़े होकर भी हम पंडित लिखीराम का गीत सुनते रहे। भारतमाता की विशिष्ट छविउससे संबंधित साहित्य और बहसों के बीच बचपन में पंडित लिखीराम द्वारा खींची गई भारतमाता की तस्वीर मौजूद रहती रही है। मैला आंचलमें तैवारी जी का गीत - गंगा रे जमुनवा की धार नवनवा से नीर बही। फूटल भारथिया के भाग भारतमाता रोई रही।’’पढ़ा तो उसकी टान (लय) पंडित लिखीराम के गीत की टान के साथ खट से जुड़ गई। तैवारी जी के गीत की टान को सुन कर बावनदास आजादी के आंदोलन में खिंचा चला आया था। उस टान पर वह अपना जीवन आजादी के संघर्ष में बिता देता है। अंत में माफिया द्वारा निर्ममता पूर्वक मारा भी जाता है। उसे मारा ही जाना थाक्योंकि वह यह सच्चाई जान लेता है कि आजादी के बावजूद भारतमाता को स्वार्थी तत्वों ने कब्जे में ले लिया है और वह जार-जार रो रही है। बावनदास गांधी का अंधभक्त है। भारतमाता अंग्रेजों की कैद से छूट कर कपूतों के हाथ में पड़ गई है - इस सच्चाई पर वह कोई निगोसिएशन’ करने को तैयार नहीं था। उसकी वैसी तैयारी ही नहीं थी। वह राजनैतिक से अधिक नैतिक धरातल पर जीता था। भला भारतमाता को लेकर सौदेबाजी की जा सकती हैवह अहिंसक क्रातिकारी था।

हमारे मित्र चमनलाल ने भगत सिंह पर काम किया है। काम को और बढ़ाने के लिए उन्होंने भारत में नवउदारवाद के प्रतिष्ठापक मनमोहन सिंह को पत्र लिखा था। पता नहीं मनमोहन सिंह ने उनकी बात सुनी या नहीं। एक बार वे कह रहे थे कि भगत सिंह जिंदा रहते तो भारत के लेनिन होते। उनसे कोई पूछ सकता है कि नवउदारवादी मनमोहन सिंह से भगत सिंह पर काम के लिए मदद मांगने का क्या तर्क बनता हैऔर भगत सिंह लेनिन क्यों होतेभगत सिंह क्यों नहीं होतेकिन्हीं रूपकिशोर कपूर द्वारा 1930 के दशक में बनाए गये एक चित्र की प्रतिलिपि मिलती है। उसमें भगत सिंह तलवार से अपना सिर काट कर दोनों हाथों से भारतमाता को अर्पित कर रहा है। भारतमाता भगत सिंह को हाथ उठा कर रोते हुए आशीर्वाद दे रही है। (संदर्भ:मैप्समदर/गोडेसमार्टिर्डम इन मॉडर्न इंडिया)।    

नवजागरणकालीन चिंतकोंक्रांतिकारियोंकवियों-लेखकों,चित्रकारों ने विविध प्रसंगों में भारतमाता की छवि का अंकन किया है। भारतमाता ग्रामवासिनी’ से लेकर हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती’ के रूप में उसके गुण गाए गए हैं। भारतमाता की छवि की राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में भूमिका की सीमाएं और अंतर्विरोध आज हम जानते हैं। विद्वानों के लिए शोध का यह एक प्रमुख विषय है। लेकिन हम यह भूल गए हैं कि क्रांतिकारियों का आंदोलन हो या गांधी के नेतृत्व में चलने वाला आंदोलन या इन दोनों से पहले आदिवासियों और किसानों का आंदोलन - उनमें भारतमाता को पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त करने की मंशा थी। आजादी के बाद समाजवादी और कम्युनिस्ट आंदोलन की तो टेक ही पूंजीवाद विरोध थी। तो फिर यह कैसे हुआ कि देशी-विदेशी कारपोरेट घरानोंबहुराष्ट्रीय कंपनियोंहथियारों से लेकर हर तरह की दलाली करने वालोंबिल्डरों,माफियाओंनेताओंबुद्धिजीवियों ने एका बना कर भारतमाता को घेर लिया है? सब मिल कर उसे नवउदारवादी हमाम में धकेल रहे हैं। निर्लज्जों ने भारतमाता की लाज बचाने का ठेका उठा लिया है!

हम यहां टीम अन्ना और उसके आंदोलन पर इसलिए चर्चा करना चाहेंगे क्योंकि वे भारतमाता का नाम बढ़-चढ़ कर लेने वालों में हैं। इस विषय में ज्यादातर जो आलोचना या विरोध हुआ वह यह कि टीम अन्ना ने जंतर-मंतर पर भारतमाता की जो तस्वीर लगाई, वह आरएसएस लगाता है। यह बहुत ही सतही आलोचना या विरोध है। हमने आलोचकों से पूछा था कि जो आरएसएस की भारतमाता से खफा हैं, वे बताएं कि उनकी अपनी भारतमाता कौन-सी हैदूसरेआरएसएस की भारतमाता की तस्वीर से क्या परहेज हो सकता है, जब पूरा आरएसएस ही आंदोलन में मौजूद है? भारतमाता के घिराव में टीम अन्ना की सहभागिता पर थोड़ा विचार करते हैं।

अन्ना आंदोलन के दौरान सबसे ज्यादा अवमूल्यन भाषा का हुआ है। इस आंदोलन की बाबत यह गंभीर मसला है। कहीं से कोई वाकया उठा लीजिएउसमें बड़बोलापन और खोखलापन एक साथ दिखाई देगा। आंदोलन में कई गंभीर लोग शामिल हुए। कुछ बाहर आ गएकुछ अभी वहीं हैं। ऐसे लोगों की भाषा पर भी असर आया है। उनकी भाषा पिछली ताकत खो बैठी। जब विरोधी पृष्ठभूमियों के और विरोधी लक्ष्य लेकर चलने वाले व्यक्ति या समूह आंदोलन के उद्देश्य से एक साथ आते हैं तो भाषा में छल-कपट और सतहीपन आता ही है। टीम अन्ना के प्रमुख सदस्यों द्वारा भाषा का अवमूल्यन अभी जारी है। उसकी प्रमुख सदस्य किरण बेदी ने हाल में कहा कि अन्ना हजारेबाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर तीन फकीर हैंजो देश का कल्याण करने निकले हैं। हमें 1989 का वह नारा - राजा नहीं फकीर हैभारत की तकदीर है’ - याद आ गया, जो समर्थकों ने वीपी सिंह के लिए गढ़ा था।

जिनका नाम किरण बेदी ने लिया है, उन तीनों को धन से बड़ा प्यार है। इसीलिए वर्ल्ड बैंक से लेकर भारत और विदेश के आला अमीरों तक इनके तार जुड़े हैं। बंदा अमीर होना चाहिएवह कौन हैकैसे अमीर बना हैइसकी तहकीकात का काम बाबाओं का नहीं होता! यह फकीरीखुद किरण बेदी और टीम अन्ना के पीछे मतवाले मीडिया तथा सिविल सोसायटी को भी बड़ी प्यारी है। फकीरी का यह नया अर्थ और ठाठ हैजो नवउदारवाद के पिठ्ठुओं ने गढ़ा है। भारत का भक्ति आंदोलन सर्वव्यापक थाजिसमें अनेक अंतर्धाराएं सक्रिय थीं। फकीर शब्द तभी का है। संतफकीरसाधुदरवेश - इनका जनता पर गहरा प्रभाव था। दरअसलउन्होंने सामंती ठाठ-बाट के बरक्स विशाल श्रमशील जीवन के दर्शन को वाणी दी। ऐसा नहीं है कि उन्हें संसार और बाजार का ज्ञान और सुध नहीं है।पदमावत’ में ऐसे बाजार का चित्रण है जहां एक-एक वस्तु लाखों-करोड़ों में बिकती है। लेकिन भक्त बाजार से नहीं बंधता। भक्तिकाल में फकीरी भक्त होने की कसौटी है। जो फकीर नहीं हैगरीब नहीं हैवह भक्त नहीं हो सकता। फकीरी महज मंगतई नहीं है। वह एक मानसिक गठन है,जिसे संसार में काम करते हुए उत्तरोत्तरयानी साधना के जरिए पाया जाता है। वह हद से बेहद में जाने की साधना हैजहां भक्त केवल प्रभु का रह जाता है। जब गरीब ही भक्त हो सकता है, तो प्रभु 'गरीब नेवाज' होगा ही। यह साधना बिना सच्चे गुरु के संभव नहीं होती। इसीलिए उसे गोविंद से बड़ा बताने का भी चलन है। जाहिर हैफकीरी गुरु होने की भी कसौटी है।

दिन-रात भारी-भरकम अनुदान और दान के फेरे में पड़े तथाकथित गुरुओं और संतों को क्या कहेंगे - फकीर या फ्राड! काफी पहले हमने त्याग का भोग’ शीर्षक से एकसमय संवाद’ लिखा था। उसमें सोनिया गांधी के त्याग का निरूपण किया गया था। अन्ना हजारे सरीखों के आरएसएस टाइप त्याग के चौतरफा पूंजीवाद और उपभोक्तवाद चलता और फलता है। 'त्यागी महापुरुषों' को उस व्यवस्था से कोई परेशानी नहीं होती। क्योंकि वहां दान के धन से ही सामाजिक काम किए जाते हैं। दान सामंत देता है या पूंजीपति या दलालइससे कोई फर्क नहीं पड़ता।  

हमारे मित्र जयकुमार ने सुबह की सैर में हमें खुशखबरीदी कि बाबा रामदेव डॉक्टर लोहिया का नाम ले रहे थे। करीब दो साल पहले साथी प्रोफेसर हरभगवान मेंहदीरत्ता (अब दिवंगत) ने भी हमें बताया था कि रामदेव के एक टीवी कार्यक्रम में उन्हें डॉ. लोहिया का चित्र दिखा। इस देश में गांधी के नाम पर कोई भी जबान साफ कर सकता है। न किसी को ऐतराज होता हैन अचरज। लगभग ऐसी ही गति क्रांतिकारियों की बन चुकी है। वे माफियाओं से लेकर बाबाओं तक के हीरो हैं। लेकिन अन्ना के अंबेडकर का और रामदेव के लोहिया का नाम लेने पर किसी को भी कौतुक होगा। अज्ञेय ने लिखा है, ‘कालिदास की पीड़ा थी,अरसिकों को कवित्त निवेदन न करना पड़ जा जाए;केशवदास की पीड़ा थीचंद्रबदनि मृगलोचनी बाबा कहि-कहि न चली जाएअज्ञेय की पीड़ा हैमैं क्या जानता था यह गति होगी कि हिंदी विभागों में हिंदी के अध्यापकों द्वारा पढ़ाया जाऊंगा!’ भारत में आत्मा मरने के पहले भी रहती है और मरने के बाद भी। लोहिया की आत्मा को जरूर कौतुक हुआ होगा कि भारत माता के नाम पर अपने उपभोक्ता उत्पाद बेचने वाले उनका नाम ले रहे हैं!

सुना है रामदेव का अपना विचार-साहित्य’ भी है। उसके बारे में जो ब्यौरे इधर-उधर पढ़ने को मिलते हैंउनसे उनकी कुंठित मानसिकता का पता चलता है। वे दरअसल कुंठित मानसिकता के प्रतिनिधि बाबा हैं। भारत के मध्यवर्ग ने पढ़ना-लिखना बिल्कुल छोड़ दिया है। स्कूल स्तर पर की गई विभिन्न विषयों की पढ़ाई भी उसके जीवन में नहीं झलकती। मध्यवर्ग की नई से नई बसने वाली कालोनियों में सब कुछ मिलेगासिवाय विचार और रचना-साहित्य के। जहां तक पत्रिकाओं का सवाल हैमनोरंजनखेल,प्रतियोगिता और राजनीतिक खबरों की पत्रिकाओं के अलावा वहां कुछ नहीं मिलता। मध्यवर्ग ने कर्मकांड को संस्कृति और अंधविश्वास को आस्था मान लिया है। ऐसे में कुंठित मानसिकता ही पनपती है, जो मीडिया की मार्फत परवान चढ़ी हुई है। जब पढ़े-लिखे’ मध्यवर्ग का यह हाल है, तो गांवों और कस्बों के बारे में अंदाज लगाया जा सकता है। ज्यादातर फिल्मेंसीरियल और धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचन कुंठित मानसिकता का प्रतिफलन और उसे पोसने वाले होते हैं। उपभोक्तवाद के शिकंजे में पूरी तरह फंसा भारत का महान’ मध्यवर्ग भावनाओं,संबंधोंमूल्यों आदि को लेकर अजीबो-गरीब आचरण करता है। (मध्यवर्ग की इस परिघटना पर हम आगे कभी विस्तार से लिखेंगे।)  

यह फंसाव राजनीति में भी देखने को मिलता है। ताजा उदाहरण सीपीएम का देसी समाजवाद’ है। संगठित और अपने को विचारधारात्मक कहने वाली पार्टी कैसे टोटके कर रही है! क्या अभी तक विदेशी समाजवाद चलाया जा रहा था? पार्टी से पूछा जा सकता है कि आचार्य नरेंद्रदेव,जेपी और लोहिया के बाहर देसी समाजवाद के कौन स्रोत हैंलेकिन यह किसी ने नहीं पूछा और पूरे मीडिया में सीपीएम प्रस्तावित 'भारतीय समाजवाद' की खूब धूम रही। बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर को नेताओं से और नेताओं को इन दोनों से संबंध बनाने का बड़ा शौक है। रामदेव व्यवस्था परिवर्तन’ के लिए राजनीतिक पार्टी बनाने से पहले लालू यादव और नीतीश कुमार के एक साथ चहेते थे। श्री श्री की हसरतें जीवन की कला’ का कारोबार शुरू करने के समय से ही जवान रही हैं। हमें ज्यादा हैरानी नहीं हुई जब देखा कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय में घुस गए हैं। एक दिन हम स्टाफ रूम में बैठे थे। चार-पांच युवक-युवतियां भक्तिभाव से भरे हुए आए और सूचना दी कि श्री श्री फलां तारीख को हिंदू कॉलेज में आ रहे हैं। फिर कहने लगे कि वे श्री श्री और कार्यक्रम के बारे में क्लास को संबोधित करना चाहते हैं। हमने उन्हें कहा कि अपना पोस्टर लगाइए और जाइए। हमें लगा कि क्या सचमुच हमारा बीमार समाज बाबाओं की बदौलत चल रहा है!  

रामदेव के साथ न्याय करते हुए कहा जा सकता है कि जब अपने को समाजवादी कहने वाले नेता और पार्टियां कारपोरेट घरानों की राजनीति करते हैं, तो बाबा के लोहिया को चेला मूंडने पर क्योंकर ऐतराज किया जा सकता है?यूपी के नए मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री से मिलने गए तो उन्होंने वही सब बातचीत की जो दूसरे मुख्यमंत्री करते हैं। सोना से उसकी मां और भारतमाता की गोद छीन लेने वाली नवउदारवादी नीतियों पर उन्होंने जरा भी सवाल नहीं उठाया। इसके बावजूद लोगों को वहां 'लोहिया का समाजवाद' फलीभूत होने की संभावनाएं नजर आ रही हैं। भारतीय समाज और राजनीति में यह जो स्थिति बनी है,उसकी अभिव्यक्ति के लिए विडंबनाविद्रूपविसंगति जैसे पद अपर्याप्त हैं। जब कोई समाज अंधी गली में प्रवेश कर जाता है तो यही होता है। जिस आंदोलन की पीठ पर उद्योग और व्यापार-जगत की हस्तियां/संस्थाएं हैंबड़े-बड़े एनजीओ हैंसंघियों के उसमें शामिल होने की बात तो समझ आती हैसमाजवादीगांधीवादीमार्क्सवादी उसमें डुबकी लगा रहे हैं!

राजनैतिक समझ के अभाव में अन्ना और रामदेव नहीं समझ सकते कि वे क्या कह और कर रहे हैं। दूसरे शब्दों मेंवे वही कह और कर रहे हैं जो उनकी समझदारी है। उनकी समझदारी के मेल का समाज बना हुआ है, तो उनका कहना और करना रंग लाता है। उनके सिपहसालार उन्हें किसी विशेष नेता या विचारक का नाम लेने और मुद्दा उठाने की सलाह देते हैं। लेकिन किसी के कहने पर नेता या विचारक-विशेष का नाम लेना या किसी विशेष मुद्दे को उठाना रंग को चोखा नहीं कर सकता। इसके पीछे एक जिंदगी बीत जाती है। लेकिन जिनकी राजनीतिक समझदारी हैजो महत्वपूर्ण भूमिका या तो निभा चुके हैं या निभा रहे हैंउन्हें जवाब देना पड़ेगा।

यह विचारणीय है कि अगर 1990  के पहले के माहौल में पले-बढ़े लोगों का यह आलम है, तो आगे आने वाली पीढ़ियों का क्या रुख-रवैया होगाआज अगर भले ही थोड़े लोगकम से कम संविधान की कसौटी परसही हैं तो आगे ज्यादा सही होने की संभावना बनी रहेगी। लेकिन आज अगर सही नहीं हैं, तब आगे भी सही नहीं होंगे। भ्रष्टाचार विरोध की ओट बहुत दिन तक साथ नहीं दे सकती। विदेशी बैंकों में जमा काला धन हो या यहां की लूटदोनों पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत हैं। काला धन फिर जमा हो जाएगा। जमा करने वालों में बाबाओं के चेले नहीं हैं या होंगेइसकी क्या गारंटी है?         

आजकल प्रैस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडे काटजू साहब खासे चर्चा में रहते हैं। उन्होंने कई मुद्दोंविशेषकर मीडिया से संबंधितपर दो टूक बात रख कर बहस पैदा की है। कुल मिला करबाजार और विचार की बहस में उन्होंने विचार पर बल दिया। उन्होंने यह भी कहा है कि जंतर-मंतर पर तिरंगा लहराने से भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा। हमें लगा कि काटजू साहब की वैचारिकता नवउदारवाद विरोधी रुख अख्तियार करेगी। उनके पद और प्रतिष्ठा को देखते हुए उसका लाभ नवउदारवाद विरोधी मुहिम को मिलेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वे शासक वर्ग के साथ ही खड़े हैं। अंग्रेजी का अंधविश्वास उन पर भी वैसा ही हावी है। उन्होंने अंग्रेजी न जानने वालों को बैलगाड़ी हांकने वाला कहा है। उनका तर्क मानें तो केवल अंग्रेजी जानने वाले ही भारतमाता के बेटे-बेटियां हैं। आपको ध्यान होगा ऐसा ही तर्क सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रमुख न्यायधीश बालाकृष्णन साहब ने भी दिया था। उन्होंने कहा अंग्रेजी नहीं जानने वाले केवल चपरासी बन सकते हैं। उनकी नजर में चपरासी और उनके बेटे-बेटियां भारतमाता के बेटे-बेटियां नहीं हैं, और न ही कभी बन पाएंगे।

काटजू साहब और बालाकृष्णन साहब के हिसाब से सोना का भारतमाता पर कोई दावा ही नहीं है। दूरदर्शन पर देहाती महिलाओं को अंग्रेजी में बताया जाता है कि उनकी बेटियां अच्छी पढ़ाई करती हैंयानी अंग्रेजी बोलती हैं। नवउदारवाद के पिछले 20 सालों में हिंदुस्तान का शासक-वर्ग अंग्रेजी का अंधा हो चुका है। लोहिया इस वर्ग के इसलिए अपराधी हैं कि उन्होंने अंग्रेजी का विरोध कर सभी बच्चों को भारतमाता की गोद में बिठाना चाहा थाजो उनका प्राकृतिक हक है।

अन्ना आंदेालन से भाषा के साथ दूसरा अवमूल्यन प्रतिरोध की अहिंसक कार्यप्रणालीजिसे लोहिया ने सिविल नाफरमानी कहा हैका हुआ है। इस मायने में कि जिस पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था और शोषण के खिलाफ उसका आविष्कार और उपयोग हुआउसी के समर्थन में उसे लगाया जा रहा है। इसके गहरे और दूरगामी परिणाम होने हैं। जाहिर हैइससे अहिंसक आंदोलन को गहरा धक्का लगेगा। अहिंसक कार्यप्रणाली में विश्वास करने वाले कई महत्वपूर्ण जनांदोलनकारी और राजनैतिक कार्यकर्ता इस आंदोलन को समर्पित हो गए हैं। यह शेखी भी जताई जाती है कि अरब देशों में जहां बदलाव के लिए हिंसा हो रही हैवहां यह आंदोलन पूरी तरह अहिंसक है। लेकिन यह सच्चाई छिपा ली जाती है कि यह आंदोलन किसी बदलाव के लिए नहीं है। अपने स्वार्थ के लिए अहिंसक और अनुशासित रहना कोई बड़ाई की बात नहीं है। नवउदारवाद के पक्ष में अहिंसा को अगवा किया गया है। और उसके विरोध के लिए हिंसा का रास्ता छोड़ा गया है। मनमेाहन सिंह और चिदंबरम यही चाहते हैं।

इधर खबर आई है कि टीम अन्ना के एक सदस्य मुफ्ती शहमीम कासमी साहब को स्वामी अग्निवेश बना दिया गया है! वे टीम का मुस्लिम चेहरा थे। टीम अन्ना के सरदार ने कहा है कि कासमी चर्चा के किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले ही उसकी रिकार्डिंग कर रहे थेजिसे वे चैनलों को देते। अजीब बात है। चर्चा के दौरान रिकार्डिंग करने में भला क्या बुराई हो सकती है। सही फैसला सही चर्चा से ही होकर आता है। इसलिए चर्चा की जानकारी टीम के बाहर भी साझा हो, तो इसमें क्या ऐतराज हो सकता हैहालांकि कासमी साहब ने कहा है कि उन्हें रिकार्डिंग करना आता ही नहीं है। मतभेद के कारण दूसरे हैं। जो भी होएक रिकार्डिंग आदमी के दिमाग में भी चलती है। आपसी चर्चा के दौरान टीम अन्ना के सदस्यों के दिमाग में भी चलती होगी। क्या टीम अन्ना के सरदार का उसे भी प्रतिबंधित करने का इरादा हैलोकतंत्र और पारदर्शिता के पहरेदार इस पर क्या कहते हैंअभी तक सुनने में नहीं आया है। कौन नहीं जानता कि विदेशी धन खाने वाले एनजीओ और उन्हें चलाने वाले फर्जीवाड़े पर पलते हैं। 

मीडिया और सिविल सोसायटी के समर्थन का जो नशा टीम अन्ना को हुआ है, वह जल्दी नहीं टूटने वाला है। हम एक हैं’ की घोषणा करते हुए रामदेव और अन्ना फिर साझी हो गए हैं। वे अलग कभी थे ही नहीं। हमने कहा था कि कांग्रेस समेत ये सब एक पूरी टीम हैं। इस टीम का कारोबार आगे और चलेगा। प्रधानमंत्री के प्रमुख आर्थिक सलाहकार ने हाल में कहा है कि अब से आगे 2014 के आम चुनाव तक आर्थिक सुधारों की गति धीमी रहेगी।  लेकिन आम चुनाव के बाद सुधारों में यथावत और विधिवत तेजी आ जाएगी। यानी सरकार किसी की भी हो,नवउदारवादी व्यवस्था इसी रूप में जारी रहेगी। कभी मनमोहन सिंह और कभी अटलबिहारी वाजेपयी द्वारा उछाला गया जुमला - आर्थिक सुधारों का मानवीय चेहरा’ -कभी का फालतू हो चुका है। अफसोस की बात है कि यह तय हो चुका है कि चुनावी महाभारतों का देश की व्यवस्था के संदर्भ में कोई मायना नहीं रह गया है। आर्थिक सलाहकार के बयान पर सबसे पहले और सबसे तीखी प्रतिक्रिया भाजपा की थी। उसने कहा कि आर्थिक सुधारों की तेजी पर ब्रेक सरकार की असफलता की निशानी है।

नवउदारवाद बढ़ेगाकांग्रेस के राज में भी और भाजपा के राज में भी। जाहिरा तौर पर उसके दो नतीजे होंगे। एक तरफ पहले से बदहाल आबादी की बदहाली में तेजी आएगी और दूसरी तरफ पहले से विकराल भ्रष्टाचार और तेज होगा। इसके साथ यह भी होगा कि जनता की बदहाली के अंधकार को लूट के माल से मालामाल होने वाले शाहनिंग इंडिया’ की चमक से ओट करने की कोशिश की जाएगी और दूसरी ओर कठोर कानून बनाने की मांग करके भ्रष्टाचार पैदा करने और बढ़ाने वाली व्यवस्था पर परदा डालने का खेल रचा जाता रहेगा। जन लोकपाल कानून यथारूप में बन जाने पर आगे और कड़े कानून की जरूरत उसके पैरोकार और वारिस बताएंगे। भले ही अभी तक कड़े कानूनों की दौड़ का अंत सैनिक तानाशाही में होता रहा है।

नवउदारवाद ने टीम अन्ना का रूप धर कर जनांदोलनकारियों का अपने हिसाब से पूरा इस्तेमाल कर लिया है। मुख्यधारा राजनीति के अंतर्गत फर्क होने का दावा करने वाले भी उस रूप के चक्कर में आ गए। भाकपा के वयोवृद्ध नेता एबी बर्धन रामलीला मैदान में हाजिरी लगाने पहुंचे। आगे नवउदारवाद के विरोध में अभियान जीरो से शुरू होगा। 

तो टीम अन्ना भारतमाता को घेरने वाले कपूतों की साथी है। इसके अलावा उसका कोई और चरित्र होता या कुछ अच्छे लोगों के उसमें शामिल होने के चलते बन पातातो वह सामने आ चुका होता। यही सच्चाई है। इसका विश्लेषण जैसे और जितना चाहें कर सकते हैं।

भारतमाता धरतीमाता

हम यह नहीं कहते कि सोना अपने घरगांवकस्बेशहर तक महदूद रहे। लोहिया ने कहा था देशमाता के साथ हर इंसान की एक धरतीमाता होती है। लोहिया ने स्टालिन की बेटी स्वेतलाना के भारत में बसने के अनुरोध का समर्थन किया था। यह कितनी सुंदर बात होगी कि सोना भारतमाता के साथ धरतीमाता की बेटी बने। दुनिया के किसी भी कोने में जाए। घूमेकाम करेसीखेसिखाएमित्र बनाएमन करे तो वहीं शादी करेभले ही बस जाए। ऐसा होने पर वह भारतमाता के ज्यादा फेरे में न पड़े तो ही अच्छा है। बाहर अगर उसका निधन होता है, तो अंतिम क्रिया वहीं संपन्न हो।

अभी तक देश-विदेश के इक्का-दुक्का लोगों ने आदिवासी क्षेत्रों में रह कर वहां की लड़कियों से शादी की है। आदिवासी लड़कियां बाहर जा कर ऐसा करें तो बराबर की बात बनेगी। हम किसानों और मजदूरों की लड़कियों के लिए भी ऐसा सपना देखते हैं कि वे स्वतंत्रतापूर्वक बड़ी हों और और देश-दुनिया में अपनी जगह बनाएं। लेकिन समस्या यही है कि जब तक वे भारतमाता की गोद से बहिष्कृत हैंधरतीमाता की गोद उन्हें उपलब्ध नहीं हो सकती।

हमने ऊपर देखा कि भारतमाता किस कदर घिर गई है। यह घेरा टूटेइसके लिए हिंदुस्तान में एक बड़ी और बहुआयामी क्रांति की सख्त और तत्काल जरूरत है। उस क्रांति के कुछ सूत्र लोहिया ने दिए थे। लेकिन शासकवर्ग और उसका क्रीतदास बौद्धिकवर्ग प्रतिक्रांति पर डटा रहा। सत्ता के साथ मिल कर लोहिया के राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-दार्शनिक-सांस्कृतिक चिंतन को स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक बहिष्कृत करके अपना वाद’ बचा और चला लेने की खुशी पालने वाले लोगों ने हिंदुस्तान की क्रांति के साथ गहरी दगाबाजी की है। देश में उथल-पुथल हैउसका फायदा लेना चाहिएकह कर टीम अन्ना और उसके आंदोलन में जुटे लोग भी जाने-अनजाने वही कर रहे हैं।   

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Dr. Prem Singh

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

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