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फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष: समाधान का गांधीवादी रास्ता-प्रेम सिंह
करीब एक शताब्दी पुराने फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष को लेकर पक्ष-पोषण और विश्लेषण का काम पिछले 75 सालों में बहुत हो चुका है। अब उसके स्थायी समाधान की जरूरत है। यह तभी संभव होगा जब आधुनिक विश्व-इतिहास की इस शायद जटिलतम समस्या से संबद्ध सभी पक्ष गंभीरता, निष्ठा और परस्पर विश्वास के साथ समाधान की दिशा में प्रयास करें। पिछले दो महीने से जारी फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के अभी तक के सर्वाधिक खूनी अध्याय से सबक लेकर अगर समाधान की सच्ची प्रेरणा से इस दिशा में काम होगा, तो निकट भविष्य में स्थायी समाधान की आशा की जा सकती है। कहने की जरूरत नहीं कि सच्ची प्रेरणा घृणा-जनित अथवा/और निहित स्वार्थ-जनित उत्तेजनाओं की कैद से मुक्ति पाकर ही आगे का रास्ता बना सकती है।
हालांकि, यह अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि बाजार और हथियार की संयुक्त चालक-शक्ति से दौड़ने वाली आधुनिक सभ्यता की रगों में प्रवाहित उत्तेजनाओं से मुक्ति पाना आसान नहीं है। आधुनिक सभ्यता को मानव-उत्तेजनाओं के अटूट सिलसिले के रूप में भी पढ़ा जा सकता है, जहां सच्ची प्रेरणाएं उत्तेजनाओं का शिकार होने के लिए वैसे ही अभिशप्त होती हैं, जैसे सीधी या बदले की हिंसा में शिशुओं की हत्याएं की जाती हैं! इजराइल और उसके समर्थक देश/बुद्धिजीवी तथा फिलिस्तीन और उसके समर्थक देश/बुद्धिजीवी सभी कमोबेश उत्तेजना रूपी “बुरी आत्मा” की गिरफ्त में बने हुए हैं। नागरिक समाज का एक बड़ा हिस्सा भी, जो सीधे सत्ता-प्रतिष्ठानों से नहीं जुड़ा है, उत्तेजना की अधीनता की दशा में दिखाई देता है। संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान की सच्ची इच्छा से प्रेरित लोगों की स्थिति महाभारतकार जैसी है – “मैं दोनों हाथ ऊपर उठा कर पुकार-पुकार कर कह रहा हूं, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता!”
फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष हिंसा पर आधारित आधुनिक सभ्यता की गोद में पला-बढ़ा है। लिहाजा, इसका अहिंसक/शांतिपूर्ण स्थायी समाधान पाना आसान नहीं है। फिर भी सच्ची प्रेरणा से उस दिशा में लगातार प्रयास होगा, तो रास्ता बन सकता है। इस प्रयास में आधुनिक सभ्यता की कड़ी टीका करने वाले मोहनदास कर्मचंद गांधी से मदद ली जा सकती है, जिसने इस हिंसक सभ्यता के बीचों-बीच खड़े होकर कहा था – “मेरा कोई शत्रु नहीं है”। और जिसने अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्य-प्रणाली दुनिया को दी है।
फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के मौजूदा चरण पर लिखने वाले कुछ लेखकों ने गांधी को उद्धृत किया है। ऐसे लेखों में गांधी के मुख्यत: “द ज्यूज” (‘हरिजन’,26 नवंबर 1938), “दि जेविश क्वेश्चन” (‘हरिजन’, 27 मई 1939), “ज्यूज एण्ड फिलिस्तीन” (‘हरिजन’, 21 जुलाई 1946) लेखों के आधार पर फिलिस्तीन–इजराइल समस्या की गांधी की समझ तथा यहूदियों और अरबों के बारे में उनकी धारणा का संदर्भ दिया गया है। इस संदर्भ में गांधी के दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह आंदोलन में उनके घनिष्ठ सहयोगी रहे हरमन कॉलनबाख, सोंजा श्लेसिन और एचजेएच पोलक आदि यहूदियों का जिक्र भी आया है।
फिलिस्तीन–इजराइल समस्या पर गांधी के विचारों और पक्ष (स्टैन्ड) पर कुछ विद्वानों ने विशेष अध्ययन किया है। कुछ ने गांधीवाद की रोशनी में फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के समाधान की संभावनाओं पर भी विचार किया है। जवाहरलाल विश्वविद्यालय में आधुनिक मध्य-पूर्व के शिक्षक पीआर कुमारस्वामी ने इस विषय में गांधी के विचारों और पक्ष को प्रश्नांकित किया है। फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के मौजूदा दौर पर लिखे अपने लेख “ऑन पेलेस्टाइन एण्ड इजराइल, गांधीज डबल स्पीक ऑन नॉन-वॉयलेन्स” (फिलिस्तीन–इजराइल मामले में अहिंसा पर गांधी का दोहरा रवैया) (‘दि इंडियन एक्सप्रेसस’, 24 अक्तूबर 2013) में उन्होंने गांधी की अहिंसा के प्रति निष्ठा पर तीखा हमला बोला है। ऐसा लगता है यह लेख फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के समाधान की गांधीवादी संभावना के खिलाफ पेशबंदी की मंशा से लिखा गया है।
गांधी-विशेषज्ञों को यह स्पष्ट करना है कि क्या गांधी ने फिलिस्तीन–इजराइल मामले में अरबों की हिंसा पर चुप्पी साधते हुए केवल यहूदियों को अहिंसा का उपदेश दिया है? क्या वे मुस्लिम-यहूदी विवाद में “महात्मा” के आसन से स्खलित हुए हैं? फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष पर गांधी के विचार “खिलाफत”, धार्मिक पहचान के आधार पर भारत के “विभाजन की आशंका” और “उपनिवेशवाद” के तात्कालिक संदर्भों से प्रभावित रहे हो सकते हैं। ऐसा होना गलत नहीं, बल्कि स्वाभाविक है। क्योंकि विचार सापेक्ष होते हैं। हालांकि, फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष को लेकर गांधी की समझ पर सवाल उठाने वालों को इजराइल, ब्रिटेन और अमेरिका के अभी तक के उन कारनामों और बयानों पर भी सवाल उठाना चाहिए, जिन्हें बर्बरतापूर्ण के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।
जो भी हो, फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष पर गांधी के तत्कालीन विचार/मान्यताएं अन्याय के प्रतिकार की गांधी की अहिंसक कार्य-प्रणाली (सत्याग्रह, सविनय नागरिक अवज्ञा, उपवास) की प्रासंगिकता एवं सार्थकता के आड़े नहीं आने चाहिए। डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गांधी की “अहिंसक कार्य-प्रणाली को उनकी सीख का सबसे ज्यादा क्रांतिकारी मर्म” बताते हुए लिखा है: “इसलिए, असली बात है व्यक्तिगत और आदतन सिवल नाफरमानी। हमारे युग की सबसे बड़ी क्रांति कार्य-प्रणाली की है, एक ऐसी कार्य-पद्धति के द्वारा अन्याय का विरोध जिसका चरित्र न्याय के अनुरूप है। यहां सवाल न्याय के स्वरूप का उतना नहीं है, जितना उसे प्राप्त करने के उपाय का। वैधानिक और व्यवस्थित प्रक्रियाएं अक्सर नाकाफ़ी होती हैं। तब हथियारों का इस्तेमाल उनका अतिक्रमण करता है। ऐसा न हो, और मनुष्य हमेशा वोट और गोली के बीच ही भटकता न रहे, इसलिए सिवल नाफरमानी की कार्य-प्रणाली संबंधी क्रांति सामने आई है। हमारे युग की क्रांतियों में सर्वप्रमुख है हथियारों के विरुद्ध सिविल नाफरमानी की क्रांति, यद्यपि वास्तविक रूप में यह क्रांति अभी तक कमजोर ही रही है।” (‘मार्क्स गांधी एण्ड सोशलिज्म’, पृष्ठ xxxi-ii)
लोहिया ने गांधी के “हृदय-परिवर्तन” के सिद्धांत में निहित मर्म को भी पकड़ा है। अपने जीवन के गांधी के साथ जुड़े एक प्रसंग में वे लिखते हैं: “और इसमें हृदय-परिवर्तन की पूरी कहानी छिपी है, जो एक ऐसा पद है जिसका अक्सर न केवल महात्मा गांधी के आलोचकों ने, बल्कि उनके प्रशंसकों और अनुयायियों ने भी दुरुपयोग किया है। यदि कुछ लोगों ने इसे क्रांति को नकारने के हथियार के रूप में देखा है, तो दूसरों ने वास्तव में माना है कि हृदय-परिवर्तन (के सिद्धांत) ने क्रांति होने से रोक दी है। दोनों ही मामलों में, प्रशंसकों और आलोचकों ने "हृदय परिवर्तन" पद को ऐसे हास्यास्पद स्तर पर पहुंचा दिया है कि इसका महात्मा गांधी की जीवन की समझ से कोई संबंध नहीं है। ... गांधीजी ने अपने जीवन का करीब एक साल स्मट्स, इरविन और बिड़ला के हृदयों को बदलने में लगाया, जबकि उन्होंने दुनिया-भर में लाखों लोगों में साहस पैदा करके उनके हृदय बदलने में चालीस वर्ष से अधिक समय व्यतीत किया। ... इस सब में जो बात सामने आती है वह गांधीजी की यह धारणा है कि मनुष्य अच्छा हो सकता है, भले ही कुछ स्थितियों में वह बुरा भी बन जाता हो।'' (‘मार्क्स गांधी एण्ड सोशलिज्म’, पृष्ठ 156-57)
अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्य-प्रणाली और मनुष्य के अच्छा होने की संभावना का स्वीकार – गांधी के इन दो सूत्रों के साथ फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के गांधीवादी समाधान पर गंभीरता से विचार और काम किया जाना चाहिए। बेशक गांधीवादी समाधान का प्रयास समाधान के अन्य प्रयासों के समानांतर हो। वैसे भी यह माना जा रहा है कि गाजा-युद्ध की थकान के बाद दोनों पक्षों में जो विराम अथवा समझौता होगा, वह भंगुर (फ्रेजाइल) और अल्पजीवी होगा।
गांधीवादी समाधान की शुरुआत फिलिस्तीनी पक्ष से हो सकती है – होनी चाहिए। लेकिन उपलब्ध अध्ययनों के मुताबिक, कारण जो भी हों, फिलिस्तीन में आधे से ज्यादा लोग समस्या के समाधान के लिए हिंसा के पक्षधर हैं। (इजराइल में तो फिलहाल बहुतायत हिंसा के पक्षधरों की है ही।) ऐसे में बेहतर होगा कि फिलिस्तीनी समाज के पहले विश्व-समाज यह पहल करे। पहल में गंभीरता और सातत्य होगा, तो संयुक्त रूप से फिलिस्तीनी–इजराइली समाज पर उसका प्रभाव पड़ेगा। यह सही है कि फिलिस्तीन और इजराइल के लोगों के मन में एक-दूसरे के धर्म और धर्म-स्थल को लेकर गहरी मान्यताओं ने जड़ जमाई हुई है। गांधी का यह विचार कि “विश्व के धर्मग्रंथों का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करने के बाद, मुझे उन सभी में पाई जानी वाली सुंदरता को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है।” (“अबाउट कन्वर्शन”, ‘हरिजन’, 28 सितंबर 1935) दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता/सद्भाव पैदा कर सकता है। विश्व-व्यवस्था को चलाने वाले शक्तिशाली देशों और संयुक्त-राष्ट्र समेत सभी वैश्विक संस्थाओं को भी उस अहिंसक आंदोलन का गंभीर नोटिस लेना पड़ेगा।
लेकिन यह एक नई पहल होनी चाहिए। वर्तमान व्यवस्था के तहत फन्डिंग पर निर्भर संस्थाओं/समूहों/व्यक्तियों की मार्फत यह काम नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, मध्य-पूर्वी देशों में काम करने वाले कुछ अधिकार समूहों (राइट्स ग्रुप्स) की शिकायत है कि 7 अक्तूबर के हमास के हमले के बाद पश्चिमी देशों ने उनकी फन्डिंग बंद कर दी है। अमेरिका स्थित ‘एमके गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ नॉन-वायलेंस’ चलाने वाले गांधी के प्रपोत्र अरुण गांधी कतिपय गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) के बुलावे पर अगस्त 2004 में रामल्ला आए थे। वहां एक सभा में उन्होंने फिलिस्तीनियों से अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए गांधी के अहिंसक रास्ते पर चलने का आह्वान किया था। 2010-11 की सर्दियों में भारत से भी करीब सवा सौ नागरिकों का एक समूह गाजा की यात्रा पर गया था। इस तरह के एनजीओ-धर्मी फुटकर प्रयास एक “ईवेंट” भर बन कर रह जाते हैं। नागरिक प्रयासों को नागरिक सहयोग-राशि के सहारे चलाया जाना चाहिए। भले ही, जैसा कि गांधी का कहना था, लक्ष्य की दिशा में एक कदम चला जाए।
दरअसल, फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के गांधीवादी समाधान के बहाने परिवर्तनकारी रचनात्मक सोच के नागरिकों द्वारा एक नया वैश्विक शांति एवं निरस्त्रीकरण आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। इससे एक नए मनुष्य और समाज के निर्माण की वह प्रक्रिया बहाल होगी, जो “विचारधाराओं और इतिहास के अंत” की नवउदारवादी घोषणाओं के चलते अवरुद्ध हो चुकी है; और धार्मिक, नस्लीय, जातिवादी आदि टकराहटों में फंस कर रह गई है। साथ ही नई और आने वाली पीढ़ियों के लिए 19वीं और 20वीं शताब्दियों के प्रगतिशील मानवतावादी विचारों/अवधारणाओं/सिद्धांतों/
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में लॉ के प्रोफेसर नोह फेल्डमेन ने “इमैजिन अ पेलेस्टीनियन मूवमेंट लेड बाइ गांधी” (गांधी के नेतृत्व में फिलिस्तीनी आंदोलन की कल्पना कीजिए), (‘ब्लूमबर्गडॉटकॉम’, 27 दिसंबर 2017) लेख लिखा है। इस लेख में लगभग सभी संबद्ध पक्षों को संबोधित करते हुए फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के गांधीवादी समाधान की पेशकश और आशा की गई है। लेखक ने अहिंसक प्रतिरोध आंदोलन चलाने की पहली जिम्मेदारी फिलिस्तीन पर डाली है। इस आशा के साथ कि अगर फिलिस्तीन अहिंसक रास्ते पर डटा रहता है, तो इजराइल में लेफ्ट, माडरेट, और अंतत: दक्षिणपंथी/जिओनवादी भी अहिंसक रास्ते के साथ आएंगे। और अंतत: अमेरिका व अरब राष्ट्र भी।
कहने की जरूरत नहीं कि गांधी की अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्यप्रणाली उनके जीवन-दर्शन का अभिन्न अंग है। हालांकि, आधुनिक हिंसक सभ्यता से जुड़े किसी संघर्ष में उसका फुटकर उपयोग किया जा सकता है। पहले कई देशों में कई लोगों/समूहों ने ऐसा किया है। लेकिन यह तभी संभव है जब कम से कम प्रतिरोध के अहिंसक रास्ते के प्रति निर्विकल्प निष्ठा रखी जाए। हिंसा का विकल्प खुला रखते हुए अहिंसक रास्ते को आजमाने से वांछित नतीजा नहीं निकल सकता। फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के जटिल यथार्थ को देखते हुए नोह फेल्डमेन को शायद खुद भी गांधीवादी रास्ते की स्वीकृति की संभावना पर विश्वास नहीं है। शायद इसीलिए उसने लेख में प्रकल्पना-शैली (फेंटेसी स्टाइल) अपनाई है। साथ ही यह भी लिखा है कि फिलिस्तीनी सब कुछ करके देख चुकने के बाद भी अभी तक ‘द्वि-राष्ट्र’ के सिद्धांत पर आधारित समाधान हासिल नहीं कर पाए हैं। ऐसे में लक्ष्य हासिल के लिए गांधीवादी रास्ते को आजमा कर देखने में कोई हर्ज नहीं है। जो भी हो, 6 साल पहले लिखा गया यह लेख फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के समाधान की दिशा में संभावनाओं के द्वार खोलता है।
अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्य-प्रणाली को केवल गांधी के प्रयोगों और अनुभवों तक सीमित रखने की जरूरत नहीं है। उसे प्रवाहमानता में स्वीकार किया जाना चाहिए। आज के वैश्विक परिदृश्य के मद्देनजर अहिंसक कार्य-प्रणाली के साथ बहुत-सी नवीन उद्भावनाएं जोड़ी जा सकती हैं। साथ ही फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के अहिंसक समाधान के साथ दुनिया के अन्य संघर्षों के समाधान की दिशा में बढ़ा जा सकता है।
फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष का अहिंसक समाधान एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम ही हो सकता है। अहिंसा की प्रामाणिकता को निर्णायक रूप से स्वीकार करके ही उस प्रक्रिया को चलाया जा सकता है। गांधी ने एक “पिछड़े” और उपनिवेशित समाज में भारत की आजादी और रचनात्मक कामों में महिलाओं की बड़े पैमाने पर हिस्सेदारी सुनिश्चित की। यह उनकी जुटाव (मोबिलाइजेशन) की युक्ति (टैक्टिक्स) भर नहीं, अहिंसक सभ्यता के निर्माण की दिशा में उठाया गया एक संभावना-गर्भित कदम था। फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के अहिंसक समाधान के लिए वैश्विक महिला समाज की गांधी के समय से भी ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
लेखकों/कलाकारों को मानव-आत्मा का शिल्पी कहा जाता है। आधुनिक काल में लेखक और उनकी रचनाओं को प्रतिमानवीयता का प्रतिपक्ष मानने की जैसे रूढ़ि बन चुकी है। समाजवादी और पूंजीवादी दोनों खेमों में समान रूप से यह मान्यता चलती है। यहां इस मूलभूत प्रश्न पर विचार करने का अवसर नहीं है कि क्या रचनाकार वास्तविक दुनिया के दुख-दर्दों के बरक्स अपनी समानांतर दुनिया रच कर खुद को और पाठकों को जटिल यथार्थ से जूझने की भूमिका से विरत करते हैं? लेकिन यह पूछा जा सकता है कि मानवता पर गहन संकट के दौर में भी रचनाकार प्राय: चुप/तटस्थ बने रहते हैं। बहुत कम लेखकों/कलाकारों ने प्रतिमानवीय सत्ता के खिलाफ निर्णायक आवाज उठाई है। फिलिस्तीन और इजराइल समेत दुनिया में प्रतिष्ठित लेखकों/कलाकारों की कमी नहीं है। मानवता का यह महत्वपूर्ण हिस्सा फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के अहिंसक समाधान की प्रभावी आवाज हो सकता है।
बच्चों की एक बड़ी दुनिया होती है। संख्या में भी और हर बच्चे की कल्पना में भी। हिंसक संघर्षों में वे सबसे ज्यादा कमजोर और असुरक्षित समूह होते हैं। आधुनिक सभ्यता एक तरफ बच्चों को रासायनिक हथियारों से आसान मौत सुलाने और दूसरी तरफ उन्हें मानव-बम बना कर भयानक मौत देने के लिए कुख्यात है। गृह-युद्धों, युद्धों और आतंकी हमलों में बच्चों को मिलने वाले घावों और मौतों से आधुनिक सभ्यता का इतिहास भरा पड़ा है। उसके पास बच्चों को हलाक करने के तर्क बहुत-से हैं – वे मानव-शील्ड हैं, बदी की संतान हैं, मातृभूमि पर कुर्बान होने वाले शहीद हैं, उन्हें जन्नत नसीब हो रही है! गाजा में 7 हजार से ज्यादा बच्चों की हत्या हो जाने के बाद भी बचे हुए बच्चों को बचाने की नहीं, उनकी मौत का औचित्य प्रतिपादित करने की कवायद हो रही है।
आधुनिक सभ्यता के मरकज अमेरिका, जिसने पृथ्वी पर प्रथम “बंदूक-समाज” (गन सोसाइटी) की सृष्टि की है, का कहना है गाजा में युद्ध रोका जाएगा तो भविष्य में और ज्यादा संघर्ष बढ़ेगा। क्या अमेरिका कहना चाहता है कि बच्चों की हत्याओं से युद्ध के अंत में बचे बच्चों और बड़ों को सबक मिलेगा! फिलिस्तीन और मध्य-पूर्व में कुछ लोग कहते हैं कि हमास एक विचार है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। तो क्या फिलिस्तीनी बच्चों को नष्ट करके उस विचार को नष्ट किया जा रहा है! लेकिन कतर के प्रधानमंत्री का कहना है कि इस युद्ध के नतीजे में पूरे मध्य-पूर्व के बच्चे रेडिकलाइज होंगे। बच्चों की हत्याओं पर विमर्श का यह स्तर है!
मैंने पहले भी गाजा में बच्चों की हत्याओं पर लिखा है। मन को भारी कर देने वाली इस चर्चा को और आगे नहीं बढ़ाना चाहता। कहना यह है कि संजीदा लोगों को बच्चों की दुनिया पर ठहर कर गंभीरता से सोचना चाहिए। बच्चों के नाम पर सरकारों और संस्थाओं से अनुदान-पद-पुरस्कार पाने वाले महानुभाव यह नहीं कर सकते। बच्चे हिंसा से बचे रहें, तो अहिंसक सभ्यता की रचना में उनकी सर्वाधिक सार्थक और दूरगामी भूमिका हो सकती है। यह कैसे संभव हो, विश्व-समाज को देखना है।
अंत में एक महत्वपूर्ण सवाल - फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के गांधीवादी समाधान की प्रक्रिया में में गांधी के अपने देश के समाज की क्या वैचारिक अथवा/और सक्रिय भूमिका होगी? आशा है सभी सरोकारधर्मी नागरिक इस पर सोचेंगे और आगे का कर्तव्य तय करेंगे।
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)
Sunday, June 19, 2022
संविदा-सैनिक योजना: सुधारों की स्वाभाविक परिणति!- प्रेम सिंह
यह सही है कि अग्निपथ भर्ती योजना संविदा-सैनिक योजना है. यानि 17 से 21 साल की उम्र के युवाओं को चार साल के लिए ठेके पर सेना में भर्ती किया जाएगा. अभी तक सैनिकों को मिलने वाली सुविधाएं और सामाजिक सुरक्षा के वे हकदार नहीं होंगे. (योजना का बड़े पैमाने पर, और काफी जगह हिंसक विरोध के होने के बाद जिन रियायतों की बात की जा रही है, वह सरकार का उत्तर-विचार (आफ्टर थॉट) है. उसका यह उत्तर-विचार कितना टिकेगा, कहा नहीं जा सकता.) ठेके की नियुक्ति किस तरह की होती है, देश को इसका पिछले 20-25 साल का लम्बा अनुभव हो चुका है. इस बीच सभी दलों की सरकारें सत्ता में रह चुकी हैं. लिहाज़ा, उस ब्यौरे में जाने की जरूरत नहीं है. जरूरत यह देखने की है कि जब शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई सहित हर क्षेत्र में संविदा-भर्ती पर लोग काम कर रहे हैं, तो सेना की बारी भी एक दिन आनी ही थी.
अग्निपथ भर्ती योजना का आकांक्षियों द्वारा विरोध समझ में आने वाली बात है. लेकिन विपक्षी नेताओं, बुद्धिजीवियों और नागरिक समाज एक्टिविस्टों के विरोध का क्या आधार है? नियुक्तियों में ठेका-प्रथा नवउदारवादी सुधारों की देन है और हर जगह व्याप्त देखी जा सकती है. (दो दिन पहले एक पत्रकार मित्र ने मुझे संविदा-शिक्षण पर एक आलेख लिखने का जिम्मा सौंपा. प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कालेजों तक संविदा-शिक्षण की व्याप्ति का उल्लेख करते हुए मैंने जल्दी ही उन्हें आलेख भेज दिया. शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ा होने के चलते मुझे आलेख तैयार करने में जरा भी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा. संविदा-शिक्षण संबंधी समस्त ब्यौरा हाथ पर रखे आंवले की तरह उपलब्ध था.)
क्या सेना में संविदा-भर्ती का विरोध करने वाले ये लोग नवउदारवादी सुधारों के विरोधी रहे हैं? अगर हां, तो पूरे देश में इतने बड़े पैमाने पर स्थायी नियुक्तियों की जगह संविदा नियुक्तियों ने कैसे ले ली? अगर यह मान लिया जाए कि उन्हें अंदेशा नहीं था कि मामला सेनाओं में संविदा-नियुक्तियों तक पहुंच जाएगा, तो क्या अब वे इस संविधान-विरोधी प्रथा का मुकम्मल विरोध करेंगे? यानि सुधारों के नाम पर जारी नवउदारवादी अथवा निगम पूंजीवादी सरकारी नीतियों का विरोध करेंगे? अगर वे पिछले तीन दशकों से देश में जारी इस नव-साम्राज्यवादी हमले को नहीं रोकते हैं, तो उसकी चपेट से सेना को नहीं बचाया जा सकता. फिर वे किस आधार पर योजना के खिलाफ आंदोलनरत युवाओं को 'फर्जी राष्ट्रवादियों' से सावधान रहने की नसीहत दे रहे हैं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके पितृ-संगठन और 'नवरत्नों' के सेना के बारे विचित्र विचार सबके सामने रहते हैं - व्यापारी सैनिकों से ज्यादा खतरा उठाते हैं, भारत की सेना के पहले ही आरएसएस की सेना शत्रु के खिलाफ मोर्चे पर पहुंच जाएगी और फतह हासिल कर लेगी, शत्रु की घातों को नाकाम करने के लिए बंकरों को गाय के गोबर से लीपना चाहिए, सैनिकों को प्रशिक्षण और अभ्यास की जगह वीरता बनाए रखने के लिए गीता-रामायण का नियमित पाठ करना चाहिए, शत्रु को मुंह-तोड़ जवाब देने के लिए इतने इंच का सीना होना चाहिए, इतने सिरों का बदला लेने के लिए शत्रु के इतने सिर लेकर आने चाहिए, आरएसएस/भाजपा राज में भारत फिर से महान और महाशक्ति बन चुका है, अब 'अखंड भारत' का सपना साकार करने से कोई नहीं रोक सकता ... और न जाने क्या-क्या! ऐसे निज़ाम से सेना, वीरता और युद्ध के बारे में किसी गंभीर विमर्श या पहल की आशा करना बेकार है.
लेकिन सेना के वरिष्ठतम अधिकारियों के बारे में क्या कहा जाए? यह सही है कि लोकतंत्र में सेना नागरिक सरकार के मातहत काम करती है. इस संवैधानिक कर्तव्य को बनाए रखने में ही सेना का गौरव है. हालांकि, महत्वपूर्ण और नाजुक मुद्दों पर कम से कम अवकाश-प्राप्त सैन्य अधिकारियों को समय-समय पर अपने विवेक से राष्ट्र को निर्देशित करना चाहिए. सरकार ने अग्निपथ भर्ती योजना की पैरवी के लिए बड़े सैन्य अधिकारियों को आगे किया है. निश्चित ही इस रणनीति का भावनात्मक वजन है. तीनों सेनाओं के प्रमुखों ने समस्त विरोध के बावजूद अग्निपथ भर्ती योजना की शुरुआत की घोषणा कर दी है. यह भी स्पष्ट कह दिया है कि योजना के विरोध के दौरान हिंसक गतिविधियों में शामिल युवाओं को अग्निवीर बनने का अवसर नहीं दिया जाएगा. उन्होंने इसे सैन्य अधिकारियों द्वारा सुविचारित योजना बताते हुए सेना में युवा जोश शामिल करने का तर्क दिया है. बेहतर होता उनके मुताबिक इस सुविचारित योजना के बन जाने के बाद उस पर थोड़ा पब्लिक डोमेन में भी विचार हो जाता. तब शायद योजना के हिंसक प्रतिरोध की नौबत नहीं आती.
सवाल उठता है कि अगर सेना में युवा जोश इतना ही जरूरी है कि उसके लिए हर चार साल बाद नया खून चाहिए, जैसा कि तीनों सेना प्रमुख एवं कुछ अन्य वरिष्ठ सैन्य अधिकारी कह रहे हैं, तो सेना की अफसरशाही में भी यह जोश दाखिल करना चाहिए. सेना के बड़े अफसरों को सब कुछ उपलब्ध है. वे स्वैच्छिक अवकाश लें और नए अफसरों को अपनी जगह लेने दें. नए अफसरों ने उनकी योग्य कमान में हर जरूरी जिम्मेदारी सम्हालने का प्रशिक्षण और कौशल हासिल किया ही होगा. वैसे भी वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के लिए सरकारों में कई महत्वपूर्ण पद इंतजार कर रहे होते हैं. निगम-भारत में कारपोरेट घराने भी उनका बढ़िया ठिकाना हो सकते हैं.
सैन्य अधिकारियों के साथ न्याय करते हुए यह माना जा सकता है कि इस योजना पर आग्रह बना कर वे केवल चुनी हुई सरकार के आदेश का पालन नहीं कर रहे हैं. योजना को उनका अपना भी सोचा-समझा समर्थन है. जिस तरह से देश का राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व नवउदारवाद का समर्थक है, उसका प्रभाव सैन्य नेतृत्व पर भी पड़ना स्वाभाविक है. जिस तरह सिविल मामलों में पुरानी व्यवस्था के तहत अपनी ताकत हासिल करने वाले अधिकारीगणों को संविदा-भर्ती में खटने वाले युवा-अधेड़ों की पीड़ा नज़र नहीं आती, उसी तरह सैन्य अधिकारियों को भी लग सकता है कि सेना का काम बिना दीर्घावधि सेवा (और उसके साथ जुड़ी सुविधाओं के) वाले सैनिकों से चल सकता है. तीनों सेनाओं के लेफ्टिनेंट जनरल अनिल पुरी, जो सैन्य मामलों के विभाग में अतिरिक्त सचिव हैं, ने गम्भीरात्पूर्वक बताया है कि उन्होंने अडानी, अम्बानी और कारपोरेट घरानों से अच्छी तरह बात कर ली है कि वे अग्निवीरों को अपने यहां नौकरी देंगे! यानि देश का युवा खून एक ऐसी सस्ती चीज़ है जिसे जो चाहे इस्तेमाल करके फेंक सकता है.
अग्निपथ भर्ती योजना के खिलाफ आंदोलनरत युवाओं को क्या कहा जाए, कुछ समझ नहीं आता है. हमारी पीढ़ी के लोग उनके अपराधी हैं. यही कहा जा सकता है कि उनका आंदोलन सही है, हिंसा नहीं. कई युवा आन्दोलनकारियों ने किसान आंदोलन का हवाला दिया है. उनकी स्थिति ऐसी नहीं है कि वे एक और लम्बा आंदोलन खड़ा कर सकें. उन्हें समझना होगा कि किसान आंदोलन की फसल भी नवउदारवादी काट कर ले गए. किसान आंदोलन के दौरान जिन लोगों पर मुकद्दमे दायर हुए थे, उन्हें अभी तक वापस नहीं लिया गया है. आपके अभी दूध के दांत हैं, और सरकार ने आपके सामने सेना को खड़ा कर दिया है, जिसका आदेश है कि प्रत्येक आकांक्षी को लिख कर देना होगा कि वे हिंसक प्रतिरोध में शामिल नहीं थे. आप में जिनके खिलाफ मामले दर्ज हो चुके हैं, वे अपने कैरियर की फ़िक्र करें. जो आपको 'अपने बच्चे' बताते हैं या जो अग्निपथ योजना का विरोध और आपका समर्थन करने वाले हैं, आपके भविष्य के साथी बनेंगे, ऐसा नहीं लगता है. आपके सामने पूरा भविष्य पड़ा है.
(समाजवादी आन्दोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं)
Tuesday, May 31, 2022
क्या बह जाएंगे भारतीय संविधान और राष्ट्र?-प्रेम सिंह
करीब पिछले तीन-चार दशकों से भारत सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना हुआ था। इस दौरान संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता का मूल्य राजनीतिक सत्ता के गलियारों में इधर से उधर ठोकरें खाने के लिए अभिशप्त हो चुका था। 20वीं सदी के अस्सी और नब्बे के दशक में पूरे आसार बन चुके थे कि समाज किसी भी नाजुक मोड़ पर सांप्रदायिकता की बाढ़ में बह सकता है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में वह मोड़ आया, और देखते-देखते समाज सांप्रदायिकता की तेज बाढ़ में बहने लगा।
समाज देर तक सांप्रदायिकता की बाढ़ में बहता है, तो राष्ट्र के तौर पर उसके सभी निर्धारक अंग – विधायिका, कार्यपालिका, न्याय-पालिका एवं विभिन्न संवैधानिक लोकतांत्रिक संस्थाएं - उसकी चपेट में आते हैं; इन सबको संचालित करने वाली राजनीति सांप्रदायिक दांव-पेच का अखाड़ा बन जाती है; ‘लोकतंत्र का चौथा खंभा’ अपनी धुरी से उखड़ जाता है; धर्म विद्रूप हो जाता है; दर्शन और कलाएं पनाह मांगती घूमती हैं; बौद्धिक विमर्श प्राय: स्वार्थी और कलही हो जाता है; और नागरिक जीवन घृणा, वैमनस्य, अविश्वास और भय से ग्रस्त हो जाता है। किसी भी समाज के स्वास्थ्य के लिए यह बेहद बुरी स्थिति है। इसलिए सांप्रदायिकता की बाढ़ को रोकने के उपाय किए ही जाने चाहिए।
काशी और मथुरा विवादों के मद्देनजर सांप्रदायिक बाढ़ में और पानी छोड़ने की तैयारी हो चुकी है। संविधानविद और संविधानवादी ताहिर महमूद ने आशा जताई है कि प्रमुख पूजा-स्थलों पर मुसलमान अपना दावा छोड़ कर समाज में शांति बहाली की दिशा में भूमिका निभाएं। (‘वी दि पीपुल’, इंडियन एक्सप्रेस, 28 मई 2022) महबूबा मुफ्ती ने एक सुझाव रखा है : “अगर मस्जिदों को लेने से समस्याएं हल होती हैं, तो उन्हें लेने दो।“ (इंडियन एक्सप्रेस, 12 मई 2022) लेकिन मामला उतना सीधा नहीं बचा है। आरएसएस/भाजपा नेताओं के जो बयान आए हैं, उससे स्पष्ट है कि “यह बाबरी-मस्जिद राममंदिर विवाद को दोहराने की साजिश” नहीं, खुला ऐलान है।
आरएसएस प्रमुख घोषणा कर चुके हैं कि भारत ‘हिंदू-राष्ट्र’ बन चुका है। उनका विश्वास है अगले 15-20 साल में ‘अखंड भारत’ भी स्थापित हो जाएगा। ‘अखंड भारत’ की बात फिलहाल जाने दें, ‘हिंदू-राष्ट्र’ के अपने घोषित तकाजे हैं। इसके तहत हजारों साल पहले की ‘सच्चाईयों’ को सामने लाना है, और ‘गलतियों’ को ठीक करना है। यह सूची बहुत लंबी है – मस्जिदों के साथ ऐतिहासिक इमारतों पर हिंदू-दावा करना, शहरों-कस्बों-गांवों-सड़कों-उद्
विवादों को खुले अथवा छिपे रूप में हवा देने वाले विद्वानों की भी कमी नहीं रहेगी। हाल में समाजशास्त्री बदरी नारायण ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वस्तुत: सांप्रदायिक विद्वेष, गलत बयानी और वंचना की पूंजी को जनता के विश्वास की पूंजी घोषित किया है। (‘दि ट्रस्ट वोट’, इंडियन एक्सप्रेस 25 मई 2022) इतिहास के विद्वान एम राजीवलोचन ने यह ठीक कहा है कि मुसलमानों द्वारा हिंदू धर्म-स्थलों के ध्वंस की सच्चाई सामने आने पर कुछ लोग हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्म-स्थलों के विध्वंस के हवाले देने लगते हैं। (‘वायलेंस ऑफ मोनोथीज़्म’, इंडियन एक्सप्रेस, 28 मई 2022) लेकिन वे यह नहीं कहते कि अतीत की इस तरह की घटनाओं की जानकारी के बावजूद स्वतंत्र भारत को उसके नेताओं ने धर्मनिरपेक्ष रखने का फैसला किया था; और अतीत के झगड़ों को छोड़ कर भारत की गरिमा को नए विश्व में नए मूल्यों के आधार पर स्थापित करने का आह्वान किया था। बल्कि वे बताने लगते हैं कि हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्म-स्थलों के विध्वंस की केवल छिट-पुट घटनाओं के ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं। जबकि मुसलमान आक्रांताओं ने 11वीं सदी से 17वीं सदी तक हिंदुओं के नरसंहार, धर्म-स्थलों के ध्वंस और मूर्तियों की बेअदबी का सिलसिला बनाए रखा, जब तक कि मराठों ने उन्हें रोक नहीं दिया।
साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मुझे आश्चर्य है कि 700 सालों के उस भयानक दौर में अखिल भारतीय स्तर पर इतना विविध और समृद्ध भक्ति-आंदोलन और उससे प्रसूत साहित्य कैसे संभव हो गया! भक्ति-साहित्य का आधार लेकर नाट्य, अभिनय, सज्जा, गायन, वादन आदि से भरपूर रामलीलाएं, रासलीलाएं, यक्षगान, बाउलगान आदि अनेक लोक कलाएं और कई शास्त्रीय कलाएं कैसे अनवरत फलती-फूलती रहीं! भक्ति-आंदोलन को दार्शनिक आधार प्रदान करने वाला वल्लभाचार्य (शुद्धाद्वैतवाद), रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैतवाद), मध्वाचार्य (द्वैतवाद) निंबार्क आचार्य (द्वैताद्वैत) का दर्शन कैसे फलीभूत और प्रचलित हो गया! यह उल्लेख मैंने इसलिए किया है कि लेखक यह कहता है कि भारत में अद्वैतवादी अथवा एकत्ववादी ब्रह्म-चिंतन की मजबूत धारा नहीं रही है। जबकि उपर्युक्त चारों दार्शनिकों का दर्शन अद्वैत एवं द्वैत की परस्पर रगड़ से पैदा होता है। भक्तिकाल के सभी निर्गुणवादी और प्रेमाख्यानवादी (सूफी) कवि एकत्ववाद को मानने वाले हैं। तुलसीदास सगुणवादी हैं, लेकिन उन्होंने सगुण-निर्गुण में भेद नहीं मानने की सलाह दी है। यहां उल्लिखित दार्शनिकों के अलावा 8वीं सदी में शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत का दर्शन विख्यात है, जिसकी परंपरा रामकृष्ण परमहंस और उनके आगे विवेकानंद में मिलती है। विद्वान यह भी मानते हैं कि इस्लाम की एकेश्वरवाद की अवधारणा उपनिषदों और बाद के भारतीय अद्वैतवादी दर्शन की देन है।
लेख से यह ध्वनि भी निकलती है कि आरएसएस/भाजपा भारत में बहुदेववाद को प्रश्रय देने वाले हैं। जबकि आरएसएस/भाजपा का न बहुदेववाद से कोई गंभीर रिश्ता है, न एकत्ववाद से। लेखक ने एकत्ववाद-बहुदेववाद का प्रश्न उठाने के बावजूद यह समझा ही नहीं है कि दर्शन और भक्ति की दुनिया में कुंठित एवं पराजित मानसिकता के लोग प्रवेश नहीं कर सकते। लेखक मध्यकाल से इक्कीसवीं सदी तक चला आया है, और इस्लामी आतंकवादियों/तालीबान के हवाले से इस्लाम की मूलभूत कट्टरता का प्रतिपादन करता है। यह सही है कि कई विद्वान इस्लाम के बारे में यह मान्यता रखते हैं। यह भी सही है कि भारत में कुछ ऐसे कट्टर मुस्लिम हैं, जो दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णुता और हीनता का नजरिया रखते हैं। यह भी सही है कि भारत से, भले ही नगण्य संख्या में, मुस्लिम युवक दूसरे देशों में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा खिलाफत कायम करने के जिहाद में शामिल हुए हैं। यह भी सही है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की मांग करने वाले बहुत से मुसलमान इस्लामी देशों के धर्माधारित राज्यों को स्वाभाविक और सही मानते हैं।
लेकिन क्या यह संख्या उन कट्टर हिंदुओं से अधिक है, जिन्होंने देश की राजधानी में हजारों सिखों का कत्ल कर डाला था? जिन्होंने गुजरात में मुसलमानों के राज्य-प्रायोजित नरसंहार और बच्चियों-महिलाओं के बलात्कार में गर्व-पूर्वक हिस्सा लिया था? जो राम-मंदिर आंदोलन के समय से लेकर आज दिन तक मुसलमानों को अपशब्द कहने, भीड़-हत्या करने से नहीं हिचकते, उन्हें गोली मारने, उनके खिलाफ हथियार उठाने, मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार करने का आह्वान करते हैं? जिन्होंने ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जिंदा जल दिया था, जो जब-तब गिरजाघरों में जाकर तोड़-फोड़ मचा देते हैं। अगर हिंदू समाज के बारे में यह सही है कि वह बड़े पैमाने पर कट्टरपंथी नहीं हो सकता, तो भारत के मुस्लिम समाज के बारे में भी यह सही है।
दरअसल, स्वतंत्रता आंदोलन और संविधान के मूल्यों के परे जाकर भारत का एक “साभ्यतिक राज्य” के रूप में बखान करने वाले विद्वानों के भाषणों (‘आइडिया ऑफ इंडिया : बिफोर एण्ड बिऑन्ड’ शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित, इंडियन एक्सप्रेस, 24 मई 2022) की अकादमिक परीक्षा करने से पहले, उनकी मानसिकता को समझने की जरूरत है। ये लोग सांप्रदायिक मानसिकता में लिथड़ी किसी घटना पर मुंह नहीं खोलते। लेकिन अपने को परिवार और समाज में सभ्य दिखाने की कोशिश में महान सभ्यता का वाहक होने का भ्रम पालते हैं। यह सर्वविदित है कि परंपरागत भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर देश-विदेश के विद्वानों द्वारा आलोचनात्मक सराहना के साथ काफी महत्वपूर्ण काम हुआ है। इन लोगों को अपनी कुंठा से मुक्त होकर वह काम देखना चाहिए, और भाषणबाजी की जगह शोध की वैश्विक स्तर पर निर्धारित पद्धति का निर्वाह करते हुए भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर अपना काम करना चाहिए।
डॉ. लोहिया की चेतावनी थी कि हिंदू धर्म की कट्टरवादी धारा के वाहक अगर जीत जाएंगे तो भारतीय राष्ट्र के टुकड़े कर देंगे। आज की सांप्रदायिक ताकतों ने भारतीय राष्ट्र को अंदर से काफी हद तक तोड़ दिया है। वह बाहर से नहीं टूटे, और अंदर की टूट जल्द से जल्द से दूर हो, ऐसा प्रयास सभी को करना चाहिए। यह कैसे होगा इस सवाल का बना-बनाया उत्तर शायद ही किसी के पास हो। अलबत्ता, जो भी यह काम करेंगे उनका कट्टरता की कैद से मुक्त होना जरूरी है।
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय अध्ययन संस्थान के पूर्व फ़ेलो हैं)
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