Monday, February 6, 2012

ये कहां आ गए हम ...


मदर इंडिया में एक मशहूर गीत है ... घूंघट नहीं खोलुंगी पिया तोरे आगे ... । गीत का फिल्मांकन इस रुप में है कि नायिका नायक को ये बताना चाहती है कि दोनों की सगाई पक्की हो गई है। लेकिन मारे लाज के वो बता नहीं पा रही। तमाम लटके झटकों और ज़ोर जबरदस्ती के बाद जब नायक नायिका को ख़ुद की कसम देता है। तो नायिका उसे इशारों में अंगुलियां जोड़कर बताती है कि सगाई पक्की हो गई। निर्देशक महबूब ख़ान ने न केवल फिल्म के साथ इंसाफ किया है । बल्कि तत्कालीन भारतीय समाज को खूबसूरती से उकेरा है। ये 1957 की बात है जब मदर इंडिया रिलीज हुई थी। आज वक्त दूसरा है। अब इज़हार साफ साफ होता है। कट टू कट का ज़माना है। सीधे मन की बात कह दो। मान गए तो ठीक न माने तो भी ठीक। आज हर जेब में मोबाइल है तुरंत फोन कर के प्यार जता दो। मेरे कई दोस्त हैं जिन्होंने प्यार का इज़हार मेल करके किया था। अगले हफ्ते वैलेनटाइन डे है। अब बाबा वैलेनटाइन ने क्या सोचा था और प्रेम की परिभाषा उनके मन में क्या थी ये तो नहीं मालूम । लेकिन आज के माहौल में उनके नाम पर जितना प्रेम का तमाशा होता है और किसी दिन किसी के नाम पर नहीं होता। एक बात बड़े ही साफ तौर पर कहना चाहता हूं कि हमें न तो प्रेम दिवस से विरोध है। और न इज़हार करने के आज के तरीके से। हमें विरोध है उस बाज़ार से जो वैलेनटाइन जैसे विशेष अवसरों की आड़ में हमारी सभ्यता , संस्कृति , अर्थव्यवस्था और राजनीति पर हमले कर रही है। एक एक कर मान्यताएं और परंपराएं दरकती जा रही है और हम उत्सव मना रहे हैं। अपना पहनावा गया , अपने तर्क गए अपनी बोली गई और अब अपनी पहचान जा रही है। और हम भारतवासी इसे बदलाव मान रहे हैं।

आज चीजें बदली हैं , लिहाज़ा मान्यताएं और परंपराएं भी बदली है। कुछ लोग कहते हैं कि ये बदलाव इसीलिए जरूरी है क्योंकि जो समाज बदलता नहीं वो बिखर जाता है। बावजूद इसके परिवर्तन पर बहस समाप्त नहीं हो जाती। हम अगर बदल रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं तो कभी कभी ठिठककर ये भी सोचना चाहिए कि हम क्या होते जा रहे हैं और किस तरफ आगे बढ़ रहे हैं। अगर हम बिना सोचे समझे यूं ही खुद की पीठ थपथपाकर आगे बढ़ते रहेंगे तो संभव है संस्कृति के साथ साथ सभ्यता पर भी बड़ा संकट खड़ा हो जाए। आज इस बात की बहुत जरूरत है कि हम ये सोचे कि हम किधर जा रहे हैं ? क्या ये रास्ता उन्नति का रास्ता है? करोड़ों भारत के लोगों के हित साधनेवाला रास्ता है भी या नहीं। इन प्रश्नों का जवाब पूछने का वक्त आ गया है।

दुनिया में मॉडल बनाकर पेश की गई पश्चिम की सभ्यता और हमारी भारतीय सांस्कृतिक विरासत में बहुत बुनियादी फर्क है। पश्चिम के लोग अपनी जरूरतों बढ़ाते रहे। और बढ़ी हुई जरूरतों को पूरा करने के लिए लड़ाईयां लड़ते रहे, लोगों को शोषित करते रहे, उपनिवेश स्थापित करते रहे। आज के समय में जब हथियारों से किसी राष्ट्र की संप्रुभता को अपनाया नहीं जा सकता तो हरावल दस्ते की कमान बाजार ने संभाल ली है। जबकि हमारी सभ्यता ठीक पश्चिम के उलट रही है हमने अपनी ज़रूरतों को कभी बढ़ाया नहीं। और इच्छाओं में कमी कर हमने अपनी संप्रुभता और स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी। हमारे लिए आत्मबल महत्वपूर्ण था न कि भौतिक संपत्ति। लेकिन आज का समाज मूल भारतीय आत्मा की उलटी दिशा में जा रहा है। दिक्कत संपन्नता से नहीं है लेकिन ये तो पूछा ही जाना चाहिए कि संपन्न कौन कौन होगा और किन परिस्थितियों में होगा।

हर पखवाड़े कोई न कोई दिन आ धमकता है, जिसे मनाने के बहाने कई कंपनियों की खूब कमाई हो जाती है। और मीडिया से लेकर महफिलों में जो तमाशा बनता है वो अलग। मदर्स डे , फादर्स डे , ब्रादर्स डे, सिस्टर्स डे , से लेकर फ्रेंडशिप डे तक मनाया जाता है। क्योंकि एक दिन जितना चाहो भावुक हो लो। जितने रिश्ते निभाने हों निभा लो , बाद में तो इन सबका कोई स्थान नहीं। तरक्की के लिए तो पश्चिम वालों ने पूरी दुनिया का पारिस्थितिक तंत्र बिगाड़ दिया है। हमारे देश में भूमंडलीकरण के बाद जितनी चोट रिश्तों पर की गई है, उतनी शायद ही और कहीं हुई हो। वै·ाीकरण के बाद हमारे त्योहार धीरे धीरे अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। और जो नया रूप निकलकर सामने आ रहा है वो केवल बानगी भर है। उदाहरण के लिए अब दीवाली में ज्यादा कीमती पटाखे मिलते हैं, दीवारों को रंगने के लिए महंगे पेंट बाज़ार में उपलब्ध है। लेकिन अब बाहर के रहने वाले घर नहीं लौटते। होली में हर घर में पश्चिमी व्यंजन बनने लगे होंगे लेकिन घर घर जाकर सुख दुख बांटने का रिवाज उठ गया। पर्वों की प्राचीन परंपरा उजड़ने का सीधा असर हमारी वैचारिक आज़ादी पर पड़ा। नतीज़ा हमारी पीढ़ी भारतीयता से कटने लगी। हिन्दुस्तान का समाज हिन्दुस्तान का भूगोल और हिन्दुस्तान का इतिहास धीरे धीरे अंग्रेजी पाठ¬क्रमों में सिमटने लगे। और देखते ही देखते एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो गई जिसने पश्चिम की सभ्यता को ही अपना स्वीकार कर लिया ।
देश में लोकशाही है और बिना किसी ग़ैरबराबरी के संपन्नता की लड़ाई हम सालों से लड़ रहे हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कामरूप से लेकर कच्छ तक के इतने बड़े मुल्क में तमाम समस्याएं हैं। बजाए बदलाव का उत्सव मनाने के हमें उन कमियों को ईमानदारी से स्वीकार करना होगा जो आज़ादी के इतने बरसों बाद भी हमारे समाज में मौजूद हैं।ये सारे सपने कभी बापू ने भी देखे थे। इसलिए उन्होंने हिन्द स्वराज को भारत निर्माण का नक्शा कहा था। और हिन्द स्वराज का मूल स्वर ये है कि भारत का समाज भारतीय परंपराओं को मानते हुए भारतीय तरीके से उन्नत बन सकता है। न कि अंधाधुंध पश्चिमी अनुकरण से। जिसे आज कल हमारे देश में आधुनिकता कहते हैं वो पाश्चत्य से ज्यादा और कुछ भी नहीं ।
- राजेश कुमार

2 comments:

Unknown said...

bahut khub likha rajesh ji...aaj rishton pr bazarwad hawi hota jaa raha hai..yaha kahna ye galat nhi hoga...ye kahan aa gaye hum..lekin vastvikta bhi ye hai ki hum wetern culuture ko khud apna rahe hain..kahin na kahin ye cheze khud ki ore khichti hai.. lekin ye bhi sahi hai ki mai bhi khud valentine day celebrate karti hu...

Unknown said...

mere hisab se paschimi sabhyata aur bhartiya sanskriti me bahut fark hai. paschimi sabhyata ko paschim me hi rahne diya jaye to jyada behtar hoga. aaj hamara samaj paschimi sabhyata ki nakal karta hai aur kahta hai ki hamne vikas kar liya hai tarrakki kar li hai, lekin ye vikas nahi hai ham apna wajood kho rahe hai..
rahi baat pyar ke ijhaar ki to jo tareeka ijhaar ka hamari sanskriti me hai uska koi jawab nahi. jaisa ki aapne ek bahut khobbsurat film ke ek drasya me bataya. wo to saal me ek hi baar valentine day manate hai yahan ham har roj pyar ka din manate hai aur wo bhi apne tareeke se...
aur baat risto ki to jis tarah risto ko hamari sankriti me saheja aur sanwara jata hai, kah do paschim walo ko ki aake hamse seekh le..

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