Thursday, November 6, 2008

सुधाकर के संस्मरण

कैसी छात्र राजनीति है ये?

( सुधाकर जी हमारी मित्रमंडली में बलरामपुर का प्रतिनिधित्व करते हैं... इसी वजह से छात्र राजनीति में बोलने का पहला हक़ इन्हीं को मिलता है... अली सरदार जाफरी और बेकल उत्साही के शहर के सुधाकर जी ने लखनऊ यूनिवर्सिटी को कितना जीया है ... उन्हीं से सुनते हैं )

जब मैं लखनऊ के कॉल्विन ताल्लुकेदार्स कॉलेज में पढ़ता था...तो अक्सर लखनऊ विश्वविद्यालय परिसर को बाहर से देखने का मौका मिला करता था। बताना चाहूंगा कि कॉल्विन और लखनऊ विवि ठीक एक दूसरे के सामने स्थित हैं...बस अंतर केवल दोनों के बीच से गुजरती सड़क का है। मंगलवार के दिन विवि के ठीक बगल में हनुमान सेतु पर बजरंग बली के दर्शन को भी जाया करता था...इन्हीं दिनों में मैंने एक सपना देखा॥सपना था लखनऊ विवि में बतौर छात्र अध्ययन करने का। सपना पूरा भी हुआ॥हालांकि सपना पूरा होने में एक दशक लग गए॥अब मैं लखनऊ विवि का संस्थागत छात्र हो चुका था। बात साल २००४ की है॥लखनऊ में मुलायम सिंह की सरकार थी और छात्र राजनीति अपने परवान पर चढ़ चुकी थी॥मैंने मॉस कम्युनिकेशन के पीजी कोर्स में दाखिला लिया था॥विवि परिसर छात्र नेताओं के पोस्टरों और बैनरों से पूरी तरह पट चुका था...फ़िज़ाओं में तमाम तरह के नारे अक्सर गूंज जाते थे..उदाहरण के तौर पर- सत्यनिष्ठ कर्तव्य परायण, तेज नारायण तेज नारायण...यही पुराण यही रामायण तेज नारायण तेज नारायण। ये तेज नारायण कोई और नहीं उपाध्यक्ष पद के लिए छात्र संघ का चुनाव लड़ रहे तेज नारायण पाण्डेय उर्फ पवन पाण्डेय थे। यानी छात्र राजनीति के लिए पूरा उन्मुक्त माहौल तैयार हो चुका था।मेरी फैकल्टी में पीटीआई से संजय पाण्डेयजी क्लास लेने आया करते थे..मुझे आज भी याद है कि चुनाव में छात्र नेताओं के उपनामों पर संजय जी के एक कमेंट पर क्लास में जबरदस्त ठहाका लगा था..दरअसल उन्होंने एक सवाल पूछा था...Does anybody know how many Pintoo's are there in LUSU elections? और जवाब भी अलग-अलग तरह के आए किसी ने विजय कुमार सिंह टिंटू का नाम लिया तो कोई बोला विजय शंकर पिंटू तो किसी की जुबान पर इन्द्रेश मिश्रा शिंटू का नाम था।

उन दिनों मैं अपने मित्र जितेंद्र के पास गाहे-बगाहे मिलने के लिए जाया करता था। जितेंद्र अन्तःवासी छात्र थे अब आप कहेंगे कि अंतःवासी मतलब...दरअसल अंतःवासी उस छात्र को कहा जाता है जो विवि परिसर में ही स्थित छात्रावास में रहते हैं। जितेंद्र कैम्पस के लाल बहादुर शास्त्री हॉस्टल के कमरा नं- १५९ में रहते थे। मैं और जितेंद्र क्लास के बाद जब भी मौका मिलता था टैगोर लाइब्रेरी आते थे और परिसर में छात्र राजनीति के बदलते स्वरूप पर चर्चा किया करते थे। एक वाकया याद आता है॥जब विवि में मुलायम सिंह और अमर सिंह को एक कार्यक्रम में बुलाया गया। ये दीगर बात है कि कार्यक्रम का मकसद शैक्षणिक कम राजनीतिक ज्यादा था। भरी सभा में मुलायम सिंह ने मंच से ही कुलपति एसबी सिंह को नसीहत दी कि वे परिवार के मुखिया हैं और छात्र नेता परिवार के सदस्य...अगर परिवार का सदस्य कोई गलती करता है तो उसे घर से निकाला नहीं जाता बल्कि उसे समझा-बुझाकर मनाया जाता है। अब नेताजी इतना तो समझते ही होंगे कि बंदूकों के साये में रहने वाले इन बिगड़ैल छात्र नेताओं को समझाना बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसा था। मुलायम सिंह जी चाह रहे थे कि आपराधिक प्रवृत्ति के इन छात्र नेताओं को परिसर में खुली छूट मिली रहे और तथाकथित छात्रहित के लिए संघर्ष की बात करने वाले इन छात्र नेताओं को स्वच्छंद छोड़ दिया जाए...भले ही उसके कारण आम छात्रों की पढ़ाई में व्यवधान ही क्यों पड़े अब अमर सिंह की बात हो ऐसा हो नहीं सकता कार्यक्रम के दौरान ही छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष अभिषेक सिंह आशू ने खुद को अमर सिंह से कुछ इस तरह जोड़ने की कोशिश की। आशू ने मंच से ही गुहार लगाई कि वे आजमगढ़ के हैं और अमर सिंह उनका नाम नहीं भूलते होंगे क्योंकि उनके परम मित्र अमिताभ बच्चन के पुत्र का नाम भी अभिषेक है। इस तरह लच्छेदार बातें करते हुए॥अभिषेक सिंह आशू ने विवि परिसर में छात्रों की भूख को शांत करने के लिए एक कैंटीन बनवाने की मांग रखी और बातों बातों में अमर सिंह से दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता मांगी। अब अमर सिंह तो ठहरे अमर सिंह वो कहां इस गोल्डेन चांस को चूकने वाले थे। माइक थामते ही अमर सिंह ने मंच पर ही आशू को दो की बजाय चार लाख का चेक थमा दिया अब उस चार लाख का क्या हुआ ये सवाल ही पूछना शायद अपने आप में ही बेमानी होगा।

वापस लौटते हैं एलबीएस हॉस्टल की ओर...छात्र राजनीति को क़रीब से देखना हो तो आपको छात्रावासों के ताने-बाने को भी कायदे से समझना होगा। कैंपस में मेरा भी पहला साल था लिहाजा मैं भी छात्रसंघ चुनाव की तमाम रणनीतियों से परिचित होना चाह रहा था। उन्हीं दिनों एलबीएस हॉस्टल में एक नई परंपरा देखी...ये परंपरा थी भोजशालाओं की ये उस तरह की भोजशाला नहीं थी जिसकी स्थापना धार के राजा भोज ने ११वीं शताब्दी में की थी॥ये वो भोजशाला भी नहीं थी जिसकी स्थापना कैटरीना से पीड़ित लोगों की सहायता के लिए अमेरिका के सिख समुदाय ने की थी...ये लखनऊ विवि के छात्र नेताओं द्वारा स्थापित नई भोजशाला थी जिसका मकसद भी सांस्कृतिक या सामाजिक होकर विशुद्ध रूप से राजनैतिक था। कमोवेश हर छात्रावास में ऐसी भोजशाला स्थापित की गई थी..अंतःवासी छात्र भी इस भोजशाला का पूरा लाभ उठा रहे थे...भोजशाला में भी अलग-अलग तरह के पकवान बन रहे थे...कहीं पूड़ी सब्जी और खीर बन रही थी तो कहीं चिकन करी और तंदूरी रोटी का पूरा इंतजाम था..हॉस्टल में रहने वाले छात्रों को एक महीने के लिए चूल्हा-चौके से फुरसत मिली हुई थी। कभी हालचाल लेने वाले छात्र नेता इस चुनावी मौसम में अपने टारगेट वोटर पर पूरी तरह मेहरबान थे। छात्रों को चमचमाती गाड़ियों में घूमने का शौक पूरा करने का भी मौका मिल रहा था। कोई लैंडक्रूजर पर बैठने की हसरत पूरी कर रहा था तो किसी का सीना होंडा सीआरवी पर बैठकर चौड़ा हो रहा था...मतलब कि छात्रसंघ की राजनीति का ग्लैमर पूरी तरह से शबाब पर था हर छात्र नेता की अपनी अपनी भोजशाला थी कोई भी छात्र किसी भी भोजशाला में बेरोक-टोक -जा सकता था। भोजशाला बदलने के साथ ही मुंह का स्वाद बदल रहा था...और अपने अपने छात्र नेता के प्रति निष्ठाएं भी बदल रही थीं...घात...प्रतिघात और भितरघात में भोजशालाएं महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही थीं...जिस छात्र नेता की भोजशाला में बढ़िया भोजन मिल रहा था...वहां छात्रों की भीड़ भी इकट्ठा हो रही थी...छात्र नेता की भोजशाला में जुटने वाला मजमा एक तरीके से उसके वोट बैंक का प्रतीक था...भोजशाला में लंच और डिनर के दौरान प्रतिद्वंदी छात्र नेता के वोट बैंक में सेंध लगाने का हर मुमकिन प्रयास किया जाता था। इसके लिए जरूरी था मेन्यू में लजीज पकवानों को शामिल करना।

ऐसी ही एक भोजशाला परिसर के चंद्रशेखर आजाद छात्रावास (बटलर हॉस्टल) में भी स्थापित की गई थी...एक प्रतिद्वंदी छात्र नेता के गुट ने दूसरे छात्र नेता की भोजशाला का तंबू-कनात उखाड़ दिया। दूसरे गुट को ये हरकत नागवार गुजरी और मामले ने हिंसक रूप ले लिया। देखते ही देखते छात्र नेताओं के समर्थकों की बंदूकें गरजने लगीं और भोजशाला छात्र नेताओं के खूनी संघर्ष का अखाड़ा बन गई...गोलीबारी में जख्मी हॉस्टल के एक छात्र की किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में मौत हो गई। इसके बाद तो हालात काबू से बाहर हो गए...पहले तो छात्रों ने हॉस्टल में जमकर तोड़फोड़ और आगजनी की...इसके बाद विवि परिसर में स्थित पुलिस चौकी को फूंक दिया गया...मौके पर पहुंचे आला अधिकारियों के साथ जमकर गाली-गलौज की गई...छात्र संघ चुनाव के लिए नामांकन स्थगित कर दिया गया...परिसर अनिश्चितकाल के लिए बंद हो चुका था। चुनावी भोजशाला की बलिवेदी पर एक निर्दोष छात्र के प्राण जा चुके थे...लखनऊ विवि का ये सहमा -सहमा मंजर मेरे लिए एक सपने के टूटने जैसा था। कुछ दिनों बाद कैंपस फिर खुल गया और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार के रहते लखनऊ यूनिवर्सिटी में छात्र संघ चुनाव हो ऐसा असंभव था। सो चुनाव प्रचार फिर शुरू हो गया और खुल गईं भोजशालाएं...पूरे लखनऊ विवि परिसर में अब इस तरह के नारे तीर की तरह चुभ रहे थे- लइया चुरुरमुरुरिया, भइयक लाल चुनरिया....

भइया फिलिम देखइहैं, भइया नकल करइहैं...

भइया बम चलइहैं, भइया इलेक्शन लड़िहैं...

भइया जीत जइहैं, लइया चुरुरमुरुरिया

मैंने दोबारा कैंपस आना शुरू कर दिया था॥हालांकि मन में डर भी बना रहता था। एक दिन जब मैं प्रॉक्टर ऑफिस के पास से गुजर रहा था तो दो अंतःवासियों को बात करते सुना कि इस बार छात्र संघ चुनाव में एक विकेट गिर चुका है...दो-तीन विकेट और गिर सकते हैं...तो दूसरा छात्र जवाब देता है कि हर बार तो चार-पांच विकेट गिरा करते थे...इस लिहाज से इस बार लगता है कि कम विकेट गिरेंगे। मैं भी चुपचाप बगलें झांकता हुआ अपने डिपार्टमेंट की ओर बढ़ चला।

सुधाकर सिंह

2 नवंबर, २००८

संप्रति- टीवी पत्रकार

Sunday, November 2, 2008

सोचने को मजबूर करती कविताये


दामन के दाग़
इतने दाग़ हैं दामन में,, खुद को ढूंढ नहीं पाता हूं।

इतनी आह है ज़माने में,, खुद की आवाज़ सुन नहीं पाता हूं।

कहां जाऊं ये आशियाना छोड़कर यारों।

हिन्द से प्यारा कोई जहां नहीं पाता हूं।

मुझे शक है कि कहीं मैं आतंकी तो नहीं,

जमाने की सदायें ये बोलती हैं।

मुझे डर है कि मैं मर न जाऊं कहीं,

दिल से निकली हर धड़कन ये बोलती है।

इस क़दर है साया आतंक का मुझ पर,

उजाले में खुद की छाया ढूंढ नहीं पाता हूं।


वो कहतें हैं कि मैंने मासूमों को मारा है,

वो कहते हैं कि मैं ही उनकी बर्बादी का जिम्मेदार हूं।

कैसे दिलाऊं यकीं ज़माने को अपनी बेकसूरी का,

कि अपनी बेगुनाही का सबूत ढूंढ नहीं पाता हूं।

कहां जाऊं ये आशियाना छोड़कर यारो,

हिन्द से प्यारा कोई जहां नहीं पाता हूँ .

शेख मोहम्मद नईम

संप्रति - टीवी पत्रकार

Wednesday, October 29, 2008

दीपावली की याद

दीपावली की यादहमारे लिए त्योहारों का बस एक ही मतलब रह गया है , इन्हीं त्योहारों के पिछले दिनों को याद करना। आहा वो क्या दिन थे , कैसी थी उन दिनों की दीवाली। दीवाली तो बस एक उदाहरण है, हमारे लिए तो हर त्योहार बिना रंगों के होली है, बिना रोशनी की दीपावली है। सालों पहले एक फिल्म आई थी, हरियाली और रास्ता, इस फिल्म में दीपावली का एक गाना बड़ा ही लोकप्रिय हुआ था, लाखों तारे आसमान में, एक मगर ढूंढे न मिला, देख के दुनिया की दीवाली दिल मेरा चुपचाप जला। कुछ ऐसी ही रही दीपावली हमारी। अपनों को याद किया वो भी फोन और एसएमएस के जरिए। लेकिन फिर भी आज तक ये क्यों नहीं लगता कि ,जिंदगी में दीपावली नहीं है। क्योंकि कभी हमने भी दीपावली बड़ी धूम से मनाई है। नवरात्र के बाद से ही दिन गिनना शुरु कर देते थे। कि कब दीपावली आएगी। दीपावली के मौके पर हमारे गांव में काली पूजा होती है। और इस अवसर पर तीन दिनों तक मेला लगता है। जो हमारे कौतुहल का सबसे बड़ा कारण होता था। गुब्बारे .. बांसुरी.. प्लास्टिक की पिस्तौल.. सबसे ज्यादा लुभाती बेरोक टोक खाने को मिलने वाली चाट। इन दिनों हमारे लिए न तो कोई पाबंदी होती थी, और न ही कोई उपदेश। गांव में आयोजित होने वाला नाटक भी आकर्षित करता था, और हर बार कि तरह घर से लगभग एक किलोमीटर दूर बाजार रात को नाटक देखने जाने के लिए .. घर में अनुमति के लिए लंबी भूमिका बनानी पड़ती थी। कई बार इजाजत मिल भी जाती थी , और कई बार नहीं भी मिलती थी .. लेकिन सारे नाटकों की याद अभी तक जेहन में है , मंच पर तो वह दो रात दिखाई जाती , लेकिन हम बच्चे नाटक की समीछा पूरे साल करते। हर पात्र की नकल की जाती , और हर पात्रों की ख़बर भी, और तो और किस ने किस मुद्रा से नाटक देखा ये भी चर्चा का विषय होता। नाचनेवालों और गानेवालों पर लोगों की टिप्पणियां खाशी चर्चा में रहती। कुळ मिलाकर उन्हीं दीपावली की याद हमारे लिए दीपावली है। आजकल गांवों में भी ऐसी दीपावली नहीं होती। इसीलिए हमारे लिए बेहतर है कि नीरस दीपावली मनाने के बजाए एक जमाने की रंगीन दीपावली को याद कर लिया जाए।राजेश कुमार

Tuesday, October 21, 2008

यादें सुखी पत्तियों सी


,,,,अपनी कविता,,,,,
मैं क्यों नहीं अपने और,

साथियों की तरह जीता हूं वर्तमान में।

मैं क्यों झांकना चाहता हूं,

अपने बीते हुए हर-एक लम्हों में ।

सुखी पत्तियों की भांति,

उन यादों को सहेजकर क्या करुंगा।

क्योंकि एक दिन तो यादें,

इतनी सूख जाएंगी ,कि सहेजना मुश्किल होगा।

मैं ये भी नहीं चाहता कि,

यादें सूखी पत्तियों का चूरा बन जाए।

फिर भी बीते हुए लम्हों में झांककर,

कुछ अपनी गलतियां सुधारना और कुछ दोहराना चाहता हूं।

जरुरी है उन रिक्त स्थानों को पाटना,

जहां रह गया है एक अंतराल,इतने दिन बीतने के बाद भी,

और सबसे जरुरी है, उन जगहों पर सफाई पेश करना ,

जिसका वक्त ने मौका ही नहीं दिया।

राजेश कुमार

कसक


जिंदग जब कहीं दूर रहने लगे

फ़ासले मौत के तब सिमटने लगे
वार उसने न गहरा बहुत था किया

ये तो हम थे कि खंजर पकड़ने लगे
उसने अपनी तरफ से कमी कुछ न की,

ये तो हम थे कि हिज्र तड़पने लगे।
वो तो कहते हैं कुछ भी लिखा ही नहीं,

हम दिल अपना,उनकी आंखों में पढ़ने लगे।
जाते-जाते पलट कर भी देखा नहीं,

कोई सुन ना ले, हम ऐसे सिसकने लगे।
जहां उम्र को निकलना था सफर के लिए

हम उस मोड़ पर जा ठहरने लगे।
जिंदगी जब कहीं दूर रहने लगे,

फ़ासले मौत के तब सिमटने लगे।

राजेश कुमार
..

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवा...