Wednesday, December 9, 2020

ताकि भारत पाखंडी-राष्ट्र न बने!- प्रेम सिंह

 



तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसान आंदोलन के शुरू से ही केंद्र की भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार और विपक्षी पार्टियों के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला चल रहा है. किसान संगठनों द्वारा 8 दिसंबर को आयोजित भारत बंद को लगभग पूरे विपक्ष द्वारा सक्रिय समर्थन देने के बाद सरकार और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोपों में काफी तेजी आ गई है. सरकार ने विपक्ष पर किसानों को गुमराह कर भड़काने के आरोप से आगे जाकर कहा है कि तीनों कृषि कानून कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष के एजेंडे में रहे हैं. विपक्ष ने कहा है कृषि कानूनों में किए गए प्रावधानों को किसानों के लिए रामबाण बताने वाली भाजपा पूर्व में उनका कड़ा विरोध करती रही है. सरकार और विपक्ष एक-दूसरे पर दोहरे चरित्र का आरोप लगाते हुए दस्तावेज़ और फुटेज पेश कर रहे हैं. दोनों के बीच 'तेरे सुधार मेरे सुधार' की जंग छिड़ी है. सरकार और विपक्ष की इस कवायद का आपसी सत्ता-संघर्ष के संदर्भ में जो भी मायने हों, इससे यह खुली सच्चाई एक बार फिर सामने है कि उदारीकरण-निजीकरण देश के शासक-वर्ग का साझा एजेंडा है. 


शासक-वर्ग का यह साझा एजेंडा पिछले तीस सालों से जारी है. दोहराव होगा, लेकिन संक्षेप में जान लें कि 1991 में जब मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत की थी तो अटलबिहारी बाजपेयी ने कहा था कि अब कांग्रेस ने उनका काम हाथ में ले लिया है. नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह के बाद 1996 में करीब एक साल के लिए संयुक्त मोर्चा के प्रधानमंत्री बने एचडी देवेगौड़ा और वित्तमंत्री पी चिदंबरम उदारीकरण-निजीकरण के पक्षधर थे. अपने 6 साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री वाजपेयी ने एक के बाद एक अध्यादेशों के ज़रिए उदारीकरण-निजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया. यह प्रक्रिया कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के दो कार्यकालों के दौरान मजबूती से जारी रही. वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु ने लंबी राजनीतिक पारी खेलने के बाद निष्कर्ष दिया कि विकास का रास्ता पूंजीवाद से होकर गुजरता है. विकी लीक्स से पता चला कि ज्योति बाबू के बाद मुख्यमंत्री बने बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अमेरिकी मिशन से मिल कर गुहार लगाईं थी कि वे नवउदारवाद के पथ पर लंबी छलांग लगाना चाहते हैं. सिंगुर-नंदीग्राम में उन्होंने वैसी छलांग लगाईं भी थी. सामाजिक न्याय अथवा अस्मितावाद की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय नेता और उनकी संतानें उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों पर प्राय: मौन रहते हैं. वे सत्ता पर कब्जे की लड़ाई को ही 'नीति' मानते हैं. 


इस दौरान देश की राजनीति कारपोरेट राजनीति होती चली गई. सीधे कारपोरेट व्यवस्था के गर्भ से पैदा होने वाली पहली राजनीतिक पार्टी - आम आदमी पार्टी - और उसका सुप्रीमो देश के सरकारी कम्युनिस्टों और ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक समाजवादी बुद्धिजीवियों का दुलारा है. दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में सरकारी ताम-झाम के साथ दीपावली पूजन करने के बाद उसने अपने इन मित्रों को उपदेश दिया है कि वे प्रार्थना किया करें, मन को बहुत शांति मिलती है! भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, जिससे यह पार्टी निकली, ने उदारीकरण-निजीकरण के विरोध में चलने वाले देशव्यापी आंदोलन को गहरी चोट पहुंचाई, और गुजरात में छटपटाते नरेंद्र मोदी के लिए दिल्ली का रास्ता प्रशस्त किया.  


वर्तमान विवादस्पद कृषि कानूनों के बारे में यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि उनकी बनावट  कारपोरेट-फ्रेंडली है. लेकिन अध्यादेश के रूप में या संसद में विधेयक के रूप में किसी भी विपक्षी राजनीतिक पार्टी/नेता ने उन्हें पूरी तरह से रद्द करने की मांग नहीं की. संसद में विधेयकों पर जितनी भी बहस हो पाई, उस पर नज़र डालने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है. सभी पार्टियों ने कुछ संशोधन सुझाने के अलावा विधेयकों को पार्लियामेंट्री पैनल को भेजने की मांग की थी. उदाहरण के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के सांसद बिनय विस्वम का वक्तव्य देखा जा सकता है : "अगर एमएसपी के बारे में दिया गया वक्तव्य सही है, तो मैं मंत्री महोदय से निवेदन करूंगा कि वे यहां यह कहते हुए आधिकारिक संशोधन लाएं कि वे किसानों के लिए एमएसपी सुनिश्चित करने की धारा जोड़ेंगे. ऐसा होने पर, मैं आपसे वादा करता हूं, भले ही हम आपका राजनीतिक विरोध करते हैं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस विधेयक का समर्थन करेगी." ('इंडिया एक्सप्रेस', 5 दिसंबर 2020) फोर्ड फाउंडेशन के जो बच्चे किसान आंदोलन में सक्रिय हैं, कृषि सुधारों को लेकर उनके कारपोरेट-फ्रेंडली वक्तव्य/दस्तावेज़ भी सामने आ चुके हैं. तीनों कृषि कानूनों को पूरी तरह रद्द करने की मांग केवल किसान संगठनों की तरफ से की गई. ज़ाहिर है, उन्हें ही यह निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी.  


दरअसल, भारत का शासक-वर्ग सत्ता से बाहर होने पर संविधान की दुहाई देते हुए उदारीकरण-निजीकरण का विरोध करता है, और सत्ता में आने पर संविधान के नाम पर ही सारे फैसले उदारीकरण-निजीकरण के पक्ष में लेता है. वह बेशर्मी के साथ नाम गरीबों का लेता है, काम कारपोरेट घरानों का करता है.  उदारीकरण-निजीकरण के समर्थन और विरोध में वह संविधान के साथ देश के प्रतीक पुरुषों (आइकोंस) को भी खींच लेता है. संविधान और प्रतीक पुरुषों की ऐसी दुर्गति शायद ही किसी अन्य देश में होती हो.  शासक-वर्ग की इस प्रवृत्ति के चलते देश के राजनीतिक व्यवहार में गहरा पाखंड समा गया है. राजनीतिक व्यवहार में पैठा यह पाखंड जीवन के अन्य - सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक आदि - व्यवहारों को भी प्रभावित करता है. अगर भारत को एक पाखंडी-राष्ट्र में तब्दील नहीं होना है, तो इस परिघटना पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है.  


शिक्षा से लेकर रक्षा तक नवउदारवादी सुधारों पर सर्वानुमति की मौजूदा स्थिति में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि शासक-वर्ग ईमानदारी से स्वीकार करे कि वह उदारीकरण-निजीकरण का सच्चा पक्षधर है? संविधान को एक तरफ छोड़ कर, या संविधान की मूल संकल्पना के विरुद्ध संशोधन करके, उदारीकरण-निजीकरण को राष्ट्रीय-नीति घोषित करे? इसके लिए मज़दूर संगठनों, किसान संगठनों, छात्र संगठनों, व्यावसायी संगठनों और विविध नौकरीपेशा संगठनों से वार्ता करे? घरेलू और विदेशी निवेशकों/कंपनियों को स्पष्ट संदेश दे कि उदारीकरण-निजीकरण भारत की सर्वस्वीकृत राष्ट्रीय-नीति है? विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं को बताए कि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के मामले में भारत अपने पैरों पर खड़ा हो गया है? हर मामले में उसे ऊपर से डिक्टेट की जरूरत नहीं है? नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) अमिताभ कांत सरीखे नवउदारवादियों को आश्वस्त करे कि भारत ने 'कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र होने' की बाधा पार कर ली है? और अब वह चीन के बाज़ार समाजवाद (मार्केट सोशलिज्म) का मुकाबला कर सकता है? इसकी शुरुआत विवादास्पद कृषि कानूनों पर संसद का विशेष सत्र बुला कर व्यापक चर्चा से की जा सकती है. 


मेरे जैसे व्यक्ति की तरफ से यह सुझाव लोगों को चौंकाने वाला लग सकता है. लेकिन यदि हमें एक पाखंडी/फरेबी राष्ट्र में रूपांतरित होने से बचना है, तो सच्चाई का सामना करने के अलावा कोई चारा नहीं है. पाखंड के तीन दशक काफी होते हैं. सच्चाई की ईमानदार स्वीकारोक्ति होने पर शासक-वर्ग से अलग संवैधानिक समाजवाद के सच्चे समर्थक संगठन और व्यक्ति अपनी स्थिति और भूमिका का सही ढंग से आकलन कर पाएंगे. अगर किसानों में सचमुच राजनीतिक समझदारी, एका और साहस बना रहेगा तो वे कानूनों के बावजूद कारपोरेट की लूट से निपटने का रास्ता निकालेंगे. वह रास्ता अन्य संघर्ष-रत संगठनों के लिए भी नजीर बनेगा. 


(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)  

  

  


Tuesday, September 8, 2020

विदेशी धन का यह फंदा काटना ही होगा- प्रेम सिंह

 (यह लेख हिंदी मासिक ‘युवा संवाद’ के दिसंबर 2012 अंक में 'समय संवाद' स्तंभ के अंतर्गत छपा था। ‘भ्रष्‍टाचार विरोध : विभ्रम और यथार्थ’ (वाणी प्रकाशन) पुस्‍तक में भी संकलित है। मौजूदा सरकार द्वारा देश बेचने का काम देश के ही नाम पर तेज़ी से किया जा रहा है। कुछ लोगों में इसे लेकर वास्तविक बेचैनी देखने को मिलती है। उन्हें इस नवउदारवादी/नवसाम्राज्यवादी परिघटना को ऐतिहासिकता और समग्रता में देखने की कोशिश करनी चाहिए। तब वे देखेंगे कि यह इंटेलीजेंसिया समेत भारत के शासक-वर्ग का फैसला है। यह फैसला बदलेगा, तभी इस स्थिति में बदलाव आने की संभावना बन पाएगी। शायद यह लेख उस दिशा में कुछ सहायता कर सकता है।) 


मनमोहन सिंह के बच्चे

ऐसा माना जा रहा था कि बेतहाशा बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी तथा 2014 में होने वाले आमचुनाव के डर से नवउदारवाद के रास्ते पर यूपीए सरकार के कदम कुछ ठिठकेंगे। चौतरफा लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों से भी सरकार डरेगी। व्यक्तिगत तौर पर मनमोहन सिंह की ईमानदारी का मिथक टूटने का भी सरकार पर कुछ दबाव बनेगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। पिछले दिनों उनकी सरकार ने बहादुराना अंदाज में, खुद अपनी पीठ ठोंकते हुए, नवउदारवादी सुधारों की रफ्तार तेज कर दी और इस तरह चुनाव के एक-दो साल पहले नवउदारवादी सुधारों को स्थगित रखने की अभी तक बनी रही बाधा को पार कर लिया। पिछले साल नवंबर में संसद में किए गए अपने वादे को तोड़ते हुए खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश  के साल भर से स्थगित फैसले को लागू करने की एकतरफा घोषणा के साथ सरकार ने बीमा, पेंशन और नागरिक उड्डयन क्षेत्र में भी विदेशी निवेश को स्वीकृति प्रदान की। 

पैट्रोल और गैस के दामों में भारी वृद्धि के साथ इन घोषणाओं से सरकार ने कारपोरेट जगत और नवउदारवादी सुधारों के पैरोकारों को स्पष्ट संदेश दे दिया है कि वह अमीरोन्मुख ग्रोथ की अपनी टेक पर पूरी तरह कायम है। वह गरीबों द्वारा बनाई गई अमीरों की अमीरों के लिए सरकार है। उसने यह भी एक बार फिर से घोषित किया है कि ग्रोथ बढ़ाने के लिए विदेशी  निवेश ही एकमात्र संजीवनी है। हर संदेश का एक प्रतिसंदेश होता है। वह नवउदारवादी नीतियों से बदहाल जनता के लिए है कि सरकार अब उसकी चुनावी परवाह भी नहीं करने जा रही है। नवउदारवादी निजाम के पिछले दो दशकों में यह सरकार का निस्संदेह बड़ा जनता विरोधी हौसला है, जो उसने दिखाया है। देश में 4 करोड़ खुदरा व्यापारी हैं जिन पर उनके 20 से 25  करोड़ परिवारजनों का भार है। हर हौसले के पीछे अंदरूनी या बाहरी ताकत होती है। सरकार का बढ़ा हुआ हौसला वैश्विक पूंजीवादी ताकतों की देन है।    

मनमोहन सिंह जब कहते हैं कि अब कदम पीछे नहीं हटाए जा सकते, यह उनकी मजबूरी का इजहार नहीं है। कि रास्ते का चुनाव एक बार हो गया तो उस पर चलना ही होगा। ऐसा नहीं है कि वे चुनाव की गलती से नवउदारवादी रास्ते पर चले गए थे और अब उस पर चलना मजबूरी बन गया है; मजबूरी में उन्हें ये सब निर्णय लेने पड़े हैं। ऐसा होता तो आगे कभी नवउदारवादी नीतियों में बदलाव की आशा बनती। मनमोहन सिंह शुरू से नवउदारवादी रास्ते को ही विकास और सब कुछ का एकमात्र और स्वाभाविक रास्ता मानते हैं। तभी उन्होंने एक बार फिर कहा है कि अगर उन्हें जाना है तो इस रास्ते पर अडिग रह कर लड़ते हुए जाएंगे। अन्यथा रोबो की तरह लगने वाले मनमोहन सिंह नवउदारवाद के बचाव में अत्यंत संजीदा हो जाते है - ‘कुर्बान हो जाएंगे, लेकिन पीछे नहीं हटेंगे!’ 

मनमोहन सिंह की इस प्रतिभा और जज्बे की पहचान सोनिया गांधी ने बखूबी की है। उन्हें यह साफ पता लग गया कि यही बंदा काम का है जो इस रास्ते पर लाखों के बोल सह कर और लाखों को गारत करके भी पीछे नहीं हट सकता। क्योंकि उनकी खुद की तरह वह कोई और रास्ता जानता ही नहीं है। मामला केवल मनमोहन सिंह को आगे रख कर राहुल गांधी के लिए रास्ता बनाने भर का नहीं है। इस काम के लिए कांग्रेस में चाटुकार नेताओं की कमी नहीं है। लेकिन कांग्रेस का अन्य कोई भी नेता वह नहीं कर सकता था, जो मनमोहन सिंह ने किया। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सम्मिलित प्रतिभा ने कांग्रेस के इतिहास और विचारधारा को धो-पोंछ कर, उसे एक ‘कारपोरेट पार्टी’ में तब्दील कर दिया है। इसीलिए मनमोहन सिंह के बाद राहुल गांधी चाहिए, जिसके जिस्म में मनमोहन सिंह का दिमाग पैदा करने की कवायद लंबे समय से की जा रही है।

लेकिन मनमोहन सिंह का कमाल कांग्रेस के कायापलट तक सीमित ही नहीं है; उन्होंने भारत की पूरी राजनीति को कारपोरेट रास्ते पर डाल दिया है। मनमोहन सिंह ने जो नवउदारवादी ‘ब्रह्मफांस’ फेंका है, उसमें सब फंसे हैं। उसकी काट आज किसी के पास नहीं है, ताकि मानव सभ्यता को पूंजीवादी बर्बरता से मुक्त किया जा सके। मनमोहन सिंह ललकार कर पूछते हैं किसी के पास है तो बताओ? ऐसा नहीं है कि लोग लड़ नहीं रहे हैं, या आगे नहीं लड़ेंगे। लेकिन हर बार जीत मनमोहन सिंह की ही होती है। किसी भी तरह ‘साइनिंग इंडिया’ की चकाचैंध में पलने वाले इस अंधे युग में पलीता नहीं लग पाता। नरेंद्र मोदी हों या राहुल गांधी या बीच में कुछ समय के लिए कोई क्षेत्रीय क्षत्रप, अभी जीत मनमोहन सिंह की ही होनी है। जो कहते हैं मनमोहन सिंह अभी तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं, उन्हें अपनी धारणा पर फिर से विचार करना चाहिए। भारत की राजनीति की धुरी को संविधान से उखाड़ कर पूंजीवाद की वैश्विक शक्तियों की उन संस्थाओं, जिन्होंने पूरी दुनिया पर शिकंजा कसा हुआ है, के आदेशें/मूल्यों पर जमा देने में उनकी युगांतरकारी भूमिका है। मुख्यधारा राजनीति में उनकी आलोचना करने वाले नेता दरअसल उन्हीं के आज्ञाकारी बच्चे हैं। उन्हें अभी तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कहते न थकने वाले अडवाणी और हमेशा उनकी ‘मेंटर’ को निशाना बनाने वाले नरेंद्र मोदी समेत।  उनकी यह युगांतरकारी भूमिका तभी सफलीभूत हो सकती थी जब वे भारत की कांग्रेसेतर राजनीति को भी अपने पीछे लामबंद करने के साथ बुद्धिजीवियों को भी काबू में कर पाते। ऐसा उन्होंने किया है। मनमोहन सिंह के राज में बुद्धिजीवियों की हालत का क्या कहिए! जिधर देखो मनमोहन सिंह का दिमाग ही चलता नजर आता है। किसी भी समाज के सबसे प्रखर बौद्धिक शिक्षा और शोध के संस्थानों में होते हैं। भारत के विद्यालयों से लेकर विश्‍वविद्यालयों और शोध संस्थनों तक मनमोहन सिंह की खुली हवा चल रही है। भारत के बुद्धिजीवियों के संदर्भ में किशन पटनायक ने जिसे ‘गुलाम दिमाग का छेद’ कहा था, वह बढ़ कर बड़ा गड्ढा बन गया है। 

नवउदारवादी और प्रच्छन्न नवउदारवादी बुद्धिजीवी तो मनमोहन सिंह के सच्चे बच्चे ठहरे, अपने को नवउदारवाद विरोधी कहने वाले बुद्धिजीवियों के दिमाग का दिवाला निकलता जा रहा है। घूम-फिर कर उनका विश्‍लेषण पूंजीवाद का विश्‍लेषण होता है और तर्क भी पूंजीवाद के समर्थन में होते हैं। कारपोरेट पूंजीवाद की हर शै में विकास का दर्शन करने वाले मार्क्‍सवादियों, गांधीवादियों और समाजवादियों की कमी नहीं है। लम्बे राजनैतिक अनुभव के साथ ज्योति बसु यह पुराना मंत्र देकर गए कि पूंजीवाद के बिना समाजवाद नहीं लाया जा सकता। उनके उत्तराधिकारी बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अमेरिकी कूटनीतिज्ञों के सामने अपनी पीड़ा का इजहार किया कि कई तरह के दबावों के कारण वे ऊंची पूंजीवादी उड़ान नहीं भर पाते हैं। सिंदूर-नंदीग्राम प्रकरण के वक्त प्रकाश करात ने विरोधियों को विकास विरोधी कह कर लताड़ लगाई थी। भाजपाई मनमोहन सिंह के मनभाए साथी बने हुए हैं। ‘शाइनिंग इंडिया’ की पुकार सबसे पहले उन्होंने ही दी थी। पिछले दिनों ‘इंडियन एक्सप्रैस’ के स्तंभ लेखक सुधींद्र कुलकर्णी ने एक मोबाइल के विज्ञापन-गीत - ‘जो मेरा है वो तेरा है’ - को समाजवाद के विचार का सुंदर वाहक बताया। वे वहीं नहीं रुके। उन्होंने उसे गांधी से भी जोड़ा। आप कहेंगे संघी और गांधी ... ? नवउदारवाद का यही कमाल है। उन्हीं दिनों उनकी ‘म्युजिक ऑफ़ दि स्पीनिंग व्हील: महात्मा गांधीज मेनीफेस्टो फॉर दि इंटरनेट एज’ किताब आई, जिसका दिल्ली और बंगलुरू में भव्य विमोचन समारोह हुआ। समारोह में परमाणु ऊर्जा के पैरोकार पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम सहित उद्योग, न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और राजनीति जगत की कई हस्तियों ने हिस्सा लिया। नवउदारवाद की बड़ी विभूतियां आजकल बढ़-चढ़ कर गांधी-प्रेम का प्रदर्शन करती हैं। ध्यान दिला दें कुलकर्णी साहब भाजपा के सिद्धांतकारों में से एक हैं, जिसके कार्यकर्ताओं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में पट्टी पढ़ाई जाती है कि वे ऋषियों-मुनियों की धरोहर के वारिस हैं। गुलाम दिमाग कितनी तरह के पाखंड करता है!   


भारत के नागरिक समाज में मनमोहन सिंह के बच्चों की भरमार है। खुद मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की धूम है। लेकिन उन्हें रत्ती भर परवाह नहीं है। वे जानते हैं आरोप लगाने वाले उनके ही दूध पीते बच्चे हैं। भारत माता के स्तनों में तो पूंजीवाद ने दूध की बूंद छोड़ी नहीं है। भारत माता के बच्चे बिलखते हैं और ये चिल्लाते हैं। भारत के नागरिक समाज को गुस्सा बहुत आता है, लेकिन उसे कभी ग्लानि नहीं होती। मनमोहन सिंह से ज्यादा कौन जानता है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की सारी फूफां के बावजूद उसमें शामिल होने वालों ने रत्ती भर भ्रष्टाचार करना बंद नहीं किया है। वे जानते हैं केवल नेता, नौकरशाह, उद्योगपति, दलाल और माफिया नहीं, हर दफ्तर के बाबू और चपरासी तक भ्रष्टाचार का बाजार पहले की तरह गरम है। पहले की तरह सरकार की गरीबों के लिए बनाई योजनाओं का ज्यादातर पैसा अफसर और बाबू खा जाते हैं। मनमोहन सिंह जानते हैं उनसे कोई मुक्त होना नहीं चाहता। सब उनके मोहताज हैं। वरना जिस देश में पिछले दो साल से भ्रष्टाचार विरोध की भावनाएं हिलोरें ले रही हों, जन लोकपाल कानून जब बनेगा तब बनेगा, आंदोलन में शामिल नागरिक समाज को कम से कम अपना भ्रष्टाचार बंद कर देना चाहिए था। उससे गरीब जनता को निश्चित ही राहत मिलती। आप कहेंगे कि भावना की क्या बात? जब जन लोकपाल कानून बन जाएगा, अपने आप भ्रष्टाचार होना बंद हो जाएगा। नागरिक समाज भी बंद कर देगा। यह भ्रष्ट सरकार कानून बनाए तो! लेकिन भावना उतनी बुरी नहीं होती। राष्ट्रीय भावना भी नहीं। भावना में निस्संदेह एक ताकत होती है। किशन पटनायक ने अपने ‘प्रबल आर्थिक राष्ट्रवाद का समाधान’ लेख में कहा है कि अपनी खदानों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देना सही है या गलत, इस पर बहस करने वाला उनकी रक्षा नहीं कर पाएगा। सवाल यह उठाया जा रहा था कि केवल भावनाओं में बह कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध करना ठीक नहीं है। अभी लोग समझ नहीं रहे हैं। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने बहुत गहराई में जाकर नुकसान किया है। अपने वर्ग-स्वार्थ के लिए इसने भावना की ताकत को नष्ट कर दिया है। यह सही है कि इस आंदोलन के केंद्र में खाया-पिया और कुछ हद तक अघाया मध्य-वर्ग है। लेकिन शुरू से ही वह जन-भावना का शिकार करने की नीयत से परिचालित है। उसके वर्ग-स्वार्थ की सिद्धि में नवउदारवाद की मार से तबाह जन-सामान्य शामिल हो जाए, तो उसका काम पूरा हो जाएगा। इसके लिए अब उसने अपनी राजनीतिक पार्टी बना ली है, जिस पर हम थोड़ा आगे विचार करेंगे।

चाहते मनमोहन सिंह भी हैं कि पूंजीवाद का काम बिना भ्रष्टाचार के चले। लेकिन पिछली तीन-चार शताब्दियों का उसका इतिहास बेईमानी और भ्रष्टाचार का इतिहास रहा है। जब अमेरिका में लीमैन ब्रदर्स और गोल्डमैन फैक्स बैंक दिवालिया हुए तो पता चला कि उसके बड़े अफसर किस कदर भ्रष्टाचार और अय्याशी में डूबे थे। उपनिवेशवादी दौर के प्रमाण हैं कि उपनिवेशों में आने वाले यूरोपीय मालामाल होकर अपने देश वापस जाते थे। उपनिवेशवादी साहब लोगों ने भ्रष्टाचार की चाट स्थानीय अमले को भी अच्छी तरह लगा दी थी। भारतेंदु ने कहा था ‘‘चूरन साहब लोग जो खाता पूरा हिंद हजम कर जाता।’’ अंग्रेज बहादुर के वारिस अगर हिंद हजम कर रहे हैं, तो यह कोई अनहोनी बात नहीं है। यह व्यवस्था छोटे और मेहनत करने वाले लोगों के शोषण और बड़े और मेहनत नहीं करने वाले वाले लोगों की बेईमानी पर चलती और पलती है। सभी जानते हैं देश में कानूनों की कमी नहीं है और न ही जन लोकपाल कानून बनने से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला है। इस व्यवस्था के समर्थक ही कह सकते हैं कि इस व्यवस्था को मिटाए बिना भ्रष्टाचार मिटाना है। यह सही है कि सरकार के नवउदारवादी सुधार तेज करने के निर्णय के पीछे मुख्यतः कारपोरेट पूंजीवाद की वैश्विक शक्तियां हैं। मनमोहन सिंह भारत में उन शक्तियों के स्वाभाविक और सफल एजेंट हैं। इसलिए उन्हें अमेरिकी दबाव और खुदरा व्यापारियों की तबाही के आरोप सनसनी फैलाने वाले लगते हैं। लोग समझते नहीं, लेकिन वे यही कहना चाहते हैं कि अमेरिकी दबाव कब नहीं रहा और पिछले 25 सालों में गरीबों की तबाही कब नहीं हुई? वे कहते हैं कि उनके आर्थिक सुधारों की शुरुआत करने से लेकर आज तक ये आरोप लगाए जाते रहे हैं। न वे पहले रुके, न अब रुकेंगे। हाय-तौबा करने की जरूरत नहीं है। उससे कुछ नहीं होने वाला है। अमीरोन्मुख ग्रोथ बढ़ाने के लिए गरीबों को मंहगाई और बेरोजगारी की मार झेलनी होगी। उन्हें प्रतिरोध करना छोड़ कर मंहगाई और बेरोजगारी में जीने की आदत डाल लेनी चाहिए। मनमोहन सिंह को आश्‍चर्य होता है कि 20 साल से ज्यादा गुजर जाने के बावजूद लोगों को यह आदत नहीं पड़ी है। उन्हें यह आदत डालनी ही होगी। कम से कम तब तक जब तक उनका सफाया नहीं हो जाता! 

मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार की प्राथमिकता मंहगाई और बेरोजगारी रोकना नहीं, उसके चलते होने वाले प्रतिरोध का दमन करना बन गई है। संसाधनों की मिल्कियत कंपनियों को सौंपने और खुदरा समेत विभिन्न क्षेत्रों में कंपनियों को न्यौतने के फैसलों के विरोध का दंड कड़ा होता है। मनमोहन सिंह जब कहते हैं, उन्हें जाना है तो लड़ते हुए जाएंगे, तो उनकी लड़ाई को कोरा लोकतांत्रिक समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। उनके दिमाग में अपनी लड़ाई में सुरक्षा बलों को शामिल रखने की बात होती है। देश के कई हिस्सों में जो हालात बने हुए हैं, वे बताते हैं कि देश को पुलिस स्टेट बनाने में उन्हें कोई हिचक नहीं है। सरकार के खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के फैसले की समीक्षा हम यहां नहीं करने जा रहे हैं। उसके लिए हमारा ‘खुदरा में विदेशी निवेश: नवउदारवाद के बढ़ते कदम’ (‘युवा संवाद’, फरवरी 2012)  ‘समय संवाद’ देखा जा सकता है। हम यह कहना चाहते हैं कि खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के सीनाजोरी फैसले के पीछे भले ही और निश्चित ही वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था और उसे चलाने वाली संस्थाओं/शक्तियों का हाथ है, लेकिन उसका एक बड़ा कारण घरेलू भी है। यह फैसला मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ने इसलिए बेधड़क होकर लिया है, क्योंकि पिछले दो साल से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने नवउदारवाद के वास्तविक विरोध के समस्त प्रयासों को पीछे धकेल दिया या धूमिल कर दिया है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नेता अब राजनीतिक पार्टी बना रहे हैं। वह पार्टी, जैसा कि हमने पहले भी कहा है, चुनावों में कांग्रेस और भाजपा का नहीं, बल्कि नवउदारवाद की वास्तविक विरोधी और समाजवाद की समर्थक छोटी पार्टियों, जनांदोलनकारी संगठनों/समूहों और लोगों का विरोध करेगी। महज संयोग नहीं है कि कांग्रेस का हाथ भी आम आदमी के साथ है और नई पार्टी बनाने वाले भी ‘मैं आम आदमी हूं’ लिखी टोपी पहनते हैं। चलते-चलते पता चला है कि उन्होंने पार्टी का नाम भी आम आदमी पार्टी रखा है। मनमोहन सिंह के ये बच्चे उनकी सहूलियत के लिए उनकी जमात को ही नहीं, एजेंडे को भी आगे बढ़ाएंगे।       

कौन है आम आदमी? 

हम हर बार सोचते हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर नहीं लिखेंगे। लेकिन ऐसी बाध्यता महसूस होती है कि इस परिघटना का साथ-साथ कुछ न कुछ विश्‍लेषण होना चाहिए। गंभीर विश्‍लेषण और मूल्यांकन बाद में विद्वान करेंगे ही। आम आदमी पार्टी के बारे में पांच-सात सूत्रात्मक बातों के अलावा हमें कुछ नहीं कहना है। पहली यह कि नवगठित पार्टी छोटी पार्टियों, मसलन समाजवादी जन परिषद (सजप) और जनांदोलनों, मसलन जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) में तोड़-फोड़ करने में कामयाब हुई है। जाहिर है, इस दिशा में आगे भी काम जारी रहेगा। दूसरी यह कि अन्ना हजारे से इस पार्टी का अलगाव नहीं है। पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने उन्हें अपना गुरु बताया है और अन्ना ने पार्टी के ‘अच्छे’ उम्मीदवारों के पक्ष में चुनाव प्रचार करने का भरोसा दिया है। पूरे आंदोलन में सक्रिय रहने वाली मेधा पाटकर कहती हैं कि आरोप लगाने से कुछ नहीं होगा, भ्रष्टाचार को जड़मूल से मिटाने की जरूरत है। यानी वे यह बता रही हैं कि अलग पार्टी बनाने का फैसला करने वाले महज आरोप लगाने वाले हैं और उसमें शामिल नहीं होने वाले भ्रष्टाचार को जड़मूल से मिटाने वाले। लेकिन, कहने की जरूरत नहीं कि, वह काम बिना राजनीति के और पूंजीवादी व्यवस्था को बदले नहीं हो सकता। इस काम के लिए उनसे बार-बार कहा गया, लेकिन उन्हें वह रास्ता पसंद नहीं है। उन्हें देखना चाहिए कि वे वाया अन्ना, केजरीवाल की पार्टी में शामिल हो गई हैं। जो लोग अपने को अन्ना के साथ मान कर पार्टी से अलग मान रहे हैं, वे खुद अपने को मुगालते में रखने की कोशिश करते हैं। पार्टी न अन्ना से अलग है, न रामदेव से और न दोनों की मानसिकता से। मनमोहन सिंह से अलग तो है ही नहीं। तीसरी बात हम यह कहना चाहते हैं कि इस पार्टी के निर्माण की पूरी रणनीति कपट से भरी रही है। संप्रदायवादियों और आरक्षण विरोधियों को पूरा भरोसा दिलाने के बाद अब धर्मनिरपेक्षतावादियों और सामाजिक न्यायवादियों को अपने लपेटे में लेने की कोशिश की जाएगी। चुनावी जीत के लिए जरूरी मुसलमानों को वोट बैंक बनाने की भी कोई जुगत रची जाएगी। कहने की जरूरत नहीं कि कपटपूर्ण रणनीति से निकली पार्टी का नाम भी कपट से भरा है, जिस पर हम आगे विचार करेंगे। यहां यह बताना चाहते हैं कि इस पूरे खेल में कपट-क्रीड़ा के साथ एक-दूसरे को इस्तेमाल करने का खेल भी चल रहा है। बानगी के लिए अन्ना और केजरीवाल के बीच की लप्प-झप्प देखी जा सकती है। अन्ना ने केजरीवाल से अपना और आईएसी का नाम इस्तेमाल करने से मना किया है। यह बात उन्हें तब ख्याल नहीं आई जब केजरीवाल उन्हें ‘मसीहा’ बना रहे थे। 

अन्ना भी एनजीओ की पैदावार हैं और केजरीवाल भी। बाकी जीवन व्यापारों की तरह एनजीओ व्यापार भी स्थैतिक यानी ठहरा हुआ नहीं होता। लिहाजा, अन्ना के एनजीओ व व्यक्तित्व और केजरीवालों के एनजीओ व व्यक्तित्व में समय के अंतराल के चलते काफी फर्क है। लोहिया का शब्द लें तो नए एनजीओबाज 'लोमड़ वृत्ति' के हैं। उसके सामने अन्ना जैसा कच्छप गति वाला व्यक्ति इस्तेमाल होने को अभिशप्त है। अन्ना के समय में मीडिया क्रांति नहीं हुई थी। लोग बताते हैं कि उन्हें फोटो वगैरह खिंचवाने के लिए मीडिया वालों का काफी इंतजार करना पड़ता था। कई बार निराशा भी हाथ लगती थी। मीडिया में प्रसिद्धि की उनकी भूख का केजरीवाल ने बखूबी इस्तेमाल किया है। अभी दोनों में और टीम के बाकी प्रमुख लोगों में एक-दूसरे को इस्तेमाल करने के दाव-पेंच देखने मिलेंगे। एक-दूसरे को इस्तेमाल करने का खेल इसकी जरा भी शर्म किए बगैर चलेगा कि ये सभी महाशय पूंजीवादी साम्राज्यवाद के समग्र खेल में इस्तेमाल हो रहे हैं। आप कह सकते हैं फिर भला मनमोहन सिंह को ही क्यों शर्म आनी चाहिए!

चौथी बात यह कि ‘यूथ फॉर इक्वैलिटी’ में विश्‍वास करने वाली पार्टी यह भली-भांति जानती है कि भारत में युवा-शक्ति का मतलब अगड़ी सवर्ण जातियों के युवा होते हैं। इस पार्टी का दारोमदार उन्हीं पर है, और रहेगा। सुना है पार्टी की स्थापना के मौके पर तलवार वगैरह भांजी गई हैं। पांचवी बात यह कि समाजवादियों ने एक बार फिर अपनी ‘जात’ दिखा दी है। अभी तक वे संघियों और कांग्रेसियों के पिछलग्गू थे, अब एनजीओबाजों के भी हो गए हैं। किशन पटनायक को गुरु धारण करने वाले केजरीवाल के शिष्य बन गए हैं। मामला यहीं नहीं रुकता। जो वरिष्ठ समाजवादी लोहिया को ही पहला, अकेला और अंतिम गुरु मानते रहे और दूसरों को चरका देते रहे, उन्होंने भी केजरीवाल को राजनीतिक गुरु मानने में परेशानी नहीं हुई। मेधा पाटकर ने अन्ना को गुरु कबूल किया है, तो वे केजरीवाल की गुरुबहन हो गईं। आजकल के गुरु लोग अपनी सुरक्षा का निजी इंतजाम रखते हैं। भारतीय किसान यूनियन ने खुद आगे बढ़ कर यह जिम्मेदारी उठा ली है। 

छठी बात यह है कि इस पार्टी के बनाने में वे सभी शामिल हैं, जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शामिल और उसके समर्थक थे। क्योंकि यह पार्टी, जैसा कि कुलदीप नैयर ने उसकी तारीफ में कहा है, ‘आंदोलन की राख से उठी है’। अति वामपंथियों से लेकर अति गांधीवादियों तक ने अन्ना की टोपी पहन ली थी। उनमें सामान्य कार्यकर्ता, बड़े नेता और बुद्धिजीवी शामिल थे। आज भी अपने को अल्ट्रा मार्क्‍सवादी जताने वाले कई साथी केजरीवाल के ‘पोल खोल’ कार्यक्रम पर उन्हें सलाम बजाते और उनके आंदोलन में नैतिक आभा कम न हो जाए, इस पर चिंतित होते देखे जा सकते हैं। यहां हम थोड़ा बताना चाहेंगे कि हमने बिल्कुल शुरू में आगाह किया था कि कम से कम ऐसे राजनीतिक संगठनों और लोगों को इस आंदोलन का हिस्सा नहीं होना चाहिए, जो समाजवादी विचारधारा और व्यवस्था में विश्‍वास करते हों। लेकिन जब एबी बर्द्धन और वृंदा करात जैसे अनुभवी नेता रामलीला मैदान जा पहुंचे तो बाकी की क्या बिसात थी। राजनैतिक डर उन्हें उस आंदोलन में खींच ले गया, जिसमें उमा भारती से लेकर गडकरी तक, चौटाला से लेकर शरद यादव तक शिरकत करने पहुंचे। बाद में तो सबके लिए खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया। उनमें यह डर नहीं पैदा होता, अगर उन्होंने समाजवाद की किताबी से ज्यादा जमीनी राजनीति की होती। वे विवेकानंद से लेकर अंबेडकर तक को अपने शास्त्र में फिट करने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनके शास्त्र से कोई स्वतंत्र संवाद किया जा सकता है, जैसा कि भारत में आचार्य नरेंद्र देव, जेपी और लोहिया ने किया, यह उन्हें बरदाश्‍त नहीं है। उन्हें चीन का ‘मार्केट सोशलिज्म’ मंजूर है, लेकिन ‘देशी समाजवाद’ की बात करने के बावजूद भारतीय समाजवादी चिंतकों को बाहर रखते हैं। दरअसल, यह डर हमेशा बने रहना है; उसी तरह जैसे शास्त्र को प्रमाण मानने वाला ब्राह्मण हमेशा डरा रहता है और रक्षा के लिए बार-बार देवताओं के पास भागता है। 

सातवीं बात यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में नवउदारवाद के खिलाफ वास्तवकि संघर्ष को निरस्त करने की राजनीति पहले से निहित थी। उसे ही तेज करने के लिए नई पार्टी बनाई गई है। लिहाजा, कुछ भले लोगों का यह अफसोस जताना वाजिब नहीं है कि राजनीति जैसी गंदी चीज में इन अच्छे लोगों को नहीं पड़ना चाहिए। आठवीं बात यह कि एनजीओ वालों को धन देकर काम कराने की आदत होती है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में यह काम खूब हुआ है। पार्टी में भी होगा। एक वाकया बताते हैं। हम लोग सितंबर के अंतिम सप्ताह में जंतर-मंतर पर एफडीआई के खिलाफ क्रमिक भूख हड़ताल पर थे। 23  सितंबर को वहां केजरीवाल का कार्यक्रम था। सुबह दस बजे से कुछ युवक और अधेड़ तिरंगा लेकर एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर लगाने लगे। सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं से बातचीत में उन्होंने बताया कि वे इक्कीस सौ रुपया की दिहाड़ी पर हरियाणा से आए हैं। 

जैसा कि अक्सर होता है, जंतर-मंतर पर पूरा दिन और कुछ देर के लिए होने वाले कई कार्यक्रम थे। केजरीवाल के समर्थकों द्वारा बजाए गए डीजे की तेज आवाज ने सभी को परेशान करके रख दिया था। देशभक्ति के फिल्मी गीत बार-बार बजाए जा रहे थे। पुलिस का एक वरिष्ठ कांस्टेबल हमारे पास आया कि हम उन्हें तेज आवाज में डीजे बजाने से रोकें, क्योंकि वे उसके कहने से नहीं मान रहे हैं। डीजे पूरा दिन लगातार बजता रहा। शाम के वक्त केजरीवाल आए और उनका भाषण शुरू हुआ तो उनके समर्थकों ने हमसे आदेश के स्वर में माइक व भाषण बंद करने को कहा। सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें डपटा तो वे आंखें दिखाने लगे। हमने खुद उन्हें समझा कर वहां से हटाया। 

नौवीं बात है कि कांग्रेस और भाजपा का चेहरा काफी बिगड़ गया है। क्षेत्रीय दलों के नेताओं में एक भी ‘अंतरराष्ट्रीय’ केंडे का नहीं है। पूंजीवादी साम्राज्यवाद के नेटवर्क से जुड़े अपने अधीनस्थ देशों में साफ-सुथरे चेहरों की पार्टी, जो लोकतंत्र की सबसे ज्यादा बात करे, अमेरिका की अभिलाषा होती है। जो देश उसके नेटवर्क में फंसने से इनकार करते हैं, वहां वह खुद हमला करके अपने माफिक नेता बिठा देता है। पार्टी का पंजीकरण हुए बिना ही अगले आम चुनाव में सभी सीटों पर उम्मीदवार लड़ाने की घोषणा बताती है कि नई पार्टी के लिए धन की कोई समस्या नहीं होगी। दसवीं और अंतिम बात यह कि यह सब प्रदर्शन - ‘मैं अन्ना हूं’, ‘मैं केजरीवाल हूं’, ‘मैं आम आदमी हूं’ - हद दरजे का बचकानापन है। मुक्तिबोध ने भारत के मध्य-वर्ग की इस प्रवृत्ति को ‘दुखों के दागों को तमगे-सा पहना’ कह कर अभिव्यक्त किया है। कपट, इस्तेमाल-वृत्ति और लफ्फाजी से भरे आंदोलन से कोई जेनुइन राजनीतिक पार्टी नहीं निकल सकती है। 

पार्टी को एक तरफ छोड़ कर ‘आम आदमी’ पर थोड़ी चर्चा करते हैं, जिसकी दावेदारी में कांग्रेस और भाजपा नई पार्टी के साथ उलझे हैं। लाखों-करोड़ों में खेलने वाले लोग जब ‘मैं आम आदमी हूं’ की टोपी लगाते हैं, तो उसका पहला और सीधा अर्थ गरीबों के उपहास में निकलता है। अगर लाखों की मासिक तनख्वा और फोर्ड फाउंडेशन जैसी पूंजीवाद की जमी हुई संस्थाओं से करोड़ों का फंड पाने वाले लोग अपने को आम आदमी कहें, तो यह गरीबों के सिवाय अपमान के कुछ नहीं है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर जो अकूत खर्चा किया गया है, वह दरअसल इस पार्टी के निर्माण पर किया गया खर्च है। आम आदमी से अगर मुराद गरीबों से है, जैसे कि दावे हो रहे हैं, तो कोई उन्हें इतना धन देने वाला नहीं है कि वे अपनी पार्टी धन की धुरी पर खड़ी कर सकें। गरीबों की किसी भी पार्टी को याराना पूंजीवाद का यार याराना मीडिया दिन-रात तो क्या, कुछ सेकेंड तक नहीं देगा। लिहाजा, यह स्पष्ट है कि आम आदमी का अर्थ गरीब आदमी नहीं है - न कांग्रेस के लिए, न आम आदमी की टोपी पहनने वालों के लिए।

 ‘आम आदमी’ की अवधारणा पर थोड़ा गंभीरता से सोचने की जरूरत है। आजादी के संघर्ष के दौर में और आजादी के बाद आम आदमी को लेकर राजनीतिक और बौद्धिक हलकों में काफी चर्चा रही है, जिसका साहित्य और कला की बहसों पर भी असर पड़ा है। साहित्य में आम आदमी की पक्षधरता के प्रगतिवादियों के अतिशय आग्रह से खीज कर एक बार हिंदी के ‘व्यक्तिवादी’ साहित्यकार अज्ञेय ने कहा कि ‘आम आदमी आम आदमी ... आम आदमी क्या होता है?’ उनका तर्क था कि साहित्यकार के लिए सभी लोग विशिष्ट होते हैं। राजनीति से लेकर साहित्य तक जब आम आदमी की जोरों पर चर्चा शुरू हुई थी, उसी वक्त आम आदमी का अर्थ भी तय हो गया था। उस अर्थ में गांधी का 'आखिरी आदमी' कहीं नहीं था। आम आदमी की पक्षधरता और महत्ता की जो बातें हुईं, वे शुरू से ही ‘मेहनत-मजदूरी’ करने वाले गरीब लोगों के लिए नहीं थीं। सब टीवी पर एक सीरियल ‘आरके लक्ष्मण की दुनिया’ आता है। उसका उपशीर्षक होता है ‘आम आदमी के खट्टे-मीठे अनुभव’। यह सीरियल उस आम आदमी की तस्वीर पेश करता है, जो आम आदमी की अवधारणा में निहित रही है। ये आम आदमी ज्यादातर नौकरीपेशा हैं, साफ-सुथरी और सुरक्षित हाउसिंग सोसायटी के फ्लैट में रहते हैं, मोटे-ताजे सजे-धजे होते हैं, स्कूटर-कार आदि वाहन रखते हैं, आमदनी बहुत नहीं होती लेकिन खाने-पीने, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, सैर-सपाटा-पिकनिक, बच्चों का कैरियर आदि ठीक से संपन्न हो जाते हैं। मध्य-वर्ग ने आम आदमी की अवधारणा में अपने को ही फिट करके उसकी वकालत और मजबूती में सारे प्रयास किए हैं और आज भी वही करता है। आम आदमी मध्यवर्गीय अवधारणा है। उसका गरीब अथवा गरीबी से संबंध हो ही नहीं सकता था। क्योंकि मध्य-वर्ग को अपने केंद्र में लेकर चलने वाली आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का यह वायदा रहा है कि वह किसी को भी गरीब नहीं रहने देगी। दूसरे शब्दों में, जो गरीब हैं, उन्हें होना ही नहीं चाहिए। भारत का यह ‘महान’ मध्य-वर्ग, जो नवउदारवाद के पिछले 25 सालों में खूब मुटा गया है, आम आदमी के नाम पर अपनी अपनी स्थिति और मजबूत करना चाहता है। वह सब कुछ अपने लिए चाहता हैं, लेकिन गरीबों का नेता होने की अपनी भूमिका को छोड़ना नहीं चाहता। इस पाखंड ने भारत की गरीब और आधुनिकता में पिछड़ी जनता को अपार जिल्लत और दुख दिया है।  भारत का मध्य-वर्ग मुख्यतः अगड़ी सवर्ण जातियों से बनता है। यही कारण है कि इस आंदोलन और उससे निकली पार्टी का वर्णाधार अगड़ी सवर्ण जातियां हैं, जिनका साथ दबंग पिछड़ी जातियां देती हैं। इसी आधार पर पार्टी के नेताओं ने युवकों का आह्वान किया है कि वे जातिवादी नेताओं को छोड़ कर आगे आएं और मध्य-वर्ग नाम की नई जाति में शामिल हों। यहां उनकी जात भी ऊंची होगी, और वर्ग-स्वार्थ भी बराबर सधेगा।    

राजनीति में विदेशी निवेश 

आम आदमी पार्टी का बनना अचानक या अस्वाभाविक घटना नहीं है। किशन पटनायक ने एक जगह आक्रोश में कहा है कि जब देश में विदेशी धन से सब हो रहा है, पेड़ तक विदेशी धन से लग रहे हैं, तो अमुक क्षेत्र में विदेशी निवेश क्यों नहीं होगा? आज वे होते तो कहते कि विदेशी धन से चलने वाले एनजीओ जब समाज, शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, मानवाधिकार, नागरिक अधिकार, लोकतंत्र सुधार/संवर्द्धन आदि का काम बड़े पैमाने पर करते हैं, तो राजनीति क्यों नहीं करेंगे? एनजीओ पूंजीवादी व्यवस्था के अभिन्न अंग हैं, जो उसके विरोध की राजनीतिक संभावनाओं को खत्म करते हैं। वे बताते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था अपने में पूर्ण और अंतिम हैं। अगर किसी समाज में समस्याएं हैं, तो वहां के निवासी एनजीओ बना कर धन ले सकते हैं और उन समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। उसके लिए पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध करने की जरूरत नहीं है। देश में जब सब क्षेत्रों में धड़ाधड़ एनजीओ काम कर रहे हैं, तो राजनीति भी अपने हाथ में लेने की कोशिश करेंगे ही। आखिर सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति (नैक) में कितने एनजीओ वालों को खपाया जा सकता है? सुनते हैं, केजरीवाल नैक में शामिल होना चाहते थे, लेकिन वहां जमे उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उनका रास्ता रोक दिया। आखिर आदमी केवल प्रवृत्ति नहीं होता; उसकी अपनी भी कुछ फितरत होती है। मनमोहन सिंह का यह बच्चा रूठ कर कुछ उच्छ्रंखल हो गया है। उच्छ्रंखलता ज्यादा न बढ़े, इसके लिए कतिपय पालतू बच्चे पार्टी में शामिल हो गए हैं। यह उनका अपना निर्णय है या खुद मनमोहन सिंह मंडली ने उन्हें वहां भेजा है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। 

एनजीओ द्वारा कार्यकर्ताओं को हड़पने की समस्या पहले भी रही है। फर्क इतना आया है कि एनजीओं के जाल में पुराने लोग भी फंसने लगे हैं। यह स्थिति नवउदारवादी व्यवस्था की मजबूती की दिशा में एक और बढ़ा हुआ कदम है। इस बीच घटित एक वाकये को रूपक के रूप में पढ़ा जा सकता है। 1995 में बनी राजनीतिक पार्टी समाजवादी जन परिषद (सजप) के वरिष्ठ नेता सुनील एक प्रखर विचारक और प्रतिबद्ध समाजवादी कार्यकर्ता हैं। जेएनयू से अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद से वे पूर्णकालिक राजनीतिक काम कर रहे हैं। किशन पटनायक द्वारा शुरू की गई ‘सामयिक वार्ता’ का समता संगठन और बाद में सजप के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। किशन जी के रहते ही यह पत्रिका अनियमित होने लगी थी, जिसकी उन्हें सर्वोपरि चिंता थी। उनके बाद पत्रिका के संपादक बने साथी ने उसे अपना प्राथमिक काम नहीं बनाया। जबकि संपादकी की जिम्मेदारी लेने वाले किसी भी साथी को उसे अपना प्राथमिक काम स्वीकार करके ही वैसा करना चाहिए था। इस दौरान पत्रिका की नियमितता पूरी तरह भंग हो गई। अब पिछले दो-तीन महीने से सुनील उसे केसला-इटारसी से निकालने और फिर से जमाने की कोशिश  कर रहे हैं। सुनील राजनीति करने वाले थे, और संपादक बने साथी फोर्ड फाउंडेशन से संबद्ध हैं। अब सुनील पत्रिका निकाल रहे हैं और राजनीति करने का काम किशन जी के बाद संपादक बने साथी ने सम्हाल लिया है। सजप के भीतर यह फेर-बदल होता तो उतनी परेशानी की बात नहीं थी। उनका मन बड़ा है! वे केजरीवाल की नई पार्टी की राजनीति कर रहे हैं। कह सकते हैं, जो जहां का होता है, अंततः वहीं जाता है। लेकिन इस नाटक में बड़ी मशक्कत से खड़े किए गए एक संगठन और उससे जुड़े नवउदारवाद विरोधी संघर्ष का काफी नुकसान हुआ है। कहना न होगा कि इससे किशन पटनायक की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगा है। आप समझ गए होंगे हम साथी योगेंद्र यादव की बात कर रहे हैं। हमने इस प्रसंग को रूपक के बतौर रखा है, जिसमें सुनील और योगेंद्र व्यक्ति नहीं, दो प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं।

साम्राज्यवाद की सगुणता के कई रूप हैं। विदेशी धन उनमें शायद मूलभूत है। पूरी दुनिया में बिछा बहुराष्ट्रीय कंपनियों और एनजीओ का फंदा उसीसे मजबूती से जुड़ा है। विदेशी धन, चाहे कर्ज में आया हो चाहे खैरात में, वह खलनायक है जो हमारे संसाधनों, श्रम और रोजगार को ही नहीं लूटता, स्वावलंबन और स्वाभिमान का खजाना भी लूट लेता है। उसके बाद कितना भी तिरंगा लहराया जाए, देशभक्ति के गीत गाए जाएं, न स्वावलंबन बहाल होता है, न स्वाभिमान। केवल एक झूठी तसल्ली रह जाती है। सोवियत संघ के विघटित होने के बाद यह प्रकाश में आया कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को वहां से कितना धन मिलता था। उस समय गुरुवर विश्‍वनाथ त्रिपाठी ने हमें बगैर पूछे ही कहा कि ‘क्या हुआ, धन क्रांति करने के लिए लिया था।’ सवाल है कि अगर लिया था तो क्रांति का क्या हुआ? एक दौर के प्रचंड समाजवादी जार्ज फर्नांडीज पर आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने सोशलिस्ट इंटरनेशनल से धन लिया। वे भी सोचते होंगे कि उन्होंने धन समाजवादी क्रांति करने के पवित्र उद्देश्य के लिए लिया है। आज वे कहां हैं, बताने की जरूरत नहीं। विदेशी धन का यह फंदा काटना ही होगा। नई पार्टी ने स्वराज लाने की बात कही है। लेकिन वह झांसा ही है। एनजीओ वाले कैसे और कैसा स्वराज लाते हैं उसका जिक्र हमने ‘भ्रष्टाचार विरोध: विभ्रम और यथार्थ’  शीर्षक ‘समय संवाद’ में किया है, जो अब इसी नाम से प्रकाशित पुस्तिका में उपलब्ध है। अब दोनों ही बातें हैं। नुकसान की भी और फायदे की भी। फायदे की बात पर ध्यान देना चाहिए। जो इस नवउदारवादी प्रवाह में शामिल नहीं हुए, उनकी समझ और रास्ता अब ज्यादा साफ होंगे। जो शामिल हुए, लेकिन लौट आए, यह अफसोस करना छोड़ दें कि कितनी बड़ी ऊर्जा बेकार चली गई! ऊर्जा कभी बेकार नहीं जाती। वह जिस काम के लिए पैदा हुई थी, वह काम काफी कुछ कर चुकी है और आगे करेगी। साथी अपना काम इस बार ज्यादा ध्यान से करें। उनके पास यह ताकत कम नहीं है कि वे बदलाव नहीं कर पा रहे हैं, तो कम से कम देश की बदहाल आबादी के साथ धोखाधड़ी नहीं कर रहे हैं। 

लोग राजनीति को कहते हैं, हमारा मानना है कि मानव जीवन ही संभावनाओं का खेल है। यह भी हो सकता है मोहभंग हो और नई पार्टी से कुछ लोग बाहर आएं। जीवन में सीख की बड़ी भूमिका होती है। उससे नवउदारवाद विरोधी आंदोलन को निश्चित ही ज्यादा बल मिलेगा।

 26 नवंबर 2012     


Saturday, August 15, 2020

स्वतंत्रता दिवस के कर्तव्य-प्रेम सिंह

 (यह लेख साल 2013 के स्वतंत्रता दिवस पर 'युवा संवाद' मासिक के 'समय संवाद' स्तंभ में छपा था। साल 2020 के स्वतंत्रता दिवस पर शुभकामनाओं के आदान-प्रदान के साथ हम कुछ आत्मालोचना भी करें, इस उम्मीद पर यह लेख यथावत रूप में फिर जारी किया गया है। मेरी कई बातें लिबरल-सेकुलर साथियों को पसंद नहीं आतीं। उनकी एकजुट सत्ता की अपनी दुनिया है, जिसमें मेरी अनदेखी की जाती है। देखते हैं उनकी यह रणनीति कब तक काम देती है?) 

 आत्मालोचन का दिन

 

पिछले स्वतंत्रता दिवस के समय संवाद और उसके आगे-पीछे हमने जो लिखा, इस स्वतंत्रता दिवस पर उससे अलग कुछ कहने के लिए नहीं है। कहना एक ही बार ठीक रहता है। भले ही वह स्वतंत्रता जैसे मानव-जीवन और मानव-सभ्यता के संभवतः सर्वोपरि मूल्य के बारे में हो। दोहराव के भय से इस बार का समय संवादहम नहीं लिखना चाहते थे। फिर सोचा कि शासक-वर्ग और उसका प्रस्तोता मीडिया दिन-रात दोहरावों की झड़ी लगाए रहते हैं, तो हमें भी किंचित दोहराव के बावजूद अपनी बात कहनी चाहिए। आइए, भारी सुरक्षा घेरे में गांधी के आखिरी आदमी से बहुत दूर और ऊंचे आयोजित छियासठवें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश की आजादी के बारे में कुछ चर्चा और सवाल करें। इस आशा के साथ कि सड़सठवें साल में देश की आजादी पर आए संकट को समझा जाएगा और उसका मुकाबला हो पाएगा। 

 

जिस आजादी पर हासिल होने के दिन से ही अधूरी होने का ठप्पा लगा हो, हर स्वतंत्रता दिवस पर यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि वह उत्तरोत्तर पूर्णता और मजबूती की ओर अग्रसर है। अगर किसी वर्ष कोई ऐसी घटना या फैसला सरकार, राजनीति अथवा नागरिक- समाज के स्तर पर हो गया हो, जिससे आजादी का अवमूल्यन हुआ हो और वह खतरे में पड़ी हो, तो स्वतंत्रता दिवस के मौके पर यह सुनिश्चित किया जाए कि वह गलती स्वीकार करके उसे ठीक कर लिया गया है। स्वतंत्रता दिवस यह देखने का भी मौका होता है कि वैचारिक और नीतिगत मतभेदों के बावजूद आजादी को पूर्ण और मजबूत बनाने के दायित्व पर सभी राजनीतिक पार्टियां, संगठन और नागरिक समाज एकमत हैं। भारत जैसे विशाल और बहुलताधर्मी देश में अलग-अलग समूहों की अपने हितों की चिंता वाजिब है,लेकिन इस मौके पर हम यह देखें कि समग्रता में उससे देश की आजादी की काट न हो। यह सुनिश्चित करें कि बुद्धिजीवी खास तौर पर सावधान हैं, ताकि नई पीढ़ी आजादी का मूल्य भली-भांति समझ कर अपना कर्तव्य निर्धारित करती और निभाती चले। स्वतंत्रता दिवस और उसके आगे-पीछे आजादी के तराने गाने, तिरंगा लहराने और शहीदों के गुणगान का तभी कोई अर्थ है। स्वतंत्रता दिवस पर हम यह सुनिश्चित करें कि देश की आजादी को सच्चा प्यार करके ही उसके लिए कुर्बानी देने वालों का सच्चा सम्मान किया जा सकता है।   

 

सवाल है कि क्या प्रत्येक आने वाले स्वतंत्रता दिवस पर देश की आजादी पूर्णता और मजबूती की तरफ बढ़ती है? गलतियां अगर होती हैं तो क्या उनसे सीख लेने की कोई नजीर सामने आती है? आजादी के प्रति सभी सरकारों, राजनीतिक पार्टियों और नागरिक-समाज का साझा संकल्प है? अपने हितों की चिंता करने वाले समूह समग्रतः आजादी की रक्षा का ध्यान करके चलते हैं? क्या देश के बुद्धिजीवी अपनी भूमिका में मुस्तैद हैं? क्या नई पीढ़ी आजादी के प्रति अपना कर्तव्य समझती है? क्या हम शहीदों का सच्चा सम्मान करते हैं?

 

बिना गहरी जांच-पड़ताल के पता चल जाता है कि ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं होने की चिंता भी ज्यादातर नेताओं से लेकर नागरिक-समाज तक नहीं दिखाई देती। बल्कि कह सकते हैं कि पिछले 25 स्वतंत्रता दिवसों पर लाल किले से नवसाम्राज्यवादी गुलामी का परचम फहराया जाता रहा है। लाल किले के भाषण में बच्चों से लेकर नौजवानों तक आजादी को पूर्ण और मजबूत बनाने का संदेश नहीं दिया जाता। ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियां, नागरिक-समाज और बुद्धिजीवी आजादी के इस अवमूल्यन में बेहिचक शामिल हैं।

 

15 अगस्त 1947 को मिली राजनीतिक आजादी को अधूरा माना गया था। कहा गया था कि अभी आर्थिक आजादी हासिल करना है। पिछले करीब तीन दशकों में आर्थिक गुलामी का तौक गले में डाल कर राजनीतिक आजादी को भी लगभग गंवा दिया गया है। हर साल शानो-शौकत से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाने और देशभक्ति का भारी-भरकम प्रदर्शन करने के बावजूद, लंबे संघर्ष के बाद हासिल की गई आजादी नहीं, नवसाम्राज्यवादी गुलामी पूर्णता और मजबूती की ओर बढ़ती जाती है। नवसाम्राज्यवादी गुलामी का गहरा रंग देखना हो तो कोई भारत आए। यहां कारपारेट पूंजीवाद की गुलामी में पगे नेताओं,खिलाडि़यों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों का उत्साह और उमंग देख कर लगता है मानो वे विज्ञापन की दुनिया के मॉडल हों! मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी मंडली ही नहीं, एपीजे अब्दुल कलाम और लालकृष्ण अडवाणी भारत के महाशक्ति बनने के गीत गाते नहीं थकते हैं। अधूरी आजादी का पूरा फायदा उठा कर भारत का शासक-वर्ग कंपनियों के मुनाफे की वस्तु बन गया है।

 

इस उमंग भरे माहौल का दबदबा इतना ज्यादा है कि नवउदारवाद-विरोध की लघु-धारा के कतिपय वरिष्ठ आंदोलनकारी और बुद्धिजीवी भी उसकी चपेट में आ जाते हैं। दोबारा पटरी पर आना उनके लिए कठिन हो जाता है। ऐसे में, नवउदारवादी नीतियों के चलते उच्छिष्ट का ढेर बना दी गई विशाल आबादी की दशा समझी सकती है। वह खटती और मरती भी है, और नकल भी करती है। इस तरह पूंजीवाद अपने शासक-वर्ग के साथ-साथ अपनी (गुलाम) जनता भी तैयार करता चलता है।

 

इस बीच आरएसएस से लेकर गांधीवादी,समाजवादी, मार्क्‍सवादी आदि सभी राजनीतिक-वैचारिक समूह आजादी पर आने वाले संकट और उसे बचाने की चिंता जता चुके हैं। लेकिन नवसाम्राज्यवाद की ताकत कहिए या आजादी की सच्ची चेतना का अभाव या दोनों, उस चिंता का खोखलापन अथवा कमजोरी जगजाहिर होते देर नहीं लगती। आजादी बचाने की पुकार उठती है और बुलबुले की तरह फूट जाती है। ऐसा नहीं है कि आजादी को बचाने के सच्चे प्रयास नहीं हुए या अभी नहीं हो रहे हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि इस मामले में शोर ज्यादा मचाया गया है। आजादी को बचाने के लिए ठोस विचार और रणनीति के तहत दीर्घावधि आंदोलन नहीं खड़ा हो पाया है। आज की हकीकत यह है कि आजादी बचाने की वास्तविक चिंता करने वाले लोग अब बहुत थोड़े और उपेक्षित हैं।

 

ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता दिवस पर सर्वाधिक गंभीरता और प्राथमिकता से देश के पराधीन होते जाने की परिघटना पर विचार होना चाहिए। उसके बगैर न केवल नवउदारीकरण के दौर में भिखारी बना दी गई जनता के लिए हमारी चिंता का कोई हासिल नहीं है,हमारे प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष बौद्धिक कर्म का भी स्वतंत्र अर्थ नहीं रह जाता है। क्रांति के दावों की दयनीयता तो स्वयंसिद्ध है ही।

 

नवउदारवादी दौर में बने निगम भारत (कारपोरेट इंडिया) की सत्ता पर आरएसएस जब-जब धावा बोलता है, तब-तब सेकुलर खेमे के बुद्धिजीवी उसके देशद्रोहीचरित्र को उद्घाटित करने में लग जाते हैं। ऐसा करते वक्त वे अपने को देशभक्ति और आजादी का पक्का पैरोकार होने का प्रमाणपत्र देते ही हैं, सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह और कांग्रेस को भी वह थमा देते हैं। बार-बार दोहराई जाने वाली इस कवायद का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकलता। न सांप्रदायिकता कम होती है, न नवउदारवाद थोड़ा भी पीछे हटता है। बल्कि दोनों कट्टर होते और एक-दूसरे में समाते जाते हैं। उस सम्मिलित कट्टरता के प्रहार से समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की जमीन धसकती चली जाती है। भारत के संविधान में निहित समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और संकल्प की रक्षा ही आजादी की रक्षा है। हमारी राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिकता की यही कसौटी हो सकती है।   

 

यह सही है कि आरएसएस पूंजीपतियों से सांठ-गांठ रखता है। उसका नया जमूरा नरेंद्र मोदी पूंजीपतियों के आगे नाच रहा है। लेकिन, कांग्रेस पूंजीपतियों की सबसे बड़ी करुणानिधान पार्टी है, इस सच्चाई को सेकुलर खेमा जोर देकर कभी नहीं कहता। वह आरएसएस के रहस्मय चरित्र की गहराइयों में काफी नीचे तक धंसता है, लेकिन कांग्रेस के खुला खेल पूंजीवादी की तरफ से आंख फेरे रहता है। वह नेहरू-इंदिरा की कांग्रेस का भी सेवक बना रहा और अब सोनिया गांधी की कांग्रेस का सेवक है। नरेंद्र मोदी बुरा है, क्योंकि कारपोरेट घरानों को रिझाने में लगा है। सेकुलर खेमे की शिकायत वाजिब है कि मीडिया उसे पूंजीवाद का नया ब्रांड बना कर समाज के सामने परोस रहा है। लेकिन यही मीडिया नरेंद्र मोदी के पहले मनमोहन सिंह को कारपोरेट पूंजीवाद का पुरोधा बना कर जमा चुका है। सेकुलरवादियों समेत नागरिक-समाज की स्वीकृति दिला चुका है। अटल बिहारी वाजपेयी अपना अलग से पूंजीवाद लेकर नहीं आए थे। उन्होंने अपने स्वदेशी पैर मनमोहन सिंह के अमेरिकी जूते में ही डाले थे। नरेंद्र मोदी को भी मनमोहन सिंह लेकर आए हैं। उनका सत्ता का आपसी झगड़ा है। अमेरिका और कारपोरेट घराने जिस की तरफ रहेंगे वह जीत जाएगा। 

 

ऐसे में सवाल पूछा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी से मनमोहन सिंह किस मायने में बेहतर हैं; सिवाय इसके कि नवउदारवाद को भारत में लाने और जमाने वालों में वे अव्वल नंबर पर हैं। उसी हैसियत के चलते वे तीसरी बार प्रधानमंत्री होने के दावेदार हैं। सांप्रदायिक ताकतों को ठिकाने लगाने की कुछ ताकत अभी भारतीय जनता में बची है। लेकिन नवसाम्राज्यवाद के सामने वह लाचार बना दी गई है। जनता की यह लाचारी आगे बढ़ती जानी है। इसकी सीधी जिम्मेदारी मनमोहन सिंह और उनके सिपहसालारों की है।

 

पिछले दो सालों से मनमोहन सिंह पर नागरिक-समाज का काफी तेज गुस्सा देखने को मिला। यह गुस्सा तभी आना चाहिए था जब उन्होंने देश के संविधान को दरकिनार कर विश्‍व बैंक के आदेश पर नई आर्थिक नीतियां लागू की थीं और देश की आजादी को सीधे नवसाम्राज्यवादी शिकंजे में फंसा दिया था। वे राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, न आज हैं। वे ऐसा कर पाए और उस दम पर दो बार देश के प्रधानमंत्री बन गए, यह नागरिक-समाज की सहमति के बिना संभव ही नहीं था। नागरिक-समाज को अब भी जो गुस्सा आ रहा है, वह देश के स्वावलंबन और संप्रभुता को चट कर जाने वाली उन नीतियों के खिलाफ नहीं है। वह नवउदारवाद का साफ-सुथरा चेहरा और अपने लिए और ज्यादा फायदा चाहता है। ऐसे गुस्से का कोई परिणाम देश की आजादी के पक्ष में नहीं निकलना है। भाजपा के पक्ष में भले ही निकले, जिसका स्टार प्रचारक नागरिक-समाज की समस्त लालसाओं को चुटकियों में पूरा करने का ढोल पीट रहा है। 

 

कुमार प्रशांत ने जनसत्ता के अपने एक लेख में मनमोहन सिंह को संजीदा इंसान बताया है। यह भी कहा है कि बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने हमेशा शालीनता का आचरण किया है, जिससे विदेशों में भारत का मान बढ़ा है। मनमोहन सिंह की यह प्रशंसा उन्होंने नरेंद्र मोदी से तुलना करते हुए की है, जिन्होंने एलान करके 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के लालकिले से दिए गए भाषण के मुकाबले अपना भाषण किया। स्वतंत्रता दिवस नेताओं के व्यक्तित्वों की तुलना करने का अवसर नहीं होता। नरेंद्र मोदी और आरएसएस खुद ही एक्सपोज हो गए कि उनकी नजर में स्वतंत्रता दिवस का सम्मान नहीं है। अडवाणी ने दबी जबान से मोदी के इस कृत्य की आलोचना भी की।   

 

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर जनसत्ता के पन्ने मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की तुलना में रंगने का औचित्य नहीं था। तुलना का तूमार बांधने के लिए खबरी चैनलों की भरमार है। उन्होंने वह काम बखूबी किया भी। हमने दोनों का भाषण नहीं सुना। न ही टीवी चैनलों पर होने वाली वे बहसें सुनी, जिनका जिक्र नाराजगी के साथ कुछ टिप्पणीकारों ने अगले दिन अखबारों में किया। चैनल यह नहीं कर सकते थे, अगर स्वतंत्रता दिवस की गरिमा, संवैधानिक दायित्व, लोकतांत्रिक मूल्य, संघीय ढांचा और देश की अखंडता का हवाला देने वाले विषेषज्ञ’ वहां नहीं जाते। इधर विषेषज्ञ कुछ ज्यादा ही हो गए हैं और उनमें ज्यादातर ने अपने को ऐसे एंकरों के हाथ बेच दिया है, जो कूपमंडूक और नवउदारवाद व सांप्रदायकिता के निःसंकोच गुण गाने वाले हैं।

 

गंभीर समझे जाने वाले बुद्धिजीवियों को यह बताना चाहिए था कि प्रधानमंत्री के भाषण में स्वतंत्रता की पूर्णता और मजबूती के लिए क्या कहा गया है; उस लिहाजा से दोनों के भाषणों में कोई फर्क नहीं था। दोनों नवउदारवाद की प्रतिष्ठा को स्वाभाविक कर्म मान कर बोले। संविधान की कसौटी पर दोनों के भाषण अवैध थे। दोनों में अंतर यही है कि मनमोहन सिंह नवउदारवाद की ब्रांडेड मशीन हैं, जो सीधे विश्‍व बैंक से खिंच कर आई है और मोदी आरएसएस के कारखाने में ढल कर निकलीदेसी मशीन है। दोनों में बाकी सब समान है। मोदी को मुसलमान पिल्ले नजर आते हैं तो मनमोहन को किसान निठल्ले। वे हैरानी से पूछते हैं कि किसान खेती (यानी आत्महत्या) क्यों करते हैं! कोई और काम क्यों नहीं कर लेते; पहले से ही कई करोड़ नौजवानों और अधेड़ों की बेरोजगार सेना जमा होने के बावजूद एक मशीन ही ऐसा कह सकती है, जिसमें संदेश पहले से फीड किया गया हो!

 

मोदी की भर्त्‍सना का खास मतलब नहीं है। मोदी को लाने वालों में सबसे पहला नाम मनमोहन सिंह का है। आरएसएस बाद में आता है। मोदी जिस संगठन से आते हैं, उसने आजादी के संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया। मौका पड़ने पर अंग्रेजों का साथ दिया। वह पुराना किस्सा है। लेकिन मनमेाहन का नया कमाल देखने के लायक है। उन्होंने और सोनिया गांधी ने मिल कर आजादी के संघर्ष की पार्टी को नवसाम्राज्यवादी गुलामी की पार्टी में तब्दील कर दिया है। बेहतर होता कि स्वतंत्रता दिवस पर बुद्धिजीवी यह सच्चाई जनता को बताते।

 

हमने एक समय संवाद में लिखा था, "मिश्रित अर्थव्यवस्था के करीब तीस सालों के दौर में जो साम्राज्यवादी बीज दब गया था उसने अस्सी के दशक में राजीव गांधी की छाया पाकर फूलना शुरू किया। नब्बे के दशक में उसने एक बार फिर से जड़ पकड़ ली और इक्कीसवीं सदी का जयघोष करते हुए उसकी कोपलें खिल उठीं। आज साम्राज्यवाद की संतानें ऐसा जता रही हैं मानो वे सदियों पुराना वटवृक्ष हैं। जैसे 1857 और 1947 हुआ ही नहीं था। अगले पचास साल भी नहीं लगेंगे, जब साम्राज्यवाद की संतानें कहेंगी कि 1947 होना ही नहीं चाहिए था। अगर उसका 1857 की तरह दमन कर दिया जाता तो भारत को महाशक्ति बनने के लिए 2020 का इंतजार नहीं करना पड़ता। जी हां,मनमोहन सिंह उसी साम्राज्यवादी बीज से उत्पन्न हुई संतान हैं। साम्राज्यवाद के सांचे में जो भी समाए हुए हैं,वे मनमोहन सिंह के बच्चे हैं। उनमें छोटे बच्चे भी हैं और बड़े भी।" (मिलिए हुकुम के गुलाम से' 2009नरेंद्र मोदी मनमोहन सिंह का ही छोटा बच्चा है, जो अब बड़ा बनने के लिए मचल उठा है।

 

हमने गुजरात-कांड पर गुजरात के सबक,2002) और अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक विचारधारा और शैली पर जानिए योग्य प्रधानमंत्री को,2002) पुस्तिकाएं प्रकाशित की थीं। संकलित अभी लेख अखबारों में छापर हुए थे। सेकुलर साथियों, जिनमें सोनिया के सेकुलर सिपाही भी शामिल थे, ने काफी उत्साह से उन पुस्तिकाओं का स्वागत और प्रचार किया था। पहुंच वाले साथियों ने उन्हें कांग्रेस के प्रचार-प्रकोष्ठ और प्रवक्ताओं तक पहुंचाया था। 2004 में राजग की हार हुई और यूपीए की सरकार बनी। लेकिन 2009 के चुनाव के पहले प्रकाशित हमारी पुस्तिका मिलिए हुकुम के गुलाम से’ के प्रकाशन पर उन सब ने चुप्पी साध ली। उसमें मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की, विशेष तौर पर भारत-अमेरिका परमाणु करार के हवाले से,साम्राज्यवादपरस्ती का उद्घाटन है। साथियों ने उस पुस्तिका का न स्वागत किया, न प्रचार। इससे स्पष्ट पता चलता है कि सेकुलर खेमे की चिंता केवल सांप्रदायिकता को लेकर है, नवउदारवाद के खिलाफ वह नहीं है। जबकि सांप्रदायिकता की आड़ में नवउदारवाद फलता-फूलता है।  

 

भारतीय राज्य के खिलाफ हिंसक संघर्ष चलाने वाले अतिवामपंथी समूह कहते हैं कि वे भारत के संविधान को नहीं मानते। उन्हें देखना चाहिए कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के नेतृत्व में भारत का शासक-वर्ग भी भारत के संविधान को नहीं मानता है। यह ठीक है कि भारत का शासक-वर्ग कारपोरेट पूंजीवाद की पुरोधा वैश्विक संस्थाओं के आदेश पर काम करता है। लेकिन अपने को माओवादी बताने वाले भी जिन आदेशों को मानते और लागू करना चाहते हैं, वे भारत की जनता के उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की धारा से नहीं निकले हैंजिसका कुछ आधार लेकर भारत का संविधान बनाया गया था। बल्कि आजादी के संघर्ष को वे मान्यता ही नहीं देते। उनकी पूर्वज पार्टी सीपीआई ने देश की आजादी को अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का परिणाम माना था, न कि जनता के संघर्ष और बलिदान का। आजादी की पूर्व-संध्या पर उसने भारत छोड़ो आंदोलन और उसके क्रांतिकारियों के खिलाफ ब्रिटिश हुकूमत का समर्थन किया था। 

 

आजादी अधूरी है, यह अंबेडकर ने भी स्वीकार किया था। लेकिन उनके स्वीकार में अवमानना का भाव नहीं था। उनका संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर उसे पूर्ण करने का सपना था। कांग्रेस के भरोसे वे भी नहीं थे। समता का लक्ष्य हासिल करने का रास्ता लोकतंत्र को मानते थे। लोकतांत्रिक अहिंसक संघर्ष में अंत तक उनकी आस्था रही। इसका अर्थ यह भी बनता है कि आजादी के बाद, गांधी की तरह, अंबेडकर भी कांग्रेस की उपयोगिता नहीं देखते थे। उन्होंने अपनी पार्टी बनाई और सोशलिस्ट पार्टी के साथ चुनाव लड़ा। भविष्य की राजनीति के लिए सोशलिस्ट पार्टी के साथ तालमेल का प्रयास भी उनके दिवंगत होने के पहले हुआ।

 

लेकिन कम्युनिस्टों ने अधूरी आजादी का ठीकरा कांग्रेस और उसके नेताओं के सिर  फोड़ा। अधूरी आजादी से भी ज्यादा उनकी बड़ी शिकायत यह है कि साम्यवादी क्रांति क्यों नहीं की गईउनकी नजर में भारत के स्वतंत्रता सेनानियों और उनके साथ जुटने वाली जनता का यह दोष था। आजादी के अधूरेपन में उन्होंने न अपना कोई साझा या दायित्व स्वीकार किया, और, जाहिर है, न उसे पूरा करने के लिए संविधान का रास्ता स्वीकार किया। कम्युनिस्टों की अंतर्राष्ट्रीयता में पिछड़े,दकियानूसी, सामंती, सांप्रदायिक, जातिवादी भारत’ को छोड़ कर सब कुछ हो सकता था। आज के आधिकारिक मार्क्‍सवादियों के लिए भी संविधान और संसदीय लोकतंत्र मजबूरी का सौदा है। 

 

भारतीय राज्य बुरा है, कम्युनिस्टों के लिए बात यहीं तक सीमित नहीं रहती। वह अगर उनके कब्जे में नहीं है, तो उनकी मंशा होती है कि उसे दुनिया में होना ही नहीं चाहिए। भारतीय राज्य पर कब्जा नहीं हो पाने पर उन्होंने कांग्रेस की सरपस्ती में संस्थाओं पर कब्जे की रणनीति अपनाई। इस रणनीति के निष्ठापूर्वक निर्वाह का नतीजा यह है कि वे उस रणनीति के बंदी बन कर रह गए हैं। यह सही है कि इस तरह से कम्युनिस्टों ने काफी ताकत हासिल की, लेकिन नवसाम्राज्यवाद विरोध के लिए उस ताकत का कोई उपयोग नहीं है।

 

दरअसल, उन्होंने सारी ताकत इस बात में लगा दी कि भारत बेशक कांग्रेस के कब्जे में रहे, भारतीय संदर्भों से जुड़ी समाजवाद या सामाजिक न्याय की कोई धारा जगह नहीं बना पाए। शिक्षा, साहित्य, संस्कृति और शोध संस्थाओं के शीर्ष पर रह कर उन्होंने अपने से अलग विचारों/विचारकों के प्रति संकीर्णता का बर्ताव किया। ऐसे में, जाहिर है, जगह आरएसएस की ही बननी थी, जो अपने स्थापना-काल से भारत माता भारत माता’ चिल्लाता चला आ रहा था और कम्युनिस्टों की तरह कांग्रेस में गहरी घुसपैठ रखता था। दरअसल,अधूरी आजादी से असंतुष्ट हो पूर्णता हासिल करने के लिए आरएसएस अगर समय में सुदूर स्थित स्वर्णलोककी तरफ भागा, तो कम्युनिस्ट स्थान में सुदूर स्थितस्वर्णलोक’ की तरफ। दोनों की आज तक भी कमोबेस वही स्थिति बनी हुई है।

 

यह स्पष्टीकरण देने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यह समीक्षा वाद-विवाद के लिए नहीं की जा रही है। बल्कि आजादी का बचाव हो; वह पूर्ण, मजबूत और उच्चतर हो, इस उद्देश्‍य से की जा रही है। देश की आजादी को सीधे नवसाम्राज्यवादी शिकंजे में फंसा दिया गया है। ऐसे में आरएसएस को ठीक करने के पहले अगर अपने को ठीक नहीं किया जाता, तो नवउदारवाद के खिलाफ मोर्चा कभी नहीं जीता जा सकता।     

 

पूंजीवाद के बीमार 

 

वैश्विक परिदृश्‍य पर मचे हिंसा और मौत के तांडव के बावजूद पूंजीवाद की क्रांतिकारी भूमिका के सिद्धांतकार और पैरोकार आज भी अपनी स्थापना वापस लेने को तैयार नहीं होंगे। तीन-चौथाई दुनिया का उपनिवेशीकरण, संसाधनों की लूट, समूचे समुदायों का सफाया करके उनके भूभागों पर कब्जा, युद्धों, गृहयुद्धों,महायुद्धों के वर्तमान तक जारी अनवरत सिलसिले के समानांतर जीवधारियों और वनस्पतियों की असंख्य प्रजातियों का विनाश करते हुए दुनिया को संकट के मुहाने पर ले आने वाला पूंजीवाद आज भी क्रांतिकारीहै। पूंजीवादी व्यवस्था की सर्वाधिक यथार्थपरक (रियलिस्टिक) और तर्कपूर्ण (रेशनल) समीक्षा करने वाला गांधी आज भी भारत में मानव-प्रगति का सबसे बड़ा शत्रु माना जाता है। पूंजीवाद के बीमार दिमाग की इस समझ के साथ यह समझ लें कि आगे मनमोहन सिंह और मोदी ही आएंगे। गांधी, नेहरू, जेपी, लोहिया या अंबेडकर नहीं आने जा रहे हैं।

 

पूंजीवाद का बीमार दिमाग आज भी भारत की स्वतंत्र हस्ती नहीं स्वीकार कर पाता। इस बीमारी का बीज उपनिवेशवादी दौर में पड़ गया था। इसीके चलते उसके लिए अंग्रेज हमेशा सही और भारतीय लड़ाके,चाहे वे रजवाड़े हों, किसान हों, आदिवासी हों, हमेशा गलत थे। किसी भारतीय शासक ने भारत की जनता पर अंग्रेजों जैसा कहर नहीं बरपाया। 1857 भारत के लोगों ने पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा। उसके दमन में अंग्रेजों ने जो नृशंसता की, दुनिया के इतिहास में उसका उदाहरण नहीं मिलता। किसी भारतीय शासक के राज्य में वैसे भयंकर अकाल नहीं पड़े, जैसे अंग्रेजों के काल में पड़े। जब भारत में अकाल के चलते एक साथ कई लाख लोग एडि़यां रगड़ कर मरते थे, तो भारत या इंग्लैंड में अंग्रेज का एक निवाला भी कम नहीं होता था। जो अंग्रेज,सिपाही हो या नौकरशाह, भारत आ गया, मालामाल होकर गया। भारत में उसका वैभव और रौब-दाब यहां के किसी भी शासक से ज्यादा था। उनकी अय्याशी के किस्से कम नहीं हैं। लेकिन अंग्रेजी-राज यहां के शासकों से अच्छा था, पूंजीवाद के बीमार दिमाग में यह मान्यता घुट्टी की तरह गई हुई है।

 

उपनिवेशवादी शोषण ने भारत को आर्थिक रूप से जर्जर कर दिया था। सबसे ज्यादा शोषण किसानों,आदिवासियों, कारीगरों और मजदूरों का हुआ था। गांधी ने उस यथार्थ के मद्देनजर देश की स्वावलंबी श्रम आधारित विकेंद्रित अर्थव्यवस्था बनाने की बात की। अगर अपनी अर्थव्यवस्था नहीं है, तो आप स्वतंत्र भी नहीं हो सकते। उपनिवेशवादी शोषण की प्रक्रिया में पैदा हुए एक छोटे मध्यवर्ग ने गांधी का यह विचार स्वीकार नहीं किया। केवल राजनीतिक आजादी के आकांक्षी मध्यवर्ग ने गांधी की इस धारणा को न केवल अस्वीकार किया, पिछड़ा भी बताया। विकास के बने-बनाए पूंजीवादी मॉडल के भरोसे आर्थिक आजादी को वह हथेली पर धरी चीज मानता था। उसके मुताबिक पूरे भारत को मध्यवर्ग में तब्दील होना था। यानी किसानों,आदिवासियों, कारीगरों, मजदूरों, छोटे-मोटे दुकानदारों को उस विकसित भारत में नहीं रहना था। इसके साथ जो अन्य धारणाएं परोसी गईं, उन्हें फैंटेसी ही कहा जा सकता है। मसलन, इस विकास के साथ वर्ण, जाति,धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि की बाधाएं टूट कर दूर हो जाएंगी। फैंटेसी का इंतिहाई सिरा यह था कि पूरा भारत अंग्रेजी पढ़ेगा, समझेगा और बोलेगा।     

 

मिश्रित अर्थव्यवस्था और नेहरूवादी-समाजवादी लक्ष्य की बाधाओं को पूंजीवादी दिमाग ने पार कर लिया है। उसका नया मरकज अमेरिका है। मैं गुलाम मोहि बेच गुसांई’ की तर्ज पर वह उसके पैरों में बिछा हुआ है। उसके लिए अमेरिका सही ही सही और अमेरिकी गुलामी का विरोध करने वाले गलत ही गलत हैं। पूंजीवाद के बीमार दिमाग से अगर कहें कि अंग्रेजों की अगुआई में कुछ अन्य यूरोपीयों ने अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियनों का सफाया करके, उनका प्रकृति प्रदत्त भूभाग व संसाधन लूट कर, अश्वेतों को जानवरों की तरह खटा कर यह सोने की लंका बसाई है, तो वे कहेंगे, तो क्या हुआजैसा कि वे आदिवासियों, किसानों और खुदरा व्यापारियों की तबाही पर कहते हैं। अगर उनसे कहें कि अमेरिका अन्य देशों की संप्रभुता और नागरिक स्वतंत्रता का किंचित भी सम्मान नहीं करता,बल्कि उनके खिलाफ षड़यंत्र करता है, तख्ता पलट करता है, तो भी वे कहेंगे, तो क्या हुआअमेरिका का अंधभक्त यह वही दिमाग है, जो उपनिवेशवादी दौर में अंग्रेजों की सराहना में लगा था। 

 

हमारे मित्र संदीप सपकाले ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर फेसबुक पर नेहरू-अंबेडकर की प्रशंसा की है,जिनके विकास के मॉडल के तहत उनका सशक्तिकरण हुआ है। उनका यह विचार अच्छा है। हालांकि पूंजीवाद के साथ मिल कर सामंती शक्तियों का जो सशक्तिकरण हुआ है, उसके मुकाबले समग्र समाज के रूप में दलितों का सशक्तिकरण नगण्य ही कहा जाएगा। जिन थोड़े-से दलितों का सशक्तिकरण हुआ है, वे भी सामंती तौर-तरीके अपनाते हैं। हमें साथी श्‍योराज सिंह बेचैन ने हाल में एक दिन बताया कि दलित-समाज में अफसर होना ही कुछ होना माना जाता है। हम लेखक-विचारक अपने में कुछ भी बने रहें, दलित-समाज में सम्मान नहीं मिलता। दलित राजनीति में भी अफसरों की ही पूछ है। मायावती के करीब कई दलित लेखकों-विचारकों ने पहुंचने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली।  

 

सपकाले के विचार के साथ दिक्कत यह है कि उन्होंने नेहरू-अंबेडकर की प्रशंसा करने के साथ,समाजवाद की बात करने वालों की भर्त्‍सना भी की है। यानी वे नवउदारवाद, उनके मुताबिक जिसके विरोध में कुछ लोग समाजवाद की वकालत करते हैं, को नेहरू और अंबेडकर की विचारधारा की परिणति मानते हैं। और उस परिणति को सही भी मानते हैं। नेहरू आजादी के संघर्ष के दौर से समाजवादी विचारों के लिए जाने जाते थे। आजादी के बाद सोशलिस्टों के कांग्रेस से बाहर आ जाने के बाद और उनकी तीखी आलोचना के जवाब में उन्होंने कांग्रेस पार्टी का लक्ष्य समाजवाद निर्धारित किया था। अंबेडकर नेहरू से अलग कुछ और भी सोच रहे थे, तभी उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाई थी। उनका लक्ष्य भी लोकतांत्रिक रास्ते से समाजवाद लाना था। सपकाले नेहरू और अंबेडकर को पूंजीवाद के समर्थन में खींचते हैं। इस तरह की खींचतान करके पूंजीवाद का समर्थन करने वाले दलित विचारकों की कमी नहीं है।

 

 

पूंजीवाद अगर दलितों को सामाजिक-आर्थिक मुक्ति दिला दे तो उसके स्वागत का कम से कम भारत में पूरा औचित्य बनता है। लेकिन ऐसा संभव नहीं है। पूंजीवाद चाहता तो कुछ निर्णायक प्रयास कंपनी राज के दौर में ही कर सकता था। मसलनअंग्रेज चाहता तो जमींदारी प्रथा लागू करते वक्त कुछ जमींदार दलित समाज से भी बना देता। आदिवासियों के जंगल पर धावा बोलने वाले अंग्रेज को जमींदारी बड़ी बात लगती थी, तो दलितों को खेती अथवा बागवानी के लिए कुछ जमीन दे देता। चाहे चर्म उद्योग का ही, एकमात्र अधिकार दलितों को दे देता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसका सहोदराना सामंती शक्तियों से था - भारत में भी और इंग्लैंड में भी। हमें हैरानी होती है कि अश्‍वेतों के साथ अमेरिकी गोरों ने जो किया, उसके बावजूद दलित विचारक अमेरिका का गुणगान करते हैं!   

 

दलित-विमर्श, दलित-अस्मिता, दलित-चेतना की बात करते वक्त यह ध्यान रखना जरूरी है कि दलित-समाज केवल आरक्षण के तहत अथवा अपनी मेधा से संगठित क्षेत्र में आ जाने वाले लोगों तक सीमित नहीं है। दलित-समाज में सम्मान अगर केवल अफसरी से मिलता हैतो पूंजीवाद से लाभान्वित दलित-समाज का दायरा और भी सिकुड़ जाता है। (हालांकि हम संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण को पूंजीवादी व्यवस्था की देन नहीं मानते। अलबत्ता अब जो निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग की जा रही है, वह पूंजीवादी व्यवस्था की देन होगा।) ध्यान दिया जा सकता है कि आगे बढ़े हुए दलित कभी भी दलितोत्थान के ऐसे प्रयास यानी रचनात्मक कार्य नहीं करते, जिनके चलते बाहर छूटे दलितों में शिक्षा और चेतना का प्रसार हो, उन्हें रोजगार के बारे में जानकारी,उचित निर्देशन और प्रशिक्षण मिल सके। यह रचनात्मक काम बड़े पैमाने पर करके वे खुद पहल कर सकते हैं कि आरक्षण का लाभ लेकर कुछ हद तक सशक्‍त बन चुके परिवारों के पहले अब बाहर छूटे परिवारों को आरक्षण मिले। लेकिन वे रचनात्मक काम नहीं करते। एनजीओ बनाते हैं, जो पूंजीवादी तंत्र का अभिन्न हिस्सा हैं।

 

यह सच्चाई जानने के लिए बहुत गहराई में जाने की जरूरत नहीं है कि दलित पूंजीवाद की बात करने वाले पूंजीवाद के पहलवानों के प्यादे ही रह सकते हैं। पूंजीवाद ने कितनी गहरी पैठ बनाई है और सवर्ण भारत के कितने लोग यूरोप-अमेरिका तक जमे हैं, उनमें टूटी-फूटी अंग्रेजी और गांठ में चवन्नी लेकर शामिल नहीं हुआ जा सकता। जाति को लेकर जाने पर बड़ी जाति वहां पहले से मौजूद है। जिस जाति को सदियों से छोटा बनाया गया हो, उसे सदियों से बड़ी जाति के मुकाबले कभी भी खड़ा नहीं किया जा सकता। अंबेडकर द्वारा प्रस्तावित जाति निर्मूलन ही उसका उपाय है। 

 

सशक्‍त दलितों द्वारा पूंजीवाद की पूजा,दरअसल, दलित-समाज के नाम पर व्यक्तिगत स्वार्थ की साधना है। यह प्रवृत्ति बाकी जाति समूहों में भी देखी जा सकती है और यह पूंजीवाद की देन है। समता विरोधी ब्राह्मणवाद की जितनी निंदा की जाए, कम है। लेकिन उसके साथ दलित-समाज में ही विषमता बढ़ रही हो तो समझ लेना चाहिए खोट कहीं और भी है। सत्ता पाकर मद में आ जाना केवल सामंतवाद-ब्राह्मणवाद की मूल विशेषता नहीं है। जैसे भारत के अगड़े समाज को हजारों साल गुलाम रहने के कुछ कारण अपने चरित्र में खोजने चाहिए, उसी तरह वर्ण-व्यवस्था के गुलाम बनाए गए पिछड़े और दलित-समाज को भी आत्मालोचन करने की जरूरत स्वीकार करनी चाहिए।

 

हम फुले-अंबेडकर से लेकर आज तक के दलित विचारकों की अंग्रेज-भक्ति’ का बुरा नहीं मानते। जो मानते हैं उन्हें देख लेना चाहिए कि यह अंग्रेज-भक्त सवर्ण समाज ही था, जिसने 200 साल तक उन्हें यहां काबिज बनाए रखा। कई लाख भारतीयों की हत्या के बाद उन्हें अपनी प्रजा’ का दर्जा देने आईं इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया की शान में पढ़े गए कसीदे देख लेने चाहिए। अंग्रेजों के भारत में आने और उपनिवेश कायम करने में दलितों की कोई भूमिका नहीं थी। लेकिन अगर दलित विचारक पूंजीवाद के पक्के पक्षधर बनते हैंतो उसके साथ अंबेडकर का नाम ज्यादा दिन नहीं चल सकता है। अंबेडकर पूंजीवाद के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने निजी क्षेत्र में आरक्षण की न बात की, न संविधान में प्रावधान किया। वे चाहते थे कि जल्दी ही समता मूलक आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था बने और आरक्षण की जरूरत न रहे।

 

गांधी का कहना था कि अंग्रेजों ने हमें गुलाम नहीं बनाया, हम खुद उनके गुलाम बन गए। आज हम देखते हैं कि गांधी ने जिस समाज को आजादी की होड़ में लगाया था, और आजादी हासिल भी की थी, वह गुलामी की होड़ में दौड़ लगा रहा है। गोया उसे पूर्णता में हासिल करके रहेगा! इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है कि गांधी को अब सबसे ज्यादा गाली दलित विचारकों की ओर से पड़ती हैं। लेकिन दलितों द्वारा गांधी को गाली देने का व्यापार भी ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है। गांधी को उनका सबसे ज्यादा नाम लेने वाली कांग्रेस ने खत्म कर दिया है।

 

नरसिम्हा राव से लेकर मनमोहन सिंह तक उन्हें कई बार नवउदारवाद के हमाम में खींच चुके हैं। आपने सुना ही है कि बराक ओबामा भी गांधी का भक्त है! पूंजीवाद के बीमार दिमाग को गांधी की जरूरत क्यों पड़ती है, इस पर हमने अन्यत्र विस्तार से लिखा है। वह दूसरों को धोखा देने से ज्यादा अपने को धोखे में रखने के लिए गांधी का नाम लेता है। वह जानता है उसने इंसानियत के ऊपर बाजार और हथियार का पहाड़ खड़ा किया हुआ है। वह यह भी जानता है कि उसे आगे यही करते जाना है। इस उपक्रम में वह कई करोड़ लोगों सहित असंख्य जीवधारियों की हत्या कर चुका है। गांधी के नाम में वह अपने इंसान होने की तसल्ली पाता है। पूंजीवादी दिमाग अपनी बीमारी की दवा के रूप में भी गांधी को रखता है, तो आने वाली दलित पीढ़ियों को उन्हें गाली देने की जरूरत नहीं रह जाएगी। 

 

स्वदेशी का राग अलापने वाला आरएसएस पूंजीवाद का सबसे बड़ा बीमार है। रोग असाध्य न हो जाए, इसके पहले आरएसएस को गंभीरता से आत्मालोचन करना चाहिए। उसे सचमुच सोचना चाहिए कि इतने लंबे समय में एक भी चिंतककलाकार,साहित्यकार वह पैदा नहीं कर पाया है। सत्ता और सुविधाओं के लालच में भले ही कुछ रचनाकार और विचारक उसके साथ नाता बना लेते हों। संघ के बाहर स्वयंसेवक पराया और नकलची बन कर रह जाता है। विचार और कला की दुनिया से बहिष्कृत आरएसएस को अपने अलग बौद्धिक’ और सांस्कृतिक’ चलाने की नहीं, सोच और दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है। वरना एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में उसकी पहचान आगे भी कभी खड़ी नहीं हो पाएगी। उसके हिंदुत्व की सार्थकता केवल भाजपा को राजनीतिक सत्ता दिलाने तक ही सीमित रही है, और आगे भी रहेगी। सत्ता हथियाने का हथकंडा संस्कृति या जीवन-दर्शन नहीं हो सकता। 

 

इतिहास की सीख

 

आजादी अगर खोती है तो उसे दोबारा पाना बहुत कठिन होगा। उससे आसान है कि हम पूंजीवाद के बारे में अपनी धारणाओं को निर्णायक रूप से बदलें। भारत और तीसरी दुनिया के लिए आजादी के क्या मायने हैं और क्यों उपनिवेशवादी वर्चस्व से आजादी हासिल करने के बावजूद गुलामी फिर से कायम हो रही है, इस पर लोहिया के बाद सबसे प्रखर राजनीतिक चिंतन किशन पटनायक ने किया है। नब्बे के दशक से नई आर्थिक नीतियों के रूप में शुरू हुए नवसाम्राज्यवादी हमले के मुकाबले की ठोस राजनीति खड़ी करने की लगातर कोशिश भी उन्होंने की। एक माहौल बना भी कि नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ सन्नद्ध हुए छोटे, एक मुद्दे पर स्थानीय स्तर पर होने वाले जनांदोलनों को जोड़ कर नवउदारवाद के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति का निर्माण किया जाए। दलित, आदिवासी और शूद्र नेतृत्व आगे आए और उसकी अगुआई करे। लेकिन विदेशी धन पर पलने वाले एनजीओपरस्तों, जिनमें कई प्रमुख जनांदोलनकारी भी शामिल हैं, ने उनके प्रयासों को फलीभूत नहीं होने दिया। 

 

चर्चा को समाप्त करने से पहले किशन पटनायक के महत्वपूर्ण और चर्चित निबंध गुलाम दिमाग का छेद’ से एक उद्धरण द्रष्टव्य है, ‘‘हमारे जितने राष्ट्रीय बुद्धिजीवी हैं (जिस तरह से कुछ अंगरेजी अखबारों को राष्ट्रीय अखबार कहा जाता हैउसी तरह कुछ अंगरेजी वाले बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय बुद्धिजीवी कहा जा सकता है) उनमें कुछ अपवादों को छोड़ कर किसी ने यह नहीं माना है कि 1757 के प्लासी-युद्ध में पराजय के कारण भारत बरबाद हो गया, उसकी अपूरणीय क्षति हुई।आजादी खोना बुरी बात तो है ही, लेकिन ... । लेकिनके लहजे में हमारा बुद्धिजीवी ऐसी बातें कहने लगेगा मानो आजादी खोना कोई पछतावे की बात नहीं है,उसकी कीमत पर हमने इतना सारा फायदा हासिल किया है कि हमें अंगरेजों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने हमें दास बनाया।

 

‘‘भारत के कितने अंगरेजी लिखने-बोलने वाले बुद्धिजीवी हैं जो भारत के आधुनिकीकरण के लिए अंगरेजी हुकूमत को श्रेय नहीं देतेजो यह नहीं मानते कि अगर भारत पर ब्रिटिश हुकूमत नहीं होती तो भारत आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अंगरेजी भाषा का उतना फायदा नहीं उठा पाता, जितना वह आज उठा रहा है?अपवाद के तौर पर ही ऐसे लोग मिलेंगे। 1857 की असफल क्रांति के बारे में हमारे कुछ प्रसिद्ध इतिहासकारों ने लिख दिया है कि जो हुआ, वह अच्छा ही हुआ। अगर 1857 की क्रांति सफल हो जाती तो भारत अज्ञान के अंधकार और अंधविश्‍वास के गर्त में डूबा रह जाता ऐसा मानने वालों के मस्तिष्‍क के बारे में सोचना पड़ेगा। प्रश्‍न यह है कि कहीं उनके मस्तिष्‍क में कोई छेद तो नहीं हो गया है, अन्यथा सामने पड़े हुए तथ्यों को वे कैसे नजरअंदाज कर देते हैं। उनके सामने यह तथ्य है कि जापान और चीन यूरोपीय हुकूमत के अधीन नहीं रहे। क्या चीन और जापान का आधुनिकीकरण भारत से कम हुआ है?’’ (‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया, पृ. 22)

 

जहिर है, हमारी आधुनिकता और आधुनिकीकरण की समझ इस तरह की बनी है कि भारत की स्वतंत्रता या स्वतंत्र भारत की जगह उसमें नहीं बन पाती। यह जटिल समस्या है जिसके समाधान के लिए सभी बौद्धिक समूहों और राजनीतिक पार्टियों के समग्र और गंभीर उद्यम की जरूरत है। इतिहास में हो चुकी गलतियों को अनहुआ नहीं किया जा सकता। लेकिन उनसे शिक्षा कभी भी ली जा सकती है। प्रसिद्ध कथन है, जो इतिहास से सबक नहीं सीखते, वे उसे दोहराने को अभिशप्‍त होते हैं। हमें इतिहास से यह सबक लेना होगा कि उपनिवेशवाद का विरोध किए बगैर नवसाम्राज्यवाद का विरोध नहीं किया जा सकता। 

 

25 अगस्त 2013 

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवा...