Monday, April 15, 2024

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवाद पद से होती है। पूंजीवादी भोगवाद सामंती भोगवाद को अपने में समाहित करके चलता है। पूंजीवादी भोगवाद की पिछली करीब तीन-चार शताब्दियों की प्रक्रिया में जो जीवन-दृष्टि विकसित हुई है, उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया जा सकता है - सृष्टि में जो भी संसाधन और ऊर्जा के स्रोत हैं, मनुष्य के भोग के लिए हैं; मनुष्य को अपनी समस्त इंद्रियों, प्रतिभा के समस्त आयामों और गतिविधियों को उसी एक दिशा में, यानि अधिकतम भोग की दिशा में लगाना है; अमापनीय विषमताओं और विकट जलवायु विनाश जैसे दुष्परिणामों की परवाह नहीं करनी है; युद्धों, गृह-युद्धों, नरसंहारों की भी परवाह नहीं करनी है; भले ही सत्य, सौंदर्य, औदात्य वं करुणा जैसे जीवन-मूल्य गंवाने पड़ जाएं। इस अर्थ में भोगवाद का समकक्ष अंग्रेजी शब्द अभी नहीं मिलता है। भारतीय वाड़मय में भोग शब्द अनोखा है। अकेला भोग शब्द पवित्र धार्मिक एवं दार्शनिक अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है। जब यह ‘वाद’ प्रत्यय के साथ ‘भोगवाद’ बन जाता है, तो विलासितापूर्ण जीवन-शैली का अर्थ देता है। प्रतिदिन अथवा विशेष पूजा/कर्म-कांड के अवसरों पर भगवान का भोग लगाने की पुरानी प्रथा है। भोग में अर्पित की गई वस्तु को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। भोग निर्धनतम व्यक्ति को उपलब्ध हो सकने वाली वस्तु, और छप्पन व्यंजनों का लगाया जा सकता है। भगवान/देवता को भोग लगाने की प्रथा मुख्यत: सगुण भक्ति-धारा से जुड़ी है। लेकिन निर्गुणवादी संतों के संप्रदायों में भी किसी न किसी रूप में इस प्रथा का अपनाव मिलता है। सिख धर्म में जीवन और मृत्य से जुड़े विशेष अवसरों पर गुरुग्रंथ साहिब के पाठ के साथ भोग की प्रथा है। भारतीय इस्लाम और ईसाई धर्मों में भी भोग की प्रथा ने कुछ न कुछ संचरण किया है। भोग पद का एक अर्थ दुख भोगने के साथ भी जुड़ा है। शंकर भगवान मनुष्य के दुखों से द्रवित पार्वती से यही कहते पाए जाते हैं कि ‘दुनिया में सुख कम और दुख ज्यादा हैं। इतने ज्यादा कि मैं भी सबके सभी दुख दूर नहीं कर सकता। मनुष्य है तो दुख भोगना है।’ इस रूप में भोग शब्द मनुष्य के जीवन की दशा (प्रिडिकेमेंट) की दार्शनिक जिज्ञासा के साथ जुड़ता है। यानि संसार में दुख क्यों होता है; और क्या दुख को रोका जा सकता है? क्या हमेशा सुख की स्थिति बनी रह सकती है? दुख-भोग पिछले कर्मों की देन है या उसके अन्य दुनियावी कारण हैँ? जो भी हो, इन दोनों अर्थों में भोग का अर्थ मनुष्य के विशिष्ट जीवन-बोध अथवा जीवन-दृष्टि से जुड़ा है – जो तुझसे मिला है, उसे तुझी को अर्पित करके हम ग्रहण करते हैं; ताकि हम दुखों से बचे रहें। इस जीवन-बोध अथवा जीवन-दृष्टि के तहत प्रकृति और मनुष्य के बीच परस्परता का रिश्ता है। हजारों साल का सामंती “भोग-विलास”, जिसका एक विस्तार (एक्सटेंशन) ठाकुरजी के “छप्पन-भोग” में भी देखने को मिलता है, प्रकृति और मनुष्य के बीच परस्परता के रिश्ते की हद के बाहर नहीं जाता। सामंती युग में भोगवाद का एक प्रबल सेक्स-केंद्रित आयाम भी रहा है। “योगी” का विलोम “भोगी”, उसकी हविस चाहे कितनी बढ़ी-चढ़ी हो, सामंती युग में इस दायरे के बाहर नहीं जा सकता था। ‘वैराग्य शतक’ के लेखक भर्तृहरि ने सावधान किया है – ‘हम भोगों को नहीं भोगते, भोग ही हमें भोगते हैं’। कहने का आशय है कि सामंती सभ्यता में भोगवाद एक प्रवृत्ति थी, जीवन-दृष्टि नहीं। भोगवादी प्रवृत्ति की भी सीमाएं निर्धारित थीं। अपने मूल में मनुष्य और प्रकृति के बीच प्रतिस्पर्धा का संबंध धारण करने वाली आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के भोगवाद की कोई सीमाएं नहीं हैं। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता में भोगवाद एक विवर्धित (इलेबोरटेड) जीवन-दृष्टि के रूप में स्थापित हो चुका है। व्यापारिक पूंजीवाद से लेकर निगम पूंजीवाद तक के “विकास” को इस नजरिए से पढ़ा जा सकता है। दुनिया के कतिपय नामचीन अर्थशास्त्री अथवा विचारक कभी-कभार विकास के इस मॉडेल को प्रश्नांकित करते हैं; लेकिन उसके मूल में स्थित भोगवादी जीवन-दृष्टि पर सवाल नहीं उठाते। गांधी ने हठपूर्वक इस भोगवादी जीवन-दृष्टि पर सवाल उठाया था; और आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का विकल्प प्रस्तुत किया था। पश्चिम के कई विचारकों ने भी आधुनिक औद्योगिक सभ्यता प्रसूत भोगवादी जीवन-दृष्टि की समीक्षा और विरोध किया है। यह भूमिका बांधने के पीछे मेरा मकसद इस जटिल साभ्यतिक सवाल की गहरी पड़ताल में उतरना नहीं है। बल्कि इस सच्चाई का फिर से कथन करना है कि नए भारत के नाम पर बनाए जा रहे भोगवाद के बाजार में धड़ल्ले से गरीबी का कारोबार चलाया जा रहा है। पिछले 10 सालों से नरेंद्र मोदी यह कारोबार बड़ी तेजी और चाक-चौबंदी से चला रहे हैं। उनके पास गुजरात में यह कारोबार चलाने का लंबा अनुभव है। कुछ संदेह-विद्ध लोगों को लगता था कि प्रधानमंत्री कार्यालय मुख्यमंत्री कार्यालय जैसा नहीं होता। लेकिन नरेंद्र मोदी ने वैसे संदेह को दूर करके दिखा दिया। तेल-फुलेल, वस्त्र-परिधान, खान-पान से लेकर चप्पे-चप्पे पर अपने चित्र और नाम की छाप बिठाने, आयोजनों/योजनाओं/गारंटियों के नित नए विज्ञापन लहराने, भाषण के लिए महंगे से महंगे पंडाल लगाने, ताबड़-तोड़ विदेश यात्राएं करने, अपने लिए नया हवाई जहाज खरीदने, नया प्रधानमंत्री निवास बनाने, नया संसद भवन और सेंट्रल विस्ता आदि बनाने पर करदाताओं का नित्य रूप से अरबों रुपया खर्च कर डालने वाले नरेंद्र मोदी गरीबों के मसीहा भी हैं! छोटे-बड़े कारपोरेट घरानों के अरबों रुपये उन्होंने अपनी पार्टी के खाते में खींच लिए हैं। उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का कार्यालय भी सबसे महंगा बनाया है। नेता जब कारोबारी है, तो पार्टी कारोबारी होगी ही। “ऑपरेशन लोटस” के तहत पार्टी के इस कारोबार की खबरें मीडिया की सुर्खियों में नित्य बनी रहती हैं। कारोबार का नियम ही है - जो दिखता है, वह बिकता है। नरेंद्र मोदी, उनके नव-रत्न, पार्टी, पितृ-संगठन और उनके अमेरिका-यूरोप में बसे समर्थक सब “बड़ा” सोचते हैं। इतना बड़ा कि छोटों की आंखें फटी रह जाएं। मैंने अप्रैल 2019 में ‘नरेंद्र मोदी: पात्रता की पड़ताल’ लेख में मोदी की निगम पूंजीवाद के ताबेदार नेता के रूप में योग्यता की कुछ शिनाख्त की थी। भोगवाद के बाजार में गरीबी का सफल कारोबार करने वाले नरेंद्र मोदी की थोड़ी पड़ताल और करते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल होते हुए मोदी ने अपने गरीब होने का जम कर प्रचार कराया था। बताने की जरूरत नहीं कि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उनके रईसी ठाठ-बाट में कोई कमी नहीं थी। वे आधुनिक टेक्नॉलजी से जुड़े हर कम्फर्ट का लुत्फ उठाते दिखाई देते थे। वे किसी भी राज्य में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के सबसे बड़े पैरोकार थे। इसी नाते वे अटलबिहारी वाजपेयी और डॉ मनमोहन सिंह दोनों के प्रिय पात्र थे। कारपोरेट जगत के तो थे ही। बल्कि कारपोरेट जगत के कुछ धन्नासेठ उन्हें अपना खिलौना जैसा मानते थे। नरेंद्र मोदी को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। अदानी के निजी हवाई जहाज में उड़ना उन्हें अच्छा लगता था। अंबानी ने जियो सिम के विज्ञापन में नरेंद्र मोदी का चित्र इस्तेमाल साधिकार ही किया होगा। 500 रुपये का जुर्माना ही बताता है कि अंबानी की तरफ से किया गया वह “मैत्रीपूर्ण अपराध” था। नए भारत में कोई खुले आम कारपोरेट के साथ और खुले आम मुसलमानों के खिलाफ हो, तो उसका कारोबार चलते रहना है। मोदी के नेतृत्व में शिक्षित और आर्थिक/प्रशासनिक रूप से सशक्त भारतीयों की एक बड़ी संख्या ने यह मान लिया है कि “जागे हुए हिंदू” के लिए मुसलमानों और ईसाइयों के साथ निरंतर बैर-भाव रखना जरूरी है। इस बैर-भाव के स्रोत के रूप में उनके लिए इतिहास में अक्षय भंडार मौजूद है। गुरबत भारत में नई नहीं है। लिहाजा, भारत में किसी नेता की गरीब पारिवारिक पृष्ठभूमि होना अनोखी बात नहीं। जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह को छोड़ कर यहां प्राय: सभी प्रधानमंत्री छोटे-मझोले किसान परिवारों से या निम्न-मध्य वर्गीय सेवा अथवा व्यावसायिक परिवारों से थे। नेहरू, इंदिरा गांधी, विश्वनाथ सिंह बड़े नेता होने के पहले ही देश की स्वतंत्रता और समाज की बेहतरी के हित में अपनी संपन्नता का परित्याग कर चुके थे। आजादी के लिए संघर्षरत और स्वतंत्र भारत में सादगी का सौंदर्य अपनाने वाले नेताओं की कमी नहीं रही है। राजनीति की सभी धाराओं और पार्टियों के बारे में यह कहा जा सकता है। गरीब व्यक्ति का एक सामाजिक मनोविज्ञान विकसित हो जाता है - उसे पूरी उम्र गरीबी में काटनी पड़ी हो, तब भी, और किसी तरह की पद-प्रतिष्ठा पा गया हो, तब भी। गरीब पृष्ठभूमि के बावजूद पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की आमतौर पर तीन श्रेणियां देखने को मिलती है: एक, वह हमेशा रईसों की सोहबत में रहना चाहता है, उनसे दोस्ती चाहता है, पारिवारिक रिश्ते बनाना चाहता है, और उनके रहन-सहन, आचरण-रीतियों और शौकों की नकल करता है। गरीब उसके लिए भी “नाली का कीड़ा” हो जाते हैं। दो, ऐसे व्यक्ति के मन में रईसों/साहबों के प्रति एक गहरा पूर्वग्रह बन जाता है, जिसके चलते वह रईसों/साहबों के खिलाफ विद्रोही मुद्रा अपनाए रहता है; और उन्हें तिरस्कृत/ध्वस्त करने की कोशिश में लगा रहता है। तीन, ऐसा व्यक्ति पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने पर पूर्णत: उदार-हृदय हो जाता है; और वंचितों की सहायता के मौके तलाशता रहता है। मोदी पहली श्रेणी के गरीब हैं। मजेदारी यह है, पाखंड कहिए या गिल्ट, रईस-परस्ती और भोग-परस्ती के साथ वे “योगी-यति-फकीर” आदि होने का दावा भी ठोंकते हैं! 1991 में संविधान निर्देशित ‘राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों’ की जगह विश्व-बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) निर्देशित ‘नई आर्थिक नीतियां’ लागू कर कांग्रेस अपने पथ से भ्रष्ट होती है। अटलबिहारी वाजपेयी कहते हैं कि कांग्रेस ने यह उनका काम किया है। यही वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के गठन के बाद दिसंबर 1980 में बंबई में आयोजित पहले राष्ट्रीय सम्मेलन के भाषण में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के साथ गांधीवादी समाजवाद के सिद्धांतों के प्रति नई पार्टी की निष्ठा का जोरदार बखान कर चुके थे। सम्मेलन स्थल का नाम ‘समता नगर’ रखा गया था। उसके पहले दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में अप्रैल 1980 में आयोजित पार्टी के स्थापना सम्मेलन के अवसर पर अपने भाषण में लालकृष्ण आडवाणी कह चुके थे कि नई पार्टी जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के विचार के प्रति प्रतिबद्ध है। जाहिर है, तब तक भारतीय संविधान और गरीब भारत का दबाव अमीर भारत पर बना हुआ था। लेकिन वही वाजपेयी और आडवाणी नई आर्थिक नीतियों का स्वागत करते हुए ‘शाइनिंग इंडिया’ के स्टार प्रचारक बन जाते हैं। हालांकि, यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि ऐसा करने वाले वाजपेयी और आडवाणी अकेले नहीं थे। आज जो बुद्धिजीवी संविधानवाद की धज्जियां उड़ाने के लिए मोदी को पानी पी-पी कर कोसते हैं, उनमें ज्यादातर प्रकट या प्रछन्न रूप में ‘शाइनिंग इंडिया’, ‘नया भारत’, ‘निगम भारत’, ‘विकसित भारत’, ‘आर्थिक महाशक्ति भारत’ के पक्ष में रहे हैं। आज भी उनकी पोजीशन बदली नहीं है। कांग्रेस और भाजपा के अलावा अन्य ज्यादातर नेताओं/पार्टियों ने संवैधानिक मूल्यों – समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र – के साथ लगातार क्षुद्र व्यवहार करके संविधान को मखौल की वस्तु बना दिया। नई आर्थिक नीतियां लागू होने के कुछ साल बाद ही यह चिंता उठ खड़ी हुई कि आर्थिक बहिष्करण (इकनॉमिक एक्सक्लूजन) और बेरोजगारी पैदा करने वाली नवउदारवादी व्यवस्था में गरीबी/गरीबों का क्या किया जाए? यह चिंता अब संवैधानिक दायित्व के चलते नहीं, जैसा कि अस्सी के दशक तक प्राय: की जाती थी, गरीबों का वोट हासिल कर राजनीतिक सत्ता मजबूत करने के मकसद से परिचालित थी। साथ ही नवउदारवादी नीतियों के विरोध और विकल्प में मुखर आवाजों को झुठलाना और दबाना उनका मकसद था। इसके लिए मुख्य अर्थव्यवस्था के बाहर प्रधानमंत्रियों-मुख्यमंत्रियों और विभिन्न अनुप्रतीकों (आइकंस) के नाम पर कुछ राहत योजनाएं बनाने, भ्रष्टाचार मिटाने, गुड गवर्नेंस देने और विदेशियों की नजर में भारत को महान बनाने के वादों के साथ गरीबी का कारोबार किया जाने लगा। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और मंत्री स्तर के नेता बेहिचक यह काम करने में संलग्न हो गए। इसके साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मार्फत धर्म के आध्यात्मिकता, करुणा, दर्शन और कला के स्रोतों को अवरुद्ध कर, उसे सचमुच जनता की अफीम बना दिया गया। धर्म की इस हानि को परंपरागत धार्मिक संप्रदायों, अखाड़ों और मठों-मंदिरों ने रोकने के प्रयास नहीं किए। भोगवादी बाजार की कोख से निकले बाबाओं ने भक्ति, अध्यात्म, योग और जीने की कला का बड़ा भारी व्यापार देश-विदेश में फैला दिया। भारतीय जीवन के भले-बुरे अनुभवों, सपनों और आदर्शों की टीवी सीरियलों और फिल्मों से लगभग विदाई हो गई। भोगवाद के बाजार में शानो-शौकत और भोग-विलास से भरा जीवन लोगों का एक-मात्र आदर्श बना दिया गया। गांधी को यह कहते हुए एक बार फिर मारा गया कि ‘यह गांधी के सपनों का भारत बनाया जा रहा है।’ नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ने अमेरिकी कांग्रेस में बोलते हुए विश्व को यह “सच्चाई” बताई। भाजपा के संविधान से अभी तक गांधीवादी समाजवाद स्थापित करने का संकल्प हटाया नहीं गया है। जीवन में सादगी की वकालत की हिमाकत करने के लिए नवोदित (नवउदारवादी नीतियों के तहत नए सिरे से सशक्त हुआ) मध्य-वर्ग ने पलट कर गांधी से बदला लिया। गांधी को शादियों के भव्य पंडालों के स्वागत दरवाजों पर मेहमानों से भीख मांगने के लिए खड़ा किया गया। लोग ठिठोली करते और पांच-दस रुपया हाथ पर रख देते। ऐसे ही एक मंजर का जिक्र करते हुए मैंने बताया था कि एक शादी में गांधी और चार्ली चैप्लिन से शराब सर्व कराई गई। उसी दौर में शिमला के रिज पर गांधी की प्रतिमा के गले में शराब की बोतलों की माला डाल कर एक नया प्रयोग किया गया। यही वह समय था जब कतिपय बुद्धिजीवियों ने गांधी को अंबेडकर और भगत सिंह की छड़ी से पीटने का उद्यम तेज किया; और दलित नेताओं ने गांधी की प्रतिमा को नीचे गिरा उस पर पाद-प्रहार किया। गोया वे गांधी को गिरा कर, अंबेडकर और भगत सिंह के सपनों का भारत बना रहे थे! भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार दुधारा है – एक तरफ राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए वोटों का कारोबार किया जाता है; और दूसरी तरफ राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल राष्ट्रीय संसाधनों, उद्यमों, परिसंपत्तियों को निजी कंपनियों के हवाले कर उनसे अकूत मात्रा में धन वसूला जाता है। यह काम खुले आम गांधी, अंबेडकर, भगत सिंह आदि के नाम पर किया जाता है। इस कारोबार में लोगों को मुफ़्त पांच किलो अनाज देने का अरबों रुपया खर्च करके विज्ञापन किया जाता है। गोया वे अस्सी करोड़ लोग भारत के नागरिक; और उस नाते देश की संपत्ति में बराबर के हिस्सेदार न होकर पड़ोसी देश से आए शरणार्थी हों! “मुफ़्त का माल” बंटता हो तो “भारत का महान मध्य-वर्ग” पीछे नहीं रहता। मैंने एक बार जिक्र किया था कि मेरे शिक्षक डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक बार मुझे अभिभूत भाव से कहा था कि बिजली-पानी मुफ़्त करके केजरीवाल ने क्रांति कर दी है! गरीबी का कारोबार करने वाला यह राजनीतिक नेतृत्व अगर लोगों को धर्म और जातियों के नाम पर गोलबंद नहीं करेगा, उन्हें आपस में नहीं लड़वाएगा, तो ठाठ-बाट के साथ अपने परिवार/पार्टियां चलाने और चुनाव लड़ने/जीतने के लिए अकूत दौलत कैसे हासिल कर पाएगा? जो लोकतंत्र हम चल रहे हैं, उसमें गरीबी का कारोबार दरअसल गरीबों की लोकतंत्र से बेदखली है। कारपोरेट राजनीति के तहत उन्हें अराजनीतिक बना कर उनके वोट खरीदने का पुख्ता इंतजाम किया गया है। 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष के बिखराव, और केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई), राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) आदि सरकारी संस्थाओं के इस्तेमाल से विपक्ष को पंगु बनाने की कोशिशों से निराश कुछ भले लोग आशा करते हैं कि जनता पहल करके बदलाव करेगी। लोकतंत्र में यह आशा स्वाभाविक है। लेकिन यहां दो बातें है: पहली, पिछले दो चुनावों में क्रमश: करीब 70 और 64 प्रतिशत मतदाताओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया है। इसलिए चुनाव-सुधारों की चर्चा में आनुपातिक प्रतिनिधित्व चुनाव-प्रणाली लागू करना प्रमुख मुद्दा होना चाहिए। इसकी वकालत खुद वाजपेयी ने अपने 1980 के भाषण में की है। दूसरी, कारपोरेट राजनीति के तहत नेताओं/पार्टियों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और विज्ञापनों की मार्फत मतदाताओं को गोलबंद करने की प्रवृत्ति ने जनता से पहल का अधिकार छीन लिया है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और आम आदमी पार्टी के गठन के साथ राजनीति में यह प्रवृत्ति धूम-धाम से स्थापित की गई। जनता के राजनीतिक विवेक पर बोले गए उस जबरदस्त हमले में अभी का गोदी मीडिया और प्रतिरोधी मीडिया दोनों सम्मिलित थे। आरएसएस और कारपोरेट तो थे ही। कहने की जरूरत नहीं कि उस हमले का सबसे ज्यादा फायदा मोदी और अरविंद केजरीवाल को मिला। तब से लोकतंत्र की नदी में काफी पानी बह चुका है। लोग भी बह रहे हैं। अब अंतर्प्रवाह (अंडरकरंट) भी मीडिया और विज्ञापन निर्मित करते हैं। इसके लिए नेताओं/पार्टियों को हजारों करोड़ की कारपोरेट फंडिंग चाहिए। यह दुष्चक्र संवैधानिक चेतना से सम्पन्न नागरिकों के सतत प्रयासों से ही तोड़ा जा सकता है। नागरिक चेतना के साथ नई/वैकल्पिक राजनीति की संभावनाएं उन्मुक्त होंगी। यह विश्वास बना रहना चाहिए। मनुष्य न अकेला, न समुदाय/वर्ग के रूप में, हमेशा के लिए कारोबार की वस्तु होना स्वीकार नहीं कर सकता। (समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)

Thursday, January 11, 2024

उनके राम और अपने राम - प्रेम सिंह

(यह लेख करीब 25 साल पहले का है। 'जनसत्ता' में छपा था. 'कट्टरता जीतेगी या उदारता' (राजकमल प्रकाशन, 2004) पुस्तक में भी संकलित है। राम-नाम की लूट मची है। सोचा बहती गंगा में क्यों न हाथ धो लिया जाए! उलटी गंगा भी कह सकते हैं; होली के मौसम में दिवाली मनने जा रही है!! एक बार यह लेख ‘भूमि-पूजन’ केर अवसर पर अगस्त 2020 में भी जारी किया गया था। मंदिर बन चुका है, और 22 जनवरी को उसका उद्घाटन होने जा रहा है। एक बार फिर यह लेख बिना किसी परिवर्तन के यथावत जारी किया गया है। जो पहले पढ़ चुके हैं, उनसे माफी के साथ) संघ-संप्रदाय अपनी यह घोषणा दोहराता रहता है कि अयोध्या में जल्दी ही श्रीराम का भव्य-मंदिर बनाया जाएगा। बीच-बीच में यह खबर भी आती रहती है कि अयोध्या के बाहर मंदिर के लिए पत्थर तराशने का काम तेजी से चल रहा है। निर्माणाधीन मंदिर के मॉडल की पूरे देश में झांकी निकालने की योजना की भी खबर है। संघ-संप्रदाय के लिए मंदिर-निर्माण का कार्य जारी रखना और उसका प्रचार करते रहना जरूरी हैः राममंदिर-आंदोलन को जीवित बनाए रखने के लिए और लोगों के बीच अपनी साख बनाए रखने के लिए, कि जो धन उनसे लिया गया है, वह मंदिर-निर्माण के कार्य में लगाया जा रहा है। राममंदिर- आंदोलन जीवित बना रहता है तो अयोध्या में मंदिर के निर्माण को रोक पाना असंभव ही होगा। जैसी कि संघ-संप्रदाय की शपथ है, ज्यादा संभावना यही है कि मंदिर ‘वहीं’ बनेगा। निर्माण-स्थल के थोड़ा-बहुत ही इधर-उधर होने की गुंजाइश है। इस तरह राम का “संघावतार” हो जाएगा। सोचने की बात अब यह है कि संघ-संप्रदाय के मंदिर में जो राम विराजेंगे, उसके प्रतीकार्थ क्या वही होंगे जो जनमानस में आमतौर पर बने हुए हैं? यह सवाल धार्मिक उतना नहीं, जितना हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन से जुड़ा है। ‘राम-राम’ या ‘सिया-राम’ में जो सहजता और आत्मीयता होती है, वह संघ के ‘जैश्रीराम’ में नहीं है। राममंदिर-आंदोलन के चलते राम के प्रतीकार्थ का न केवल अर्थ-संकोच हुआ है, अवमूल्यन भी हुआ है। इस पर आगे चर्चा करने के पहले यह जान लें कि हिंदुस्तान और दुनिया में राम का किस्सा बहुत पुराना है और उसका रूप हमेशा एक जैसा नहीं रहा है। वैदिक काल में ही राम की चर्चा मिल जाती है। तदनंतर रामकथा की पहली महत्त्वपूर्ण कृति वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ में वर्णित दशरथ-पुत्र राम परमब्रह्म नहीं हैं। परमब्रह्म के अवतार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा पौराणिक काल में होती है और उनकी वाल्मीकि के राम से अभिन्नता प्रतिपादित की जाने लगती है। धीरे-धीरे राम और उनके पूरे चरित का पूर्ण अलौकिकीकरण होता गया है। साथ ही उसकी व्याप्ति जैन और बौद्ध धर्मों से लेकर दक्षिण भारत और निकटवर्ती एशियाई देशों तक होती गई है। वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ की आधिकारिक कथा से लेकर गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ की कल्पना और भक्ति-भावित कथा तक राम के चरित ने एक लौकिक महानायक से भक्त-वत्सल भगवान तक की लंबी यात्रा तय की है। यह सही है कि जैन और बौद्ध ग्रंथों में राम और उनके चरित का वैसा ही वर्णन नहीं मिलता, जैसा ब्राह्मण ग्रंथों में - विष्णु के अवतार के रूप में - मिलता है। फिर भी उन्होंने रामकथा की लोकप्रियता के बहाव में उन्हें अपने धर्म में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। बौद्धों ने राम को बोधिसत्व के रूप में और जैनियों ने त्रिषष्टि महापुरूषों में से एक बलदेव के रूप में चित्रित किया है। बौद्ध धर्म के माध्यम से रामकथा निकटवर्ती एशियाई देशों में भी फैली और वहां की संस्कृति का हिस्सा बन गई। हालांकि, उन देशों में रामकथा के प्रति आकर्षण यहां की तरह राम के प्रति किसी तरह की भक्ति-भावना नहीं है। अलबत्ता आठवें दशक में प्रभुपाद के नाम से प्रसिद्ध भक्तिवेदांत स्वामी अभयाचरण ने अमरीका में ‘इस्कान’ की स्थापना कर कृष्ण के साथ राम के प्रति भी अपने अमरीकी और यूरोपवासी शिष्यों में भक्ति-भावना जगाई। प्रभुपाद के अमरीकी शिष्य कीर्तनानंद स्वामी भक्तिपाद ने अमरीकी पाठकों के लिए भक्ति की दृष्टि से ‘रामायण’ लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद भारत में उनके शिष्य भक्तियोग स्वामी ने नवमधुवन आश्रम, ऋषिकेश की ओर से प्रकाशित किया है। राम के चरित्र और कथा के देशी-विदेशी विविध रूपों के विवरणों का आज महज ऐतिहासिक या साहित्यिक महत्त्व ही है। कम से कम उत्तर भारत की सवर्ण और मध्यवर्ती जातियों की आबादी की भक्ति-भावना का आधार तुलसी के राम हैं, जिन्हें उन्होंने राजा दशरथ के राजकुमार पुत्र से ऊपर उठा कर, पूरे चरित सहित भक्ति और प्रेम की भावना में सराबोर कर दिया। ‘मानस’ में रावण भी सीता का हरण बदले या काम-वासना से प्रेरित होकर नहीं, मोक्ष पाने के उद्देश्य से करता है, और राम के हाथों मारा जाकर सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है। तुलसी ने सभी खल पात्रों की कुटिलता, उग्रता और छल जैसे दुर्गुणों को राम-भक्ति का अंग बना दिया है। तुलसी के इस उद्यम का उनकी जीवन-दृष्टि के संदर्भ में अध्ययन होना अभी बाकी है। कबीर ने ‘दशरथ-सुत; से अलग राम की रचना की, लेकिन डॉ. धर्मवीर के मतानुसार ब्राह्मणवाद ने उसे अपने भीतर ही जज्ब कर लिया। लोगों के हृदय में तुलसी के राम की प्रतिष्ठा ही बनी हुई है। तुलसी के प्रति दलितों के आक्रोश को वाजिब कहा जा सकता है, लेकिन वे (तुलसी) हिंदू धर्म की उदारवादी धारा के अंतर्गत ही आएंगे। यह अकारण नहीं हो सकता कि ‘मानस’ में सीता-त्याग और शंबूक-वध के किस्सों को जगह नहीं दी गई है। तुलसी ने रामचरित के माध्यम से जीवन के कुछ ऐसे व्यावहारिक आदर्शों की प्रतिष्ठा भी की जिनके चलते जनमानस में उनके राम को इस कदर लोकप्रियता हासिल हुई है। डॉ. लोहिया ने यह माना है कि ‘‘शूद्र और पिछड़े वर्गों के मामले में (तुलसी कृत) रामायण में काफी अविवेक है।’’ लेकिन निषाद-प्रसंग को उन्होंने ‘‘जाति-प्रथा के इस बीहड़ और सड़े जंगल में एक छोटी-सी चमकती पगडंडी’’ स्वीकार किया है। ‘भरत अवधि सनेह ममता की, जदपि रामु सीम समता की’ चैपाई’ को उद्धृत कर लोहिया ने लिखा है: ‘‘राम समता की सीमा है, उनसे बढ़ कर समता और कहीं नहीं है। इस समता का ज्यादा निर्देश मन की समता की ओर है, जैसे ठंडे और गरम, अथवा हर्ष और विषाद अथवा जय और पराजय की दोनों स्थितियों में मन की समान भावना। मन की ऐसी भावना अगर सच है तो बाहरी जगत के प्राणियों के लिए भी छलकेगी। जिस तरह राम की समता छलकती है, उसी तरह भरत का स्नेह भी छलकता है। दोनों निषाद को गले लगाते हैं। यह सही है कि अब पालागी और गलमिलौवल को साथ-साथ चलाना प्रवंचना होगी। पालागी खतम हो और मलमिलौवल रहे।’’ लोहिया ने ‘‘द्विज और विप्र को हर मौके पर इतना ऊंचा’’ उठाने तथा ‘‘शूद्र और वनवासी को बहुत नीचे’’ गिराने के लिए तुलसी के समय को दोष दिया है। लोहिया यह तर्क देते वक्त भूल जाते हैं कि राम के एक अन्य दलित भक्त कबीर उसी युग में क्रांतिकारी रूप में सामने आते हैं। जाहिर है, तुलसी की सीमा समय के साथ उनके वर्ण और जाति की सीमा भी है। जो भी हो, तुलसी के राम परमब्रह्म, होने के साथ मर्यादा पुरूषोत्तम हैं, उदात्त हैं, उदार हैं, गरीब निवाज हैं, निर्बल के बल हैं, समता की सीमा है। और सीता के साथ जगत में व्याप्त हैं। उन्हें राजनीति और राजमद नहीं व्यापते। रामलीला के एक प्रसंग में जामवंत शरणागत विभीषण को लंका का राज देने का वादा करने पर राम से कहते हैं कि अगर कल को रावण भी शरण में आ जाए तो आप उसे कहां का राज देंगें? राम कहते हैं अयोध्या का। यह पूछने पर कि फिर आप कहां का राज करेंगे, राम जवाब देते हैं कि वे वन का राज करेंगे। तुलसी के राम शत्रुहंता नहीं हैं। रावण से उन्हें युद्ध करना पड़ता है, लेकिन युद्ध के पहले वे रावण को अपनी गलती सुधारने का पूरा मौका देते हैं। युद्ध के बीच में भी रावण को पूरा मौका दिया जाता है कि वह सीता को लौटा दे और अपने कुल सहित लंका का राज करे। जैसा कि ऊपर कहा गया है, तुलसी ने राम द्वारा शंबूक की हत्या और सीता के त्याग की घटनाओं को ‘मानस’ में जगह नहीं दी है। लिहाजा, तुलसी के राम अगर जन-जन की आस्था के प्रतीक बने हैं, जिसका कि संघ-संप्रदाय ने राममंदिर-आंदोलन में इस्तेमाल किया है, तो उसके पीछे राम का देवत्व उतना कारण नहीं है, जितना उनका मर्यादित और मानवीय चरित्र। राम के चरित्र के ये गुण ही उन्हें समाज में लोगों के बीच परस्पर आदर और अभिवादन प्रकट करने का सर्वव्यापी माध्यम बनाते हैं। संबोधन और भी हैं, लेकिन वे संप्रदाय या धर्म-विशेष के लोगों के बीच ही होते हैं, जबकि लोग अपने संप्रदाय या धर्म के परे जाकर एक-दूसरे से ‘राम-राम’ करते हैं। यह राम-राम गरीब और अमीर के बीच भी होती है। तुलसी ने इंद्र से होड़ लेने वाले दशरथ के भव्य भवनों का वर्णन किया है। लेकिन उनके राम लोगों के मन-मंदिर में ही बसते हैं। संघ-संप्रदाय का आंदोलन अयोध्या में भव्य राममंदिर के निर्माण के आह्वान पर टिका है, जिसे बनाने के लिए उन्होंने पहले ही छोटे-छोटे मंदिरों और पुजारियों का सफाया कर दिया था। यह विविध आस्थाओं वाले धर्म को सामीकृत करने की संघ-संप्रदाय की जानी-मानी कोशिश तो है ही, हृदय के मंदिर को नष्ट करने की कोशिश भी है। आस्था यही है कि राम ने अयोध्या में जन्म लिया था। लेकिन उनके भक्तों की आस्था यह भी है कि अयोध्या वहीं है, जहां राम का निवास है। राम के वन-गमन पर पुरवासी ‘अवध तहाँ जहाँ राम निवासु’ कहते हुए उनके साथ चलते हैं। राम उन्हें तमसा नदी के किनारे रात को सोता हुआ छोड़ कर आगे चले जाते हैं। पुरवासियों के पास इसका कोई विकल्प नहीं बचता कि वे राम को अपने हृदय के मंदिर में धारण करके आगे का जीवन जिएं। तुलसी ने लिखा है, ‘सियाराममय सब जग जानी’। उन्होंने एक पल के लिए भी सीता और राम को अलग नहीं होने दिया है। रावण की कैद में रहते हुए भी सीता हमेशा राम के पास ही रहीं। लेकिन संघ-संप्रदाय ने राम को सीता से काट कर निपट अकेला कर दिया है। सीता-सहित राम के जीवन से जुड़े अन्य अनेक पात्रों से उनका विच्छेद अंततः उनके भक्तों से ही विच्छेद है। और विच्छेद है सामाजिक-सांस्कृतिक परस्परता और भाइचारे का। ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’ लिख कर तुलसी राम की अनंत महिमा और छवियों का बखान करते हैं। लेकिन संघ-संप्रदाय ने, जिसकी उद्दाम लालसाएं कहने को धार्मिक-सांस्कृतिक और असलियत में सांप्रदायिक-राजनैतिक हैं, राम को महज एक शत्रुहंता के रूप में घटित कर दिया है। संघ- संप्रदाय के राम धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाए एक आम बादशाह बाबर, जो कई सदी पहले मर चुका है, और उसकी “औलादों” का वध करने को सन्नद्ध हैं। संघ-संप्रदाय के मंदिर में राम की यही ‘मूरत’ विराजेगी। भेद-नीति का सहारा लेकर अंगद को फोड़ने की चाल चलने वाले रावण को अंगद जवाब देते हैं कि भेद उसी के मन में होता है, जिसके मन में रघुवीर नहीं होते। राम का राजनैतिक इस्तेमाल करने वाले संघ- संप्रदाय का सबसे बड़ा हथियार भेद-बुद्धि ही है, और वह राम को भी उसी का प्रतीक बनाने पर तुला है। बल्कि उसने बना दिया है। हम धर्मनिरपेक्षतावादियों को ध्यान देना चाहिए कि मस्जिद-ध्वंस के लिए अयोध्या पहुंचे रामभक्तों के विशाल हुजूम में संघ-संप्रदाय के सदस्य गिने-चुने ही होंगे। संघ-संप्रदाय का दावा हमेशा यही रहा है कि हिंदू-आस्था के प्रतीक-पुरूष का मंदिर बनाने से कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकती। उसे दावे में दम है। मुस्लिम समुदाय को उसका साफ आदेश है कि वह रास्ते से हट जाए, वरना जो “राम-भक्त” बाबरी मस्जिद को ढाह सकते हैं, वे जबरदस्ती वहां मंदिर भी बना सकते हैं। प्रशासन, कानून और न्यायपालिका को वह न पहले खातिर में लाता था, न आगे लाएगा। समाज के एक अच्छे-खासे हिस्से में “राम-लहर” उठा कर धर्मनिरपेक्षतावादियों की बोलती वह पहले ही बंद कर चुका है। धर्मनिरपेक्ष राज्य को भी उसने काफी कुछ अपने कब्जे में कर लिया है। जातिवादी राजनीति सांप्रदायिक राजनीति का दीर्घावधि और सकारात्मक जवाब नहीं है। हिंदू धर्म की कट्टरतावादी धारा के वाहक संघ पर हिटलरी फासीवाद का रंग भी चढ़ा हुआ है। कट्टरता की इस दोहरी शक्ति से युक्त राम के संघावतार को रोकना है, तो धर्मनिरपेक्षतावादी नेताओं और विद्वानों को धर्म की गंभीर समझ विकसित करनी होगी। केवल संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता भर से काम नहीं चलने वाला है। मार्क्सवादी और आधुनिकतावादी नेता और विचारक जहां संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के प्रति समझ और निष्ठा रखते हैं, वहीं उसके जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों की ओर से या तो विमुख होते हैं, या भटकाव-ग्रस्त। धर्म जब तक जनता के जीवन में पैठा है तब तक उसमें निहित उदार अंतर्वस्तु को स्वीकार करते हुए उसका उपयोग आधुनिक जीवन को वैचारिक-दार्शनिक रूप से समृद्ध बनाने के कोई विकल्प नहीं है। कम से कम उसके मानवीय और सांस्कृतिक पक्ष को कुछ प्रेरणा देने के लिए धर्म को आधुनिक विमर्श का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं कि प्राचीन काल से आज तक दर्शन, काव्य और दूसरी ललित कलाएं धर्म-विद्ध रही हैं। लेकिन धर्मनिरपेक्ष विचारक धर्म को महज निजी जीवन की चीज मानने से ज्यादा महत्त्व देने को तैयार नहीं हैं। ‘धर्म निजी मामला है’ यह मान्यता केवल एक-दूसरे के धर्म का सम्मान करने तक ही उपयोगी है। सामाजिक इतिहास बताता है कि धर्म वैसा निजी कभी नहीं रहा, और न आज की आधुनिक दुनिया में है। भारत का ही उदाहण लें तो यहां सभी धार्मिक उत्सव सामूहिक होते हैं। धर्म का भले ही एक अलौकिक आकाश हमेशा बना रहा हो, जमीन पर उसमें सभ्यता के प्रत्येक चरण में अस्तित्ववान विचारधाराओं का ही संघात मिलता है। उससे मुठभेंड़ किए बगैर आधुनिकता और प्रगतिशीलता की सम्यक विचारधारा तैयार नहीं की जा सकती। धार्मिकता का घेरा अमीर तबकों के बजाय उन गरीब तबकों के गिर्द ज्यादा सघन रूप में बुना होता है, जिन्हें आधुनिक और प्रगतिशील बनाने के लिए धर्मनिरपेक्षतावादी हलकान रहते हैं। राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ के अपने एक संपादकीय में आधुनिक भारत के छह मौलिक चिंतकों का उल्लेख किया था: विवेकानन्द, अरविंद, गांधी, आचार्य नरेंद्रदेव, राममनोहर लोहिया और अंबेडकर। इनमें विवेकाननंद और अरविंद नव्यवेदांत के प्रणेता माने जाते हैं। गांधी निजी जीवन में तो धार्मिक व आस्तिक थे ही, उन्होंने हिंदू धर्म सहित दुनिया के प्रायः सभी प्रमुख धर्मों पर विचार किया था। राजनीति में धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग करने के लिए धर्मनिरपेक्षतावादी उनकी आलोचना भी करते हैं। अपने को पचहत्तर प्रतिशत मार्क्सवादी मानने वाले आचार्य नरेंद्रदेव बौद्ध धर्म के निष्णात विद्वान थे। लोहिया नास्तिक थे, लेकिन उन्होंने न केवल धार्मिक प्रतीकों-प्रसंगों पर विस्तृत विचार किया है, धर्म और राजनीति के संबंध की भी विवेचना की है। उनका कहना है, ‘‘हिंदू धर्म में उदारता और कट्टरता की इस लड़ाई को खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि धर्म से ही लड़ा जाए।’’ अंबेडकर ने न केवल धर्म पर पर्याप्त चिंतन किया है, उन्होंने हिंदू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। धर्म को वैचारिक दुनिया से दुत्कार कर धर्मनिरपेक्षता की न तो कोई सम्यक विचारधारा गढ़ी जा सकती है, न ही कट्टरतावादी शक्तियों के खिलाफ कारगर संघर्ष किया जा सकता है। तुलसी के उदार राम को आज अगर नहीं बचाया गया, तो कल की पीढ़ियों के लिए संघ के संकीर्ण राम ही बच रहेंगे। बाकी आस्था प्रतीकों का भी वही हाल होना है। संघ की सूची में मथुरा में कृष्ण और काशी में शिव का नंबर राम के पीछे-पीछे चल रहा है। पुनश्च : यह कहना होगा कि संघ-संप्रदाय द्वारा चलाए गए राम-मंदिर आंदोलन के साथ राम के बहुत-से सच्चे भक्तों की भावना भी जुड़ी रही है। 22 जनवरी को उद्घाटित होने जा रहे राम-मंदिर के साथ भी। क्योंकि धार्मिक, राजनीतिक और बौद्धिक क्षेत्र से कोई वैकल्पिक आख्यान (नेरेटिव) नहीं रचा जा सका। भक्त बड़ा विवेकी माना गया है। आशा की जानी चाहिए राम के सच्चे भक्त संघ के राम के बदले अपने राम की मन-मूरत को नहीं छोड़ देंगे।

Sunday, January 7, 2024

लोकसभा चुनाव 2024: विपक्षी एकता के लिए एक नजरिया-प्रेम सिंह

(देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिन्हें विपक्षी दलों के गठजोड़ INDIA गठबंधन से ढेर सारी उम्मीदें हैं, अब ये अलग बात है कि विपक्षी दलों के नेताओं की भूमिका कई बार देश के समाजवादी और संविधान में आस्था रखने वाले लोगों को निराश कर जाती है। सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के पूर्व अध्यक्ष डॉ प्रेम सिंह उन लोगों में हैं जिन्होंने सबसे पहले 2014 में ही विपक्षी गठबंधन की वकालत की और आवश्यक सुझाव दिए। अगर डॉ प्रेम सिंह की बात मान ली जाती तो चीजें इतनी नहीं बिगड़ती। डॉ प्रेम सिंह मौजूदा वक्त के सबसे बेखौफ आवाजों में से एक हैं। अपने लेख के जरिये वो बता रहे हैं कि विपक्षी गठजोड़ को लेकर क्या सावधानी चाहिए और क्या जरूरी पहल की जानी चाहिए।) यह लेख मेरे पिछले तीन लेखों – ‘तीसरे मोर्चे की प्रासंगिकता’ (मई 2014 ), ‘लोकसभा चुनाव 2019: विपक्षी एकता के लिए एक नजरिया – एक’ (जून 2018), ‘लोकसभा चुनाव 2019: विपक्षी एकता के लिए एक नजरिया – दो’ (अप्रैल 2019) - की अगली कड़ी है। इनके अलावा ‘विपक्षी गठबंधन की गांठें और मुसलमान’ (अक्तूबर 2018) लेख भी इनके साथ देखा जा सकता है। सभी लेखों के लिंक अंत में दिए गए हैं। मेरा मानना था कि लोकसभा चुनाव 2014 में कांग्रेस और भाजपा से अलग राजनीति की तीसरी शक्ति कही जाने वाली पार्टियों का - तीसरा मोर्चा, राष्ट्रीय मोर्चा या किसी अन्य नाम से – एक स्वतंत्र गठबंधन होना चाहिए। चुनाव-पूर्व एक तीसरे मोर्चे के निर्माण को लेकर कुछ गंभीर प्रयास भी हुए थे। अगर वे प्रयास सफल होते तो कम से कम भारतीय राजनीति का वैसा बहुआयामी पतन नहीं होता जो हुआ है। लोकसभा चुनाव 2019 में भी मेरी यही मान्यता थी। और अब लोकसभा चुनाव 2024 में भी यही मान्यता है। मैं अपने कुछ साथियों के साथ होने वाली राजनीतिक चर्चा में यह कहता रहा हूं कि लोकसभा चुनाव 2024 में विपक्ष की कांग्रेसेतर पार्टियों का एक मोर्चा बने, उसका साझा न्यूनतम कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) जनता के सामने रखा जाए, और चुनाव के पहले प्रधानममंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए। मेरी राय में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मोर्चे के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जा सकता है। उनके साथ दक्षिण और उत्तर भारत से दो उप-प्रधानमंत्रियों का प्रावधान किया जाए। कांग्रेस की भाजपा से जहां सीधी टक्कर है, वहां मोर्चे को अपना उम्मीदवार नहीं उतारना चाहिए। कांग्रेस को भी मोर्चे के जनाधार वाली पार्टियों के उम्मीदवारों के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा करने से भरसक बचना चाहिए। जहां बात नहीं बन पाती, उन इक्का-दुक्का सीटों पर ‘फ़्रेंडली फाइट’ हो सकती है। इसके साथ कांग्रेस को चुनावों से पहले यह घोषणा करनी चाहिए कि मोर्चे की जीत की स्थिति में वह बाहर से मोर्चे की सरकार को पूरे 5 साल तक समर्थन देगी। वह चाहे तो मोर्चे के नेतृत्व में सरकार में शामिल भी हो सकती है। इस चुनाव और उसके बाद अगले 5 सालों में राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस की स्थिति सुधरती है तो 2029 के चुनाव में मोर्चे को उसकी सरकार का साथ देने का वादा करना चाहिए। मेरा यह भी मानना रहा है कि मोर्चे का गठन और अस्तित्व केवल लोकसभा चुनाव 2024 तक सीमित नहीं होना चाहिए। लोकसभा चुनाव 2024 में मोर्चे कि हार की स्थिति में उसके कार्यक्रम और संगठन का काम निरंतर जारी रहना चाहिए। ऐसा होने से भारतीय राजनीति के परिदृश्य में केंद्रीय स्तर पर त्रिकोणीय राजनीति को मान्यता मिलती जाएगी। यह देश की विविधता और संघीय ढांचे ((फेडरल स्ट्रक्चर) के हित में होगा। भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक-भौगोलिक विविधिता और संवैधानिक संघवाद (फेडरलिज़्म) की सार्थकता को चरितार्थ करने के लिए भारतीय राजनीति में तीसरी शक्ति पार्टियों की भूमिका की अहमियत को समझा जाना एक जरूरी कार्यभार है, जिसे नेताओं और राजनीतिक पंडितों को करना चाहिए। यह सही है कि तीसरी शक्ति पार्टियां, चाहे किसी भी दबाव (अर्ज) में बनी और ताकतवर हुई हों, मसलन क्षेत्रीय आकांक्षाओं एवं सामाजिक न्याय की पूर्ति की इच्छा के चलते, प्राय: व्यक्तिवाद/परिवारवाद के खोल में कैद होकर रह गईं हैं। उनमें आंतरिक लोकतंत्र भी नहीं होता है। राजनैतिक चिंतन/विमर्श में कोशिश की जानी चाहिए कि तीसरी शक्ति पार्टियों की इस नकारात्मक प्रवृत्ति में बदलाव आए और संवैधानिक विचारधारा के आधार पर उनका एक अलग राजनीतिक ब्लॉक अस्तित्व में रहे। ऐसा न होने की स्थिति में वे अवसरवादी रवैया अपना कर उग्र सांप्रदायिक भाजपा और नरम सांप्रदायिक कांग्रेस के साथ आती-जाती रहेंगी। और सारा देश बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के रंग में रंगता चला जाएगा। दूसरी तरफ देश के अल्पसंख्यक समुदायों में सांप्रदायिकता का जोर बढ़ेगा। लालकृष्ण आडवाणी और डॉक्टर मनमोहन सिंह दोनों ने यह सुझाव रखा था कि भारत में केवल दो राजनीतिक पार्टियां – कांग्रेस और भाजपा – रहनी चाहिए; अन्य सभी पार्टियों को इन दो पार्टियों में से किसी एक में अपना विलय कर देना चाहिए। दोनों वरिष्ठ नेताओं की यह सलाह देश में निर्णायक रूप से नवउदारवादी आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद की है। यानि कांग्रेस और भाजपा ने उदारीकरण-निजीकरण का रास्ता अपना लिया है, तो अन्य राजनीतिक पार्टियों के लिए किसी अलग रास्ते की न जरूरत है, न गुंजाइश। ध्यान किया जा सकता है कि दोनों ही नेता और उनकी पार्टियां शायद यह मान कर चल रहे थे कि संविधान में निहित समाजवाद के मूल्य को त्याग देने के बावजूद राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य बना रहेगा। आडवाणी ने भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से सीधे (आउटराइट) इनकार नहीं किया था; उन दिनों वे कांग्रेस और अन्य पार्टियों की “छद्म” धर्मनिरपेक्षता के बरक्स “सकारात्मक” धर्मनिरपेक्षता की बात करते थे। पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष नेता बताने के “अपराध” में उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा था। तब से गंगा में काफी पानी बह चुका है। अब न वे राम रहे, न वह अयोध्या! राम-मंदिर निर्माण के लिए निकाली गई रथ-यात्रा में आडवाणी के सारथी रहे नरेंद्र मोदी, और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कारपोरेट घरानों और भारत सहित दुनिया में फैली बाजारवादी शक्तियों के आगे नतमस्तक होकर राजनीति से संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता का टंटा ही खत्म कर दिया है। कहा जाता है सच्चा चेला वही होता है जो गुरु की दुविधा को भी मिटा दे। “राम-रक्षक” आडवाणी की दुविधा भी नरेंद्र मोदी के देश का प्रधानमंत्री और अयोध्या में “भव्य” राम-मंदिर बनने के साथ मिट गई होगी! वे खुश भी होंगे कि उनके चेले ने सब अच्छी तरह सम्हाल लिया है; उसी के हाथों मंदिर का उद्घाटन हो रहा है; उद्घाटन महोत्सव से दूर बैठे उन्हें खुशी-मिश्रित आश्चर्य भी हो रहा होगा कि जिसे वे लोकसभा चुनाव 2004 में “शाइनिंग इंडिया” कह रहे थे वह तो जगमगाता “हिंदू-इंडिया” है!! बहरहाल, देश के राजनीतिक परिदृश्य में तीसरे मोर्चे की उपस्थिति से कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ की राजनीति की तेज रफ्तार पर कुछ ब्रेक लगता रहेगा। आम आदमी पार्टी (आप) का इरादा और योजना भविष्य में कांग्रेस को प्रतिस्थापित (रिप्लेस) करंने की है। कांग्रेस नेतृत्व ने खुद पहले दिल्ली और उसके बाद पंजाब आप को सौंप कर उसका हौसला बढ़ा दिया है। राजनीति में विचारधारा को नहीं मानने वाली आप कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के मामले में भाजपा की सच्ची लघु कॉपी है। जबकि कांग्रेस चाहे भी तो अपनी नेहरू-युगीन विरासत के चलते भाजपा की सच्ची कॉपी नहीं बन सकती। यही कारण है, नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) कांग्रेस को पहले निशाने पर ले कर चलते हैं। ताकि तीसरे मोर्चे का निर्माण और भूमिका कभी भी गंभीर राजनीतिक चर्चा का विषय नहीं बन पाए। अगर लोकसभा चुनाव 2019 विचारधारा के दावों पर हारा जाता, तो 2024 में उसे जीता भी जा सकता था। लेकिन, दुर्भाग्य से कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ की राजनीति के युग में मुख्यधारा पार्टियों में विचारधारा के प्रति गंभीरता नहीं मिलती। स्थिति और खराब हो जाती है जब ज्यादातर जागरूक बुद्धिजीवी और नागरिक समाज भी राजनीति में विचारधारा की विदाई का सहयोगी बन जाता है। या निरपेक्ष तटस्थ भाव से सब होते देखता है। राजनीति में सक्रिय कतिपय प्रगतिशील संगठन/समूह विचारधारात्मक खोखलेपन को भरने के लिए प्रतीक-पुरुषों के चित्रों, वक्तव्यों, नारों, जयंती समारोहों, पुण्यतिथि समारोहों आदि का सहारा लेते हैं। वे समझ नहीं पाते कि कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ ने प्रतीक-पुरुषों को अपना बंधक बना लिया है। संविधान की विचारधारा से गुजरते हुए ज्यादा प्रगतिशील/परिवर्तनवादी विचारधारा की तरफ बढ़ा जा सकता था। लेकिन पिछले तीन दशकों से संविधान की विचारधारा ही पनाह मांगती घूमती है। राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन में संविधान की विचारधारा के प्रति निष्ठा की बात करने पर भी आप पर “शुद्धतावादी” होने का ठप्पा लगा दिया जाएगा। दरअसल, वर्तमान माहौल में विचारधारा पर चर्चा एक अप्रिय प्रसंग है। लोग नाराज हो जाते हैं। जो लोग फासीवादी ताकतों के हाथों होने वाले लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों के हनन पर दिन-रात चिंता व्यक्त करते हैं, एक बार भी 1991 में किये गए संविधान की मूल आत्मा के हनन पर सवाल नहीं उठाते। राहुल गांधी कहते हैं कि वे निजीकरण के खिलाफ नहीं, एक-दो व्यापारिक घरानों को सारी सुविधाएं देने के खिलाफ हैं। यानि देश की दौलत और संसाधन सभी बड़े व्यापारिक घरानों में बंटने चाहिएं; छोटे-मझोले व्यापारियों का उन पर कोई में हक नहीं बनता। राहुल गांधी जब कहते हैं कि विचारधारा केवल कांग्रेस के पास है; और उनका जवाब सीताराम येचुरी यह कह कर देते हैं कि कांग्रेस नरम हिंदुत्व की लाइन पर चलती है, तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत का कम्युनिस्ट ब्लॉक भी समानाधिकारवादी (इगेलीटेरियन) विचारधारा की सीधे बात करने से बचता है। अलबत्ता, पूंजीवाद की बात वह खूब करता है। इस हद तक कि “केजरीवाल क्रांति” को उसने ठोंक कर “लाल सलाम” बजाया। ऐसा भी नहीं है कि नई पीढ़ी के कम्युनिस्टों में संभावना बनी हुई हो। इस ब्लॉक की सबसे “गरम” पार्टी की छात्र-युवा इकाई ने छात्र राजनीति में आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई के साथ गठजोड़ बना कर छात्र-राजनीति में भी विचारधारा के अंत की घोषणा कर दी। कम्युनिस्ट साथी इस आलोचना को अन्यथा न लें। 1977 में सोशलिस्ट पार्टी के जनता पार्टी में विलय, जो दरअसल देश के राजनीतिक परिदृश्य से सोशलिस्ट पार्टी का विलोप सिद्ध हुआ, के बाद पार्टी संगठन, मजदूर संगठन, किसान संगठन, छात्र संगठन और सांस्कृतिक संगठनों से लैस कम्युनिस्ट ब्लॉक से ही कारपोरेट के बरक्स समाजवादी नीतियों की दृढ़ और सतत वकालत की आशा शेष रह गई थी। अन्य राजनीतिक पार्टियों के मुकाबले संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के प्रति निष्ठा भी कम्युनिस्ट ब्लॉक में ज्यादा है। भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के पास आज खोने के लिए कुछ भी नहीं है। अस्तित्व का संकट स्वतंत्र और नई पहल को जन्म दे सकता है। विचारधारा के संदर्भ में भारत के सोशलिस्ट ब्लॉक की तरफ देखने पर एक मिला-जुला (मिक्स्ड) परिदृश्य नजर आता है। जबकि, 1991 में थोपी गईं नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ निर्णायक और तर्कपूर्ण प्रतिरोध इसी ब्लॉक की तरफ से हुआ था। मुख्यधारा राजनीति में चंद्रशेखर और मुख्यधारा राजनीति के बाहर किशन पटनायक ने बिना किसी झिझक और देरी के देश की राजनीतिक और बौद्धिक जमात को उन नीतियों के तात्कालिक और दूरगामी दुष्परिणामों के बारे में आगाह किया था। एक बार संसद में जब मनमोहन सिंह नई आर्थिक नीतियों के पक्ष में जवाहरलाल नेहरू को उद्धृत करने लगे तो चंद्रशेखर ने उन्हें टोका, “बराए मेहरबानी इन नीतियों के पक्ष में नेहरू को मत उद्धृत कीजिए।” समाजवादियों ने ही नवसाम्राज्यवादी गुलामी के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति के निर्माण की जरूरत रेखांकित की, और उस दिशा में प्रयास किए। हालांकि, यह भी सच है कि तरह-तरह के जनता दल चलाने वाले समाजवादियों को संकट का न तब बोध हुआ था, न अब है। ऐसे समाजवादियों ने व्यक्तिगत और परिवार की सत्ता मजबूत करने पर अपना ध्यान केंद्रित रखा, और आज भी वही कर रहे हैं। प्रछन्न नवउदारवादी अन्य समूहों की तरह सोशलिस्ट ब्लॉक में भी रहे हैं। प्रछन्न नवउदारवादियों की यह खूबी होती है कि वे सब जगह अपनी घुसपैठ बना लेते हैं। अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में उन्होंने वैकल्पिक राजनीति के प्रयासों में पलीता लगा दिया। आजकल उनमें से कुछ शिक्षा के एक सौदागर की निजी यूनिवर्सिटी में बैठ कर कभी गृहमंत्री राजनाथ सिंह, कभी (पूर्व)राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, कभी जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल मनोज सिन्हा और तरह-तरह के स्थानीय भाजपा/कांग्रेसी नेताओं के साथ बैठ कर डॉक्टर राममनोहर लोहिया की तिजारत करते हैं। जिस दिन खुद नरेंद्र मोदी ‘लोहिया स्मृति व्याख्यान’ देने पहुंच जाएंगे, उनकी साधना सफल हो जाएगी! उनमें से कुछ फिर से कांग्रेस की सेवा में लौट गए हैं। भारत की वर्तमान राजनीति में विचारधारा की बात को कुछ और आगे बढ़ाते हैं। जो प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी/ऐक्टिविस्ट नवउदारवादी नीतियों की ओर से इसलिए मुंह फेर कर चलते रहे हैं कि पहले सांप्रदायिकता से निपटना जरूरी है, यह देख सकते हैं कि देश की राजनीति ही नहीं, पूरा समाज सांप्रदायिक फासीवाद की गिरफ्त में आ चुका है। वे सांप्रदायिकता के विरुद्ध लड़ाई अपने नवउदारवाद के समर्थक बुद्धिजीवियों के साथ मिल कर लड़ते हैं। उनमें ख्याति-प्राप्त वकील, न्यायधीश, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, लेखक, एनजीओ सरगना, प्रोफेसर, पत्रकार आदि शामिल होते हैं। उनके पास धन, रुतबा, बड़े अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार होते हैं। मान लिया जा सकता है कि प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को लगता हो कि एक दिन उनके नवउदारवाद के समर्थक साथी अपने पक्ष (स्टैन्ड) पर पुनर्विचार करेंगे; और संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों की रोशनी में आर्थिक नीतियां बनाने की हिमायत करेंगे। लेकिन वे देख सकते हैं कि तीन दशकों के बाद भी नवउदारवाद के समर्थकों में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के भयंकर दुष्परिणामों को लेकर कोई खेद नहीं है। वे आज भी “सुधारों” को तीव्रतर करने का आह्वान करते पाए जाते हैं। प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को किंचित भी खेद नहीं है कि उन्होंने 1991 में थोपी गई नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ उठे देशव्यापी विरोध और वैकल्पिक राजनीति की आवाज को ‘भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन’ का हथियार चला कर नष्ट कर दिया था। विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है कि वह आंदोलन खुद पूंजीवादी-सांप्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ का भारत के संविधान और मेहनतकश आबादी के खिलाफ एक अचूक हथियार था। भारत का प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बौद्धिक वर्ग पिछले 10 सालों से ऊंचे स्वर में आजादी के मूल्यों, संविधान के मूल्यों और लोकतांत्रिक संस्थाओं के विघटन की दुहाई दे रहा है। लेकिन उसकी बात कोई नहीं सुनता। क्योंकि अपने धतकर्मों पर वह किंचित भी खेद प्रकट करने को तैयार नहीं है। वह अपनी रचना “छोटे मोदी” को रिजर्व में रख कर एक बार फिर उसी “भ्रष्ट” कांग्रेस के साथ एकजुट हो गया है, जिसे 10 साल पहले उसने खत्म करने का जैसे बीड़ा उठा लिया था! यहां एक बात पर और ध्यान दिया जा सकता है। राजनीतिक पार्टियों में जाति-आधारित जनगणना कराने का वादा करने की होड़ लगी है। नवउदारवाद के दरवाजे खोलने वाली कांग्रेस ने भी जाति-गणना के पक्ष में ऐलान कर दिया है; चुनाव जीतने में फायदा दिखेगा तो भाजपा भी पीछे नहीं रहेगी। सुना है देश को पिछड़ा प्रधानमंत्री और दलित तथा आदिवासी राष्ट्रपति देने वाला आरएसएस जाति-आधारित जनगणना के पक्ष में विचार कर रहा है। किसी भी राष्ट्र के समाज में कितनी सामाजिक-आर्थिक पहचानें निवास करती हैं, इसका आंकड़ा (डाटा) उपलब्ध होना ही चाहिए। कुछ हद तक यह काम होता भी रहा है, और सामाजिक पहचानों की राजनीति भी। सवाल है कि यह सब निगम भारत, जिसमें करीब 75 प्रतिशत दौलत करीब 10 प्रतिशत लोगों के पास इकट्ठा है, और नीचे के 50 प्रतिशत भारतीयों के हिस्से में 3 प्रतिशत दौलत आती है, की सत्ता और संपत्ति में हिस्सा सुनिश्चित करने के लिए है या संसाधनों और संपत्ति के समान बंटवारे के लिए? जाति-आधारित जनगणना को जातिवाद नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह कहा जा सकता है कि जाति-आधारित गणना के दावेदार समाजवाद के पैरोकार नहीं हैं। यानि राजनीति में सामाजिक न्याय की विचारधारा भी उनका सच्चा सरोकार नहीं है। देश में सरेआम बाजारवादी अर्थ-व्यवस्था और उसके एजेंटों का गुणगान और प्रचार-प्रसार चल रहा है। गोया भारत में कभी समानाधिकारवादी विचारधारा/आंदोलन रहे ही न हों। नागरिक-बोध से परिचालित भारतीयों का आधुनिक भारत नष्ट करके, धर्म और जातियों की पहचान पर आधारित “नया भारत” बनाया जा रहा है। एक शानदार स्वतंत्रता संग्राम पर लोलुपता, अंधविश्वास, झूठ और घृणा की चादर ढंक दी गई है। लेकिन विचारधारा पर गंभीर चर्चा नहीं होती। इसके लिए केवल राजनेता ही जिम्मेदार नहीं हैं। बुद्धिजीवियों की इसमें ज्यादा बड़ी भूमिका है। वे चाहे वामपंथी हों, या दक्षिणपंथी। बौद्धिक वर्ग द्वारा अंजाम दी गई समाज की अधोगति (डेकेडेंस) समाज को और ज्यादा अधोगति के गर्त में धकेलती है। लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा का मुकाबला करने के लिए विपक्ष ने ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूजिव अलाएंस) नाम से गठबंधन बनाया है। कांग्रेस से अलग मोर्चा बनाने कि संभावना अब नहीं लगती। ‘इंडिया’ गठबंधन के विवरण प्रेस में उपलब्ध हैं। इसलिए इस विषय पर ज्यादा कुछ लिखने की जरूरत नहीं है। अलबत्ता, यह देखा जा सकता है कि इस नवेले गठबंधन के ढांचे और संचालन का स्वरूप अभी तक तय नहीं हो पाया है। सीटों के बंटवारे का सवाल भी नहीं सुलझा है। कौन कितनी सीटें लड़ेगा, इस पर कांग्रेस समेत अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों के अपने-अपने दावे सामने आते रहते हैं। गोया, लोकसभा चुनाव केवल ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल पार्टियों के नेताओं का निजी मामला हो। लोकतंत्र में यह हैरत की बात है कि गठबंधन भाजपा को अपदस्थ करने के लिए देशवासियों के वोट तो चाहता है, लेकिन उन्हें सोचने और निर्णय करने के लिए थोड़ा भी समय नहीं देना चाहता। चुनाव में 6 महीने भी नहीं बचे हैं, जनता के सामने गठबंधन के एक अटपटे नाम के सिवाय अभी तक कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं पेश किया गया है। साझा न्यूनतम कार्यक्रम भी नहीं, जो गठबंधन के गठन की घोषणा के साथ सभी भारतीय भाषाओं में छप कर पूरे देश में वितरित हो जाना चाहिए था। भले ही गठबंधन में शामिल पार्टियों के अपने घोषणा-पत्र बाद में आते रहते। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम पर लोगों के सामने केवल अटकलबाजियां परोसी जा रही हैं। यह तो स्पष्ट है कि गठबंधन सत्ता में आने पर निजीकरण-उदारीकरण की अंधी नीतियों के चलते आर्थिक-शैक्षिक विकास की प्रक्रिया से बाहर खदेड़े जाने वाली विशाल आबादी के बहिष्करण (एक्सक्लूजन) को रोकने का वादा नहीं करना चाहता। कोई बात नहीं, लेकिन क्या विपक्ष लोगों में भाजपा को परास्त करने के विश्वास का माहौल भी नहीं पैदा करना चाहता? अभी तक तो ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं में कोई सनातन धर्म को निपटाने में लगा है, कोई मनुवाद को, कोई रामायण को, कोई सरस्वती को; कोई हनुमान-भक्त बना घूम रहा है, कोई राम-भक्त, कोई शिव-भक्त। जैसे-जैसे मथुरा में शाही ईदगाह का मामला गरमाएगा, और वृंदावन में उज्जैन और बनारस जैसा कॉरीडोर बनेगा काफी कृष्ण-भक्त भी निकल आएंगे। ये नेता यह समझने को भी तैयार नहीं हैं कि उनके इन कारनामों से अल्पसंख्यक और भी असुरक्षित हो जाते हैं। इनसे कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ को निपटाने की आशा तो क्या की जाए, फिलहाल यह भी नहीं लगता कि ये लोकसभा चुनाव में भाजपा को निपटा पाएंगे? जनता के सहयोग और समर्थन से गठबंधन को जीत मिल भी जाती है, तो सरकार की अस्थिरता का अंदेशा बना रहेगा। इसलिए जितना भी समय चुनावों में बचा है उसका गंभीरता से उपयोग किया जाना चाहिए। लेकिन कांग्रेस फिर एक यात्रा का आयोजन करने जा रही है। अगर यह चुनावों के मद्देनजर कि जाने वाली यात्रा है तो ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल सभी पार्टियां उसमें हिस्सेदारी क्यों नहीं करने जा रही हैं? इसका एक प्रभावी संदेश देशवासियों में जा सकता है। जो भी हो, ‘इंडिया’ के ढांचे और संचालन की औपचारिकताएं पूरी करने, गठबंधन सरकार का साझा न्यूनतम कार्यक्रम कार्यक्रम जारी करने और सीटों के बंटवारे की प्रक्रिया को जल्दी से जल्दी पूरा किया जाना चाहिए। अगर गठबंधन पहले के नागरिक संशोधन कानून, श्रम एवं कृषि कानूनों और संसद के शीतकालीन सत्र में बिना समुचित बहस के पारित किये गए आपराधिक न्याय संबंधी तीन कानूनों तथा मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित कानूनों पर अपना नजरिया लोगों के सामने रखे, तो उसके अभियान में गंभीरता आएगी। मसलन, सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लिया था, यह कहते हुए कि मौका आने पर उन्हें लागू किया जाएगा। गठबंधन यह बताए कि वह इन कृषि कानूनों का क्या करेगा? क्या वह सत्ता में आने पर भारत की खेती-किसानी के कारपोरेटीकरण का विरोध करेगा? इसी तरह से श्रम कानूनों, शिक्षा नीति आदि बहुत से विषयों पर स्थिति स्पष्ट की जानी चाहिए। साथ ही 2017 में वित्त कानून में संशोधन करके की गई एलेक्टोरल बॉण्ड्स की मार्फत कारपोरेट फन्डिंग की व्यवस्था, जिसका 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा सत्तारूढ़ भाजपा को जा रहा है, को ‘इंडिया’ गठबंधन नकार दे। जीतने की स्थिति में लोकतंत्र के लिए नकारात्मक बताए जाने वाले इस कानून को बदलने का वादा करे। नई शिक्षा नीति 2020 की समीक्षा करने का वादा भी किया जाना चाहिए। साथ ही गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए), जो मुख्यत: आतंकी गतिविधियों में शामिल लोगों को चिन्हित करने और सजा देने के उद्देश्य से बनाया गया था, के तहत राजनीतिक द्वेष से जेलों में बंद किये गए नागरिकों को न्याय देने वादा भी। पुलिस समेत सभी जांच एजेंसियों को राजनीतिक और सरकारी दबाव से मुक्त रखने का वादा भी किया जाए। कहने की जरूरत नहीं कि साझा कार्यक्रम में रोजगार का मुद्दा प्रमुखता और गंभीरता से रखा जाए। यहां एक संभावना पर और विचार किया जा सकता है। क्या ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ लोकसभा चुनाव 2024 में जनता से 1977 जैसे करिश्मे की उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं। घोषित आपातकाल से लेकर अघोषित आपातकाल तक देश काफी बदल चुका है। वह “पुराना” भारत था, यह “नया भारत” है। पूरी पोलिटिकल, इंटलेक्चुअल और बिजनस क्लास ने मिल कर नागरिकों की स्वतंत्रता की चेतना को गुलामी की चेतना में बदल कर रख देने का अभियान छेड़ा हुआ है। दिमाग में हुए “गुलामी के छेद” को भरने के लिए धर्मों और जातियों पर गर्व करके छाती फुलाई जाती है या अपने-अपने प्रतीक-पुरुषों के पोस्टर लहराए जाते हैं। “आत्मनिर्भर”, “विश्वगुरु”, “नए भारत” में यूरोप-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया में बसने-पढ़ने की होड़ मची हुई है। वहीं की तीसरे-चौथे दर्जे की टेक्नॉलॉजी उधार लेकर “डिजिटल”, “विकसित” और “महाशक्ति” भारत बनाया जा रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बड़ी अपघटना (कैजुएलिटी) यह हुई है कि लोगों, खास कर मेहनतकश आबादी को स्वतंत्र नागरिक से खैरात पर जीने वाली प्रजा बना दिया गया है। नवउदारवाद की खुरचन खाने वाला मध्य-वर्ग भी “मुफ़्त की मधुशाला” लूटने में पीछे नहीं रहना चाहता। नए भारत के निर्माताओं को पीने के लिए घी मिलना चाहिए, भले ही देश का रोआं-रोआं कर्ज में डूबा हो। बल्कि वे विश्व बैंक या आईएमएफ द्वारा भारत पर लदे कर्ज की स्थिति बताने पर तरह-तरह के घुमावदार तर्क देते हैं। गरीबी और कुपोषण पर वैश्विक संस्थाओं के आंकड़ों को झूठा बताने में वे सरकारों के साथ खड़े होते हैं। उनमें जो इक्का-दुक्का लोग कभी-कभार यह कहते हैं कि राजनीति धर्म के आधार पर नहीं, लोगों के सामने दरपेश आर्थिक कठिनाइयों, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी समस्याओं के आधार पर की जानी चाहिए, वे भयानक आर्थिक विषमताएं पैदा करने वाली आर्थिक नीतियों को बदलने की बात नहीं करते। यदि उन्हें कहा जाए कि शिक्षा राज्य की जिम्मेदारी है, शिक्षा को मुनाफे का बाजार बनाने वाले निजी और विदेशी विश्वविद्यालय बंद होने चाहिएं तो वे आपको अजूबे की तरह देखेंगे। एक बात और, सरकारी खजाने का अरबों रुपया खर्च करके मोदी अपनी छवि बनाते हैं। जो कसर रह जाती है उसे मोदी-विरोधी विपक्ष और नागरिक समाज एक्टिविस्ट पूरा कर देते हैं। उनके मोदी के जुमलों पर छोड़े गए चुटकुले मोदी के लिए खाद-पानी का काम करते हैं। वे कभी चुनाव के पहले ही मोदी की हार की घोषणा कर देते हैं, कभी दिन में कई बार ‘आएगा तो मोदी ही’ कहते हुए उसकी अपराजेयता से त्रस्त नजर आते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि मोदी ज्यादातर विरोधियों से अपने प्रचारक का काम लिए जा रहे हैं। बेहतर होगा कि इस चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन मोदी को कोसने का काम छोड़ कर लोगों को बताए कि इस चुनाव में सरकार इसलिए बदलनी है कि लोकतंत्र में सरकारें बदलती रहनी चाहिएं। भाजपा को 2014 में 31.34 प्रतिशत और 2019 में 37.04 प्रतिशत वोट मिले थे। 2014 में लोकतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) का वोट शेयर 38 और 2019 में 45 प्रतिशत था। यानि 2014 में करीब 70 प्रतिशत और 2019 में करीब 63 प्रतिशत मतदाताओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया था। भाजपा नीत एनडीए को भी 2014 में करीब 62 और 2019 में करीब 55 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट नहीं दिया था। विपक्ष भले ही इस वास्तविकता से सबक न लेता हो, आरएसएस/भाजपा लेते हैं। तभी सांप्रदायिकता फैलाने के साथ वे मोदी की छवि पर अरबों सरकारी रुपया खर्च करते हैं। कारपोरेट घरानों का धन तो है ही। https://www.hastakshep.com/old/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A4%BE-%E0%A4%95% E0%A4%BE-%E0%A4%AF%E0%A5%87-%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B5-%E0%A4%95 %E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B8 https://countercurrents.org/2018/06/lok-sabha-elections-2019-a-perspective-for-opposition-unity/ https://countercurrents.org/2019/04/lok-sabha-elections-2019-a-perspective-for-opposition-unity-2/ https://agnialok.com/the-knots-of-the-opposition-alliance-and-the-muslims/ (समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं)

Sunday, December 17, 2023

फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष: समाधान का गांधीवादी रास्ता-प्रेम सिंह




करीब एक शताब्दी पुराने फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष को लेकर पक्ष-पोषण और विश्लेषण का काम पिछले 75 सालों में बहुत हो चुका है। अब उसके स्थायी समाधान की जरूरत है। यह तभी संभव होगा जब आधुनिक विश्व-इतिहास की इस शायद जटिलतम समस्या से संबद्ध सभी पक्ष गंभीरता, निष्ठा और परस्पर विश्वास के साथ समाधान की दिशा में प्रयास करें। पिछले दो महीने से जारी फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के अभी तक के सर्वाधिक खूनी अध्याय से सबक लेकर अगर समाधान की सच्ची प्रेरणा से इस दिशा में काम होगा, तो निकट भविष्य में स्थायी समाधान की आशा की जा सकती है। कहने की जरूरत नहीं कि सच्ची प्रेरणा घृणा-जनित अथवा/और निहित स्वार्थ-जनित उत्तेजनाओं की कैद से मुक्ति पाकर ही आगे का रास्ता बना सकती है।   

 

हालांकि, यह अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि बाजार और हथियार की संयुक्त चालक-शक्ति से दौड़ने वाली आधुनिक सभ्यता की रगों में प्रवाहित उत्तेजनाओं से मुक्ति पाना आसान नहीं है। आधुनिक सभ्यता को मानव-उत्तेजनाओं के अटूट सिलसिले के रूप में भी पढ़ा जा सकता है, जहां सच्ची प्रेरणाएं उत्तेजनाओं का शिकार होने के लिए वैसे ही अभिशप्त होती हैं, जैसे सीधी या बदले की हिंसा में शिशुओं की हत्याएं की जाती हैं! इजराइल और उसके समर्थक देश/बुद्धिजीवी तथा फिलिस्तीन और उसके समर्थक देश/बुद्धिजीवी सभी कमोबेश उत्तेजना रूपी “बुरी आत्मा” की गिरफ्त में बने हुए हैं। नागरिक समाज का एक बड़ा हिस्सा भी, जो सीधे सत्ता-प्रतिष्ठानों से नहीं जुड़ा है, उत्तेजना की अधीनता की दशा में दिखाई देता है। संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान की सच्ची इच्छा से प्रेरित लोगों की स्थिति महाभारतकार जैसी है – “मैं दोनों हाथ ऊपर उठा कर पुकार-पुकार कर कह रहा हूं, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता!”  

 

फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष हिंसा पर आधारित आधुनिक सभ्यता की गोद में पला-बढ़ा है। लिहाजा, इसका अहिंसक/शांतिपूर्ण स्थायी समाधान पाना आसान नहीं है। फिर भी सच्ची प्रेरणा से उस दिशा में लगातार प्रयास होगा, तो रास्ता बन सकता है। इस प्रयास में आधुनिक सभ्यता की कड़ी टीका करने वाले मोहनदास कर्मचंद गांधी से मदद ली जा सकती है, जिसने इस हिंसक सभ्यता के बीचों-बीच खड़े होकर कहा था – “मेरा कोई शत्रु नहीं है”। और जिसने अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्य-प्रणाली दुनिया को दी है।    

 

फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के मौजूदा चरण पर लिखने वाले कुछ लेखकों ने गांधी को उद्धृत किया है। ऐसे लेखों में गांधी के मुख्यत: “द ज्यूज” (‘हरिजन’,26 नवंबर 1938), “दि जेविश क्वेश्चन” (‘हरिजन’, 27 मई 1939), “ज्यूज एण्ड फिलिस्तीन” (‘हरिजन’, 21 जुलाई 1946) लेखों के आधार पर फिलिस्तीन–इजराइल समस्या की गांधी की समझ तथा यहूदियों और अरबों के बारे में उनकी धारणा का संदर्भ दिया गया है। इस संदर्भ में गांधी के दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह आंदोलन में उनके घनिष्ठ सहयोगी रहे हरमन कॉलनबाख, सोंजा श्लेसिन और एचजेएच पोलक आदि यहूदियों का जिक्र भी आया है।

 

फिलिस्तीन–इजराइल समस्या पर गांधी के विचारों और पक्ष (स्टैन्ड) पर कुछ विद्वानों ने विशेष अध्ययन किया है। कुछ ने गांधीवाद की रोशनी में फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के समाधान की संभावनाओं पर भी विचार किया है। जवाहरलाल विश्वविद्यालय में आधुनिक मध्य-पूर्व के शिक्षक पीआर कुमारस्वामी ने इस विषय में गांधी के विचारों और पक्ष को प्रश्नांकित किया है। फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के मौजूदा दौर पर लिखे अपने लेख “ऑन पेलेस्टाइन एण्ड इजराइल, गांधीज डबल स्पीक ऑन नॉन-वॉयलेन्स” (फिलिस्तीन–इजराइल मामले में अहिंसा पर गांधी का दोहरा रवैया) (‘दि इंडियन एक्सप्रेसस’, 24 अक्तूबर 2013) में उन्होंने गांधी की अहिंसा के प्रति निष्ठा पर तीखा हमला बोला है। ऐसा लगता है यह लेख फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के समाधान की गांधीवादी संभावना के खिलाफ पेशबंदी की मंशा से लिखा गया है।

 

गांधी-विशेषज्ञों को यह स्पष्ट करना है कि क्या गांधी ने फिलिस्तीन–इजराइल मामले में अरबों की हिंसा पर चुप्पी साधते हुए केवल यहूदियों को अहिंसा का उपदेश दिया है? क्या वे मुस्लिम-यहूदी विवाद में “महात्मा” के आसन से स्खलित हुए हैं? फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष पर गांधी के विचार “खिलाफत”, धार्मिक पहचान के आधार पर भारत के “विभाजन की आशंका” और “उपनिवेशवाद” के तात्कालिक संदर्भों से प्रभावित रहे हो सकते हैं। ऐसा होना गलत नहीं, बल्कि स्वाभाविक है। क्योंकि विचार सापेक्ष होते हैं। हालांकि, फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष को लेकर गांधी की समझ पर सवाल उठाने वालों को इजराइल, ब्रिटेन और अमेरिका के अभी तक के उन कारनामों और बयानों पर भी सवाल उठाना चाहिए, जिन्हें बर्बरतापूर्ण के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।

 

 

जो भी हो, फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष पर गांधी के तत्कालीन विचार/मान्यताएं अन्याय के प्रतिकार की गांधी की अहिंसक कार्य-प्रणाली (सत्याग्रह, सविनय नागरिक अवज्ञा, उपवास) की प्रासंगिकता एवं सार्थकता के आड़े नहीं आने चाहिए। डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गांधी की “अहिंसक कार्य-प्रणाली को उनकी सीख का सबसे ज्यादा क्रांतिकारी मर्म” बताते हुए लिखा है: “इसलिए, असली बात है व्यक्तिगत और आदतन सिवल नाफरमानी। हमारे युग की सबसे बड़ी क्रांति कार्य-प्रणाली की है, एक ऐसी कार्य-पद्धति के द्वारा अन्याय का विरोध जिसका चरित्र न्याय के अनुरूप है। यहां सवाल न्याय के स्वरूप का उतना नहीं है, जितना उसे प्राप्त करने के उपाय का। वैधानिक और व्यवस्थित प्रक्रियाएं अक्सर नाकाफ़ी होती हैं। तब हथियारों का इस्तेमाल उनका अतिक्रमण करता है। ऐसा न हो, और मनुष्य हमेशा वोट और गोली के बीच ही भटकता न रहे, इसलिए सिवल नाफरमानी की कार्य-प्रणाली संबंधी क्रांति सामने आई है। हमारे युग की क्रांतियों में सर्वप्रमुख है हथियारों के विरुद्ध सिविल नाफरमानी की क्रांति, यद्यपि वास्तविक रूप में यह क्रांति अभी  तक कमजोर ही रही है।” (‘मार्क्स गांधी एण्ड सोशलिज्म’, पृष्ठ xxxi-ii)

 

लोहिया ने गांधी के “हृदय-परिवर्तन” के सिद्धांत में निहित मर्म को भी पकड़ा है। अपने जीवन के गांधी के साथ जुड़े एक प्रसंग में वे लिखते हैं: “और इसमें हृदय-परिवर्तन की पूरी कहानी छिपी हैजो एक ऐसा पद है जिसका अक्सर न केवल महात्मा गांधी के आलोचकों ने, बल्कि उनके प्रशंसकों और अनुयायियों ने भी दुरुपयोग किया है। यदि कुछ लोगों ने इसे क्रांति को नकारने के हथियार के रूप में देखा है, तो दूसरों ने वास्तव में माना है कि हृदय-परिवर्तन (के सिद्धांत) ने क्रांति होने से रोक दी है। दोनों ही मामलों मेंप्रशंसकों और आलोचकों ने "हृदय परिवर्तन" पद को ऐसे हास्यास्पद स्तर पर पहुंचा दिया है कि इसका महात्मा गांधी की जीवन की समझ से कोई संबंध नहीं है। ... गांधीजी ने अपने जीवन का करीब एक साल स्मट्सइरविन और बिड़ला के हृदयों को बदलने में लगायाजबकि उन्होंने दुनिया-भर में लाखों लोगों में साहस पैदा करके उनके हृदय बदलने में चालीस वर्ष से अधिक समय व्यतीत किया। ... इस सब में जो बात सामने आती है वह गांधीजी की यह धारणा है कि मनुष्य अच्छा हो सकता हैभले ही कुछ स्थितियों में वह बुरा भी बन जाता हो।'' (‘मार्क्स गांधी एण्ड सोशलिज्म’, पृष्ठ 156-57)

 

अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्य-प्रणाली और मनुष्य के अच्छा होने की संभावना का स्वीकार – गांधी के इन दो सूत्रों के साथ फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के गांधीवादी समाधान पर गंभीरता से विचार और काम किया जाना चाहिए। बेशक गांधीवादी समाधान का प्रयास समाधान के अन्य प्रयासों के समानांतर हो। वैसे भी यह माना जा रहा है कि गाजा-युद्ध की थकान के बाद दोनों पक्षों में जो विराम अथवा समझौता होगा, वह भंगुर (फ्रेजाइल) और अल्पजीवी होगा।

 

गांधीवादी समाधान की शुरुआत फिलिस्तीनी पक्ष से हो सकती है – होनी चाहिए। लेकिन उपलब्ध अध्ययनों के मुताबिक, कारण जो भी हों, फिलिस्तीन में आधे से ज्यादा लोग समस्या के समाधान के लिए हिंसा के पक्षधर हैं। (इजराइल में तो फिलहाल बहुतायत हिंसा के पक्षधरों की है ही।) ऐसे में बेहतर होगा कि फिलिस्तीनी समाज के पहले विश्व-समाज यह पहल करे। पहल में गंभीरता और सातत्य होगा, तो संयुक्त रूप से फिलिस्तीनी–इजराइली समाज पर उसका प्रभाव पड़ेगा। यह सही है कि फिलिस्तीन और इजराइल के लोगों के मन में एक-दूसरे के धर्म और धर्म-स्थल को लेकर गहरी मान्यताओं ने जड़ जमाई हुई है। गांधी का यह विचार कि “विश्व के धर्मग्रंथों का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करने के बादमुझे उन सभी में पाई जानी वाली सुंदरता को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है।” (“अबाउट कन्वर्शन”, ‘हरिजन’, 28 सितंबर 1935) दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता/सद्भाव पैदा कर सकता है। विश्व-व्यवस्था को चलाने वाले शक्तिशाली देशों और संयुक्त-राष्ट्र समेत सभी वैश्विक संस्थाओं को भी उस अहिंसक आंदोलन का गंभीर नोटिस लेना पड़ेगा।

 

लेकिन यह एक नई पहल होनी चाहिए। वर्तमान व्यवस्था के तहत फन्डिंग पर निर्भर संस्थाओं/समूहों/व्यक्तियों की मार्फत यह काम नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, मध्य-पूर्वी देशों में काम करने वाले कुछ अधिकार समूहों (राइट्स ग्रुप्स) की शिकायत है कि 7 अक्तूबर के हमास के हमले के बाद पश्चिमी देशों ने उनकी फन्डिंग बंद कर दी है। अमेरिका स्थित ‘एमके गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ नॉन-वायलेंस’ चलाने वाले गांधी के प्रपोत्र अरुण गांधी कतिपय गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) के बुलावे पर अगस्त 2004 में रामल्ला आए थे। वहां एक सभा में उन्होंने  फिलिस्तीनियों से अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए गांधी के अहिंसक रास्ते पर चलने का आह्वान किया था। 2010-11 की सर्दियों में भारत से भी करीब सवा सौ नागरिकों का एक समूह गाजा की यात्रा पर गया था। इस तरह के एनजीओ-धर्मी फुटकर प्रयास एक “ईवेंट” भर बन कर रह जाते हैं। नागरिक प्रयासों को नागरिक सहयोग-राशि के सहारे चलाया जाना चाहिए। भले ही, जैसा कि गांधी का कहना था, लक्ष्य की दिशा में एक कदम चला जाए।    

 

दरअसल, फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के गांधीवादी समाधान के बहाने परिवर्तनकारी रचनात्मक सोच के नागरिकों द्वारा एक नया वैश्विक शांति एवं निरस्त्रीकरण आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। इससे एक नए मनुष्य और समाज के निर्माण की वह प्रक्रिया बहाल होगी, जो “विचारधाराओं और इतिहास के अंत” की नवउदारवादी घोषणाओं के चलते अवरुद्ध हो चुकी है; और धार्मिक, नस्लीय, जातिवादी आदि टकराहटों में फंस कर रह गई है। साथ ही नई और आने वाली पीढ़ियों के लिए 19वीं और 20वीं शताब्दियों के प्रगतिशील मानवतावादी विचारों/अवधारणाओं/सिद्धांतों/विचारधाराओं को नए संदर्भों में व्याख्यायित/विकसित होने का अवसर मिलेगा।            

 

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में लॉ के प्रोफेसर नोह फेल्डमेन ने “इमैजिन अ पेलेस्टीनियन मूवमेंट लेड बाइ गांधी” (गांधी के नेतृत्व में फिलिस्तीनी आंदोलन की कल्पना कीजिए), (‘ब्लूमबर्गडॉटकॉम’, 27 दिसंबर 2017) लेख लिखा है। इस लेख में लगभग सभी संबद्ध पक्षों को संबोधित करते हुए फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के गांधीवादी समाधान की पेशकश और आशा की गई है। लेखक ने अहिंसक प्रतिरोध आंदोलन चलाने की पहली जिम्मेदारी फिलिस्तीन पर डाली है। इस आशा के साथ कि अगर फिलिस्तीन अहिंसक रास्ते पर डटा रहता है, तो इजराइल में लेफ्ट, माडरेट, और अंतत: दक्षिणपंथी/जिओनवादी भी अहिंसक रास्ते के साथ आएंगे। और अंतत: अमेरिका व अरब राष्ट्र भी।

 

कहने की जरूरत नहीं कि गांधी की अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्यप्रणाली उनके जीवन-दर्शन का अभिन्न अंग है। हालांकि, आधुनिक हिंसक सभ्यता से जुड़े किसी संघर्ष में उसका फुटकर उपयोग किया जा सकता है। पहले कई देशों में कई लोगों/समूहों ने ऐसा किया है। लेकिन यह तभी संभव है जब कम से कम प्रतिरोध के अहिंसक रास्ते के प्रति निर्विकल्प निष्ठा रखी जाए। हिंसा का विकल्प खुला रखते हुए अहिंसक रास्ते को आजमाने से वांछित नतीजा नहीं निकल सकता। फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के जटिल यथार्थ को देखते हुए नोह फेल्डमेन को शायद खुद भी गांधीवादी रास्ते की स्वीकृति की संभावना पर विश्वास नहीं है। शायद इसीलिए उसने लेख में प्रकल्पना-शैली (फेंटेसी स्टाइल) अपनाई है। साथ ही यह भी लिखा है कि फिलिस्तीनी सब कुछ करके देख चुकने के बाद भी अभी तक ‘द्वि-राष्ट्र’ के सिद्धांत पर आधारित समाधान हासिल नहीं कर पाए हैं। ऐसे में लक्ष्य हासिल के लिए गांधीवादी रास्ते को आजमा कर देखने में कोई हर्ज नहीं है। जो भी हो, 6 साल पहले लिखा गया यह लेख फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के समाधान की दिशा में संभावनाओं के द्वार खोलता है।    

 

अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्य-प्रणाली को केवल गांधी के प्रयोगों और अनुभवों तक सीमित रखने की जरूरत नहीं है। उसे प्रवाहमानता में स्वीकार किया जाना चाहिए। आज के वैश्विक परिदृश्य के मद्देनजर अहिंसक कार्य-प्रणाली के साथ बहुत-सी नवीन उद्भावनाएं जोड़ी जा सकती हैं। साथ ही फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के अहिंसक समाधान के साथ दुनिया के अन्य संघर्षों के समाधान की दिशा में बढ़ा जा सकता है।  

 

फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष का अहिंसक समाधान एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम ही हो सकता है। अहिंसा की प्रामाणिकता को निर्णायक रूप से स्वीकार करके ही उस प्रक्रिया को चलाया जा सकता है। गांधी ने एक “पिछड़े” और उपनिवेशित समाज में भारत की आजादी और रचनात्मक कामों में महिलाओं की बड़े पैमाने पर हिस्सेदारी सुनिश्चित की। यह उनकी जुटाव (मोबिलाइजेशन) की युक्ति (टैक्टिक्स) भर नहीं, अहिंसक सभ्यता के निर्माण की दिशा में उठाया गया एक संभावना-गर्भित कदम था। फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के अहिंसक समाधान के लिए वैश्विक महिला समाज की गांधी के समय से भी ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।   

 

लेखकों/कलाकारों को मानव-आत्मा का शिल्पी कहा जाता है। आधुनिक काल में लेखक और उनकी रचनाओं को प्रतिमानवीयता का प्रतिपक्ष मानने की जैसे रूढ़ि बन चुकी है। समाजवादी और पूंजीवादी दोनों खेमों में समान रूप से यह मान्यता चलती है। यहां इस मूलभूत प्रश्न पर विचार करने का अवसर नहीं है कि क्या रचनाकार वास्तविक दुनिया के दुख-दर्दों के बरक्स अपनी समानांतर दुनिया रच कर खुद को और पाठकों को जटिल यथार्थ से जूझने की भूमिका से विरत करते हैं? लेकिन यह पूछा जा सकता है कि मानवता पर गहन संकट के दौर में भी रचनाकार प्राय: चुप/तटस्थ बने रहते हैं। बहुत कम लेखकों/कलाकारों ने प्रतिमानवीय सत्ता के खिलाफ निर्णायक आवाज उठाई है। फिलिस्तीन और इजराइल समेत दुनिया में प्रतिष्ठित लेखकों/कलाकारों की कमी नहीं है। मानवता का यह महत्वपूर्ण हिस्सा फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के अहिंसक समाधान की प्रभावी आवाज हो सकता है।

 

बच्चों की एक बड़ी दुनिया होती है। संख्या में भी और हर बच्चे की कल्पना में भी। हिंसक संघर्षों में वे सबसे ज्यादा कमजोर और असुरक्षित समूह होते हैं। आधुनिक सभ्यता एक तरफ बच्चों को रासायनिक हथियारों से आसान मौत सुलाने और दूसरी तरफ उन्हें मानव-बम बना कर भयानक मौत देने के लिए कुख्यात है। गृह-युद्धों, युद्धों और आतंकी हमलों में बच्चों को मिलने वाले घावों और मौतों से आधुनिक सभ्यता का इतिहास भरा पड़ा है। उसके पास बच्चों को हलाक करने के तर्क बहुत-से हैं – वे मानव-शील्ड हैं, बदी की संतान हैं, मातृभूमि पर कुर्बान होने वाले शहीद हैं, उन्हें जन्नत नसीब हो रही है! गाजा में 7 हजार से ज्यादा बच्चों की हत्या हो जाने के बाद भी बचे हुए बच्चों को बचाने की नहीं, उनकी मौत का औचित्य प्रतिपादित करने की कवायद हो रही है।

 

आधुनिक सभ्यता के मरकज अमेरिका, जिसने पृथ्वी पर प्रथम “बंदूक-समाज” (गन सोसाइटी) की सृष्टि की है, का कहना है गाजा में युद्ध रोका जाएगा तो भविष्य में और ज्यादा संघर्ष बढ़ेगा। क्या अमेरिका कहना चाहता है कि बच्चों की हत्याओं से युद्ध के अंत में बचे बच्चों और बड़ों को सबक मिलेगा! फिलिस्तीन और मध्य-पूर्व में कुछ लोग कहते हैं कि हमास एक विचार है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। तो क्या फिलिस्तीनी बच्चों को नष्ट करके उस विचार को नष्ट किया जा रहा है! लेकिन कतर के प्रधानमंत्री का कहना है कि इस युद्ध के नतीजे में पूरे मध्य-पूर्व के बच्चे रेडिकलाइज होंगे। बच्चों की हत्याओं पर विमर्श का यह स्तर है!

 

मैंने पहले भी गाजा में बच्चों की हत्याओं पर लिखा है। मन को भारी कर देने वाली इस चर्चा को और आगे नहीं बढ़ाना चाहता। कहना यह है कि संजीदा लोगों को बच्चों की दुनिया पर ठहर कर गंभीरता से सोचना चाहिए। बच्चों के नाम पर सरकारों और संस्थाओं से अनुदान-पद-पुरस्कार पाने वाले महानुभाव यह नहीं कर सकते। बच्चे हिंसा से बचे रहें, तो अहिंसक सभ्यता की रचना में उनकी सर्वाधिक सार्थक और दूरगामी भूमिका हो सकती है। यह कैसे संभव हो, विश्व-समाज को देखना है।

 

अंत में एक महत्वपूर्ण सवाल - फिलिस्तीन–इजराइल संघर्ष के गांधीवादी समाधान की प्रक्रिया में में गांधी के अपने देश के समाज की क्या वैचारिक अथवा/और सक्रिय भूमिका होगी? आशा है सभी सरोकारधर्मी नागरिक इस पर सोचेंगे और आगे का कर्तव्य तय करेंगे। 

 

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)

Sunday, June 19, 2022

संविदा-सैनिक योजना: सुधारों की स्वाभाविक परिणति!- प्रेम सिंह


 


यह सही है कि अग्निपथ भर्ती योजना संविदा-सैनिक योजना है. यानि 17 से 21 साल की उम्र के युवाओं को चार साल के लिए ठेके पर सेना में भर्ती किया जाएगा. अभी तक सैनिकों को मिलने वाली सुविधाएं और सामाजिक सुरक्षा के वे हकदार नहीं होंगे. (योजना का बड़े पैमाने पर, और काफी जगह हिंसक विरोध के होने के बाद जिन रियायतों की बात की जा रही है, वह सरकार का उत्तर-विचार (आफ्टर थॉट) है. उसका यह उत्तर-विचार कितना टिकेगा, कहा नहीं जा सकता.) ठेके की नियुक्ति किस तरह की होती है, देश को इसका पिछले 20-25 साल का लम्बा अनुभव हो चुका है. इस बीच सभी दलों की सरकारें सत्ता में रह चुकी हैं. लिहाज़ा, उस ब्यौरे में जाने की जरूरत नहीं है. जरूरत यह देखने की है कि जब शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई सहित हर क्षेत्र में संविदा-भर्ती पर लोग काम कर रहे हैं, तो सेना की बारी भी एक दिन आनी ही थी.

 

अग्निपथ भर्ती योजना का आकांक्षियों द्वारा विरोध समझ में आने वाली बात है. लेकिन विपक्षी नेताओं, बुद्धिजीवियों और नागरिक समाज एक्टिविस्टों के विरोध का क्या आधार है? नियुक्तियों में ठेका-प्रथा नवउदारवादी सुधारों की देन है और हर जगह व्याप्त देखी जा सकती है. (दो दिन पहले एक पत्रकार मित्र ने मुझे संविदा-शिक्षण पर एक आलेख लिखने का जिम्मा सौंपा. प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कालेजों तक संविदा-शिक्षण की व्याप्ति का उल्लेख करते हुए मैंने जल्दी ही उन्हें आलेख भेज दिया. शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ा होने के चलते मुझे आलेख तैयार करने में जरा भी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा. संविदा-शिक्षण संबंधी समस्त ब्यौरा हाथ पर रखे आंवले की तरह उपलब्ध था.)

 

क्या सेना में संविदा-भर्ती का विरोध करने वाले ये लोग नवउदारवादी सुधारों के विरोधी रहे हैं? अगर हां, तो पूरे देश में इतने बड़े पैमाने पर स्थायी नियुक्तियों की जगह संविदा नियुक्तियों ने कैसे ले ली? अगर यह मान लिया जाए कि उन्हें अंदेशा नहीं था कि मामला सेनाओं में संविदा-नियुक्तियों तक पहुंच जाएगा, तो क्या अब वे इस संविधान-विरोधी प्रथा का मुकम्मल विरोध करेंगे? यानि सुधारों के नाम पर जारी नवउदारवादी अथवा निगम पूंजीवादी सरकारी नीतियों का विरोध करेंगे? अगर वे पिछले तीन दशकों से देश में जारी इस नव-साम्राज्यवादी हमले को नहीं रोकते हैं, तो उसकी चपेट से सेना को नहीं बचाया जा  सकता. फिर वे किस आधार पर योजना के खिलाफ आंदोलनरत युवाओं को 'फर्जी राष्ट्रवादियों' से सावधान रहने की नसीहत दे रहे हैं?         

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके पितृ-संगठन और 'नवरत्नों' के सेना के बारे विचित्र विचार सबके सामने रहते हैं - व्यापारी सैनिकों से ज्यादा खतरा उठाते हैं, भारत की सेना के पहले ही आरएसएस की सेना शत्रु के खिलाफ मोर्चे पर पहुंच जाएगी और फतह हासिल कर लेगी, शत्रु की घातों को नाकाम करने के लिए बंकरों को गाय के गोबर से लीपना चाहिए, सैनिकों को प्रशिक्षण और अभ्यास की जगह वीरता बनाए रखने के लिए गीता-रामायण का नियमित पाठ करना चाहिए, शत्रु को मुंह-तोड़ जवाब देने के लिए इतने इंच का सीना होना चाहिए, इतने सिरों का बदला लेने के लिए शत्रु के इतने सिर लेकर आने चाहिए, आरएसएस/भाजपा राज में भारत फिर से महान और महाशक्ति बन चुका है, अब 'अखंड भारत' का सपना साकार करने से कोई नहीं रोक सकता ... और न जाने क्या-क्या! ऐसे निज़ाम से सेना, वीरता और युद्ध के बारे में किसी गंभीर विमर्श या पहल की आशा करना बेकार है.

 

लेकिन सेना के वरिष्ठतम अधिकारियों के बारे में क्या कहा जाए? यह सही है कि लोकतंत्र में सेना नागरिक सरकार के मातहत काम करती है. इस संवैधानिक कर्तव्य को बनाए रखने में ही सेना का गौरव है. हालांकि, महत्वपूर्ण और नाजुक मुद्दों पर कम से कम अवकाश-प्राप्त सैन्य अधिकारियों को समय-समय पर अपने विवेक से राष्ट्र को निर्देशित करना चाहिए. सरकार ने अग्निपथ भर्ती योजना की पैरवी के लिए बड़े सैन्य अधिकारियों को आगे किया है. निश्चित ही इस रणनीति का भावनात्मक वजन है. तीनों सेनाओं के प्रमुखों ने समस्त विरोध के बावजूद अग्निपथ भर्ती योजना की शुरुआत की घोषणा कर दी है. यह भी स्पष्ट कह दिया है कि योजना के विरोध के दौरान हिंसक गतिविधियों में शामिल युवाओं को अग्निवीर बनने का अवसर नहीं दिया जाएगा. उन्होंने इसे सैन्य अधिकारियों द्वारा सुविचारित योजना बताते हुए सेना में युवा जोश शामिल करने का तर्क दिया है. बेहतर होता उनके मुताबिक इस सुविचारित योजना के बन जाने के बाद उस पर थोड़ा पब्लिक डोमेन में भी विचार हो जाता. तब शायद योजना के हिंसक प्रतिरोध की नौबत नहीं आती.

 

सवाल उठता है कि अगर सेना में युवा जोश इतना ही जरूरी है कि उसके लिए हर चार साल बाद नया खून चाहिए, जैसा कि तीनों सेना प्रमुख एवं कुछ अन्य वरिष्ठ सैन्य अधिकारी कह रहे हैं, तो सेना की अफसरशाही में भी यह जोश दाखिल करना चाहिए. सेना के बड़े अफसरों को सब कुछ उपलब्ध है. वे स्वैच्छिक अवकाश लें और नए अफसरों को अपनी जगह लेने दें. नए अफसरों ने उनकी योग्य कमान में हर जरूरी जिम्मेदारी सम्हालने का प्रशिक्षण और कौशल हासिल किया ही होगा. वैसे भी वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के लिए सरकारों में कई महत्वपूर्ण पद इंतजार कर रहे होते हैं. निगम-भारत में कारपोरेट घराने भी उनका बढ़िया ठिकाना हो सकते हैं.

 

सैन्य अधिकारियों के साथ न्याय करते हुए यह माना जा सकता है कि इस योजना पर आग्रह बना कर वे केवल चुनी हुई सरकार के आदेश का पालन नहीं कर रहे हैं. योजना को उनका अपना भी सोचा-समझा समर्थन है. जिस तरह से देश का राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व नवउदारवाद का समर्थक है, उसका प्रभाव सैन्य नेतृत्व पर भी पड़ना स्वाभाविक है. जिस तरह सिविल मामलों में पुरानी व्यवस्था के तहत अपनी ताकत हासिल करने वाले अधिकारीगणों को संविदा-भर्ती में खटने वाले युवा-अधेड़ों की पीड़ा नज़र नहीं आती, उसी तरह सैन्य अधिकारियों को भी लग सकता है कि सेना का काम बिना दीर्घावधि सेवा (और उसके साथ जुड़ी सुविधाओं के) वाले सैनिकों से चल सकता है. तीनों सेनाओं के लेफ्टिनेंट जनरल अनिल पुरी, जो सैन्य मामलों के विभाग में अतिरिक्त सचिव हैं, ने गम्भीरात्पूर्वक बताया है कि उन्होंने अडानी, अम्बानी और कारपोरेट घरानों से अच्छी तरह बात कर ली है कि वे अग्निवीरों को अपने यहां नौकरी देंगे! यानि देश का युवा खून एक ऐसी सस्ती चीज़ है जिसे जो चाहे इस्तेमाल करके फेंक सकता है.     

 

अग्निपथ भर्ती योजना के खिलाफ आंदोलनरत युवाओं को क्या कहा जाए, कुछ समझ नहीं आता है. हमारी पीढ़ी के लोग उनके अपराधी हैं. यही कहा जा सकता है कि उनका आंदोलन सही है, हिंसा नहीं. कई युवा आन्दोलनकारियों ने किसान आंदोलन का हवाला दिया है. उनकी स्थिति ऐसी नहीं है कि वे एक और लम्बा आंदोलन खड़ा कर सकें. उन्हें समझना होगा कि किसान आंदोलन की फसल भी नवउदारवादी काट कर ले गए. किसान आंदोलन के दौरान जिन लोगों पर मुकद्दमे दायर हुए थे, उन्हें अभी तक वापस नहीं लिया गया है. आपके अभी दूध के दांत हैं, और सरकार ने आपके सामने सेना को खड़ा कर दिया है, जिसका आदेश है कि प्रत्येक आकांक्षी को लिख कर देना होगा कि वे हिंसक प्रतिरोध में शामिल नहीं थे. आप में जिनके खिलाफ मामले दर्ज हो चुके हैं, वे अपने कैरियर की फ़िक्र करें. जो आपको 'अपने बच्चे' बताते हैं या जो अग्निपथ योजना का विरोध और आपका समर्थन करने वाले हैं, आपके भविष्य के साथी बनेंगे, ऐसा नहीं लगता है. आपके सामने पूरा भविष्य पड़ा है.

 

(समाजवादी आन्दोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं)

Tuesday, May 31, 2022

क्या बह जाएंगे भारतीय संविधान और राष्ट्र?-प्रेम सिंह


करीब पिछले तीन-चार दशकों से भारत सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना हुआ था। इस दौरान संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता का मूल्य राजनीतिक सत्ता के गलियारों में इधर से उधर ठोकरें खाने के लिए अभिशप्त हो चुका था। 20वीं सदी के अस्सी और नब्बे के दशक में पूरे आसार बन चुके थे कि समाज किसी भी नाजुक मोड़ पर सांप्रदायिकता की बाढ़ में बह सकता है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में वह मोड़ आया, और देखते-देखते समाज सांप्रदायिकता की तेज बाढ़ में बहने लगा।

 

समाज देर तक सांप्रदायिकता की बाढ़ में बहता है, तो राष्ट्र के तौर पर उसके सभी निर्धारक अंग – विधायिका, कार्यपालिका, न्याय-पालिका एवं विभिन्न संवैधानिक लोकतांत्रिक संस्थाएं - उसकी चपेट में आते हैं; इन सबको संचालित करने वाली राजनीति सांप्रदायिक दांव-पेच का अखाड़ा बन जाती है; ‘लोकतंत्र का चौथा खंभा’ अपनी धुरी से उखड़ जाता है; धर्म विद्रूप हो जाता है; दर्शन और कलाएं पनाह मांगती घूमती हैं; बौद्धिक विमर्श प्राय: स्वार्थी और कलही हो जाता है; और नागरिक जीवन घृणा, वैमनस्य, अविश्वास और भय से ग्रस्त हो जाता है। किसी भी समाज के स्वास्थ्य के लिए यह बेहद बुरी स्थिति है। इसलिए सांप्रदायिकता की बाढ़ को रोकने के उपाय किए ही जाने चाहिए।

 

काशी और मथुरा विवादों के मद्देनजर  सांप्रदायिक बाढ़ में और पानी छोड़ने की तैयारी हो चुकी है। संविधानविद और संविधानवादी ताहिर महमूद ने आशा जताई है कि प्रमुख पूजा-स्थलों पर मुसलमान अपना दावा छोड़ कर समाज में शांति बहाली की दिशा में भूमिका निभाएं। (‘वी दि पीपुल’, इंडियन एक्सप्रेस, 28 मई 2022) महबूबा मुफ्ती ने एक सुझाव रखा  है : “अगर मस्जिदों को लेने से समस्याएं हल होती हैं, तो उन्हें लेने दो।“ (इंडियन एक्सप्रेस, 12 मई 2022) लेकिन मामला उतना सीधा नहीं बचा है। आरएसएस/भाजपा नेताओं के जो बयान आए हैं, उससे स्पष्ट है कि “यह बाबरी-मस्जिद राममंदिर विवाद को दोहराने की साजिश” नहीं, खुला ऐलान है।

 

आरएसएस प्रमुख घोषणा कर चुके हैं कि भारत ‘हिंदू-राष्ट्र’ बन चुका है। उनका विश्वास है अगले 15-20 साल में अखंड भारत भी स्थापित हो जाएगा। अखंड भारत की बात फिलहाल जाने दें, ‘हिंदू-राष्ट्र’ के अपने घोषित तकाजे हैं। इसके तहत हजारों साल पहले की ‘सच्चाईयों’ को सामने लाना है, और ‘गलतियों’ को ठीक करना है। यह सूची बहुत लंबी है – मस्जिदों के साथ ऐतिहासिक इमारतों पर हिंदू-दावा करना, शहरों-कस्बों-गांवों-सड़कों-उद्यानों-स्टेशनों आदि के मुस्लिम नामों को बदलना, सभ्यता-संस्कृति-कला-साहित्य-भाषा-लिपि आदि के स्तर पर हुए आदान-प्रदान का शुद्धिकरण करना, सनातन धर्म के नाम पर हिंदू धर्म की विविध धाराओं को नकार कर एकरूपता कायम करना, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों को उस एकरूप हिंदू धर्म में समायोजित करने के प्रयास तेज करना, सामान्य नागरिक संहिता के नाम पर मुसलमानों को लक्ष्य करके कानून बनाना, आजादी की लड़ाई का विरोध और अंग्रेजों का समर्थन करने वाले अपने पुरोधा-पुरुषों को ‘हिंदू-राष्ट्र’ के पक्ष में दूरदृष्टि वाला बता कर उनका महिमा-मंडन करना, उपयुक्त मौका आने पर गांधी, अंबेडकर जैसे नेताओं के बोझ को उतार फेंकना ... यह सूची काफी लंबी है। और अंतत: संविधान को पूरी तरह बदल देना। ऐसा नहीं है कि आरएसएस यह सब करने में कामयाब हो जाएगा। यह सब राजनीतिक-सत्ता और धन-सत्ता के मद में की गई फू-फां है। लेकिन इस सब के चलते भारत का भविष्य लंबे समय तक अनेक सांप्रदायिक विवादों से भरा रहेगा।

 

विवादों को खुले अथवा छिपे रूप में हवा देने वाले विद्वानों की भी कमी नहीं रहेगी। हाल में समाजशास्त्री बदरी नारायण ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वस्तुत: सांप्रदायिक विद्वेष, गलत बयानी और वंचना की पूंजी को जनता के विश्वास की पूंजी घोषित किया है। (‘दि ट्रस्ट वोट’, इंडियन एक्सप्रेस 25 मई 2022) इतिहास के विद्वान एम राजीवलोचन ने यह ठीक कहा है कि मुसलमानों द्वारा हिंदू धर्म-स्थलों के ध्वंस की सच्चाई सामने आने पर कुछ लोग हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्म-स्थलों के विध्वंस के हवाले देने लगते हैं। (‘वायलेंस ऑफ मोनोथीज़्म’, इंडियन एक्सप्रेस, 28 मई 2022) लेकिन वे यह नहीं कहते कि अतीत की इस तरह की घटनाओं की जानकारी के बावजूद स्वतंत्र भारत को उसके नेताओं ने धर्मनिरपेक्ष रखने का फैसला किया था; और अतीत के झगड़ों को छोड़ कर भारत की गरिमा को नए विश्व में नए मूल्यों के आधार पर स्थापित करने का आह्वान किया था। बल्कि वे बताने लगते हैं कि हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्म-स्थलों के विध्वंस की केवल छिट-पुट घटनाओं के ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं। जबकि मुसलमान आक्रांताओं ने 11वीं सदी से 17वीं सदी तक हिंदुओं के नरसंहार, धर्म-स्थलों के ध्वंस और मूर्तियों की बेअदबी का सिलसिला बनाए रखा, जब तक कि मराठों ने उन्हें रोक नहीं दिया।

 

साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मुझे आश्चर्य है कि 700 सालों के उस भयानक दौर में अखिल भारतीय स्तर पर इतना विविध और समृद्ध भक्ति-आंदोलन और उससे प्रसूत साहित्य कैसे संभव हो गया! भक्ति-साहित्य का आधार लेकर नाट्य, अभिनय, सज्जा, गायन, वादन आदि से भरपूर रामलीलाएं, रासलीलाएं, यक्षगान, बाउलगान आदि अनेक लोक कलाएं और कई शास्त्रीय कलाएं कैसे अनवरत फलती-फूलती रहीं! भक्ति-आंदोलन को दार्शनिक आधार प्रदान करने वाला वल्लभाचार्य (शुद्धाद्वैतवाद), रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैतवाद), मध्वाचार्य (द्वैतवाद) निंबार्क आचार्य (द्वैताद्वैत) का दर्शन कैसे फलीभूत और प्रचलित हो गया! यह उल्लेख मैंने इसलिए किया है कि लेखक यह कहता है कि भारत में अद्वैतवादी अथवा एकत्ववादी ब्रह्म-चिंतन की मजबूत धारा नहीं रही है। जबकि उपर्युक्त चारों दार्शनिकों का दर्शन अद्वैत एवं द्वैत की परस्पर रगड़ से पैदा होता है। भक्तिकाल के सभी निर्गुणवादी और प्रेमाख्यानवादी (सूफी) कवि एकत्ववाद को मानने वाले हैं। तुलसीदास सगुणवादी हैं, लेकिन उन्होंने सगुण-निर्गुण में भेद नहीं मानने की सलाह दी है। यहां उल्लिखित दार्शनिकों के अलावा 8वीं सदी में शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत का दर्शन विख्यात है, जिसकी परंपरा रामकृष्ण परमहंस और उनके आगे विवेकानंद में मिलती है। विद्वान यह भी मानते हैं कि इस्लाम की एकेश्वरवाद की अवधारणा उपनिषदों और बाद के भारतीय अद्वैतवादी दर्शन की देन है।  

 

लेख से यह ध्वनि भी निकलती है कि आरएसएस/भाजपा भारत में बहुदेववाद को प्रश्रय देने वाले हैं। जबकि आरएसएस/भाजपा का न बहुदेववाद से कोई गंभीर रिश्ता है, न एकत्ववाद से। लेखक ने एकत्ववाद-बहुदेववाद का प्रश्न उठाने के बावजूद यह समझा ही नहीं है कि दर्शन और भक्ति की दुनिया में कुंठित एवं पराजित मानसिकता के लोग प्रवेश नहीं कर सकते। लेखक मध्यकाल से इक्कीसवीं सदी तक चला आया है, और इस्लामी आतंकवादियों/तालीबान के हवाले से इस्लाम की मूलभूत कट्टरता का प्रतिपादन करता है। यह सही है कि कई विद्वान इस्लाम के बारे में यह मान्यता रखते हैं। यह भी सही है कि भारत में कुछ ऐसे कट्टर मुस्लिम हैं, जो दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णुता और हीनता का नजरिया रखते हैं। यह भी सही है कि भारत से, भले ही नगण्य संख्या में, मुस्लिम युवक दूसरे देशों में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा खिलाफत कायम करने के जिहाद में शामिल हुए हैं। यह भी सही है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की मांग करने वाले बहुत से मुसलमान इस्लामी देशों के धर्माधारित राज्यों को स्वाभाविक और सही मानते हैं।

 

लेकिन क्या यह संख्या उन कट्टर हिंदुओं से अधिक है, जिन्होंने देश की राजधानी में हजारों सिखों का कत्ल कर डाला था? जिन्होंने गुजरात में मुसलमानों के राज्य-प्रायोजित नरसंहार और बच्चियों-महिलाओं के बलात्कार में गर्व-पूर्वक हिस्सा लिया था? जो राम-मंदिर आंदोलन के समय से लेकर आज दिन तक मुसलमानों को अपशब्द कहने, भीड़-हत्या करने से नहीं हिचकते, उन्हें गोली मारने, उनके खिलाफ हथियार उठाने, मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार करने का आह्वान करते हैं? जिन्होंने ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जिंदा जल दिया था, जो जब-तब गिरजाघरों में जाकर तोड़-फोड़ मचा देते हैं। अगर हिंदू समाज के बारे में यह सही है कि वह बड़े पैमाने पर कट्टरपंथी नहीं हो सकता, तो भारत के मुस्लिम समाज के बारे में भी यह सही है।

 

दरअसल, स्वतंत्रता आंदोलन और संविधान के मूल्यों के परे जाकर भारत का एक “साभ्यतिक राज्य” के रूप में बखान करने वाले विद्वानों के भाषणों (‘आइडिया ऑफ इंडिया : बिफोर एण्ड बिऑन्ड’ शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित, इंडियन एक्सप्रेस, 24 मई 2022) की अकादमिक परीक्षा करने से पहले, उनकी मानसिकता को समझने की जरूरत है। ये लोग सांप्रदायिक मानसिकता में लिथड़ी किसी घटना पर मुंह नहीं खोलते। लेकिन अपने को परिवार और समाज में सभ्य दिखाने की कोशिश में महान सभ्यता का वाहक होने का भ्रम पालते हैं। यह सर्वविदित है कि परंपरागत भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर देश-विदेश के विद्वानों द्वारा आलोचनात्मक सराहना के साथ काफी महत्वपूर्ण काम हुआ है। इन लोगों को अपनी कुंठा से मुक्त होकर वह काम देखना चाहिए, और भाषणबाजी की जगह शोध की वैश्विक स्तर पर निर्धारित पद्धति का निर्वाह करते हुए भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर अपना काम करना चाहिए।

 

डॉ. लोहिया की चेतावनी थी कि हिंदू धर्म की कट्टरवादी धारा के वाहक अगर जीत जाएंगे तो भारतीय राष्ट्र के टुकड़े कर देंगे। आज की सांप्रदायिक ताकतों ने भारतीय राष्ट्र को अंदर से काफी हद तक तोड़ दिया है। वह बाहर से नहीं टूटे, और अंदर की टूट जल्द से जल्द से दूर हो, ऐसा प्रयास सभी को करना चाहिए। यह कैसे होगा इस सवाल का बना-बनाया उत्तर शायद ही किसी के पास हो। अलबत्ता, जो भी यह काम करेंगे उनका कट्टरता की कैद से मुक्त होना जरूरी है।

 

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय अध्ययन संस्थान के पूर्व फ़ेलो हैं   

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

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