Tuesday, February 21, 2012

एक अच्छी कविता

अरसे बाद एक बहुत अच्छी कविता सुनी। शुद्ध कविता कह लीजिए।वो भी किसी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम कार्यक्रम में। बहुत बेहतरीन सबको अच्छी लगेगी

सवाल प्यार करने या न करने का नहीं था दोस्त
सवाल किसी हां या ना का भी नहीं था
सवाल तो यह था कि उन आंखों में हरियाली क्यों नहीं थी
और क्यों नहीं थी वहां खामोश पत्थरों की जगह एक झील
सवाल मिलने या ना मिलने का नहीं था दोस्त
सवाल खुशी और नाराजगी का भी नहीं था
सवाल तो ये था कि एक उदास तख्ती के लिए क्यों नहीं थी
दुनिया भर में कहीं कोई खड़िया मिट्टी
और क्यों नहीं एक भी दूब इतने बड़े मैदान में
सवाल ताल्लुकात रखने या मिटा देने का नहीं था दोस्त
सवाल ज़रूरत या ग़ैर जरूरत का भी नहीं था
सवाल तो ये था कि इतनी बड़ी दुनिया में कोई इतना अकेला क्यों था
और क्यों नहीं था उसके पास एक भी सवाल इतनी बड़ी दुनिया के लिए

-घनश्याम कुमार देवांश

Monday, February 6, 2012

ये कहां आ गए हम ...


मदर इंडिया में एक मशहूर गीत है ... घूंघट नहीं खोलुंगी पिया तोरे आगे ... । गीत का फिल्मांकन इस रुप में है कि नायिका नायक को ये बताना चाहती है कि दोनों की सगाई पक्की हो गई है। लेकिन मारे लाज के वो बता नहीं पा रही। तमाम लटके झटकों और ज़ोर जबरदस्ती के बाद जब नायक नायिका को ख़ुद की कसम देता है। तो नायिका उसे इशारों में अंगुलियां जोड़कर बताती है कि सगाई पक्की हो गई। निर्देशक महबूब ख़ान ने न केवल फिल्म के साथ इंसाफ किया है । बल्कि तत्कालीन भारतीय समाज को खूबसूरती से उकेरा है। ये 1957 की बात है जब मदर इंडिया रिलीज हुई थी। आज वक्त दूसरा है। अब इज़हार साफ साफ होता है। कट टू कट का ज़माना है। सीधे मन की बात कह दो। मान गए तो ठीक न माने तो भी ठीक। आज हर जेब में मोबाइल है तुरंत फोन कर के प्यार जता दो। मेरे कई दोस्त हैं जिन्होंने प्यार का इज़हार मेल करके किया था। अगले हफ्ते वैलेनटाइन डे है। अब बाबा वैलेनटाइन ने क्या सोचा था और प्रेम की परिभाषा उनके मन में क्या थी ये तो नहीं मालूम । लेकिन आज के माहौल में उनके नाम पर जितना प्रेम का तमाशा होता है और किसी दिन किसी के नाम पर नहीं होता। एक बात बड़े ही साफ तौर पर कहना चाहता हूं कि हमें न तो प्रेम दिवस से विरोध है। और न इज़हार करने के आज के तरीके से। हमें विरोध है उस बाज़ार से जो वैलेनटाइन जैसे विशेष अवसरों की आड़ में हमारी सभ्यता , संस्कृति , अर्थव्यवस्था और राजनीति पर हमले कर रही है। एक एक कर मान्यताएं और परंपराएं दरकती जा रही है और हम उत्सव मना रहे हैं। अपना पहनावा गया , अपने तर्क गए अपनी बोली गई और अब अपनी पहचान जा रही है। और हम भारतवासी इसे बदलाव मान रहे हैं।

आज चीजें बदली हैं , लिहाज़ा मान्यताएं और परंपराएं भी बदली है। कुछ लोग कहते हैं कि ये बदलाव इसीलिए जरूरी है क्योंकि जो समाज बदलता नहीं वो बिखर जाता है। बावजूद इसके परिवर्तन पर बहस समाप्त नहीं हो जाती। हम अगर बदल रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं तो कभी कभी ठिठककर ये भी सोचना चाहिए कि हम क्या होते जा रहे हैं और किस तरफ आगे बढ़ रहे हैं। अगर हम बिना सोचे समझे यूं ही खुद की पीठ थपथपाकर आगे बढ़ते रहेंगे तो संभव है संस्कृति के साथ साथ सभ्यता पर भी बड़ा संकट खड़ा हो जाए। आज इस बात की बहुत जरूरत है कि हम ये सोचे कि हम किधर जा रहे हैं ? क्या ये रास्ता उन्नति का रास्ता है? करोड़ों भारत के लोगों के हित साधनेवाला रास्ता है भी या नहीं। इन प्रश्नों का जवाब पूछने का वक्त आ गया है।

दुनिया में मॉडल बनाकर पेश की गई पश्चिम की सभ्यता और हमारी भारतीय सांस्कृतिक विरासत में बहुत बुनियादी फर्क है। पश्चिम के लोग अपनी जरूरतों बढ़ाते रहे। और बढ़ी हुई जरूरतों को पूरा करने के लिए लड़ाईयां लड़ते रहे, लोगों को शोषित करते रहे, उपनिवेश स्थापित करते रहे। आज के समय में जब हथियारों से किसी राष्ट्र की संप्रुभता को अपनाया नहीं जा सकता तो हरावल दस्ते की कमान बाजार ने संभाल ली है। जबकि हमारी सभ्यता ठीक पश्चिम के उलट रही है हमने अपनी ज़रूरतों को कभी बढ़ाया नहीं। और इच्छाओं में कमी कर हमने अपनी संप्रुभता और स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी। हमारे लिए आत्मबल महत्वपूर्ण था न कि भौतिक संपत्ति। लेकिन आज का समाज मूल भारतीय आत्मा की उलटी दिशा में जा रहा है। दिक्कत संपन्नता से नहीं है लेकिन ये तो पूछा ही जाना चाहिए कि संपन्न कौन कौन होगा और किन परिस्थितियों में होगा।

हर पखवाड़े कोई न कोई दिन आ धमकता है, जिसे मनाने के बहाने कई कंपनियों की खूब कमाई हो जाती है। और मीडिया से लेकर महफिलों में जो तमाशा बनता है वो अलग। मदर्स डे , फादर्स डे , ब्रादर्स डे, सिस्टर्स डे , से लेकर फ्रेंडशिप डे तक मनाया जाता है। क्योंकि एक दिन जितना चाहो भावुक हो लो। जितने रिश्ते निभाने हों निभा लो , बाद में तो इन सबका कोई स्थान नहीं। तरक्की के लिए तो पश्चिम वालों ने पूरी दुनिया का पारिस्थितिक तंत्र बिगाड़ दिया है। हमारे देश में भूमंडलीकरण के बाद जितनी चोट रिश्तों पर की गई है, उतनी शायद ही और कहीं हुई हो। वै·ाीकरण के बाद हमारे त्योहार धीरे धीरे अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। और जो नया रूप निकलकर सामने आ रहा है वो केवल बानगी भर है। उदाहरण के लिए अब दीवाली में ज्यादा कीमती पटाखे मिलते हैं, दीवारों को रंगने के लिए महंगे पेंट बाज़ार में उपलब्ध है। लेकिन अब बाहर के रहने वाले घर नहीं लौटते। होली में हर घर में पश्चिमी व्यंजन बनने लगे होंगे लेकिन घर घर जाकर सुख दुख बांटने का रिवाज उठ गया। पर्वों की प्राचीन परंपरा उजड़ने का सीधा असर हमारी वैचारिक आज़ादी पर पड़ा। नतीज़ा हमारी पीढ़ी भारतीयता से कटने लगी। हिन्दुस्तान का समाज हिन्दुस्तान का भूगोल और हिन्दुस्तान का इतिहास धीरे धीरे अंग्रेजी पाठ¬क्रमों में सिमटने लगे। और देखते ही देखते एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो गई जिसने पश्चिम की सभ्यता को ही अपना स्वीकार कर लिया ।
देश में लोकशाही है और बिना किसी ग़ैरबराबरी के संपन्नता की लड़ाई हम सालों से लड़ रहे हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कामरूप से लेकर कच्छ तक के इतने बड़े मुल्क में तमाम समस्याएं हैं। बजाए बदलाव का उत्सव मनाने के हमें उन कमियों को ईमानदारी से स्वीकार करना होगा जो आज़ादी के इतने बरसों बाद भी हमारे समाज में मौजूद हैं।ये सारे सपने कभी बापू ने भी देखे थे। इसलिए उन्होंने हिन्द स्वराज को भारत निर्माण का नक्शा कहा था। और हिन्द स्वराज का मूल स्वर ये है कि भारत का समाज भारतीय परंपराओं को मानते हुए भारतीय तरीके से उन्नत बन सकता है। न कि अंधाधुंध पश्चिमी अनुकरण से। जिसे आज कल हमारे देश में आधुनिकता कहते हैं वो पाश्चत्य से ज्यादा और कुछ भी नहीं ।
- राजेश कुमार

Wednesday, February 1, 2012

घोषणाओं की ज़मीनी हक़ीकत



एक बहुत पुराना शेर है , ... तेरे वादे पे जिये हम जो ये जान झूठ जाना ... कि खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता ... ये शेर उत्तर प्रदेश के ताज़ा राजनीतिक हालात पर सटीक बैठता है। अगर मीडिया में मचाए जा रहे माथा फुटौव्वल को छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश को लोग अलग अलग राजनीति दलों के घोषणा पत्रों को गंभीरता से नहीं ले रहे। हां कांग्रेस और संघी फांको में कटे समाज के तथाकथित वे बुद्धिजीवी जिनका यूपी चुनाव से दूर दूर तक का कोई लेना देना नहीं है , वे इस घोषणापत्र को ज़रूर गंभीरता से ले रहे हैं। ये बुद्धिजीवी यूपी की ज़मीनी हकीक़त से जितनी दूर हैं उतना ही दूर राजनीतिक दलों का घोषणापत्र आम लोगों से है।
जितनी मेरी उम्र है और जितना इस देश की सियासत को जान पाया हूं, एक दावा तो कर ही सकता हूं कि हमारे बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी कोई चुनावी घोषणापत्र पढ़कर वोट नहीं करता। बस इसी बात का फायदा उठाया सभी राजनीतिक पार्टियों ने , और वे वचनं किं दरिद्रता की उक्ति पर उतर गए। रोजी ,, रोटी ,, सिंचाई ,, पढ़ाई और दवाई से गुजरते हुए चुनावी वायदे कब टेबलेट कंप्यूटर और स्वास्थ्य लोकपाल तक पहुंच गया पता ही नहीं चला। अब कांग्रेस को ये कौन बताए कि जो असली लोकपाल अटका है उसकी सेहत क्या यूपी की समाजवादी या फिर बहुजन समाज पार्टी दिल्ली में जाकर दुरूस्त करेगी। बीजेपी अभी इसलिए व्यस्त दिख रही है क्योंकि उसकी पूरी ताकत तमाम दागियों के काले कारनामों को भगवा पर्दों में ढंकने में लगी है।

जब से तमाम पार्टियां चुनावों से ठीक पहले रंगीन चुनावी घोषणा पत्र जारी करने लगी। तब से हवाई घोषणाओं का अंबार लग गया । जनता चुनाव दर चुनाव धोखे खा रही है इसीलिए वो अब चुनावी वादों को गंभीरता से नहीं लेती। लेकिन इसके बाद भी आयोग की ज़िम्मेदारी खत्म नहीं होती। चुनाव आयोग को कड़ाई से इन घोषणापत्र में किए गए वादे को पालन कराना चाहिए। और जो पार्टियां चुनाव घोषणा पत्र में किए गए वादे को लागू करने के लिए क़दम नहीं उठाती उनके खिलाफ उचित कार्रवाई करनी चाहिए।

राजेश कुमार

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवा...