Saturday, May 30, 2020

आमने-सामने दो भारत : कौन किसके साथ-प्रेम सिंह

(यह लेख सितंबर 2010 में लिखा गया था और 'युवा संवाद' के अक्तूबर 2010 अंक में समय संवाद स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित हुआ था. इस लेख में देश में नवउदारवाद के 20 साल पूरा होने पर कमेंटरी है. नवउदारवाद नवसाम्राज्यवादी गुलामी की स्थिति है, जिसे भारत के शासक वर्ग ने स्वीकार कर लिया है. उसने अपनी सत्ता और वैभव के लिए मेहनतकश जनता के जीवन और राष्ट्रीय संसाधनों को दांव पर लगाया हुआ है. हमने  नवउदारवाद की विवेचना के साथ लगातार उसका सक्रिय राजनीतिक प्रतिरोध भी किया है. हम आज़ादी के संघर्ष के मूल्यों, संविधान और समाजवाद के सिद्धांतों की संगति में उसका एक विकल्प भी प्रस्तावित करते हैं. अब नवउदारवाद के 30 साल पूरा होने पर हम जल्दी ही अपना विवेचन साझा करेंगे. यह लेख पृष्ठभूमि के तौर पर आपके पढ़ने और विचार करने के लिए फिर से जारी किया है.)    


पहला चक्र : नवउदारवादियों के हाथ

पिछले बीस सालों में एक चक्र पूरा हो चुका है। जल, जंगल, जमीन, खदान और अन्य संसाधनों की जम कर लूट हुई है। देश के विभिन्न हिस्सों में असंख्य लोग जमीन और घरों से विस्थापित हो चुके हैं। लाखों किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। लाखों जमीन का मुआवजा खाकर खाली बैठ गए हैं। लाखों जमीन बचाने के संघर्ष में लाठी-गोली खा रहे हैं। आदिवासियों का किसानों से बुरा हाल है। प्रशासकों और सुरक्षा बलों ने उनका जीना हराम कर दिया है। उनके अपने नेता और अफसर भी शासक वर्ग में शामिल होने के बाद उनके लिए पराए हो जाते हैं। नागरिक समाज के कुछ सरोकारधर्मी व्यक्ति और संगठन उनकी हिमायत में संघर्षरत न रहें तो आदिवासियों का जीवन गुलाम से बदतर हो जाए। जंगल से उजाड़े जाने वाले बहुत-से आदिवासी माओवादियों की हिंसक क्रांति के सिपाही बन गए हैं। इधर किसानों की आवाज आई है कि जमीन इसी तरह छीनी जाती रही तो वे भी नक्सलवादी बनेंगे। विस्थापन का कहर गांवों पर ही टूटता रहा है। लेकिन इस बीच दो पुराने शहर टिहरी और हरसूद भी बड़े बांधों की डूब में आ चुके हैं।

इस सब तबाही के बाद बेरोजगारी, मंहगाई,अपराध, उग्रवाद और आतंकवाद जैसी समस्याएं बढ़ी ही नहीं, बेकाबू हो चुकी हैं। शिक्षा और इलाज गरीबों की पहुंच से बाहर हो गए हैं। बाढ़, सूखा,भूकंप, भूस्खलन, तूफान जैसी आपदाओं का कहर जब-तब टूटता रहता है। इस मौसम में उतराखंड में लगातार बारिश होने, बादल फटने और जगह-जगह भूस्खलन होने से अनेक सड़कें और इमारतें नष्ट हो गईं। टिहरी बांध से पानी छोड़े जाने से उसके आस-पास के करीब 25 गांव डूब में आ गए। अतिवृष्टि से पहाड़ और तलहटी के गावों और शहरों में जान-माल का भारी नुकसान हुआ है। सभी जानते हैं कि ये आपदाएं महज प्राकृतिक नहीं हैं। विकास की अंधाधुंधी ने पर्यावरण को गहरे संकट में डाल दिया है। पिछले 20 सालों में पर्यावरण संरक्षण के कानूनों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई गई हैं। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन की नवउदारवादियों की चिंता अभी तक दिखावे की है।

पिछले 20 सालों में भारत की धरती का ही नहीं,लोगों का तापमान भी बढ़ा है। जरा-जरा-सी बात पर दिमाग गरम हो जाता है। जब बाहर भूगोल बदलता है तो मनुष्य के अंतर पर भी उसका असर आता है। पिछले 20 सालों का एक हासिल यह भी है कि भारत के लोग सतही, नकलची और झगड़ालू प्रवृति के होते जा रहे हैं। एक जगह किशन पटनायक ने लिखा है, इस बात का विश्वसनीय प्रमाण नहीं है कि उपभोक्तावादी हैसियत वाले मनुष्य सुखी भी होते हैं। पूंजीवादी उपभोक्तावाद में गरीबों का मरना तो होता ही है,अमीरों का मिजाज भी ठिकाने नहीं रहता। सरकारों द्वारा गरीबी की झूठी-सच्ची रेखा खींची जाती है। लेकिन इस व्यवस्था में अमीरी की कोई रेखा नहीं है। सबको उत्तरोत्तर अमीर होते जाना है। बिना यह सोचे कि वैसा एक बड़ी आबादी की कीमत पर होता है। देशों की सरकारों से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक यह व्यवस्था देखी जा सकती है, जिसके निर्धारण में विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की, और सुचारू संचालन में सैन्य व खुफिया प्रतिष्ठानों की केंद्रीय भूमिका होती है। जो लोकतंत्र आजकल दुनिया में चलता है, इन्हीं के हवाले होता है। तानाशाही शासन तो होता ही है। 

दरअसल, निरंतर अमीरी की जद्दोजहद में जीने वाले लोग हमेशा गरीब ही बने रहते हैं। परंपरागत अभिव्यक्ति में इसे'निन्यानवे का फेर' कहा गया है। अलबत्ता अब निन्यानवे और सौ का आंकड़ा किसी गिनती में नहीं है। अबके आंकड़ों का घनत्व वंचितों की ही नहीं, अच्छे-अच्छे समझदारों की समझ से परे होता है। लाखों-करोड़ों में वस्तुओं की बिक्री के बाजार का हवाला तो मलिक मुहम्मद जायसी के 'पद्मावत' में भी आया है, लेकिन बिलियंस और ट्रिलियंस में बताए जाने वाले आज के बाजार के आंकड़ों से दिमाग चकरा जाता है। यह सचमुच बहुत ऊंचे लोगों का खेल है। विकासशील ही नहीं, विकसित देशों के नेता और प्रशासक शायद ही इस खेल को पूरा समझ पाते हैं? जहां अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री गेंद पकड़ाने वाले हों, वहां नवउदारवाद के समर्थक टिप्पणीकारों को अपनी हैसियत अपने ही गिरेबां में झांक कर देख लेनी चाहिए। 

हमें अपने आधुनिकतावादी-प्रगतिवादी मित्रों से हमेशा डर लगा रहता है कि वे कब नुक्ता निकाल देंगे कि 'अमीरों की गरीबी' का जिक्र करके हम यथास्थितिवाद का पोषण, यथार्थ समस्या का दार्शनिकीकरण अथवा आध्यात्मिकरण कर रहे हैं। क्योंकि वे दोनों पूंजीवाद को मानव सभ्यता के विकास में क्रांतिकारी चरण मानते हैं, जिसमें पहला और अंतिम सद्गुण (वर्चू) अमीर होना है। हम स्पष्ट कर दें कि इस व्यवस्था में अमीर भी गरीब बना रह जाता है, यह हम गरीबों की गरीबी की पीड़ा को कम आंकने के लिए नहीं कह रहे हैं। इसलिए कह रहे हैं कि निरंतर अमीरी की जद्दोजहद गरीबों की यातना को निरंतर बढ़ाती जाती है। अमीर अमीरी के लिए जो भी कीमत चुकाते हों, अमीरी गरीबों की कीमत पर ही संभव होती है। यह देशों के स्तर पर भी होता है और देशों के अंतर्गत इलाकों व नागरिकों के स्तर पर भी। (हालांकि भारत जैसे देश में चरम दरिद्रता में जीने वाले असंख्य स्त्री-पुरुष-बच्चों को वास्तविक अर्थ में नागरिक कहा ही नहीं जा सकता।) यह होना तभी तय हो गया था जब उत्पादन के पूंजीवादी साधनों-संसाधनों  के अंधाधुंध दोहन से जुड़ी पूंजी और टेकनोलाजी के बल पर सामंतवादी-पूंजीवादी दौर के सेठ-साहूकारों जैसा जीवन स्तर सबको उपलब्ध कराने वाले 'वैज्ञानिक' समाजवाद की घोषणा की गई थी।

बहरहाल, उदारीकरण के चलते भारतीय जीवन के हर क्षेत्र और आयाम में तेजी से बदलाव आया है। आर्थिक नीतियों और फिर राजनीति के पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतों का मातहत हो जाने के बाद सभी संस्थाओं, सिद्धांतों, मूल्यों, मान्यताओं आदि पर उसका प्रभाव आना लाजिमी है। उस प्रभाव की अनेक अभिव्यक्तियां हैं - अमीरी के बढ़े-चढ़े प्रदर्शन से लेकर भूख, कुपोषण, मौत, आत्महत्या आदि के मंजर तक। विशाल आबादी को उनके जमीन, जंगल, धंधों और घरों से बेदखल कर देश को 'महाशक्ति' बनाने के अनुष्ठान में दो भारत आमने-सामने खड़े हो गए हैं। अमीर भारत मुख्यधारा राजनीति की अनेक पार्टियों का इकलौता नौनिहाल है और गरीब भारत का हालचाल नागरिक समाज के सरोकारों से उपजी सही अर्थों में जनांदोलनधर्मी राजनीति पूछती है।

20 साल के बाद भारत की मुख्यधारा राजनीति का रास्ता साफ नजर आता है, जिस पर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी प्रधानमंत्री के पद की दावेदारी में दौड़ लगा रहे हैं। दोनों तरफ शाबाशी देने वालों की कमी नहीं है। जो कुछ पिछड़े और दलित नेता दांव लगने की फिराक में थे, उनका चर्चा अब कहीं नहीं है। नकली आभिजात्य असली के मुकाबले कब तक ठहरेगा? यूपी का ब्राहमण कांग्रेस और भाजपा की लगातार हार से अपने स्वार्थ के लिए मायावती कि पैर भले पड़ गया हो, सभी जानते हैं वह उसे सिर पर नहीं बिठा सकता। कोई माकूल जवाब मुख्यधारा राजनीति का नहीं बन पाया है।

यह भी हो सकता था कि मुख्यधारा राजनीति की पार्टियों के आपसी और एक पार्टी के भीतरी टकरावों से नई सूरत बनती नजर आती। सिंगूर और नंदीग्राम के मुद्दों पर ममता बनर्जी को जनता और नागरिक समाज का जैसा व्यापक जनसमर्थन मिला, उसके बल पर मुख्यधारा राजनीति कुछ न कुछ गरीब भारतोन्मुखी हो सकती थी। हमने ऐसी आशा व्यक्त भी की थी। लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि वे मुख्यधारा राजनीति की ही एक उभरती खिलाड़ी हैं।

पिछले 20 सालों में दोनों के बीच जम कर संघर्ष भी हुआ है, जो जारी है। लेकिन वास्तविकता यह है कि पहले चक्र की बाजी नवउदारवादियों के हाथ रही है। उनका दावा ज्यों का त्यों बना हुआ है कि देश आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बन रहा है। उनके इस दावे को निर्णायक चुनौती नहीं मिली है। देश के सामान्य बौद्धिक अभिजन की परोक्ष-अपरोक्ष सहमति और हिस्सेदारी तो 'महाशक्ति भारत' के निर्माण में है ही, इस 'महान उद्यम' की कामयाबी में कई नवउदारवाद विरोधी रहे जनांदोलनकारी और बुदिजीवी शामिल हो गए हैं। उनके तर्क अजीब और चौंकाने वाले हैं।

जनांदोलनों का गतिरोध

हालांकि बनाव अस्सी के दशक से बन रहा था,वैश्वीकरण की शुरुआत औपचारिक और निर्णायक रूप से 20 साल पहले हुई। शुरुआत के दो-तीन साल के भीतर संविधान और समाज के लिए उसका आपदायी रूप सामने आ गया। तभी से एक समझदारी यह बनना शुरू हुई कि नई आर्थिक नीतियों से तबाह होने वाली जनता के विविध समूहों की प्रतिरोधी संघर्ष चेतना से मुख्यधारा राजनीति के बरक्स वैकल्पिक राजनीति खड़ी होनी चाहिए - विचारधारा के स्तर पर भी और राजनैतिक संस्कृति के स्तर भी। माना गया कि अलग-अलग मुदों को लेकर उठने वाले आंदोलनों के कार्यकर्ताओं, नागरिक समाज के सराकारधर्मी सदस्यों और पूंजीवादी साम्राज्यवाद के विरोधी बुद्धिजीवियों को देश की जनता के साथ साझा और समझदारी बना कर यह उद्यम करना है। यानी स्थानीय स्तर पर होने वाले जनांदोलनों को मिला कर राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक राजनीतिक जनांदोलन छेड़ना है। अपनी जमीन पर खड़े होकर दुनिया के स्तर पर चलने वाले प्रतिरोध आंदोलनों से संबंध बना कर उसे और व्यापक बनाना है। किशन पटनायक ने सबसे पहले यह विचार जनांदोलनकारियों के सम्मुख रखा और उस दिशा में प्रयास  किया। इस प्रकिया को जनांदोलनधर्मी राजनीति को राजनीतिधर्मी जनांदोलन में बदलना कह सकते हैं। 

लेकिन बीस साल का एक चक्र पूरा होने के बाद देखने में आ रहा है कि प्रतिरोध की जिस चेतना को विकल्प का आधार बनना था, वह मुख्यधारा राजनीति का चबैना बन रही है। आजकल नेताओं में किसानों और आदिवासियों में फूटने वाले आक्रोश की फसल काटने की होड़ लगी है। जहां किसान और आदिवासी अपनी जमीन और जंगल के लिए आंदोलन करते हैं, वहां राजनीतिक पार्टियों के नेता अपनी राजनीति करने पहुंच जाते हैं। बिना इस लिहाज के कि केंद्र अथवा राज्य में अपनी सरकार होने पर वे किसानों और आदिवासियों के साथ वही सुलूक करते हैं जिसका अन्य पार्टी के शासन में विरोध करने पहुंचे हैं। जो जनांदोलनकारी उनके हितों के पक्ष में पिछले 20 सालों से डट कर काम कर रहे हैं, उनका महत्व और भूमिका नेताओं के पहुंचने से नगण्य हो जाती है।   

आंदोलन के स्फूर्त नेताओं और जनांदोलनकारियों पर बाजी मारने के लिए इन नेताओं को कुछ खास नहीं करना होता। उन्हें घटनास्थल पर पहुंचना भर होता है। नेताओं के आने की खबर से मीडिया वहां पहले से पहुंचा होता है। बड़े नेता मीडिया का इंतजाम करके पहुंचते हैं। सोनिया गांधी और राहुल गांधी कहीं पहुंच जाएं तो शो लाइव हो जाता है और दूरदर्शन पर कई दिनों तक चलता है। जल्दी से जल्दी पूरे ऐशोआराम से पहुंचने के साधनों की कोई कमी नहीं रहती है। उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रमुखों की तरह नेताओं के पास धन की कोई कमी नहीं है। वे अपने चारों तरफ धनवानों की बाड़ खड़ी करके रखते हैं। अक्सर वे हवाई जहाज से और फिर नित नए मॉडल की कारों के काफिले से पहुंचते हैं। वह पिछड़ा जमाना अब नहीं रहा कि नेताओं के पहुंचने के लिए स्थानीय कार्यकर्ताओं को टिकट के पैसों का इंतजाम करना होता था।
नेताओं की धनाढ्यता पर सवाल उठाना अब अच्छा नहीं माना जाता। इसके पीछे कई तरह की धारणाएं काम करती हैं। एक तो यही कि आर्थिक महाशक्ति बनने वाले देश में किसी भी मामले में कमखर्ची का कोई काम नहीं होना चाहिए। लोगों के दिमाग में एक धारणा यह भी बिठाई गई है कि जो नेता या पार्टी साधनहीन है, वह जनता का क्या कल्याण करेगी नए नेता पहले अपना पेट भरेंगे,इससे अच्छा है पुरानों को ही बने रहने दिया जाए। नेताओं और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों द्वारा इस तरह की जनधारणा बनाने के पीछे एक गहरा मंतव्य होता है - बड़े नेता, नौकरशाह, उद्योगपति,बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश को लूटते हैं तो उनके नीचे भी आशा बंधती है। देश के बुदिजीवी और कलाकार तक आशा की उस डोर से बंधे चलते हैं - लूट का यह कारोबार चलेगा तो वेतन, भत्ते, पेंशन,अनुदान, पुरस्कार आदि बढ़ेंगे। जब से विदेशी कंपनियां कला से लेकर शिक्षा के क्षेत्र में पूंजी छिटकने लगी हैं, उनकी आशा बलवती हो गई है। एक तरह से भारत में पूंजीवाद के नाम पर लूटपाट का राज चल रहा है।

किसानों-आदिवासियों के पास पहुंचने के पीछे किसी पार्टी अथवा नेता का दांव राज्य की सत्ता है,किसी का केंद्र की। केंद्र की सत्ता पर कांग्रेस का दावा मजबूत है क्योंकि उसके पक्ष में जनांदोलनकारी और बुद्धिजीवी हैं। इस स्थिति से राहुल गांधी को प्रोमोट करने वाली कमेटी काफी उत्साहित है। वरना कुछ साल पहले, जब वह राहुल गांधी के 'रोड शो'  कराती थी, सोनिया गांधी नाराज और निराश दिखने लगी थीं। युवराज की लोकप्रियता बढ़ती नहीं थी, भद जरूर पिटती थी। लिहाजा, कमेटी को कसा गया था। यूपीए-दो में गाड़ी चल निकली है। और चलती का नाम ही गाड़ी होता है। हमें लगता है सोनिया के सलाहकार जनांदोलनकारी, भले ही परोक्ष रूप से, राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाने की सलाह भी कुछ न कुछ देते होंगे। आज नहीं तो कल जरूर देंगे। 

नेताओं का आंदोलनरत किसानों अथवा आदिवासियों के पास पहुंचना लोगों की नजर में एक बड़ी बात बना दी गई है। नेता जनता के पास जाएं, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है? लेकिन समस्या यह है कि सत्ता के लिए होने वाले इस संघर्ष में यह सच्चाई ओझल हो जाती है कि यह पूरी राजनीति जिस विचारधारा और व्यवस्था की वाहक है, उसमें किसानों और आदिवासियों को बरबाद होते जाना है। वही स्थिति छोटे उद्यमियों,व्यापारियों, दुकानदारों और कारीगरों की है। इस संदर्भ में औपनिवेशिक काल से चला आ रहा भूमि अधिग्रहण कानून 1894, पिछले बीस सालों में बने खदान, वाणिज्य-व्यापार, पेटेंट और बीज संबंधी कानून देखे जा सकते हैं।    

मुआवजे से नहीं बचेंगे किसान

जब तक इतनी बड़ी आबादी का वजूद है और देश में लोकतंत्र है, किसानों-आदिवासियों के हित-साधन के दावे सरकारें करती रहेंगी। आदिवासी क्षेत्र में नक्सलवाद जब खतरे के निशान से ऊपर बढ़ता है, तब भी सरकारें राहत देने की बात करती हैं। जंगल अधिकार कानून ऐसा ही एक कदम था। हालांकि राहत के साथ उनका जोर दमनचक्र चलाने पर रहता है। जनहित के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन को सस्ते दामों पर अधिग्रहित करने का विरोध पिछले बीस सालों से देश के विभिन्न इलाकों में हो रहा है। विरोध में किसानों के साथ कई जनांदोलनकारी समूह और व्यक्ति शामिल होते हैं, जिन्होंने समय-समय पर आयोजित जनसुवाइयों, धरना-प्रदर्शनों, चर्चाओं,परचों, पुस्तिकाओं आदि के माध्यम से सरकारों पर दबाव बनाने की कोशिश की है कि वह भूमि अधिग्रहण कानून को तुरंत बदले तथा जमीन और घर से बेदखल होने वाले लोगों का समुचित पुनर्वास करे। इसी संघर्ष से विकास की प्रचलित अवधारणा और उस पर आधारित मॉडल के विकल्प का विमर्श भी निकला।

लेकिन सरकारों को विकल्प की बात सुनना गवारा नहीं है। कांग्रेस-भाजपा से लेकर माकपा-भाकपा तक सभी पार्टियां प्रचलित विकास को लेकर एकमत हैं। बाकी पार्टियां उनका अनुगमन करती हैं। यह भारतीय राजनीति और लोकतंत्र की त्रासदी है कि जिस पिछड़े, दलित, आदिवासी उभार में नई राजनीति की संभावनाएं अंतर्भूत थीं,वह उसी राजनीति से पराभूत है, जिसके विरोध में उसका उभार हुआ। बहरहाल, विकल्प की बात दिगर, प्रचलित विकास के अंतर्गत भी किसानों को राहत देने के बजाय सरकारों ने सेज कानून देश की छाती पर थोप दिया। साथ ही तरह-तरह की विशाल परियोजनाओं और हबों के लिए किसानों की जमीन का अधिग्रहण और तेजी से कर निजी कंपनियों के सुपुर्द कर रही हैं। पहले बड़े बांधों के लिए गांव उजाड़े जाते थे, अब मेगा सिटी,एक्सप्रेस हाईवे, हवाई अड्डे, एजुकेशन सिटी आदि बनाने के लिए गांवों को उजाड़ा जा रहा है। देश में कई जगह परमाणु संयंत्र लगने हैं, उनके लिए भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है। भूमि अधिग्रहण की सरकारों की मुहिम के परिणामस्वरूप किसानों का असंतोष तेजी से बढ़ा है। पूरे देश में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के प्रदर्शन हो रहे हैं। शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को दबाने के लिए सरकारें पुलिस बल का इस्तेमाल करती हैं। कई आंदोलनकर्ता किसान पुलिस की गोलियों से मारे जा चुके हैं।  

असंतोष से निपटने के लिए सरकार भूमि अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक और पुनर्वास और पुनर्गठन विधेयक लाई है। लेकिन उनसे किसानों को उनकी मेहनत और उपज का सही दाम न देकर, जमीन का दाम दिए जाने की नवउदारवादी नीति बदलने नहीं जा रही है। अगर ऐसा होता तो सरकारें इस कानून को ही निरस्त करतीं और नया कानून बना कर सुनिश्चित करतीं कि किसानों को उनकी जमीन से किसी भी सूरत में बेदखल नहीं किया जाएगा। कम हो या ज्यादा, एकमुश्त मिले या किश्तों में, किसान मुआवजे से बचने वाले नहीं हैं। ज्यादातर किसान मुआवजे से एक पीढ़ी का भी पोषण और हीला सुनिश्चित नहीं कर पाते। संशोधन विधेयक से जमीनों का अधिग्रहण नहीं रुकने वाला है। मुआवजे की नीति में कुछ फेर बदल हो सकता है।

आजकल मुआवजे के हरियाणा मॉडल की तारीफ की जा रही है, जिसके तहत किसानों को 30 साल तक प्रति एकड़ 15000 रुपए सालाना दिए जाएंगे। मायावती ने आगे बढ़ कर यह राशि 20000 रुपए कर दी है। पिछले साल महाराष्ट्र और अरुणाचल प्रदेश के साथ हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए थे। चुनाव प्रचार के दौरान लोगों को नरेंद्र मोदी के बाद एक और 'विकास पुरुष' के दर्शन हुए। पहले सोनिया गांधी और उसके बाद मनमोहन सिंह ने हरियाणा जाकर मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को पूरमपूर विकास पुरुष बताया। दोनों की ठवन यह थी, देखो, हमारे पास भी भाजपा की टक्कर का एक विकास पुरुष है। ये वही भूपेंद्र सिंह हुड्डा हैं जिन्हें 2005 के चुनाव में भजनलाल की जीत के साथ बटमारी करके हाईकमान ने मुख्यमंत्री बनाया था। मुद्दा भ्रष्टाचार नहीं था, जैसा कि कुछ चुनाव विश्लेषक साथियों ने उस समय कहा था और राहत की सांस ली थी कि अब हरियाणा से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। भ्रष्टाचार की कथा हुड्डा के शासनकाल में भी वैसी ही अनंत रही है, जैसी भजनलाल के समय में थी।

असली कारण था,'बूढ़ा' भजनलाल सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह के सपनों का विकास उनकी इच्छित तेजी और आदेश के साथ नहीं कर सकता था। सोनिया गांधी ने जो उन्हें हरियाणा के विकास के लिए सौ में से सौ नंबर दिए, वह उनकी कसौटी से सही है। हुड्डा ने अपने शासनकाल में हरियाणा के उस विकास की गति को सर्वाधिक तेजी के साथ बढ़ाया है, जो बंसीलाल के 'सूरजकुंड-बढ़खल लेक' काल में शुरू हुई थी।

हरियाणा के विकास की हकीकत न तब छिपी सच्चाई थी, न आज है। हरियाणा के विकास का मायना रहा है, उसे दिल्ली के नवढनाढ्य तबके के आराम, अय्याशी और आय का पिछवाड़ा बनाना। हरियाणा की सभी सरकारें यह करती रही हैं। प्रतिरोध भी हुआ है। लेकिन राजनीति और विकास की वैकल्पिक परिकल्पना न होने के चलते बदलाव नहीं हो पाता। हरियाणा को 'शराब का ठेका' बना देने के विरोध में हरियाणा की कमेरी महिलाओं ने एक बार जबरदस्त आंदोलन किया था। लोगों को याद होगा उस आंदोलन की फसल बंसीलाल ने काटी थी। कुछ समय हरियाणा में शराबबंदी लागू भी रही। लेकिन बूढ़ा बंसीलाल अपनी ही लगाई लत के जाल में फंस कर रह गया। शराबबंदी हटी ही नहीं, आने वाले सालों में पूरे हरियाणा में उसका अभूतपूर्व विस्तार हुआ।   

हुड्डा की खासियत यह है कि उसने हरियाणा को दिल्ली के, और इस बीच बने खुद हरियाणा केअमीरों की चारागाह बनाने में निर्णायक और सफल भूमिका निभाई है। हरियाणा के सभी सीमांतों तक हुड्डा की 'विकास-लीला' का विस्तार देखा जा सकता है। हुड्डा की खूबी रही है कि मुख्यधारा मीडिया समेत 'दि हिंदू' जैसे अखबार ने भी उनके 'विकास कार्यों' का जम कर प्रचार किया है। हुड्डा के विकास कार्यों की तारीफ के पुल बांधते वक्त सोनिया गांधी ने कहा कि हुड्डा के नेतृत्व में शिक्षा के क्षेत्र में हरियाणा में 'परिघटनात्कम'(फेनोमेनल) विकास हुआ है। जाहिर है, उनका आशय सोनीपत के पास कोंडली में बन रहे राजीव गांधी एजुकेशन सिटी और चंडीगढ़ में बन रहे राजीव गांधी टेक्नोलोजी पार्क जैसी योजनाओं से है।

हम यहां आपको केवल राजीव गांधी एजुकेशन सिटी की थोड़ी हकीकत बताते हैं। इस बड़ी परियोजना में 6 गांवों (ऐतिहासिक गांव बड़खालसा, असावरपुर, फिरोजपुर खादर, पतला,सेवली, ओरंगाबाद) की जमीन ली गई है। परियोजना के बारे में पूछना तो छोड़िये, जमीन का अधिग्रहण करने के बारे में किसानों से नहीं पूछा गया। सीधे अधिसूचना जारी कर दी गई। किसानों ने एक संघर्ष समिति बना कर विरोध किया और अदालत गए। सरकारों के हाथ में किसानों के शोषण का हथियार बने उपनिवेशवादी भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के चलते अदालत से ने पहली सुनवाई में ही केस खारिज कर दिया। मुआवजा सरकारी दर पर 16 लाख रुपए प्रति एकड़ तय किया गया जबकि जीटी रोड के दोनों तरफ होने के चलते ज़मीन का बाज़ार भाव करोड़ों रुपए प्रति एकड़ था। हार कर करीब 70 प्रतिशत किसानों ने घोषित मुआवजा उठा लिया है। लंबे समय से चौतरफा उपभोक्तावादी माहौल से घिरे और भ्रष्ट राजनीति के चंगुल में फंसे हरियाणा के किसानों को रिझाना, पटाना या फोड़ना सरकारों के लिए आसान रहा है।

किसान समझ नहीं पाते हैं कि जैसे आज जमीनें ली जा रही हैं, चाहे सरकारों द्वारा या प्राइवेट बिल्डिरों द्वारा, वैसे ही कल गांव भी लिए जाएंगे! अंग्रेजों के आने से पहले क्या कल्पना की जा सकती थी कि हजारों सालों से रहने वाले आदिवासियों को उनके जंगलों से ही नहीं, घरों से भी उखाड़ कर फेंक दिया जाएगा? हरियाणा में चंडीगढ़ का उदहारण है, जिसे बसाने के लिए 24 गांव और उनके 9000 वाशिंदे उठाए गए थे। अब यह सूचना आसानी से मिलती भी नहीं है। न यह कि उन गांववासियों ने कड़ा विरोध किया था। लेकिन सीधे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का 'ड्रीम प्रोजेक्ट' होने के चलते उनकी एक नहीं सुनी गई।

बहरहाल, राजीव गांधी एजुकेशन सिटी किसानों को उजाड़ कर अमीरजादों को भारत में ही वह शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए बनाया जा रहा है जिसे बाहर जाकर प्राप्त करना अब खतरनाक होता जा रहा है। दावा वही घिसा-पिटा है जिसे नवउदारवादी अक्सर दोहराते रहते हैं - विश्व स्तरीय संस्थानों और यूनिवर्सिटियों की स्थापना करके विश्व स्तरीय उच्च शिक्षा और शोध की सुविधाएं प्रदान की जाएंगी। कहने की जरूरत नहीं कि विश्व स्तरीय के नाम दी जाने वाली मुख्यतः आईटी, मैनेजमेंट, इंजीनियरी और एप्लाइड विज्ञानों की यह शिक्षा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए कुशल मजदूर तैयार करने के लिए होती है। छात्रों के व्यक्तित्व के समग्र विकास और राष्ट्र-निर्माण के लिए नहीं।

बताया गया है कि 5 हजार करोड़ सालाना टर्नओवर वाले व्यापार घराने ही एजुकेशन सिटी में अपने संस्थान खोल सकते हैं। थापर यूनिवर्सिटी,मानव रचना इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, इंटरनेशनल फाउंडेशन फॉर रिसर्च एंड एजुकेशन, फोर स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट तथा बिरला स्कूल आफ मैनेजमेंट टेक्नोलोजी ने एजुकेशन सिटी में जगह ली है। उनकी तारीफ में यह भी बताया गया है कि इन सबका विदेशी यूनिवर्सिटियों अथवा उद्योगों से संबंध है। यह भी बताया गया है कि विदेशों से भी छात्र यहां शिक्षा लेने आएंगे। मजेदारी यह है कि सरकार ने शिक्षा देने वाले 'सेठों' से 'नो प्रोपफिट नो लौस' के आधार पर शिक्षा देने को कहा है। हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (हुडा) द्वारा बनाए जा रहे शिक्षा के इस नगर में होटल,मल्टीप्लैक्स, शॉपिंग आरकेड, फूड कोर्ट,साप्ताहिक बाजार और झील आदि होंगे।

राजीव गांधी एजुकेशन सिटी की संकल्पना और निर्माण में हरियाणा के एक भी शिक्षा से जुड़े व्यक्ति की भूमिका नहीं है। सारा काम विदेशी संस्थाओं के मुताबिक नौकरशाह कर रहे हैं। एजुकेशन सिटी में रिहाइश, बिजनेस और मनोरंजन की भी समस्त सुविधाएं उपलब्ध होंगी,नहीं होंगे तो बस किसान, जिनका खात्मा करना इस विकास और उसे अंजाम देने वाले विकास पुरुषों का पहला काम है। उनका हरियाणा में कोई प्रतिरोध नहीं करता। हरियाणा में प्रतिरोध के नाम पर बचा रह जाता है दिल्ली में कंडक्टरी,सिपाहीगीरी, मास्टरी करते हुए हेंकड़ी जताना और दलितों पर हमला और बेटियों की हत्या करना! हालांकि प्रतिरोध का एक और रूप पिछले साल सामने आया। हरियाणा जैसे 'खाते-पीते' राज्य में नक्सलवादियों की मौजूदगी से बहुतों को हैरानी हुई। पुलिस ने कई लोगों को गिरफ्तार किया। हरियाणा पुलिस की 'लाठी' के बारे में कौन नहीं जानता! आने वाले समय में इस लाठी की गाज मौजूदा विकास और उसे अंजाम देने वाली राजनीति का शांतिपूर्ण विरोध करने वालों पर ज्यादा तेजी से गिरेगी। 

विधानसभा चुनाव के कुछ दिनों पहले हमारे मित्र दौलतराम चौधरी ने 'ट्रिब्यून' अखबार में एक लेख लिख कर चिंता जाहिर की कि दिल्ली में हरियाणा की कोई वैसी अलग पहचान नहीं बनती जैसी अन्य राज्यों से आकर बसने वाले समाज की बनती है। एक वक्त उन्होंने 'पींग' पत्र निकाल कर हरियाणा की सांस्कृतिक पहचान उभारने की कोशिश की थी। उनका वह प्रयास सतत नहीं रह पाया। इस बीच चौधरी साहब लोकदल, हरियाणा विकास पार्टी-भाजपा गठबंधन से होते हुए कांग्रेस को अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। सवाल है कि जब हरियाणा में ही हरियाणा की पहचान नहीं बचती है तो दिल्ली में कहां से बचेगी? तब तो और भी कठिन होगा जब हरियाणा के बुद्धिजीवी दिल्ली या हरियाणा में सरकारों के साथ हो जाएंगे। पूंजीवादी विकास का यही तो संकल्प है कि कोई भी स्थानीय पहचान नहीं बचने देनी है। दुनिया में देशों की और देशों के अंदर प्रांतों-इलाकों की। विकास के तहत देश के बाकी राज्य भी हरियाणा की नियति को प्राप्त होते जा रहे हैं।    

किसानों में कई कमियां और कमजोरियां हैं जिनसे उन्हें उबरना चाहिए। दलित-विरोध और स्त्री-विरोध उनमें प्रमुख है। हालांकि ये कमजोरियां भारत के नौकरीपेशा और व्यवसाय करने वाले मध्यवर्ग में भी हैं और उच्च वर्ग में भी, जो अधिकांशतः अगड़ी सवर्ण जातियों से बनते हैं। मध्य और उच्च वर्ग के लोग उन कमजोरियों के साथ अपना हितसाधन कर लेते हैं। लेकिन किसान नहीं कर सकता, क्योंकि पूंजीवाद के साथ मीजान बैठाने में वह मध्य और उच्च वर्गों जैसा सक्षम नहीं है कि दकियानूसी संस्कार और पूंजीवादी उपभोक्तावाद की मिश्रित मानसिकता के साथ जीवन काट ले। वह केवल लुम्पेन बन कर रह जाता है।

वास्तविकता में पूंजीवाद का फायदा उसे मध्य और उच्च वर्गों की तरह मिल ही नहीं सकता है। भारत के मध्य और उच्च वर्ग की (उदर) पूर्ति का ही अंत नजर नहीं आता तो उन किसानों और आदिवासियों की बारी कब आएगी जिन्हें उनकी जमीन और घरों से विस्थापित किया जा रहा है?शासक वर्ग द्वारा फैलाया गया यह भ्रम अथवा अंधविश्वास है कि प्रचलित विकास से किसानों और आदिवासियों का विकास भी होगा। उपनिवेशवादी दौर से नवसाम्राज्यवादी दौर तक की सच्चाई यही है कि आधुनिक पूंजीवादी विकास ने किसानों और आदिवासियों को अपनी जगह से विस्थापित और जगह पर विकृत किया है। जबकि कमियों के मुकाबले उनके गुण बहुत ज्यादा हैं, जो समाजवाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और पर्यावरण संरक्षण के लिए बड़े काम के हैं।       

आओ रानी हम ढोयेंगे ...

पिछली बार हमने खुशवंत सिंह के बारे में चर्चा की थी। अंग्रेजी में उन जैसे और भी कई मौजमस्तीबाज पत्रकार हैं जिनकी नाल हमेशा शासक वर्ग के साथ जुड़ी होती है। उनकी नकल कुछ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के पत्रकार भी करते हैं। हालांकि वह भोंडी नकल होती है। (हिंदी व भारतीय भाषाओं का स्वतंत्र स्वभाव जाते-जाते जाएगा।) कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे पत्रकार और बुद्धिजीवी बार-बारी से कांग्रेस-भाजपा के साथ होते रहते हैं। हालांकि कहते हमेशा यह हैं कि उनका राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है। मनमोहन सिंह की शान में कसीदे पढ़ने वाले खुशवंत सिंह अडवाणी का गुणगान भी बखूबी कर चुके हैं। जब पिछड़े और दलित नेताओं का नवउदारवाद के साथ सीधा और स्थायी संबंध कायम हो जाएगा, यानी वे केंद्र में सरकार बनाने की हैसियत में आ जाएंगे, तो ये सब उनके साथ हो जाएंगे। पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतों ने इतनी घुसपैठ बना ली है कि आने वाले लंबे समय के लिए केंद्र में नवउदारवादी नीतियों का अनुगामी नेतृत्व ही सरकार चलाएगा। इस भवितव्य को देख कर ही ज्यादातर दलित और पिछड़े बुद्धिजीवी नवउदारवाद के भक्त बन गए हैं! भले ही वे यह नहीं समझते कि उस व्यवस्था में भी उनका शूद्रत्व स्थायी रहने वाला है। वैसे तो नवउदारवादी नीतियों के विरोधी नेतृत्व की सरकार बनना बड़ा मुश्किल होगा, अगर नवउदारवादी नीतियों से तबाह जनता के दबाव में किसी झटके में बन जाती है तो देश के पत्रकार और बुद्धिजीवी ही उसे नहीं चलने देंगे।

कांग्रेस नवउदारवादी नीतियों की योग्यतम वाहक है। इसीलिए ज्यादातर पत्रकार और बुद्धिजीवी उसके साथ होते हैं। कांग्रेस का समर्थन धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर किया जाता है। उनमें कुछ धर्मनिरपेक्षता के प्रति उत्साह में इतना ऊंचे निकल जाते हैं कि धर्म  की उदारवादी धारा को भी सांप्रदायिकता के खाते में डाल देते हैं। हम आपको यह बता चुके हैं कि सोनिया के ये सेकुलर सिपाही दरअसल प्रछन्न नवउदारवादी होते हैं। उनका 'भाजपा आ जाएगी' का भय दरअसल कांग्रेस चली जाएगी का भय होता है। वरना देश  का विभाजन स्वीकार करने से लेकर सिख विरोधी दंगों में पिछले 25 सालों में एक भी व्यक्ति को सजा न होने की सच्चाई वे अच्छी तरह से जानते हैं।

श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की अभूतपूर्व जीत 'हिंदू जीत' थी, जिसमें आरएसएस ने सकिय भूमिका निभाई थी। भाजपा उस तरह की जीत शायद ही कभी दर्ज कर पाए। गुजरात में निर्दोष मुसलतान नागरिकों के कत्लेआम पर सोनिया के सेकुलर सिपाहियों ने दिल्ली में धरना और सभाएं कीं, लेकिन जब यहां 'बड़ा पेड़ गिरने पर धरती  हिली थी' तो वे अपने घरों में दुबके बैठे थे। गुजरात के कत्लेआम पर तत्काल बहुत-सी कविताएं लिखी गईं, प्रदर्शनियां आयोजित की गईं, लेकिन सिखों का कत्लेआम धर्मनिरपेक्ष कलाकारों के लिए वैसे सरोकार का विषय नहीं बना। तह में जाकर देखें तो पता चलता है मार्क्सवादियों से लेकर आधुनिकतावादियों तक बुद्धिजीवियों की यह टेक है कि मुसलमानों को कांगेस के साथ जोड़े रखना है। सफदर हाशमी की एक छुटभैये कांग्रेसी नेता ने हत्या कर दी थी। उनकी याद में बनी 'सहमत' संस्था शुरू से कांग्रेसी पैसे पर पलती है। विभाजन से 84 के दंगों तक कांग्रेसी राज दंगों और अन्य तरह से अल्पसंख्यकों के साथ क्या सुलूक करता रहा है, उसकी रपटें भी मौजूद हैं।

शुरू से ही इनका अड्डा कांग्रेसी सरपरस्ती में उच्च शिक्षण, अध्ययन और शोध की सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं में जमता है। कोई भी कांगेसी 'नृप' होने पर उन्हें कोई 'हानि' नहीं होती। इधर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक साथ कई नए विधेयक/कानून के आने के साथ जहां कुछ पुराने बुद्धिजीवियों में नया जोश आया है, वहीं सारी गुणवत्ता विदेशी विश्वविद्यालयों में देखने वाली एक नई ब्रीड भी सामने आई है। पूंजी में पगी है यह ब्रीड आज कांग्रेस के साथ है, कल कोई भी भाजपाई नृप होने में हानि नहीं मानेगी।

नवउदारवादी नीतियों के वाहक की योग्यता सूची में भाजपा दूसरे नंबर पर आती है। इसीलिए केंद्र में सता की दावेदारी में भी उसका दूसरा नंबर लगा हुआ है। एक बार छह साल के लिए वह गठबंधन सरकार चला भी चुकी है। भाजपा के पास अपने पत्रकार और बुद्धिजीवी हैं। लेकिन धर्मनिरपेक्ष खेमे में भी ऐसे बहुत हैं, जो मौका पड़ते ही भाजपा में उदार धारा खोज लेते हैं। पहले उसका प्रतिनिधित्व अडवाणी के बरक्स वाजपेयी करते थे, अब मोदी के बरक्स अडवाणी करते हैं। अडवाणी अदूरदर्शिता के चलते प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। उन्होंने अपनी छवि 'लौह पुरुष' की बनाई जबकि जमाना 'विकास पुरुष' होने का है। किसी भी विकास पुरुष को लौह पुरुष तो पत्रकार और बुद्धिजीवी बना ही देते हैं। विकास पुरुष मोदी के प्रशंसक अंदरखाने लौहपुरुष मोदी के भी भक्त होते हैं। वे मोदी के मुसलमानों के साथ 'वैज्ञानिक'सख्ती से निपटने का लोहा मानते हैं।

कहने का आशय यह है कि देश में नवउदारवाद की पैठ चौतरफा गहरी होती जा रही है। कई जनांदोलनकारियों के कांग्रेस की गोद में जा गिरने से जनांदोलनधर्मी राजनीति का पक्ष और कमजोर हुआ है। ऐसे संगीन समय में नवउदारवाद विरोध की एक-एक सच्ची आवाज बेसकीमती है। दूर भविष्य की आशा उन्हीं आवाजों से बनती है। हमारे साथी अरुण त्रिपाठी वैसी ही एक आवाज रहे हैं। लेकिन इधर उनका स्वर बदला है। गांधी,लोहिया, जेपी, भगत सिंह और 1857 के क्रांतिकारियों पर गंभीरतापूर्वक और प्रतिबद्धता के साथ विचार और चर्चा करने वाले त्रिपाठी जी अचानक राहुल गांधी के पैरोकार बन गए हैं। 'हिंदुस्तान' अखबार में राहुल गांधी के समर्थन में जो लेख उन्होंने लिखा है वह हैरान करने वाला है। वह न उनके विचारों से मेल खाता है, न लिखने की शैली से।

अगर राहुल गांधी प्रकाश करात से बड़े वामपंथी हैं, वह भी नीचे से वामपंथ लाने वाले, और कांग्रेस में नवउदारवाद के बरक्स एक सशक्त वामपंथी धारा बह रही है, तो फिर वामपंथ की चर्चा और समीक्षा को भारत में विराम दे देना चाहिए। अगर लोगों की नहीं, वोटों की, और दुनिया के स्तर पर व्याप्त कुछ-कुछ पर्यावरण की चिंता से कुछ देर के लिए एक कंपनी का काम रोक दिए जाने पर कांग्रेस में प्रचलित विकास के बरक्स वैकल्पिक विकास की धारा (मनमोहन सिंह बनाम सोनिया गांधी) प्रवाहित हो गई है तो वैकल्पिक विकास के विमर्श और संघर्ष को भी बंद कर देना चाहिए।

शासक वर्ग की यही मंशा है कि चित और पट दोनों उसकी मानी जाएं। वह मारने का हक़ रखता है, और पूरा मारने के लिए पुचकारने का। अपने इस अधिकार पर वह बुद्धिजीवियों की स्वीकृति चाहता। शासक वर्ग को बुद्धिजीवियों की स्वीकृति मिलती है तो उसकी ताकत बढ़ती है, क्योंकि बुद्धिजीवी जनता में भी स्वीकृति दिलवाते हैं। साथ ही इससे उन्हें (बुद्धिजीवियों को) खुद ताकत का अहसास होता है कि वे जनता के साथ  जुड़े हैं। नागार्जुन ने एक कविता में इसे इस तरह कहा है : 'आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी/ यही हुई है राय जवाहरलाल की'।

त्रिपाठी जी का मन नहीं मानता कि राहुल गांधी नाटक कर रहे हैं । अगर प्रेमचंद या शेक्सपीयर की तरह इस दुनिया को ही 'रंगमंच' न मान लिया जाए तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि राहुल गांधी नाटक कर रहे हैं। उनका वही काम है, वे कर रहे हैं। वे ज्यादा से ज्यादा उस कमिटी के 'पात्र' कहे जा सकते हैं, जिसका ज़िक्र हमने ऊपर किया है।

दरअसलसमस्या राहुल गांधी के नहींखुद त्रिपाठी जी के साथ है। वे अपने लेख में एक प्रतिपक्ष रचते हैं जो सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कांग्रेस को ठीक से समझ नहीं रहा है और उस प्रतिपक्ष को ध्वस्त करके अपनी समझदारी के ठीक होने के प्रति आश्वस्त होना चाहते हैं। वह प्रतिपक्ष वामपंथियों (मार्क्सवादी और समाजवादी - दोनों) और विकल्पवादियों का है। जाहिर हैवह उनकी एक छद्म निर्मिती है। भारत के लोकतंत्र पर परिवारवाद, वंशवाद,जातिवादसंप्रदायवाद और इधर पिछले 20 सालों से नवसाम्राज्यवाद का दबाव है। इतने दबावों के चलते यह होता रहता है कि निहायत राजनीतिक निरक्षर व्यक्ति देश के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री बन जाते हैं। राजीव गांधी बन सकते हैं तो राहुल गांधी भी बन जाएंगे। लेकिन उससे वामपंथ और विकल्प का संघर्ष बुरा और पराजित नहीं हो जाएगा।

गोपियां उद्धव से कहती हैं : 'ऊधो मन नाहिं दस-बीस/एक हुतो सो गयो स्याम संग को आराधै ईश'। जो मन समता और स्वतंत्रता के मूल्यों में रमा है,उसे कम से कम नवउदारवाद के खुले खेल में समाजवाद दिखाई नहीं दे सकता। मुक्तिबोध के शब्दों में बुद्धि का भाल फोड़ कर’ ही नवउदारवाद में समाजवाद का दर्शन’ हो सकता है। हकीकत यही है कि राहुल गांधी नियामगिरि के आदिवासियों के नहींनवउदारवाद के सच्चे सिपाही हैं। आदिवासियों के होते तो अब तक वे सारे कानूनआदेशसमझौतेप्रस्तावविधेयक वापस ले लिए जाते जिनके द्वारा किसानों और आदिवासियों का जमीन और जंगल का हक ही नहींजीवन का हक भी छीन लिया गया है। जीवन के सारे आयामों को नवउदारवाद के शिकंजे में ले लेने वाले इन कानूनों और नीतियों के परिणाम गरीब भारत के लिए अगले 20 सालों में बीते पहले 20 सालों के मुकाबले ज्यादा विनाशकारी होंगे। यह देखना रोचक होगा कि दो भारतों की आमने-सामने की टक्कर के अगले चक्र में कौन किसके और कितना साथ होगा?

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Dr. Prem Singh
Dept. of Hindi
University of Delhi

Monday, May 25, 2020

फर्जी राजनीति के दौर में -प्रेम सिंह

(राजनीति का यह दौर फ़र्ज़ी है, जो लोग अब इस बात को मानने पर मजबूर हुए हैं उन लोगों को ये जानना चाहिए कि ये अचानक घटित होने वाली कोई घटना नहीं है। इसके लिए ना केवल सालों से माहौल बनाया जा रहा था, बल्कि संविधान को परे हटाकर हर साजिश को अंजाम देने से भी सियासदान बाज़ नहीं आ रहे थे। इस खेल में हिंदुत्व का राग अलापने वाला संघ परिवार अगर सबसे आगे था तो आज़ादी के आंदोलन की कोख से निकली कांग्रेस के नए नेतृत्व ने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अब तो ख़ैर नवउदारवाद के रथ पर थोड़ी सी जगह हासिल करने की होड़ में लगे क्षेत्रीय क्षत्रपों, तथाकथित समाजवादियों और खुद को आम आदमी का नुमाइंदा बताने वाले घोषित एनजीओबाज भी मैदान में उतर पड़े हैं। डॉ प्रेम सिंह जैसे लोग इस संकट की तरफ लगातार ध्यान दिला रहे थे, लेकिन नव उदारवाद की मृगतृष्णा से मोहित मिडलक्लास का ध्यान भ्रमित करने के कामयाब टोटके भी जारी थे। नतीजा देखते ही देखते फ़र्ज़ी राजनीति अपने चरम पर पहुंच गई। यह लेख 23 अप्रैल 2013 का है. 'युवा संवाद' में प्रकाशित हुआ था. आपके पढ़ने के लिए फिर ज़ारी किया है.)

फर्जी राजनीति का कांग्रेसी घराना

जल्दबाजी में लिखा गया यह समय संवाद’ कुछ ज्यादा तीखा लग सकता है। जिस तरह से नवउदारवाद के भारतीय एजेंटों ने जीवन के हर क्षेत्र पर खुला हमला बोल दिया है और देश के संविधान को ठोकर लगाकर उल्टा शेखी दिखा रहे हैंवैसे में सच्चाई अथवा तथ्यों को सीधे-सीधे रखना जरूरी हो जाता है। हम यह जानते हैं कि तथ्यों की महज छाया को छू कर विश्लेषण करने की बहुप्रचलित शैली है। उसमें व्यक्ति और पदनाम का पूरा लिहाज रखते हुए विश्लेषण किया जाता है। किसी पर कुछ आक्षेप करना भी पड़े तो इशारों से काम लिया जाता है। लेकिन व्यक्ति जब प्रवृत्ति बन जाएं तो उनका उल्लेख करना पड़ जाता है। ऐसे में नामोल्लेख का बुरा नहीं माना जाना चाहिए। फिर भीकिसी को लगता है कि उसकी वह प्रवृत्ति नहीं है, जिससे उसे जोड़ा गया है तो हम पहले ही माफी मांग लेते हैं।

अपने लेखन में हमारा सरोकार बहुत सीमित है। हम नवउदारवाद की राजनीति व विचारधारा की पहचान और समीक्षा करने तथा उसके बरक्स एक वैकल्पिक राजनीति और विचारधारा के निर्माण की पेशकश तक सीमित रहते हैं। यह अलग और पाठकों के विचारने की बात है कि हम यह काम कितना सही रूप में कर पाते हैं। नवउदारवादियों और छद्म नवउदारवादियों की नजर में हमारा लेखन पूरी तरह निरर्थक हो सकता है। लेकिन जो ऐसा नहीं मानतेउन्हें हमारे लेखन में जो कमी या गलती लगती हैध्यान दिलाने पर हम उसमें सुधार के लिए हमेशा तैयार हैं।

यह फर्जी राजनीति का दौर है। राजनीति जब देश के संविधान की पटरी से उतर कर किन्हीं इतर निर्देशों पर चलती है तो उसे फर्जी राजनीति कह सकते हैं। फर्जी राजनीति की परिभाषा करने के बजाय उसका सीधे ब्यौरा देने और व्याख्या करने से बात ज्यादा समझ में आएगी। आइए वही करते हैं। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री पिछले दस सालों से सरकार चला रहे हैं। नब्बे के दशक के शुरू में बतौर वित्तमंत्री नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत भी उन्होंने की थी। तब से लेकर अब तक नई आर्थिक नीतियां नवउदारवाद के वृहद संस्करण का रूप ले चुकी हैं। कतिपय छोटी वामपंथी (मार्क्सवादी और समाजवादी दोनों) राजनीतिक पार्टियों को छोड़ करभारत की ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियां मनमोहन सिंह और उनकी मंडली द्वारा शुरू और संस्कारित की गई नवउदारवादी व्यवस्था को विकल्पहीन मान कर उसका अनुसरण करती हैं। एक व्यक्ति के लिए यह कम उपलब्धि की बात नहीं कही जाएगीभले ही नवउदारवाद की वैश्विक संस्थाओं और देश में मौजूद निहित स्वार्थ वाली पूंजीवादी शक्तियों से भरपूर मदद मिली हो। यह मनमोहन सिंह की प्रतिबद्धता’ का ही उत्कर्ष है कि वे बतौर प्रधानमंत्री तीसरी पारी खेलने के लिए तैयार नजर आते हैं।  

सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि मनमोहन सिंह को भारत की एक भी समस्या की शायद ही जानकारी हो। दरअसलवेभला-बुरा जैसा भी हैभारत को जानते ही नहीं हैं। हम भारत के अतीत या मध्यकाल की बात नहीं कर रहे हैंजिसकी समुचित जानकारी के लिए कई तरह की परतों से होकर गुजरना पड़ता है। हम ठेठ आधुनिक काल की बात कर रहे हैंजिसमें करीब200 सालों का उपनिवेशवादी शासन है और उसके खिलाफ भारत के लोगों का संघर्ष है। आजादी के दौर के गांधी युग की बात भी छोड़ दी जाएमनमोहन सिंह आजादी के बाद के नेहरू युग के बारे में भी नहीं जानते। एक बार संसद में जब नई आर्थिक नीतियों के समर्थन में नेहरू को उद्धृत किया जाने लगा तो चंद्रशेखर ने तल्खी के साथ टोका कि खुली अर्थव्यवस्था के समर्थन में नेहरू को उद्धृत न करें। किसी चीज को जान कर नहीं मानना अलग बात होती है। मनमोहन सिंह ऐसी पूंजीवादी मशीन का नाम है जो विश्व बैंकआईएमएफडब्ल्यूटीओ आदि के आदेशों के अलावा वाकई कुछ नहीं जानते। गोया सब कुछ पहले से फीड किया गया है। तभी उन्हें चिंता होती है कि किसान आत्महत्या क्यों करते हैंकोई और काम क्यों नहीं कर लेतेकिसानों की हालत जानने के लिए वे पिपली लाइव’ फिल्म देखते हैं।

इतना ही नहीं है कि मनमोहन सिंह की भारत के बारे में राजनीतिकसामाजिकआर्थिक जानकारी लगभग सिफर हैवे किसी मूल्य अथवा नैतिकता के पचड़े में भी नहीं पड़ते हैं। हर्षद मेहता से लेकर 2जी स्पैक्ट्रम और कोयला आवंटन घोटालों तक से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि नैतिकता की नस उनकी मशीनी संरचना में है ही नहीं। जबकि इन सभी घोटालों में नवउदारवाद का प्रधान एजेंट होने के नाते उनकी परोक्ष-अपरोक्ष भूमिका मानी जाएगी। कोयला विभाग सीधा उनके तहत था और ए राजा बार-बार कह चुके हैं कि उन्होंने जो कुछ किया प्रधानमंत्री के कहने पर किया। क्या आप मान सकते हैं कि नवउदारवाद के पारंगत खिलाड़ी को एक कल का मंत्री गुमराह कर सकता हैभले ही भारत के नागरिक समाज और प्रबुद्ध वर्ग को इस पर अचंभा न होता होऐसा षख्स डंके की चोट पर भारत का प्रधानमंत्री है। वे राज्यसभा में झूठ के बल पर आए थे और लोकसभा का चुनाव एक बार लड़े और हार गए। ये हमारा लोकतंत्र चल रहा है!

मनमोहन सिंह को भले ही खुद नहीं लगता होलेकिन झूठ से उन्हें कोई गुरेज नहीं है। वे उसे बुरी बात नहीं मानते। इस बाबत हम भारत-अमेरिका परमाणु करार की ओर आपका थोड़ा ध्यान खींचना चाहेंगे। उस प्रकरण में मनमोहन सिंह ने मिथ्यात्व केउदात्तीकरण’ की ऐसी बानगी पेश कीजिसकी मिसाल दुनिया में षायद ही कहीं मिले। प्रधानमंत्री कार्यालय और संसद की गरिमा जितनी इस सौदे में गिरीउतनी कभी नहीं गिरी थी। पिछले कुछ अरसे से संसद की गरिमा पर हायतौबा मचाने वालों ने तब चूं तक नहीं की थी। परमाणु करार प्रकरण पर उस समय हमने विस्तार से लिखा थाजो मिलिए हुकुम के गुलाम से’ पुस्तिका में शामिल है। लोकसभा सांसदों को भी हमने उस लेख की प्रति भेजी थीइस निवेदन के साथ कि अपना मत देने से पहले वह लेख पढ़ लें।   

मनमेाहन सिंह के ऊपर सोनिया गांधी हैं जिनसे किसी जानकारी की अपेक्षा करना  नादानी है। वे देश में प्रधानमंत्री से भी बड़ी ताकत मानी जाती हैं। विदेशि पत्रिकाओं में उनका इस रूप में विरुद छपता है। वे जब से बनी हैंतभी से कांग्रेस की अध्यक्ष हैं और जब तक उनका बेटा वह जिममेदारी नहीं सम्हाल लेताबनी रहेंगी। परिवार को जोड़े रखने और फलने-फूलने के लिए सबके ऊपर एक व्यक्ति की सत्ता माननी चाहिए - सामंत काल का यह मूल्य भारत की आधुनिक’ राजनीति में धड़ल्ले से चलता है। यह भी दुनिया में एक अद्भुत मिसाल है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी पूरी तरह से चाटुकारों का जमावड़ा है। सोनिया गांधी का एक बेटा है जिसे पिछले दो दशकों से नेता और देश का प्रधानमंत्री बनाने की कवायद कराई जा रही है। कितने ही कांग्रेसी और विज्ञापन कंपनियां इस परियोजना में लग कर मालामाल होते रहते हैं! 

गांव में जिन दिनों खेती बैलों पर निर्भर रहती थीजवान होने पर बछड़ों को शरीर व दिमाग दोनों से खेती के काम के लिए तैयार किया जाता था। उस प्रक्रिया में बछड़ों के कंधे पर केवल जूआ रख कर रास्तों और खेतों में चलाया जाता था। उस अवधि में वे हिलावड़ बछड़े कहलाते थे। उसी दौरान उन्हें बधिया भी किया जाता था। बछड़ों की थकान दूर करने और शारीरिक शक्ति बढ़ाने के लिए उन्हें बांस की नाल से घी पिलाया जाता था। कुछ दिनों में बछड़ा बैल बन जाता था और हलबैलगाड़ीरहट आदि में जोतने के काम आता था। जो बछड़ा खेती के काम के लिए तैयार नहीं हो पाता थावह सांड़ बन कर रह जाता था। कांग्रेसी सोनिया गांधी के आदेश पर राहुल गांधी को नेता बनाने पर पिले हैं। बड़ा घराना है - भारत का प्रथम राजनीतिक परिवार! - तो मीडिया घराने भी सब कुछ लाइव दिखाते हैं। लेकिन वे देश की बात छोडिएइतने सालों बाद कांग्रेस के भी किसी काम के नहीं बन पाए हैं। उनका आगे क्या होगा यह खुद कांग्रेसियों को नहीं मालूम है। कोई बड़ा राजनीतिक पंडित उनके भविष्य के बारे में बता सकता है।

कांग्रेसी जब कहते हैं राहुल जी देश की नस-नस जानते हैं तो उसका अर्थ होता हैवे कुछ नहीं जानते। यह सच्चाई ऐसा कहने वाले कांग्रेसी भी जानते हैं। एक बार राय बरेली में एक कांग्रेसी कार्यकर्ता युवक ने राहुल गांधी से अपना नाम पूछ लिया तो वह भी वे नहीं बता पाए। यह जरूरी नहीं है नेता को हर कार्यकर्ता का नाम पता हो या याद रहे। लेकिन जब देश कोउसकी युवा शक्ति को जानने और दिशा  देने के के ऊंचे दावे किए जाते हों तो ऐसे वाकये पोल खोल देते हैं। कांग्रेसी राहुल गांधी को देश का भविष्य बताने और बनाने पर तुले हैं। क्योंकि राहुल गांधी के भविष्य में उनका खुद का भविष्य सुरक्षित है। देश की आजादी के साथ जिस पार्टी का नाम जुड़ा होउसका यह हाल है - वह एक फर्जी राजनीतिक पार्टी बन कर हर गई है! 

फर्जी राजनीति का संघी घराना

जहां तक नवउदारवाद की स्वीकृति का मामला हैभारत की मुख्यधारा राजनीति में कोई विपक्ष नहीं है। नवउदारवाद के पक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है ओर दूसरे नंबर की भाजपा है। बाकी के दल कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए और भाजपा की अगुआई वाले एनडीए में शामिल हैं तथा मौका देख कर इन गठबंधनों के बीच आवाजाही करते रहते हैं। उनके इस चलन से कांग्रेस और भाजपा दोनों परेशानी का अनुभव करते हैं। इसीलिए मनमोहन सिंह और लालकृष्ण अडवाणी कहते हैं कि देश में कांग्रेस और भाजपा दो पार्टियां रहनी चाहिए। भाजपा प्रमुख विपक्षी पार्टी इस नाते है कि वह नवउदारवाद के पक्ष में दूसरे नंबर की बड़ी पार्टी है और सांप्रदायिक राजनीति में अव्वल नंबर की। वह आगे आएगी तो कांग्रेस को दूसरे नंबर पर जाना होगा। संघ/भाजपा का मानना है कि वे इस देश के बारे में बखूबी जानते हैंखास कर उसके महान’ अतीत के बारे में। वे अतीत पर इस कदर मोहित रहते हैं कि आजदी के संघर्ष में हिस्सा लेकर अपना मोहभंग’ करना उन्होंने गवारा नहीं किया! अतीत के प्रेमियों को वर्तमान में कैद’ नहीं होना चाहिएइसलिए यरवदा जेल से आरएसएस प्रमुख बाला साहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को चिठ्ठियां लिखीं कि आरएसएस से प्रतिबंध हटा लिया जाए और उसके स्वयंसेवकों को रिहा कर दिया जाए तो वे राष्ट्रीय उत्थानके काम में सरकार के आदेश का पूरी तरह पालन करेंगे।

भाजपा के सक्रिय नेताओं में लालकृष्ण अडवाणी शीर्षस्थ हैं। देश के सामने जो भी समस्याएं होंभले ही हाहाकार मचा होउन्हें केवल संघियों के आत्म-गौरव की फिक्र खाए जाती है। उन्होंने अभी कहा है कि भाजपा के नेता-कार्यकर्ता राममंदिर आंदोलन पर गर्व अनुभव करें। जाहिर हैउस आंदोलन की पूर्णाहूति बाबरी मस्जिद के ध्वंस और उसके बाद दंगों में मारे गए निर्दोष नागरिकों पर भी गर्व करना है। उस दौरान जो भाले-बरछे लहराए गएमुसलमानों को गालियां दी गईंवे भी सब गर्व करने की बातें हैं। आजकल उनकी नरेंद्र मोदी से रेस चल रही है। शायद वे कहना चाहते हैं कि हिंदुत्ववादी गर्व के मामले में उनका कद/काम मोदी से कहीं बड़ा है। उन्होंने पूरे देश में जो गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ की पुकार लगाई थीउसके सामने एक प्रांत का गौरव भला कहां ठहरता है! कहना न होगा कि जो राममंदिर आंदोलन पर गर्व नहीं करतेवे अडवाणी के भारत में नहीं आते। पूरा जीवन राजनीति करने के बाद 85 साल के नेता की यह समझ है!

फर्जीपन का रोग इलाकाई क्षत्रपों को भी लग चुका है। मुलायम सिंह अडवाणी के नए प्रशंसक बन कर सामने आए हैं। अपने बेटे को जीते-जी मुख्यमंत्री बना कर भी वे संन्यास लेने के मूड में नहीं हैं। खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं और बाकी रिश्तेदारों को भी ऊंचे ओहदे दिलवाना चाहते हैं। संघ के शत्रुओं की फेहरिस्त में एक समय टॉप पर रहे मुलायम सिंह यह मान बैठे हैं कि अडवाणी प्रधानमंत्री की रेस से बाहर हैं और उनकी कुछ मदद कर सकते हैं। उन्हें शायद जार्ज की तरह मुगालता है कि संघ परिवार प्रधानमंत्री के लिए उन्हें आगे कर सकता है। वे भूलते हैं कि संघ परिवार देश के सबसे बड़े यानी हिंदू परिवार’ की राजनीति करता हैन कि मुलायम सिंह की तरह अपने परिवार की।

मुलायम सिंह कहते हैं अडवाणी जी ने विभाजन के चलते बहुत सहा है। देश का विभाजनजिसमें अडवाणी की पितृसंस्था की भी बड़ी भूमिका थीएक ऐसी त्रासदी थी जिसकी मिसाल दुनिया में अभी तक नहीं मिलती। विभाजन के दौरान असंख्य लोग तबाह हुए। 10 लाख लोग मारे गए। मनुष्यता की सारी हदें टूट गईं। उस दौरान अडवाणी ने भी बहुत कुछ सहा हो सकता है। इसके लिए उनके प्रति सहानुभूति भी होनी चाहिए। लेकिन सवाल है कि उन्होंने सबक क्या सीखाएक नेता के नाते वे सांप्रदायिकता की राजनीति को हमेशा के लिए खत्म करने की भूमिका ले सकते थे। लेकिन उन्होंने पूरा जीवन सांप्रदायिकता बढ़ाने में लगा दिया और आज भी वही कर रहे हैं।

अनेक लोगों ने आजादी के संघर्ष और आजादी के बाद भी बहुत सहा है। तभी देश को आजादी मिलीजिसे नवउदारवादियों ने खतरे में डाल दिया है। मुलायम सिंह अडवाणी के दुखों पर द्रवित होते वक्त लोहिया का ही उदाहरण सामने रख लेतेजिन्हें भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान लाहौर किले में अमानुषिक यातनाएं दी गई थीं। आजादी के बाद वे सबसे ज्यादा बार जेल में डाले जाने वाले नेता थे। जेल जाना लोहिया के राजनीतिक संघर्ष का अविभाज्य हिस्सा था। लिहाजाउन्होंने कभी इसकी शिकायत नहीं की। लेकिन एक बार उन्हें कहना पड़ा कि नेहरू की पुलिस ने उनके साथ बदसलूकी में अंग्रेजों की पुलिस को पीछे छोड़ दिया।

अडवाणी आजादी के आंदोलन में हिस्सेदार नहीं थे कि उन्हें कुछ सहना पड़ता। वे सिंध इलाके से सुरक्षित और सुभीते से पाकिस्तान से भारत आए। कराची में वे पहले से आरएसएस के सदस्य थे और 1947 में आरएसएस के सचिव चुने गए थे। तभी आरएसएस की तरफ से उन्हें दंगों का जायजा लेने के लिए राजस्थान भेजा गया था। 1951 में जब जनसंघ का गठन हुआ तो वे उसके सदस्य बन गए। उन्होंने बैठे ठाले की हिंदुत्ववादी राजनीति की हैजिसमें अल्पसंख्यकों के खिलाफ भड़काऊ बयान देने के अलावा कुछ करने की जरूरत नहीं होती। ज्यादा कुछ करना हो तो पाकिस्तान की कड़े शब्दों में भर्त्सना कर दो। आगे हम देखेंगे कि यही अडवाणी संघ/भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। 

भाजपा में अडवाणी के बाद अब नरेंद्र मोदी का नाम आता है। नरेंद्र मोदी की चर्चा का बाजार आजकल काफी गरम है। उनका बोलना सुनें तो रामदेव की तरह उनके पास हर मर्ज की दवा है। किसी भी सवाल के जवाब में उन्हें रामदेव की तरह ही सोचने-विचारने के लिए पल भर भी रुकना नहीं पड़ता। वे जताते हैं कि मनमोहन सिंह कुछ नहीं जानते और वे सब कुछ जानते हैं। जाहिर हैजानने से उनका मतलब बोलने से होता है। यानी मनमोहन सिंह कुछ नहीं बोलते तो कुछ नहीं जानतेनरेंद्र मोदी खूब बोलते हैं तो सब कुछ जानते हैं। लेकिन वाचालता उन्हें मनमोहन सिंह से बड़ा नहीं बना देती। मनमोहन सिंह असली फर्जी हैंजिनके सामने नरेंद्र मोदीकारपोरेट जगत की लाख अभ्यर्थना करने के बावजूदहमेशा नकली फर्जी रहेंगे।

कह सकते हैं कि अडवाणी अगर वाजपेयी के बिगड़ैल संस्करण हैं तो नरेंद्र मोदी अडवाणी के। नरेंद्र मोदी पर कुछ विस्तार से चर्चा करते हैं। वे अडवाणी से अलग अपनी एक योग्यता - कारपोरेट घरानों को रिझाने की कवायद - का जम कर प्रदर्शन कर रहे हैं कि कारपोरेट जगत उन्हें अपना उम्मीदवार बना ले। कारपोरेट जगत कभी कच्ची गोली नहीं खेलता। वह पूरी गारंटी चाहेगा कि भाजपा का भविष्य का यह नेता पार्टी को छुटभैये व्यापारियों की हित-पोषक नहीं बनी रहने देगानवउदारवादी फैसलों को पूरी तरह और तेजी से लागू करेगा।

मीडिया नरेंद्र मोदी का पूरा साथ दे रहा है। मीडिया की चर्चा में वही शख्सविचारघटना रहती है जिसकी नाल नवउदारवाद के साथ जुड़ी हो। भारत का मुख्यधारा मीडिया हर उस शख्स अथवा आंदोलन को सिर पर उठा लेता हैजो परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर कारपोरेट पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने और मजबूत बनाने का काम करते हैं। ऐसा करते वक्त भले ही वे सांप्रदायिकताजातिवादपरिवारवाद-वंशवादक्षेत्रवाद आदि को बढ़ावा देते हों और अंधविश्वास व अपसंस्कृति फैलाते हों। नब्बे के दशक की शुरुआतजब संविधान की अवहेलना करके देष की अर्थव्यवस्था को कारपोरेट पूंजीवाद के षिकार के लिए खोला गयामीडिया का यह चरित्र बनने लगा और पिछले एक दशक में परवान चढ़ चुका है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से लेकर मोदी के अंध समर्थन तक उसकी यह भूमिका देखी जा सकती है। राजनीति फर्जी होगी तो मीडिया भी फर्जी होता जाएगा।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के एक अगुआ और बाजारवाद के बाबा रामदेव ने हाल में खुल कर भाजपा नेतृत्व को सलाह दी है कि वह मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाए। पिछले दो सालों में देश की जनता यह देख चुकी है कि रामदेवअन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल कावर्चस्व की आपसी लड़ाई के बावजूदएक ही घराना है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान तीनों घी-शक्कर थे और आंदोलन की समाप्ती के उपरांत भी तीनों के तार कई तरह से आपस में जुड़े हुए हैं। सभी ने देखा कि गुजरात का चुनाव मोदी ने तीसरी बार आसानी से जीत लियालेकिन इन तीनों बड़बोलों में से किसी ने उस चुनाव में मोदी के खिलाफ चुंकार तक नहीं की। स्वाभाविक है कि मीडिया को ये तीनों नरेंद्र मोदी की तरह ही प्यारे हैं। 

मीडिया में मिली तेज उछाल से नरेंद्र मोदी पूरे उत्साह में है। उनका उत्साह और बढ़ जाता है जब यूरोप और अमेरिका को उनमें दूसरा मनमोहन सिंह नजर आने लगता है। वे यूरोपियन यूनियन के कारकूनों के साथ मुलाकात और खान-पान करते हैं। मीडिया सारी घटना को इस तरह परोसता हैमानो वे लोग आधिकारिक तौर पर भारत के भावी प्रधानमंत्री’ से मिलने आए हों। यह सच्चाई जनता की निगाह से छिपा ली जाती है कि वह मुलाकात मोदी और उनके हिमायती गुट द्वारा प्रायोजित थी। सामदामदंडभेदछलकपटझूठफरेबषड़यंत्र - आरएसएस के हिंदुत्व में सब कुछ चलता है। 

कुछ बुद्धिजीवियों को यह देख कर सदमा लगता है कि दुनिया को लोकतंत्रधर्मनिरपेक्षतामानवाधिकारकानून का शासनसबको समान न्याय आदि का पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका और यूरोपियन यूनियन भला नरेंद्र मोदी का समर्थन कैसे कर सकते हैंपश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की परंपरा में पगे ये भले लोग आज भी मानने को तैयार नहीं हैं कि यूरोप और अमेरिका की ये चिंताएं खोखली हैं। मुनाफा और वर्चस्व बनाए रखने के लिए वे एक से बढ़ कर एक तानाशाह और कातिल को अपना समर्थन देते रहे हैं। बसउनके आर्थिक और सामरिक वर्चस्व को बाकी दुनिया में चुनौती नहीं मिलनी चाहिए। अगर कोई वैसी हिमाकत करता है तो उसे नेस्तनाबूद कर दिया जाता है। हम यह इसलिए कह रहे हैं कि फर्जी राजनीति और आंदोलन को फर्जी मीडिया किस तरह से परोसता है और फर्जी नागरिक समाज किस तरह लौकता है।  
भारत समेत ज्यादातर तीसरी दुनिया के लोगों ने अपने हाल और मुस्तक्विल के बारे में खुद सोचना और फैसले लेना बंद कर दिया है। हमारे सारे फैसले यूरोप और अमेरिका में लिए जाते हैं। भारत में हम केवल अपना धर्मजाति और इलाका निभाते हुए उन फैसलों के नीचे जीते-मरते हैं। भारत के कारपोरेट घरानों और यूरोप-अमेरिका का नरेंद्र मोदी के समर्थन का मंसूबा साफ है - भारत के सभी राज्य गुजरात मॉडल’ की रोशनी में अपना विकास करेंयानी संविधान को पीछे और कारपोरेट घरानों और यूरोप-अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आगे रख कर चलें। उन्हें इससे एक और फायदा है। कारपोरेट पूंजीवाद जितना बढ़ेगाहिंसक प्रतिरोध भी उतना ही बढ़ेगा। (क्योंकि कारपोरेट पूंजीवाद के उत्पाद एनजीओ और सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट वास्तवकि राजनीतिक प्रतिरोध की जमीन तैयार नहीं होने देते। उन्होंने मिल कर अब आम आदमी के नाम पर एक राजनीतिक पार्टी ही बना ली है।) हिंसक प्रतिरोध को दबाने के लिए विदेशी कंपनियों का सुरक्षा बलों व खुफिया एजेंसियों को विषेषज्ञतातकनीकउपकरण और हथियार बेचने का मुनाफे का सौदा तेज होगा।

कहने की जरूरत नहीं कि नरेंद्र मोदी का बहुप्रचारित गुजरात मॉडल’ हिंदुत्व की प्रयोगशाला में ढल कर निकला है। गुजरात मॉडल’ फैलेगा तो कट्टरपंथ भी फैलेगा। उससे निपटने के लिए भारत की सरकारों को और उपकरणों और हथियारों की जरूरत होगी। कट्टरपंथियों को भी उपकरण और हथियार चाहिए होते हैं। नवसाम्राज्यवादी निजाम वह खुशी-खुशी उपलब्ध कराएगा। कट्टरपंथियों को हथियारों की ऐसी चाट लगा दी गई है कि वे अपने शरीरों को भी हथियार बना लेते हैं। यह पूंजीवादी निजाम दो मजबूत पहियों पर चलता है - बाजार और हथियार। नरेंद्र मोदी दोनों की गारंटी देने के लिए कारपोरेट घरानों और यूरोपी-अमेरिकी नेतृत्व के सामने कठपुतली की तरह नाच रहे हैं। इस कदर कि विदूषक लगने लगे हैं। मनमोहन सिंह को कारपोरेट पूंजीवाद का रोबो (मशीन) कहा जा सकता है तो नरेंद्र मोदी की छवि कारपोरेट पूंजीवाद के विदूषक की बनी  है।

हमने कुछ महीने पहले लिखा था कि आरएसएस एक सोची-समझी रणनीति पर काम कर रहा हो सकता है। नरेंद्र मोदी को वह इसीलिए टिटकारी दिए हुए है कि वह संघ परिवार का भविष्य का राष्ट्रीय नेता है। पिछले 20-25 सालों का नवउदारवादी दौर आरएसएस को सबसे ज्यादा फला है। इस बीच कारपोरेट-सेवी युवाओं की जो फसल तैयार होकर आई हैवह ज्यादातर अंधविश्वासी और सांप्रदायिक है। उसका भारत के संविधान और आजादी के संघर्षऔर सह-अस्त्तिव की विरासत से कोई वास्ता नहीं है। भारत को अमेरिका बनना चाहिएबल्कि वह जल्दी ही एक दिन बनेगाऐसा उसका दृढ़ (अंध)विश्वास है। नरेंद्र मोदी इसी फसल के स्वाभाविक नेता हैं। उनके अभी तक के नेता मनमोहन सिंह उन्हें थके हुए लगने लगे हैं। देष के तेज विकास और महाशक्ति बनने की हवा बांधने वाले ये लोग अपने को ही पूरा देश मानते हैं। यानी सब कुछ उन्हें सबसे पहले अपने लिए चाहिए। नवउदारवाद के तहत बन रहे फर्जी भारत के ये फर्जी नागरिक हैं।  
कहना होगा कि यह युवा बिरादरी अपने आप ऐसी नहीं बन गई है। मनमोहन सिंह के साथ नवउदारवाद और संघ परिवार के साथ संप्रदायवाद के समर्थकों ने मिल कर जो माहौल तैयार कियायह उसकी फसल है। आपने देखा है कि भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इनके हसीन सपनों को किस कदर हवा देते थे। यह सही है कि भारत की पूरी युवा आबादी के मुकाबले अभी कारपोरेट-सेवी युवाओं की संख्या काफी कम है। बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की हैखास कर युवतियों कीजो सांप्रदायिक और अंधविश्वासी नहीं हैं। इसीलिए नरेंद्र मोदीप्रधानमंत्री बनना दूरअभी गुजरात के बाहर सांसद का चुनाव भी नहीं जीत सकते। लेकिन आरएसएस को विश्वास हैभविष्य में उसकी विचारधारा फैलेगीतब गठबंधन की मजबूरी नहीं रहेगीउस समय आदर्श हिदुत्ववादी’ नरेंद्र मोदी उसके प्रधानमंत्री होंगे। बीच का समय निकालने के लिएअटल बिहारी वाजेपयी के समय में कट्टर कहे जाने वालेलालकृष्ण अडवाणी का सहारा लिया जाएगा।  

16 साल के प्यार के बाद कहा जा सकता है कि जदयू संघी घराने का ही अविभाज्य अंग है। उसके नेताओं ने रामविलास पासवानमायावतीममतानवीन पटनायकचंद्रबाबू नायडूएम करुणानिधिजे जयललिता आदि की तरह बीच-बीच में संघ को छोड़ा नहीं है। आपने हाल में देखा कि जदयू नेताओं ने दिल्ली में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय परिषद की बैठक में धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य पर अपना पाखंडी रवैया एक बार फिर बखूबी दिखाया ताकि मुसलमानों का वोट उनकी झोली से बाहर न जाए। उन्होंने  आरएसएस के स्वयंसेवक और भाजपा के शीर्षस्थ नेता रहे अटल बिहारी को पूरमपूर धर्मनिरपेक्ष बताते हुएउनके जैसे नेता को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने की सलाह भाजपा को दी। यह सब जानते हैं कि संघ परिवार की सांप्रदायिक विचारधारा के अंतर्गत कट्टरता और उदारता की लाइन चलती हैं। वाजपेयी की उदारता सांप्रदायिक विचारधारा की उदारता हैजिसके तहत देष के संविधान के साथ छल करके सत्ता पाई जाती है।

जदयू नेताओं की नजर में अब लालकृष्ण अडवाणी धर्मनिरपेक्ष नेता हो गए हैं। अडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने पर गठबंधन नहीं छोड़ने की बात करने वाले ये वही नेता हैं जिन्होंने भाजपानीत केंद्र की राजग सरकार में शामिल होते वक्त कहा था कि अगर भाजपा अडवाणी को प्रधानमंत्री बनाती तो वे सरकार में शामिल नहीं होते। उनके लिए अब कट्टर मोदी के मुकाबले अडवाणी उदार हो गए हैं। दरअसलभाजपा को जदयू नेताओं के मोदी संबंधी परोक्ष-अपरोक्ष हवालों से नाराज न होकर उनका शुक्रगुजार होना चाहिए। जदयू नेतृत्व ने कहा है कि वे मोदी का समर्थन इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि मोदी ने गुजरात दंगों से निपटने के लिए मुस्तैदी से काम नहीं लिया। यह कह कर जदयू नेताओं ने 2002 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हुए मुसलमानों के राज्य-प्रयोजित नरसंहार और उसे छिपाने के लिए किए गए षड़यंत्रों से मोदी को बरी कर दिया है।

बाबरी मस्जिद ध्वंस के रथी अडवाणी को अपना नेता स्वीकार करने के साथ  जदयू नेताओं ने भाजपा के साथ अपने 16 साल पुराने प्यार का बखान भी किया है। लेकिन उन्हें यह भी कहना चाहिए कि उतने ही सालों से वे मुसलमानों के साथ फ्लर्ट कर रहे हैं। यह सारी कलाबाजी बिहार में मुसलमान वोटों को कब्जे में रखने के लिए की जा रही है। अपने को सेकुलर जताने वाले दलों और नेताओं का हर राज्य और देश के स्तर पर यही रवैया बना हुआ है। सभी ताक में रहते हैं कि चुनाव में मुसलमान उनकी झोली में गिरें। यह न केवल संविधान विरोधी रवैया हैनागरिक के तौर मुसलमानों की तौहीन है। हर सेकुलर पार्टी में सत्ता का सुख भोगने वाले चंद मुसलमान नेता भी पूरे समुदाय की यह दुर्दशा बना कर रख देने में हिस्सेदार बनते हैं। भाजपा सेकुलर दलों के इस रवैये का फायदा उठाकर हिंदू वोट बैंक की राजनीति करती है और हमेशा मुख्य विपक्षी पार्टी बनी रहती है।

हमारा मानना है कि यह दुष्चक्र तभी तोड़ा जा सकता है जब देश के मुसलमान नागरिक कम से कम एक बार आमचुनाव और एक बार सभी विधानसभा चुनावों में वोट नहीं डालने का कड़ा फैसला लें। भारत की राजनीति में उससे बड़ा बदलाव हो सकता है। मुसलमानों के इस सत्याग्रह’ से धर्मनिरपेक्षता के दावेदार और सांप्रदायिकता के झंडाबरदार - दोनों संविधान की ओर लौटने के लिए मजबूर होंगे। और तब देष का संविधान सांप्रदायिकता पर भारी पड़ेगा।

पूंजीवाद के सिर पर स्वराज की टोपी

दिवंगत साथी हरभगवान मेंहदीरत्ता की बहन सत्या ने हमें बताया कि जस्टिस जेएस वर्मा की पत्नी ने उनसे आम आदमी पार्टी की सदस्य बनने का आग्रह किया। सत्या के विचार काफी रेडिकल हैं और वे अपने ढंग की स्त्रीवादी और समाज-सुधारक हैं। राजनीति को समाज से जोड़ कर देखती हैं और उससे भी ज्यादा राजनीति करने वालों के व्यक्तिगत आचरण से। उन्होंने जस्टिस वर्मा की पत्नी को यह कह कर सदस्य बनने से इनकार कर दिया कि उस पार्टी के बनाने वाले एनजीओ चलाने वाले हैं। उनमें समाज के लिए कोई दर्द या दृष्टि होती तो उन्होंने अपने बूते कुछ काम किया होता। 

ये लोग पहले मैं अन्ना हूं’ की टोपी पहनते थे। आजकल मैं आम आदमी हूं’ और मुझे चाहिए स्वराज’ की टोपी लगाए होते हैं। आम आदमी के बारे में हमने पहले आपको बताया था कि उसका गांधी के आखिरी आदमी से कोई लेना-देना नहीं है। मिश्रित और पिछले बीस-पच्चीस सालों की नई आर्थिक नीतियों का लाभ उठाकर मुटाया मध्यवर्ग खुद आम आदमी बन बैठा है। पिछले दिनों केजरीवाल ने दिल्ली में बिजली-पानी के मुद्दे पर अनशन किया था। अखबार में छपी एक दिन की तस्वीर में प्रशांत भूषण मुझे चाहिए स्वराज’ की टोपी लगा कर बैठे थे,जिस पर फोटोग्राफर ने फोकस किया था। शायद यह सोच कर कि बेचारे भले लोग स्वराज के लिए कितनी तकलीफ उठा रहे हैं। वह तस्वीर देख कर हमारे मन में आया कि एक पेशी का कई लाख रुपया लेने वालेइलाहाबाद में करोड़ों के मकान को कौडियों में अपने नाम लिखवा लेने वाले और दिल्ली, नोएडा, हिमाचल में मकान-प्लाट रखने वाले इन महानुभाव को और कितना स्वराज चाहिएएक समय संवाद’ में हमने इस मंडली के स्वराज का पाखंड रचने के वाकये का जिक्र किया था कि किस तरह से 2007 के आमचुनाव में उन्होंने मनमोहन सिंहसोनिया गांधी और अडवाणी से स्वराज मांगने के बड़े-बड़े होर्डिंगों से दिल्ली को पाट दिया था।

स्वराज का विचार तिलक युग से शुरू होकर गांधी तक आता है और गांधी उसे आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के विकल्प के रूप में विकसित करते हैं। स्वराज्य के बारे में गांधी का कहना था कि आजादी के साथ जो मिलने जा रहा हैवह उनके सपनों का स्वराज्य नहींइंग्लैंड के संसदीय लोकतंत्र का एक रूप होगा। गांधी को यह तो स्पष्ट था कि उनके सपनों का स्वराज्य फलीभूत होना लगभग नामुमकिन है। लेकिन उस दिशा में उनके प्रयास अंत तक बने रहे ताकिकम से कम लोगों की सोच मेंकुछ हद तक उस विचार की उपस्थिति बनी रहे। उनका प्रयास बिल्कुल व्यर्थ नहीं गया। गांधी का विस्तार कहे जाने वाले लोहिया ने यह कहा कि समाजवाद में गांधीवाद का फिल्टर लगाना होगा। अस्सी के दशक तक भारत की सरकारें भीभले ही आधे-अधूरे रूप मेंगांधी के स्वराज्य से कुछ न कुछ प्रेरणा लेती थीं। पिछले25 सालों की नवसाम्राज्यवादी घुसपैठ के बावजूद देश और दुनिया में अनेक लोग और संगठनभले ही वे अलक्षित रहते होंगांधी के स्वराज्य के विचार से प्रेरणा लेकर काम करते हैं।

यह बहुत चिंता की बात है कि कुछ एनजीओ वालों ने गांधी के स्वराज्य को कारपोरेट पूंजीवाद की टोपी बना दिया है। हमने कई बार यह उल्लेख किया है कि नवसाम्राज्यवादी व्यवस्था का गांधी को मिटाने का लक्ष्य है। क्योंकि हथियार और बाजार के बल पर चलने वाली इस सभ्यता का मूलभूत विकल्प साहसपूर्वक और सुचिंतित रूप में केवल गांधी ने दिया है। अपना यह लक्ष्य सिद्ध करने के लिए नवउदारवादी व्यवस्था गांधी को एप्रोप्रिएट करती है और अक्सर विकृत करती है। एप्रोप्रिएशन का उदाहरण संयुक्त राष्ट्र द्वारा गांधी जयंती को अहिंसा दिवस घोषित करने से लेकर गांधी के नाम पर देहाती गरीब परविारों के एक व्यक्ति को साल में 100 दिन अधिकतम189 रुपये की दिहाड़ी पर काम देने वाले यूपीए सरकार के मनरेगा तक देखा जा सकता है। सरकार की नजर में गांधी गरीबों के भगवान हैं जिन्हें उनके नाम पर योजना बना कर गरीबों को दे दिया गया हैइससे ज्यादा और क्या चाहिएगांधी को विकृत करने के अनेक उदाहरणों में से एक इन तथाकथित स्वराजवादियों का है। आप देखते हैंभ्रष्टाचारियों को फांसी देने और उनका मांस गिद्धों-कौओं को खिलाने का बार-बार ऐलान करने वाले अन्ना हजारे को मीडिया में लगातार गांधीवादी लिखा जाता है। ऐसा प्रमादवश नहीं है। यह गांधी को विकृत करने की वह रणनीति है जिसके तहत नवउदारवादी दौर में पली-बढ़ी पीढ़ी को बताया जाता है कि गांधी ऐसा था।        

मेधा पाटकर और अरुणा राय अनशन पर बैठे केजरीवाल को देखने गईं और उन्हें अपना समर्थन दिया। यह एनजीओ घराना हैजिसमें केंद्र और परिधि का अंतर हो सकता हैलेकिन इस पर सब एक मत हैं कि समाजवादी राजनीति और विचारधारा की जरूरत अब नहीं है। मनमोहन सिंह और उनकी मंडली भी यही कहते हैं। अरुणा राय जब कहती हैं कि लोग जाग गए हैंसवाल पूछते हैंतो उसका यही अर्थ है कि एनजीओ वालों ने लोगों को जगाया है और सवाल पूछने के लिए तैयार किया है। लेकिन पलट कर उनसे कहा जा सकता है कि एक परिवार के एक सदस्य को साल के 100 दिन धूल-मिट्टी का काम देने का कानून बना कर संविधान प्रदत्त बराबरी के हक पर डाका डाला गया है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन और उसकी नेत्री मेधा पाटकर की बड़ी चर्चा रही है। हालांकि जिन बड़े बांधों के खिलाफ वह आंदोलन थानर्मदा बांध समेत उनके निर्माण पर कोई रोक नहीं लगी है। हरसूद और टिहरी जैसे शहर डूब गए और बड़े-छोटे बांधों की लंबी फेहरिस्त सरकारों के पास है। तसल्ली के लिए हम सभी लोग कहते हैं कि उस आंदोलन से जागरूकता फैली और विस्थापितों की कुछ हद तक सहायता हो पाई। लेकिन यह आंदोलन एनजीओ का सहारा नहीं लेताऔर राजनीतिक होता,तो भले ही थोड़ालेकिन नवउदारवाद के विरुद्ध निर्णायक फर्क पड़ सकता था।

ऐसा नहीं है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन राजनीतिक हो नहीं पाया। किशन पटनायक के लाख प्रयासों के बावजूद वह होने नहीं दिया गया। कहने की जरूरत नहीं कि राजनीतिक नहीं होने की वजह से वह खुद भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में जा कर डूब गया। देख सकते हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का सूरज भी डूब चुका है और अन्ना हजारे अलग-अलग जगहों व मुद्दों पर हाथ-पैर मारते घूमते हैं। बीच-बीच में कहते हैं कि जन लोकपाल बनवा कर दम लेंगे। आंदोलन के पीछे कोई स्वतंत्र विचार नहीं होताउद्देश्य नहीं होतातो वह दिग्भ्रमित हो जाता है। अगर विचार और उद्देश्य नवउदारवाद के पेटे में समाने वाले हों तो आंदोलन उसी में डूब जाता है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ यही हुआ है। विश्व बैंक का आदमी कोई वहां नौकरी करके ही नहीं होता। न ही उसका पुरस्कार पाकरजैसा कि अन्ना हजारे को काफी पहले मिला थाकोई विश्व बैंक का आदमी हो जाता है। अलबत्ता उसकी नवउदारवादी नीतियों और कार्यक्रमों को मानने-चलाने वाला व्यक्ति विश्व बैंक का आदमी होता है। अन्ना हजारेअरुणा रायकेजरीवाल आदि वही हैं। 

हम आपको बता चुके हैं कि असली झगड़ा सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद में रहने और सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह की नजर में ज्यादा प्रभावशाली बनने का था, जो बढ़ गया। कांग्रेस में कई वकील हैं। उनमें पी चिदंबरमकपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी अग्रणी हैं। प्रशांत भूषण को लगता होगा कि वे इतने नामी वकील हैउन्हें क्यों नहीं ऑफर दिया जाताअपने पिता की नजीर उनके सामने थी। आप हैरान न होंशासक वर्ग के दायरे में यह सब सोचना-समझना होता रहता है। इनमें से कुछ लोग कांग्रेस का और कुछ लोग भाजपा/संघ का काम करते ही थे। खबरें हैं कि आम आदमी पार्टी में कुछ लोगों को कांग्रेस ने प्लांट किया है ताकि भाजपा के मध्यवर्ग के वोट खराब किए जा सकें और शीला दीक्षित चौथी बार चुनाव जीत जाएं। अभूतपूर्व’ आंदोलन और नई’ राजनीति के नाम पर यह फर्जीवाड़ा आपके सामने है।  

धन और मीडिया की ताकत के बावजूद अगर मध्यवर्ग मेहनतकशों का अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल नहीं कर पाया तो इस पार्टी के कुछ नेता कांग्रेस में और कुछ भाजपा में चले जा सकते हैं। कुछजो वाकई आदर्शवादी भावना से जुड़े हैंडिप्रैशन या सिनिसिज्म का शिकार हो सकते हैं। यह कहते हुए कि इस देश मेंखास कर राजनीति मेंकुछ नहीं हो सकता। राजनीति बहुत बुरी होती हैकल तक ये लोग ही चिल्ला-चिल्ला कर कहते थे। ऐसा न होपार्टी बिखरे नहींइसके लिए दिल्ली का चुनाव लूटने की मुहिम में दिन-रात दौड़-धूप की जा रही है। दिल्ली फतह तो देश फतह!

दिल्ली और देश की दौड़-धूप में कई समाजवादी भी लगे हैं। उन्हें ऐसा सक्रिय पहले कभी नहीं देखा था। साथी राजकुमार जैन अक्सर गुमान से कहते हैं कि समाजवादी पर किसी के रुतबे का रौब गालिब नहीं होता। हो सकता है जब समाजवादी आजाद देश में जेल को अपना घर मानते थेऐसी कोई भावना रही हो। लेकिन इस मामले में इधर की तस्वीर बड़ी निराशाजनक है। कांग्रेस और भाजपा छोड़िएकुछ समाजवादी केजरीवाल के कारिंदे बने घूम रहे हैं। उनकी इस विनम्रता का कारण यही हो सकता है कि उन्होंने रामदेव की संगत में राष्ट्रीय स्वाभिमान’ का ऐसा पाठ पढ़ा है कि उनका अपना स्वाभिमान शून्य हो गया है! 

कांग्रेस और भाजपा के चुनावी पंडित गणित लगा रहे हैं कि आम आदमी पार्टी किसका नुकसान करेगी। दोनों पार्टियां अपना नुकसान न होने और दूसरी का नुकसान होने का कयास लगा कर कभी खुश होती हैंकभी डरती हैं। आप देखेंगे कि विधानसभा चुनाव में यह नई’ राजनीति करने वाली नई पार्टी कांग्रेस और भाजपा के असंतुष्टों को टिकट देगी। जिन्हें बसपा का टिकट नहीं मिलेगावे भी कुछ ले-देकर वहीं से टिकट जुगाड़ सकते हैं।

यह फर्जी राजीनीति में ही हो सकता है कि कोई राजनीतिक पार्टी पंजीकरण के पहले ही आगामी आमचुनाव में सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान करे। कांग्रेस और भाजपा भी यह नहीं कर पाती हैं। जाहिर हैलोकतंत्र का यह मजाक धनबल के बूते ही किया जा सकता है। मजाक को प्रचारित करने के लिए पूरा मीडिया हाजिर है। यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनजिसकी राख से यह पार्टी पैदा हुई बताई जाती हैमें बड़ी संख्या में राजनीति-द्वेषीघोर प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिक तत्व शामिल थे। वे टोपियों के पीछे छिप कर अपना काम करेंगे। हमारे जो साथी आम आदमी पार्टी में मौजूद कतिपय प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष साथियों का हवाला देकर संबंध बनाए रखना चाहते हैंवे थोड़ा रुक कर सोच लें कि मध्यवर्ग के नए नायक बनने चले ये लोग कितने प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष रह गए हैं या आगे रह जाएंगेवह पार्टी लोकतंत्र और राजनीति को क्या नई राह दिखाएगी जो अन्ना हजारेरामदेव और केजरीवाल के संबंध तक जनता को साफ बताने को तैयार नहीं है। जनता को इतना टेक इट फार ग्रांटेड’ तो वे बुरे नेता और उनकी पार्टियां भी नहीं लेती जिन्हें राजनीति से बेदखल करने के दावे ठोंके जा रहे हैं।  

गंभीर और परिवर्तनकारी राजनीति के युगानुसार कुछ सूत्र होते हैं। वे अलग-अलग विचारधारात्मक समूह के अलग-अलग और कुछ समान हो सकते हैं। गांधी ने राजनीति को समाज और सभ्यता से अलग न मान करउस लिहाज से उठने वाले एक कदम को भी पर्याप्त माना। अंबेडकर ने दलित समाज को शिक्षित होनेसंगठित होने और संघर्ष करने को कहा। लोहिया ने जेलफावड़ा और वोट का सूत्र दिया। समाजवादी जनपरिषद में विचारधारासंगठनसंघर्षरचनात्मक कार्य और चुनाव के पांच सूत्र अपनाए गए थे। आम आदमी पार्टी का अगर कोई सूत्र है तो वह चुनाव लूटना हो सकता है। जाहिर हैऐसी राजनीति कांग्रेस और भाजपा से अलग नहीं हो सकती।  

यह देश की फर्जी राजनीति का परिदृश्य है। फर्जी राजनीति का एका इतना जबरदस्त है कि गठबंधन सरकार चलाने में न वाजपेयी को परेशानी हुईन मनमोहन सिंह को है। बल्कि मनमोहन सिंह तो अल्पसंख्यक सरकार चला रहे हैंजिसे उत्तर प्रदेश में एक-दूसरे के खून के प्यासे मुलायम और मायावती का बाहर से समर्थन है। कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि इस फर्जी राजनीति को भारत के नागरिक समाज का अनुमोदन है। कांग्रेस और भाजपा से अलग कोई गठबंधन या तो बनेगा नहींबन गया तो चलेगा नहीं। यही नागरिक समाज और मीडिया उसे गिरा देंगे।

फर्जी राजनीति का ठाठ यह है कि उसका न राजनीति में कोई विपक्ष हैन नागरिक समाज में। पिछले दिनों जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुआवह इसलिए नहीं था कि यह फर्जी राजनीति बदलनी चाहिएबल्कि इसलिए था कि भारत कामहान’ मध्यवर्ग यह जताना चाहता है कि उसकी नैतिकता मर नहीं गई है। शुरू में उसने मनमोहन सिंह की ईमानदारी की छाया में अपने को भुलाए रखा और आर्थिक सुधारों की मलाई खाता रहा। क्योंकि वैसी कोई छाया थी ही नहींतो उसे झटका लगा और वह चारों तरफ से नैतिक-नैतिक चिल्लाते हुए दौड़ पड़ा। हाल में नागरिक समाज दिल्ली में हुए दो बलात्कार के मामलों को लेकर हद दरजे तक उत्तेजित हुआ। एक संवेदनशील समाज को ऐसे जघन्य कृत्यों पर आंदोलित होना ही चाहिए। लेकिन उसका फर्जीपना पहली नजर में ही पकड़ में आ जाता है। वह सरकार को समाज से बाहर मानता है और अपने को भी। वह यह सोचने को तैयार नहीं है कि जिस सरकार ने पिछले 25सालों से संविधान की परवाह नहीं कीउससे कानून व्यवस्था की सही पालना की अपेक्षा नागरिक समाज किस तर्क से करता हैजब सरकार संविधान की मर्यादाओं को तोड़ती है तो यह नागरिक समाज चुप रहता हैक्योंकि उसमें उसका फायदा है। जब कानून-व्यवस्था टूटती है तो बौखलाता हैक्योंकि उसे अपनी सोने की लंका खतरे में नजर आती है।

फर्जी नागरिक समाज की फर्जी राजनीति और फर्जी राजनीति का फर्जी नागरिक समाज। कहने का आशय यह है कि जब फुलफ्लेजेड फर्जी राजनीति चलेगी तो जीवन के सभी क्षेत्रों में फर्जीवाड़ा न होयह संभव नहीं है। उदाहरण देने लगें तो पूरा पुराण तैयार हो जाएगा। हमारे राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतीकों में भी फर्जीवाड़े की घुसपैठ हो चुकी हैयह एक उदाहरण से बताना चाहेंगे। फिल्म अभिनेता आमिर खान सरकार और कंपनियों के एक से प्रिय हैं। उनका विरुद भी विदेशी पत्रिकाओं में आ चुका है। वे अमिताभ बच्चन के नक्षे कदम पर हैं - माल भी बनाओ और नाम भी कमाओ। आज बच्चों के हक मेंकुपोषण भारत छोड़ो’ का विज्ञापन करने वाले आमिर खान ने कोकाकोला का विज्ञापन करना तब भी नहीं छोड़ा था जब कोक-पेप्सी में बच्चों की सेहत के लिए नुकसानदेह तत्व होने की सच्चाई सामने आई थी। उल्टा वे कंपनी के पक्ष में विज्ञापनबाजी पर उतर आए थे।

भारत छोड़ो आंदोलन आजादी के संघर्ष का विशिष्ट और निर्णायक पड़ाव है। उससे प्रेरणा लेकर नवसाम्राज्यवाद के खिलाफ पिछले बीस सालों से नारा लगाया जाता है - विदेशी कंपनियां भारत छोड़ो। ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में पड़े अकालों में कई लाख भारतीय मारे गए। अब भारत में अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां लूट मचाए हुए हैं। बच्चों के कुपोषण का संबंध इन कंपनियों की लूट और उस लूट के हिस्सेदार आमिर खान जैसे लोगों से है। नवउदारवादी समाज सुधारकों और देशभक्तों में गजब का उत्साह होता है। आमिर खान और सरकार भारत छोड़ो आंदोलन की थाती को हजम करके ही नहीं रुक जाते। सत्यमेव जयते’ जैसे राष्ट्रीय वचन को भी हजम कर जाते हैं। यह प्रोग्राम करकेबताया जाता हैआमिर खान ने कंपनियों से करोड़ों रुपया कमाया। अब वे कमाई की किसी और जुगत में लगे होंगे। इन फर्जी समाज सुधारकों और देशभक्तों का संसद में भी स्वागत होता है और नागरिक समाज में भी। {2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत के बाद उनसे सबसे पहले मिलने वाले लोगों में आमिर खान शामिल थे.}

आप कहेंगे कि हमने फर्जी राजनीति और उसके अनुमोदक फर्जी नागरिक समाज का दर्शन तो खूब करा दियाअब उसे बदलने का दर्शन’ भी कुछ बताएं। दरअसलहर समय संवादके अंत में आगे के रास्ते का सवाल खड़ा हो जाता है। हम एक बार फिर डॉ. लोहिया के हवाले से कहना चाहते हैं कि राजनीतिक मानस के निर्माण का अधूरा छूटा काम जल्द से जल्द पूरा किया जाए। इसके लिए जरूरी है कि सच्ची प्रेरणा रखने वाले लोग एनजीओ नहींराजनीति में जाएं। उसके लिए जरूरी नहीं है कि हमेशा नई पार्टी बनाई जाए या किसी क्रांतिकारी पार्टी में ही शामिल हुआ जाए। प्रेरणा अगर सच्ची है तो स्थापित दलों में रह कर भी परिवर्तन की राजनीति की जा सकती है। नजरिया अगर राजनीतिक है तो बिना किसी राजनीतिक पार्टी में रहे भी परिवर्तन की राजनीति में सहायक हुआ जा सकता है। क्योंकि राजनीतिक नजरिया होगा तो राजनीति और नागरिक समाज में चल रहे फर्जीवाड़े की पहचान होगी। तब लोग भी पहचानेंगे और अपने और देश के संविधान के हक में नवउदावादियों के खिलाफ उठ खड़े होंगे।    

23 अप्रैल 2013

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Dr. Prem Singh
Dept. of Hindi
University of Delhi
Delhi - 110007 (INDIA)

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