Wednesday, October 29, 2008

दीपावली की याद

दीपावली की यादहमारे लिए त्योहारों का बस एक ही मतलब रह गया है , इन्हीं त्योहारों के पिछले दिनों को याद करना। आहा वो क्या दिन थे , कैसी थी उन दिनों की दीवाली। दीवाली तो बस एक उदाहरण है, हमारे लिए तो हर त्योहार बिना रंगों के होली है, बिना रोशनी की दीपावली है। सालों पहले एक फिल्म आई थी, हरियाली और रास्ता, इस फिल्म में दीपावली का एक गाना बड़ा ही लोकप्रिय हुआ था, लाखों तारे आसमान में, एक मगर ढूंढे न मिला, देख के दुनिया की दीवाली दिल मेरा चुपचाप जला। कुछ ऐसी ही रही दीपावली हमारी। अपनों को याद किया वो भी फोन और एसएमएस के जरिए। लेकिन फिर भी आज तक ये क्यों नहीं लगता कि ,जिंदगी में दीपावली नहीं है। क्योंकि कभी हमने भी दीपावली बड़ी धूम से मनाई है। नवरात्र के बाद से ही दिन गिनना शुरु कर देते थे। कि कब दीपावली आएगी। दीपावली के मौके पर हमारे गांव में काली पूजा होती है। और इस अवसर पर तीन दिनों तक मेला लगता है। जो हमारे कौतुहल का सबसे बड़ा कारण होता था। गुब्बारे .. बांसुरी.. प्लास्टिक की पिस्तौल.. सबसे ज्यादा लुभाती बेरोक टोक खाने को मिलने वाली चाट। इन दिनों हमारे लिए न तो कोई पाबंदी होती थी, और न ही कोई उपदेश। गांव में आयोजित होने वाला नाटक भी आकर्षित करता था, और हर बार कि तरह घर से लगभग एक किलोमीटर दूर बाजार रात को नाटक देखने जाने के लिए .. घर में अनुमति के लिए लंबी भूमिका बनानी पड़ती थी। कई बार इजाजत मिल भी जाती थी , और कई बार नहीं भी मिलती थी .. लेकिन सारे नाटकों की याद अभी तक जेहन में है , मंच पर तो वह दो रात दिखाई जाती , लेकिन हम बच्चे नाटक की समीछा पूरे साल करते। हर पात्र की नकल की जाती , और हर पात्रों की ख़बर भी, और तो और किस ने किस मुद्रा से नाटक देखा ये भी चर्चा का विषय होता। नाचनेवालों और गानेवालों पर लोगों की टिप्पणियां खाशी चर्चा में रहती। कुळ मिलाकर उन्हीं दीपावली की याद हमारे लिए दीपावली है। आजकल गांवों में भी ऐसी दीपावली नहीं होती। इसीलिए हमारे लिए बेहतर है कि नीरस दीपावली मनाने के बजाए एक जमाने की रंगीन दीपावली को याद कर लिया जाए।राजेश कुमार

Tuesday, October 21, 2008

यादें सुखी पत्तियों सी


,,,,अपनी कविता,,,,,
मैं क्यों नहीं अपने और,

साथियों की तरह जीता हूं वर्तमान में।

मैं क्यों झांकना चाहता हूं,

अपने बीते हुए हर-एक लम्हों में ।

सुखी पत्तियों की भांति,

उन यादों को सहेजकर क्या करुंगा।

क्योंकि एक दिन तो यादें,

इतनी सूख जाएंगी ,कि सहेजना मुश्किल होगा।

मैं ये भी नहीं चाहता कि,

यादें सूखी पत्तियों का चूरा बन जाए।

फिर भी बीते हुए लम्हों में झांककर,

कुछ अपनी गलतियां सुधारना और कुछ दोहराना चाहता हूं।

जरुरी है उन रिक्त स्थानों को पाटना,

जहां रह गया है एक अंतराल,इतने दिन बीतने के बाद भी,

और सबसे जरुरी है, उन जगहों पर सफाई पेश करना ,

जिसका वक्त ने मौका ही नहीं दिया।

राजेश कुमार

कसक


जिंदग जब कहीं दूर रहने लगे

फ़ासले मौत के तब सिमटने लगे
वार उसने न गहरा बहुत था किया

ये तो हम थे कि खंजर पकड़ने लगे
उसने अपनी तरफ से कमी कुछ न की,

ये तो हम थे कि हिज्र तड़पने लगे।
वो तो कहते हैं कुछ भी लिखा ही नहीं,

हम दिल अपना,उनकी आंखों में पढ़ने लगे।
जाते-जाते पलट कर भी देखा नहीं,

कोई सुन ना ले, हम ऐसे सिसकने लगे।
जहां उम्र को निकलना था सफर के लिए

हम उस मोड़ पर जा ठहरने लगे।
जिंदगी जब कहीं दूर रहने लगे,

फ़ासले मौत के तब सिमटने लगे।

राजेश कुमार
..

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवा...