Monday, September 16, 2019

कारपोरेट राजनीति के बदलाव का गांधीवादी तरीका-प्रेम सिंह



लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजे आने पर कई संजीदा साथियों ने गहरी चिंता व्यक्त की कि नरेंद्र मोदी की एक बार फिर जीत संविधान और लोकतंत्र के लिए बहुत बुरा संकेत है. पिछले पांच सालों के दौरान धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील साथियों से यह बात अक्सर सुनने को मिलती है कि हम बहुत बुरे समय से गुजर रहे हैं; संकट बहुत गहरा है; संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन किया जा रहा है; अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है; पूरा देश भगवा फासीवाद से आक्रान्त है; प्रतिरोध की शक्तियां कमजोर हो गयी है ... . इन उद्गारों के साथ जनवादी शक्तियों को एकजुट कर संघर्ष तेज करने का आह्वान किया जाता है. जनवादी शक्तियों की एकजुटता और संघर्ष के स्वरूप को लेकर विभिन्न विचारधारात्मक समूहों की अपनी-अपनी मान्यताएं और प्रयास हैं. वे निरंतर चलते रहते हैं. इस सबके बावजूद नरेंद्र मोदी लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ चुनाव जीत गए, तो संकट को थोड़ा और गहराई से समझने की जरूरत है. संकट को सही रूप में समझ कर ही उसके समाधान का रास्ता निकाला जा सकता है.  

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) लोकतंत्र के रास्ते सत्ता में आई है. यूं तो लोकतंत्र संविधान के तीन आधारभूत मूल्यों - समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र - में परिगणित है, लेकिन वह एक प्रणाली और दृष्टि (विज़न) भी है. इस प्रणाली के तहत केंद्र और राज्यों की सरकारों, पंचायतों और नगर निकायों, तरह-तरह के मजदूर-कर्मचारी-अधिकारी संगठनों, किसान संगठनों, छात्र संगठनों, सामाजिक संगठनों, संस्थाओं, न्यासों, राजनीतिक पार्टियों आदि के चुनाव होते हैं. नीतियां एवं कानून बनाने तथा न्याय की प्रक्रिया में लोकतांत्रिक पद्धति अपनाई जाती है. इसीलिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की संस्थाओं समेत राज्य और नागरिक जीवन की समस्त संस्थाओं को लोकतांत्रिक संस्थाएं कहा जाता है. ज़ाहिर है, देश की समूची गतिविधियां लोकतंत्र के तहत लोकतांत्रिक दृष्टि से संचालित होनी चाहिए. समझने की जरूरत यह है कि लोकतंत्र की ताकत पर पलने वाली मौजूदा दौर की कारपोरेट राजनीति ही भारत के संविधान और लोकतंत्र लिए बुरा संकेत है. मोदी की राजनीति देश में चलने वाली कारपोरेट राजनीति की एक उग्र बानगी भर है.   

प्रचलित कारपोरेट राजनीति भारतीय संविधान की आधारभूत संकल्पना एवं मान्यताओं की कसौटी पर अवैध ठहरती है. कहने की जरूरत नहीं कि इस राजनीति की जगह संविधान सम्मत नई राजनीति की जरूरत है, जिसे लोकतंत्र की ताकत से स्थापित किया जाए. यानी लोकतंत्र की ताकत को एक नई संविधान-सम्मत राजनीति खड़ा करने की दिशा में सक्रिय बनाया जाए. लोकतंत्र को संवैधानिक रूप से अवैध राजनीति का जरिया बनाने वाला राजनीतिक नेतृत्व इस उद्यम के लिए तैयार नहीं होगा. यह एक बड़ी समस्या है. लेकिन इससे बड़ी समस्या यह है कि भारत का बौद्धिक वर्ग (इंटेलिजेंसिया) अभी भी मौजूदा राजनीति के विकल्प की जरूरत नहीं समझता. बल्कि मौका पड़ने पर वह कारपोरेट राजनीति के बरक्स वैकल्पिक राजनीति के विचार को अपदस्थ करने में गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) के कर्ताओं जैसी तत्परता दिखाता है. लाखों किसानों की आत्महत्याओं, असंख्य मजदूरों की छंटनी, बेरोजगारों की अपार भीड़ के बावजूद देश का एक भी नामचीन विद्वान निर्णायक रूप से यह कहने को तैयार नहीं है कि देश से कारपोरेट राजनीति का खात्मा होना चाहिए.        

2.

जिस लोकसभा चुनाव 2019 में भाजपा-विरोधी विपक्ष की हार पर गहरी चिंता जताई गई, और विश्लेषण प्रस्तुत किये गए, वह चुनाव दरअसल विपक्ष की तरफ से लड़ा ही नहीं गया. भाजपा ने 2014 में पूर्ण बहुमत में आने के एक साल के भीतर 2019 के चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी. जबकि राष्ट्रीय स्तर के चुनाव में विपक्ष अंतिम समय तक पूरी तरह बिखरा हुआ और अनिर्णय की स्थिति में बना रहा. सरकार की कारपोरेट-सेवी आर्थिक नीतियों और अर्थव्यवस्था को लेकर किये गए लालबुझक्कड़ फैसलों के परिणामस्वरूप किसानों, मजदूरों, छोटे-मंझोले  व्यापारियों और बेरोजगार नौजवानों में जो स्वाभाविक असंतोष पैदा हुआ था, उसे विपक्ष के ढुलमुलपन और निठल्लेपन ने निरर्थक बना दिया. 1991 में निजीकरण-उदारीकरण की शुरुआत करने वाली कांग्रेस को लगता था कि जैसे निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों से उपजने वाले असंतोष का फायदा उठा कर वाजपेयी की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार बनी, उसके बाद मनमोहन सिंह की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार बनी, और मोदी की भाजपा के पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी; उसी तरह मोदी सरकार के बाद कांग्रेस की सरकार बनेगी. कारपोरेट राजनीति की इस कार्य-कारण श्रृंखला में विश्वास के चलते कांग्रेस मोदी सरकार के दो कार्यकालों के लिए भी तैयार थी. लेकिन बिना परिश्रम के तीन राज्यों में सरकार बन जाने पर उसे 2019 में ही सत्ता में लौटने का लालच हो गया.    

लेकिन मोदी सरकार ने अपना हिंदू-राष्ट्र का आख्यान 'अभी नहीं तो कभी नहीं' की टेक पर तेज कर कारपोरेट राजनीति की इस कार्य-कारण श्रृंखला को भंग कर दिया. हड़बड़ाई कांग्रेस ने हिंदू-राष्ट्र के रास्ते पर कदम रखा, जिसे निष्फल होना ही था. केवल लोकतंत्र की ताकत के बूते सत्ता में आने वाले क्षेत्रीय क्षत्रपों ने उसी लोकतंत्र की हत्या करके अपनी साख काफी पहले गिरा ली थी. उनमें से कुछ अपने राज्यों में जीतने में कामयाब भले रहे, लेकिन कुल नतीज़ा केंद्र में एक बार फिर भाजपा की पूर्ण बहुमत सरकार के रूप में सामने आया. इस चुनाव ने यह सिद्ध कर दिया कि कारपोरेटपरस्त आर्थिक नीतियों से पैदा होने वाले जन-असंतोष की काट हिंदू-राष्ट्र(वाद) है. यह स्वयंसिद्ध है कि इस परिघटना का तात्कालिक और दूरगामी फायदा सबसे ज्यादा भाजपा को मिलता रहेगा. भले ही भगवा फासीवाद के खिलाफ कितने ही हवाई फायर किए जाते रहें!    

इस रास्ते पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)/भाजपा के तरकश में अभी बहुत तीर बाकी हैं. अयोध्या के बाद काशी और मथुरा की बारी की घोषणा अक्सर सुनने को मिलती है. इनके अलावा अन्य छोटे-मोटे मंदिर-मस्जिद विवाद ढूंढ निकालने में दिक्कत नहीं होगी. अभी औरंगजेब का नाम दिल्ली की सड़क से हटाया गया है, कल को औरंगाबाद स्थित उनका मकबरा हटाने की बात हो सकती है. औरंगजेब के बाद अकबर और उनके बाद किसी अन्य मुस्लिम शासक की बारी आ सकती है. फिलहाल यह दूर की कोड़ी लगती है, लेकिन वाजपेयी के बाद के आरएसएस/भाजपा का जो चेहरा और चरित्र सामने आया है, उसके चलते यह असंभव नहीं होगा. गाय तो है ही - वह सताई भी जाएगी, काटी भी जाएगी, और हिंदू-राष्ट्र के लिए लगातार दुही भी जाएगी. आरएसएस/भाजपा के हिंदू-राष्ट्र का उपभोक्तावादी पूंजीवादी व्यवस्था के साथ पूर्ण मेल बैठ गया है. अगर वैश्विक पूंजीवादी सत्ता-प्रतिष्ठान को भारत में अपने अस्तित्व के लिए वाकई किसी कोने से कोई संकट अनुभव होगा तो वह सीधे अपने तरकश से कुछ तीर चला सकता है. मसलन, भारत को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता प्रदान करना, ओलंपिक खेल आयोजित करने की अनुमति देना, पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकार किसी नेता को नोबल शांति जैसा कोई पुरस्कार देना ... आदि. मुझे लगता है, हालांकि यह एक अंदाज़ ही है, कि नरेंद्र मोदी ने गांधी को इसीलिए उठाया हुआ है कि उन्हें शांति का नोबल पुरस्कार मिल सके. ध्यान रहे, कॉर्पोरेट राजनीति के दौर में शिक्षा का अर्थ और शिक्षण व्यवस्था को इस कदर अवमूल्यित किया जा रहा है कि समाज से संवैधानिक और मानव-मूल्यों के पक्ष में सच्ची आवाज़ पैदा ही न हो सके. समाज में अन्तर्निहित सहनशीलता और भाईचारे की जो परंपरा रही है, उसे पिछले तीन दशकों का बाज़ारवाद पहले ही बहुत हद तक छिन्न-भिन्न कर चुका है.      

3.

अभी भी नागरिक समाज के बहुत से लोग सोशल मीडिया पर मोदी और उनके भक्तों के खिलाफ लड़ाई छेड़े हुए हैं. चुनाव के दौरान और चुनाव के पहले भी वे यह काम पूरी शिद्दत के साथ कर रहे थे. उनका मोदी-विरोध अक्सर चुटकुलों के रूप में सामने आता है. मोदी को यह स्थिति माफिक आती है - चुनाव में चुनौती न मिले, चुटकुलों में भले ही मिलती रहे! बुद्धिजीवियों का विरोध भी फुटकर किस्म का है. मोदी जो कहते और करते हैं, उस पर बुद्धिजीवी प्रतिक्रिया करते हैं. वह भी ज्यादातर किसी राजनीतिक पार्टी अथवा नेता का पक्ष लेकर. फासीवाद के बरक्स लोकतंत्र की वकालत करते वक्त भी उनकी बात में दम नहीं आ पाता. क्योंकि वे चयनित (सेलेक्टिव) तरीके से यह करते हैं. भारत के पड़ोस का ही एक उदाहरण लें. पिछले दिनों चीन के वर्तमान राष्ट्रपति ने उम्र भर के लिए राष्ट्रपति बने रहने का फैसला ले लिया. भारत के फासीवाद विरोधी बुद्धिजीवियों में से शायद ही किसी ने इस फैसले का विरोध अथवा आलोचना की हो. 4 जून 2019 को चीन के थ्येनमन चौक की घटना के तीस साल होने पर दुनिया भर के मानव अधिकार/नागरिक अधिकार संगठनों ने हमेशा की तरह चीनी नेतृत्व की आलोचना की. लेकिन भगवा फासीवाद के विरुद्ध लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की वकालत करने वाले बुद्धिजीवियों ने तीस साल बाद भी उस घटना का नोटिस नहीं लिया. कहने का आशय यह है कि फुटकर किस्म के असम्बद्ध और चयनित विरोध से संविधान और लोकतंत्र की पुनर्बहाली नहीं की जा सकती. बल्कि यह एक शगल जैसा बन गया है, जो परिवर्तनकारी जनचेतना को उलझाए रखता है और मुकम्मल निर्णय तक नहीं पहुंचने देता.

उपनिवेशवाद के खिलाफ आज़ादी का संघर्ष तभी गतिमान और फलीभूत हुआ, जब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आज़ादी के हक़ में समग्र रूप से निर्णायक फैसला हो गया. नवउपनिवेशवाद का चरित्र और शिकंजा उपनिवेशवाद से ज्यादा जटिल है. इसमें किसी देश के राष्ट्रीय संसाधनों के साथ राष्ट्रीय जीवन को देश का शासक वर्ग ही साम्राज्यवादी कब्जे में दे देता है. इस तरह कारपोरेट राजनीति नवउपनिवेशवादी सत्ता-सरंचना के हथियार के रूप में काम करती है. भारत में भी कारपोरेट राजनीति नवउपनिवेशवादी सत्ता-सरंचना का हथियार है. नवउपनिवेशवाद से मुक्ति का लक्ष्य तभी हासिल हो सकता है, जब उसे हासिल करने के लिए देश में समग्र रूप से निर्णायक फैसला हो. लेकिन भारत के नागरिक समाज एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवी नवउपनिवेशवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही अपनी विरोधी भूमिका निभा कर संतुष्ट रहते हैं. वे उसके बाहर आकर उसे चुनौती देने की भूमिका नहीं लेते. मनमोहन सिंह ने बतौर वित्तमंत्री नब्बे के दशक के शुरू में ही चुनौती फेंकी थी कि मुक्त अर्थव्यवस्था का कोई विकल्प हो तो नई आर्थिक नीतियों के विरोधी उसे सामने लाएं. अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह की यह चुनौती आज तक अनुत्तरित है. केवल इतनी बात नहीं है कि भारत के बुद्धिजीवी नवउपनिवेशवाद यानी उच्च पूंजीवाद के दायरे में उपलब्ध विशेष सुविधाओं को नहीं छोड़ना चाहते. दरअसल, उन्हें कोई ऐसी अर्थव्यवस्था और विकास का मॉडल स्वीकार्य नहीं है, जो पूंजीवाद के रास्ते हो कर नहीं गुजरता हो. अगर ऐसा नहीं होता तो भारत के अभिजात तबके के साथ जनसाधारण इस अर्थव्यवस्था और विकास के पीछे पागल नहीं हुआ होता.

यहां एक बात की ओर और ध्यान दिया जा सकता है. ये बुद्धिजीवी व्यवस्था के भीतर अपनी भूमिका रख कर मुख्यधारा मीडिया में जगह बनाए रहते हैं. बल्कि केवल अंग्रेजी में लिखने-बोलने के बावजूद जनता के बुद्धिजीवी (पब्लिक इंटेलेक्चुअल) भी कहलाते हैं. जबकि इस व्यवस्था का निर्णायक रूप से विरोध करने वाले जो थोड़े से बुद्धिजीवी देश में हैं, उनके लिए मुख्यधारा मीडिया में जगह लगभग ख़त्म हो गई है. यहां तक कि ज्यादातर सोशल मीडिया/न्यू मीडिया/वैकल्पिक मीडिया में भी उनका पूरी तरह स्वागत नहीं होता.        

4.

गांधी ने साधारण भारतीय जनता की शक्ति को संगठित करके उस दौर की सभी धाराओं और स्वरों को आज़ादी के लक्ष्य के प्रति समर्पण के लिए बाध्य कर दिया था. नक्कू तत्वों ने देश को तोड़ने की हद तक नुकसान पहुंचाया, लेकिन वे आज़ादी को रोक नहीं सके. नवउपनिवेशवाद से आज़ादी की सूरत तभी बन सकती है, जब साधारण भारतीय जनता की एकजुट शक्ति नागरिक समाज, बुद्धिजीवी और नेताओं को उस लक्ष्य के प्रति बाध्य करे. उपनिवेशवादी दौर में गांधी ने यह दुरूह कार्य किया था. हर दौर में गांधी का होना जरूरी नहीं है. अन्यायकारी व्यवस्था के खिलाफ गांधी की सिविल नाफमानी की कार्यप्रणाली हमारे पास है. यह सही है कि मोदी ने गांधी को अपने कब्जे में लिया हुआ है. उससे फर्क नहीं पड़ना चाहिए. मोदी-विरोधी खेमे में गांधी की भर्त्सना करने वाले बहुत से विद्वान हैं. गांधी के नाम पर कपट-व्यापार चलाने वाले विद्वान भी देश में शुरू से ही बहुत-से हैं. यह सब सिलसिला गांधी को लेकर चलता रहेगा.

नवउपनिवेशवाद से मुक्ति के सच्चे सिपाही गांधी की अन्याय के प्रतिरोध की कार्यप्रणाली से प्रेरणा ले सकते हैं. यहां अनिवार्यत: गांधीवादी विचारधारा/दर्शन को स्वीकारने से आशय नहीं है, अन्याय के प्रतिरोध की गांधी की कार्यप्रणाली - तरीके - से आशय है. डॉ. राममनोहर लोहिया ने इसके बारे में लिखा है, "अत: हमारे युग की सबसे बड़ी क्रांति कार्यप्रणाली की है, एक ऐसी कार्यपद्धति के द्वारा अन्याय का विरोध जिसका चरित्र न्याय के अनुरूप है. यहां सवाल न्याय के स्वरूप का उतना नहीं है जितना उसे प्राप्त करने के उपाय का. वैधानिक और व्यवस्थित प्रक्रियाएं अक्सर काफी नहीं होतीं. तब हथियारों का इस्तेमाल उनका अतिक्रमण करता है. ऐसा न हो, और मनुष्य हमेशा वोट और गोली के बीच ही भटकता न रहे, इसलिए सिविल नाफ़रमानी की कार्यप्रणाली संबंधी क्रान्ति सामने आई है. हमारे युग की क्रांतियों में सर्वप्रमुख है हथियारों के विरुद्ध सिविल नाफ़रमानी की क्रांति, यद्यपि वास्तविक रूप में यह क्रांति अभी तक कमजोर रही है." (मस्तराम कपूर, संपा., 'मार्क्स गांधी और समाजवाद', राममनोहर लोहिया रचनावली, खंड 1, पृ. 137, अनामिका पब्लिशर्स, दिल्ली, 2008) नवउपनिवेशवाद के शिकंजे में फंसे साधारण भारतीय जनता को एकजुट करने में यह कार्यप्रणाली कारगर हो सकती है. तब यह भी हो सकता है कि जनता के दबाव में देश के बुद्धिजीवी/अर्थशास्त्री एक ऐसी अर्थव्यवस्था और विकास के मॉडल के स्वीकार और निर्माण का कार्यभार अपने ऊपर लें, जो ऊपर से नीचे नहीं, नीचे से ऊपर विकसित होता हो.

यह सही है कि उपभोक्तावादी पूंजीवाद ने अपने मजबूत और सर्वव्यापी नेटवर्क द्वारा भारत सहित पूरी दुनिया के लोगों के दिलों पर कब्ज़ा जमाया हुआ है. उनके दिलों पर भी, जिनके नागरिक अधिकारों, यहां तक की जीवन अधिकार की कीमत पर यह व्यवस्था चलती है. आम तौर पर देखा गया है कि इस व्यवस्था के अगुआ और लाभार्थी मनुष्य होने की स्वाभाविक स्वतंत्रता की कीमत पर ज्यादा से ज्यादा सुखी होने की स्वतंत्रता के पीछे दीवाने होते हैं. किशन पटनायक ने एक जगह लिखा है कि धन और सुविधाओं से लैस लोग सुखी भी हैं, या कितने सुखी हैं, इसमें संदेह की गुंजाइश है. उपनिवेशवाद के तहत भी लोगों के दिलों पर आधिपत्य और व्यामोह की मोटी परत जमी थी. स्वतंत्रता आंदोलन के विभिन्न चरणों और उनमें सक्रिय विविध धाराओं ने उस परत को तोड़ कर उपनिवेशित लोगों के दिलों को मुक्त किया था. लोगों के ह्रदय परिवर्तन का यह महान काम सबसे ज्यादा गांधी ने किया. लोहिया ने गांधी की ह्रदय परिवर्तन की धारणा की समीक्षा नए ढंग से परिवर्तन की राजनीति के संदर्भ में की है. लोहिया का कथन है, "गांधी ने स्मट्स, इरविन और बिरला के ह्रदय परिवर्तन में मात्र एक साल लगाया, जबकि उन्होंने अपने जीवन के 40 से ज्यादा साल दुनिया के करोड़ों लोगों के हृदयों में साहस भरने, और इस तरह उनका ह्रदय बदलने में लगाए." (डॉ. राममनोहर लोहिया, 'मार्क्स, गांधी एंड सोशलिज्म', पृ. 156, समता विद्यालय न्यास, हैदराबाद, 1963)

गांधी ने उपनिवेशवाद से मुक्ति का विचार भारतीयों के साथ-साथ उपनिवेशित दुनिया के करोड़ों लोगों के दिलों में पैदा कर दिया था. उपनिवेश कायम करने वाले देशों के लोगों के दिलों को भी कुछ हद तक गांधी के इस प्रयास ने छुआ था. उनकी हत्या के बाद भी पूरी दुनिया के स्तर पर उनका सिविल नाफ़रमानी और ह्रदय परिवर्तन का विचार उन लोगों/समूहों को प्रेरणा देता रहा, जिनकी मनुष्य अथवा नागरिक होने की स्वतंत्रता का हनन किया गया था. गांधी से प्रेरणा लेकर नवउपनिवेशवादी शिकंजे से मुक्ति का विचार आज भी भारत सहित पूरी दुनिया के लोगों के दिलों में जगह बना सकता है.  

(लेखक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)

Tuesday, August 6, 2019

जम्मू-कश्मीर पर सरकार का फैसला : कुछ तात्कालिक विचार- प्रेम सिंह



अब जम्मू-कश्मीर का संविधान की धारा 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा समाप्त हो गया है. साथ ही धारा 370 से जुड़ा आर्टिकल 35ए भी निरस्त हो गया है. फैसले के मुताबिक जम्मू-कश्मीर पूर्ण राज्य भी नहीं रहेगा. पूरा क्षेत्र दो केंद्र शासित इकाइयों - जम्मू-कश्मीर (विधानसभा सहित) और लद्दाख (विधानसभा रहित) - में बांट दिया गया है. सरकार ने कश्मीर की जनता को सभी तरह के संपर्क माध्यमों से काट कर और राजनैतिक नेतृत्व को नज़रबंद करके कल राज्यसभा और लोकसभा में 'जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन विधेयक, 2019' और राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित आधिकारिक संकल्पों (ऑफिसियल रिजोलूशंस) को पारित कर दिया. सरकार के इस फैसले के कंटेंट और तरीके को लेकर पूरे देश में बहस चल रही है.

बहस करने वालों की तीन कोटियां हैं : पहली समर्थकों की है जो भावनाओं के ज्वार में है और सरकार के फैसले के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं. दूसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो फैसले को सही लेकिन तरीके को गलत मानते हैं. तीसरी कोटि उन लोगों की है जो फैसले और तरीके दोनों को गलत बता रहे हैं. यहां इसी कोटि को ध्यान में रख कर सरकार के फैसले पर कुछ विचार व्यक्त किये गए हैं. इस कोटि के लोगों ने संविधान और लोकतंत्र के आधार पर ठीक ही सरकार के कदम को गलत बताया है. लेकिन संविधान और लोकतंत्र का आधार लेते वक्त वे यह नहीं स्वीकारते कि पिछले 30 सालों के नवउदारवादी दौर के चलते संविधान और लोकतंत्र जर्जर हालत में पहुंच चुके हैं.

भाजपा का भारतीय जनसंघ के ज़माने से ही धारा 370 समाप्त करने, सामान नागरिक संहिता लागू करने और बाबरी मस्जिद की जगह राममंदिर बनाने का एजेंडा रहा है. लेकिन संविधान और लोकतंत्र की ताकत के चलते वह ऐसा नहीं कर सकी. 1991 में खुद कांग्रेस ने नई आर्थिक नीतियों के नाम से उदारीकरण की शुरुआत करके संविधान को कमजोर करने की शुरुआत कर दी थी. (जम्मू-कश्मीर के विषय में संविधान की तोड़-मरोड़ का काम पहले से ही हो रहा था, जिस पर एक तरह से राष्ट्रीय सहमति थी. भारत के बाकी प्रदेशों में लोकतंत्र की जो कुछ खूबियां सामने आईं, वैसी जम्मू-कश्मीर में फलोभूत नहीं हो पाईं. वहां कोई करूणानिधि, लालू यादव, मायावती नहीं उभरने दिए गए.) नतीज़ा हुआ कि आज़ादी के संघर्ष और संवैधानिक मूल्यों से निसृत भारतीय राष्ट्रवाद की जगह बाजारवादी राष्ट्रवाद ने ले ली. लोकतंत्र भी बाजारवाद के रास्ते चलने लगा. इस दौरान सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस और समस्त अस्मितावादी दलों की राजनीति पतित (डीजनरेट) हो गई. वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु ने ऐलान कर दिया कि विकास का रास्ता पूंजीवाद ही है. विपक्ष के पतन की सच्चाई को अमित शाह ने लोकसभा में इस तरह कहा, "नरेंद्र मोदी सरकार पर भरोसा करो, विपक्ष अपनी राजनीति के लिए झूठ बोल रहा है, उनकी मत सुनो." यह उनका कश्मीर की जनता को संबोधन था.

कांग्रेस और अस्मितावादी राजनीति का पतन होने पर एक नई वैकल्पिक राजनीति की जरूरत थी. उसके लिए विचार और संघर्ष भी शुरू हुआ. लेकिन प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने वह धारा पनपने नहीं दी. वे अन्ना हजारे और केजरीवाल के पीछे कतारबद्ध हो गए, जो भ्रष्टाचार मिटाने का आह्वान करते हुए एनजीओ की दुनिया से आए थे. प्रकाश करात का 'लेनिन' जम्मू-कश्मीर पर लिए गए फैसले और उसके तरीके पर सरकार के समर्थन में है. यह माहौल और मौका आरएसएस/भाजपा के लिए मुफीद था. उसने पतित राजनीति के सारे अवशेष इकठ्ठा किये और तप, त्याग, संस्कार, चरित्र आदि का हवाई चोला उतार कर नवउदारवाद के हमाम में कूद पड़ा. लगातार दूसरी बार बहुमत मिलने पर उसे धारा 370 हटानी ही थी.

नए कानून के विरोधी आगे भयावह भविष्य की बात कह रहे हैं. अपने घरों में कैद कश्मीर की जनता के लिए यह वर्तमान ही भयावह है. आज जो वर्तमान है, वह 1991 में भविष्य था. यह नहीं होता, अगर भारत का इंटेलीजेंसिया लोगों को बताता कि नई आर्थिक नीतियां संविधान और लोकतंत्र विरोधी हैं. इनके चलते देश की जनता का भविष्य भयावह हो सकता है. हमारे दौर की केंद्रीय दिक्कत यही है कि इंटेलीजेंसिया इसके बाद भी नवउदारवादी नीतियों के विरोध में नहीं आएगा. जो विकास के पूंजीवादी मॉडल के विरोध की बात हमेशा करते पाए जाते हैं, अभी तक का अनुभव यही है, वे ऐसा फंडिंग और पुरस्कारों के लिए करते हैं. ताकि कार्यक्रम चलते रहें और नाम के आगे फलां पुरस्कार विजेता लगाया जाता रहे.

गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में बोलते हुए कश्मीरियों के लिए विकास का जो सब्जबाग दिखाया है, उसमें भारत के इंटेलीजेंसिया का यकीन है. अमित शाह जानते हैं कि जम्मू क्षेत्र के हिन्दुओं को घाटी में चल-अचल संपत्ति खरीदने की मनाही नहीं है. लेकिन पिछले 70 सालों में ऐसा कुछ नहीं हो पाया है. घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडित अलबत्ता तो लौटने से रहे; उनमें से कुछ लौटेंगे भी तो व्यापार करने नहीं. आगे चल कर अमित शाह कह सकते हैं कि घाटी में विदेशी निवेश आमंत्रित किया जाएगा. बड़ी पर्यटन कंपनियों के घाटी में आने की संभावना उन्होंने अपने भाषण में व्यक्त की ही है. यानी बाजारवादी राष्ट्रवाद अब घाटी और लद्दाख में भी तेजी से पहुंचेगा. हो सकता है अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से इसकी अनुमति पहले ही ले ली गई हो!   

यह फैसला नोटबंदी जैसा ही नाटकीय है. गृहमंत्री ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में भ्रष्टाचार, गरीबी, आतंकवाद - सबके लिए धारा 370 जिम्मेदार है. देश में बड़ी संख्या में लोग मान रहे थे कि प्रधानमंत्री की दौड़ से अचानक बाहर धकेले गए लालकृष्ण अडवाणी को आरएसएस/भाजपा राष्ट्रपति बनाएगी. उन्हें लगता था कि 'परिवार' में बड़ों का सम्मान नहीं होगा तो कहां होगा! लेकिन ऐसा नहीं किया गया. जम्मू-कश्मीर को लेकर कल के फैसले और तरीके पर वे शायद तैयार नहीं होते.

जम्मू-कश्मीर के साथ पाक-अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान हैं. देश के भीतर हिंदू-मुसलमान और सीमा पर भारत-पाकिस्तान - बाजारवादी राष्ट्रवाद की यह स्थयी खुराक बनी रहेगी. वरना चीन के कब्जे में भारत की 20 हज़ार वर्गकिलोमीटर भूमि है, जिसे वापस लेने का संकल्प संसद में सर्वसम्मती पारित है. इस फैसले से यह फैसला भी हो गया है कि पाकिस्तान अब अधिकृत कश्मीर के साथ जो करना चाहे कर सकता है. फैसला होने से पहले तक जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पाक अधिकृत कश्मीर के प्रतिनिधियों के लिए 24 खाली सीटें थीं. ताकि उसका भारत में विलय होने पर उन्हें भरा जा सके. सभी जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर का मसला अंतर्राष्ट्रीय अदालत में है. वहां भी इस फैसले की गूंज पहुंचेगी. हो सकता है सरकार ने वहां मामला शांत करने के लिए अमेरिका की कोई शर्त मानने की स्वीकृति दी हो?       

कश्मीर की जनता को अलगाववादियों की भूमिका पर भी सीधा सवाल करना चाहिए. राज्य में लोकतंत्र के खात्मे में सरकार के साथ उनकी भी बराबर की भूमिका है. अगर वे मानते हैं कि उनके पुरखों ने पाकिस्तान के बजाय सेक्युलर भारत में रहना चुना तो हिंदू-मुस्लिम अलगाव की खाई को पाटना होगा. अलगाववादी और आतंकवादी यह खाई बनाए रखना चाहते हैं. इस सब में जम्मू क्षेत्र के हिंदू नागरिकों की भूमिका अहम है. आशा करनी चाहिए कि वे यह भूमिका निभायेंगे. यह सही है कि श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर मुरलीमनोहर जोशी तक अपना एजेंडा लेकर श्रीनगर जाते रहे हैं. लेकिन गांधीवादियों ने भी कश्मीरियों की सहायता और सहानुभूति के कम प्रयास नहीं किए हैं.

कश्मीर की जनता को यह समझना होगा कि इस फैसले के लिए केवल उन्हें ही नहीं, देश की बाकी जनता को भी भरोसे में नहीं लिया गया. ऐसी खबर है कि सरकार के कुछ मंत्रियों को भी पता नहीं था. उसे उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है. वह नए नेतृत्व और राजनीति का निर्माण कर सकती है, जिसके लिए लोकतंत्र ही रास्ता है. उसे समझना होगा कि स्वायत्तता पूरे भारतीय राष्ट्र की दांव पर लगी हुई है. अपने संघर्ष को उसे नवसाम्राज्यवाद से लड़ने वाली देश की जनता के साथ मिलाना होगा. गांधी के देश में संघर्ष का अगला चरण अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित सिविल नाफ़रमानी हो, जिसमें पूरे राज्य के नागरिक हिस्सेदारी करें.        

Thursday, May 16, 2019

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की विरासत- प्रेम सिंह


                भारतीय समाजवादी आंदोलन के पितामह आचार्य नरेंद्रदेव की अध्यक्षता में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के गठन (17 मई 1934,पटना) के समय दो लक्ष्य स्पष्‍ट थे: देश की आजादी हासिल करने और समाजवादी व्यवस्था कायम करने की दिशा में संगठित प्रयासों को तेज करना। इन दोनों लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सच्ची साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को मजबूत बनाना जरूरी था। 21-22 अक्तूबर 1934 को बंबई में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पहले सम्मेलन में,जहां समाजवादी समाज बनाने की दिशा में विस्तृत कार्यक्रम की रूपरेखा स्वीकृत की गई, जेपी ने कहा था ‘‘हमारा काम कांग्रेस के भीतर एक सच्ची साम्राज्यवाद विरोधी संस्था विकसित करने की नीति से अनुशासित है।’’जैसा कि आगे चल कर देखने में आता है, सीएसपी के संस्थापक नेता मार्क्‍सवाद और गांधीवाद के साथ फलप्रद संवाद बना कर समाजवादी व्यवस्था की निर्मिती करने के पक्षधर थे। गांधी ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन का विरोध किया था। लेकिन संस्थापक नेताओं ने उलट कर गांधी पर हमला नहीं बोला। दोनों के बीच संबंध और संवाद गांधी की मृत्यु तक चलता रहा। उसके बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं : कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना पर ‘‘गांधीवाद अपनी भूमिका पूरी कर चुका है’’ कहने वाले जेपी सर्वोदय में शामिल हुए और लोहिया ने गांधीवाद की क्रांतिकारी व्याख्या प्रस्तुत की। इस क्रम में आजादी के बाद डाॅ. अंबेडकर से भी संवाद कायम किया गया, हालांकि बीच में ही अंबेडकर की मृत्यु हो गई।

                सीएसपी के संस्थापक नेता मार्क्‍सवादी थे, लेकिन अंतरराष्‍ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के तहत कोरे कम्युनिस्ट नहीं थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन के बीचों-बीच थे; उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में लंबी जेलें काटी थीं। संस्थापक नेताओं के सामने यह स्पष्‍ट था कि स्वतंत्रता (देश, समाज, व्यक्ति की) सच्ची साम्राज्यवाद विरोधी चेतना की पूर्व-शर्त है।

                बाह्य आदेशों पर चलने वाला समाजवाद, एक पार्टी की तानाशाही वाला ‘क्रांतिकारी’ लोकतंत्र सीएसपी के संस्थापक नेताओं को काम्य नहीं था। आजादी के बाद कांग्रेस से अलग सोशलिस्ट पार्टी बनाने का निर्णय लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली की मजबूती की दिशा में उठाया गया दूरगामी महत्व का निर्णय था। सोशलिस्ट नेताओं के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी रणनीतिक नहीं थी। भारतीय सामाजिक और आर्थिक संरचना में हाशिए पर धकेले गए तबकों - दलित, आदिवासी, पिछड़े,महिलाएं, गरीब मुसलमान - की सक्रिय राजनीतिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक हिस्सेदारी से समाजवाद की दिशा में बढ़ने की पेशकश में ऐसे स्वतंत्र राष्‍ट्र का स्वप्न निहित था जो फिर कभी गुलाम नहीं होगा। कांग्रेस के नेताओं ने गांधी के कहने बावजूद कांग्रेस को लक्ष्य-प्राप्ति के बाद विसर्जित नहीं किया; लेकिन सोशलिस्ट नेताओं ने शुरुआती उहापोह के बाद कांग्रेस के बाहर आकर कांग्रेस को अपनी तरफ से तिलांजलि दे दी। दो दशक के लंबे संघर्ष के बाद वे कांग्रेस की सत्ता हिलाने में कुछ हद तक कामयाब हुए। सर्वोदय में चले गए जेपी के आपाताकल विरोधी आंदोलन की अन्य कोई उपलब्धि न भी स्वीकार की जाए, लोकतंत्र की पुनर्बहाली उसकी एक स्थायी उपलब्धि है, जो आज तक हमारा साथ दे रही है। पिछले करीब तीन दशकों से चल रहे नवसाम्राज्यवादी हमले की चेतावनी सबसे पहले समाजवादी नेता/विचारक किशन पटनायक ने दी थी।

                वर्तमान भारतीय राजनीति के सामने भी दो लक्ष्य हैं : नवसाम्राज्यवादी हमले से आजादी की रक्षा और समाजवादी समाज की स्थापना। यह काम भारत के समाजवादी आंदोलन की विरासत से जुड़ कर ही हो सकता है, जिसकी बुनियाद 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के साथ पड़ी थी। इस संकल्प और पहलकदमी के बिना 82वें स्थापना दिवस का उत्सव रस्मअदायगी होगा। हालांकि रस्मअदायगी के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों के पीछे कुछ न कुछ भावना होती है; लेकिन इसका नुकसान बहुत होता है। कांग्रेस-भाजपा से लेकर अन्ना हजारे,केजरीवाल-सिसोदिया, रामदेव-श्रीश्री, वीके सिंह जैसों तक आवाजाही करने वाले सभी समाजवादी हैं - इसका नई पीढ़ी को केवल नकारात्मक संदेश जाता है। यही कारण है कि समाजवादी आंदोलन में नए युवक-युवतियां नहीं आते हैं। उन्हें यही लगता है कि समाजवाद के नाम पर ज्यादातर लोग निजी राजनीति का कारोबार चलाने वाले हैं। यह कारोबार वैश्विक स्तर पर जारी नवउदारवादी कारोबार के तहत चलता है और इस तरह नवसाम्राज्‍यवाद का शिकंजा और मजबूत होता जाता है।
                इस मंजर पर सर्वेश्‍वर दयाल सक्सेना की कविता, जो उन्होंने लोहिया के निधन पर लिखी थी, की पहली पंक्तियां स्मरणीय हैं : लो, और तेज हो गया उनका रोजगार/ जो कहते आ रहे/ पैसे लेकर उतार देंगे पार।   

Thursday, May 9, 2019

कांग्रेस-विरोध का आख्यान : सच और झूठ की पहचान!-प्रेम सिंह


नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान खासतौर तौर पर दो बातें जोर देकर कही थीं : पहली, पिछले 65 सालों के कांग्रेसी राज में देश में कुछ नहीं हुआ. 65 साल की नाकामियों के लिए कांग्रेस को कोसते हुए उन्होंने दावा किया कि वे मात्र 65 दिन में पिछले 65 साल का काम पूरा कर डालेंगे. केवल उन्हें सत्ता दे दी जाए. दूसरी, वे विदेशों में जमा देश का काला धन वापस लाएंगे और प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख रूपया जमा कराएंगे. प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख रूपया जमा कराने के वादे को खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह एक चुनावी जुमला बता चुके हैं. लेकिन 65 साल के कांग्रेसी राज की नाकामी को लेकर मोदी और इस विषय पर उनका अंध-समर्थन करने वालों ने एक पूरा आख्यान गढ़ कर तैयार कर दिया है. ये मोदी-समर्थक केवल आरएसएस के सदस्यों तक सीमित नहीं हैं. वे बड़ी संख्या में पूरे देश में और विदेश में फैले हैं. पिछले चुनाव प्रचार से लेकर अभी के चुनाव प्रचार तक मोदी ने प्रत्येक अवसर, चाहे वह किसी भी विषय से सबंधित रहा हो, कांग्रेस विरोध का अवसर बना लिया है. स्वतंत्रता सेनानी और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इस आख्यान का 'खलनायक' बनाया गया है. 'नायक' की भूमिका में खुद मोदी हैं.

इस आख्यान के शुरू में ही समर्थकों द्वारा यह संदेश देने की कोशिश की गई कि देश को असली आजादी मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर मिली है. इसके गहरे निहितार्थ हैं. यानी कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी. वह देश पर एक बोझ है. लिहाज़ा, भारत को कांग्रेस-मुक्त किया जाना चाहिए. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ताओं और समर्थकों ने भी यह धारणा व्यक्त की कि कांग्रेस भारत से समाप्ती की ओर है. इस धारणा के पीछे भी समझ यही थी कि आज़ादी के संघर्ष, मूल्यों और विचारधारा को तिलांजलि देने का समय आ गया है. हालांकि आज़ादी की चेतना से कांग्रेस खुद काफी पहले रिश्ता तोड़ चुकी थी, लेकिन उसके खोखल को भी बर्दाश्त करने को ये लोग तैयार नहीं थे. बहरहाल, इस आख्यान के तहत कश्मीर से लेकर रोजगार तक, देश की तमाम समस्याओं के लिए कांग्रेस पर दोषारोपण किया जाता है. मौजूदा सरकार की गलत नीतियों और फैसलों पर आवाज़ उठाने वालों को कह दिया जाता है कि जब कांग्रेसी राज में यह सब होता था तब वे कहां थे? मोदी और उनके मंत्रिमंडल के महत्वपूर्ण लोगों ने न केवल संविधान को लेकर अनर्गल बयान दिए हैं, रोजगार समेत अर्थव्यवस्था सम्बंधी विभिन्न आंकड़ों के बारे में भी बार-बार गलत और भ्रमित करने वाले बयान दिए हैं. लेकिन मोदी-समर्थक सब कुछ 65 साल के कांग्रेस राज के मत्थे मढ़ कर मोदी और अपने को सही होने का प्रमाणपत्र दे देते हैं. अगर कोई 2014 के बाद की समस्याओं के लिए मोदी और उनकी सरकार पर सवाल उठाता है या पूछता है कि मोदी ने सत्ता मिलने पर 65 दिनों में तस्वीर बदल देने का वादा किया था, तो इस आख्यान के तहत उसे तुरंत देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है. मोदी और उनके समर्थकों का कांग्रेस-विरोध का महज पांच साल में गढ़ा गया आख्यान मोदी सरकार की समस्त संविधान और जन-विरोधी नीतियों, गलतबयानियों, झूठों के बावजूद प्रभावी बना हुआ है.   

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मोदी और उनके समर्थकों द्वारा गढ़े गए इस आख्यान के पहले भाजपा ने एक राजनीतिक पार्टी के बतौर कभी यह नहीं कहा था कि देश में पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ है. जनसंघ और बाद में भाजपा के शीर्ष नेताओं ने अक्सर नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक, कांग्रेसी नेताओं की भूरी-भूरी प्रशंसा की है. नेहरू के प्रशंसक अटलबिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कह कर उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति के प्रति सम्मान प्रकट किया था. भाजपा की पितृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कभी ऐसा दावा नहीं किया. यह एक खुली सच्चाई है कि आरएसएस की परवरिश जनसंघ से ज्यादा कांग्रेसी कांख में हुई है. उसने समय-समय पर चुनावों में कांग्रेस का समर्थन करके कर्ज़ भी चुकाया है.

यह तथ्यत: गलत है कि 2014 के पहले देश में केवल कांग्रेस का शासन रहा है. 20वीं और 21वी सदी के संधि-काल में 6 साल तक वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपानीत राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार रही है. उसके पहले भी केंद्र और राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें रही हैं. दरअसल, बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र और संघीय व्यवस्था वाले देश में ज्यादा समय तक एक ही पार्टी की सरकार रहने के बावजूद नाकामियों का ठीकरा अकेले उस पार्टी के सिर नहीं फोड़ा जा सकता. बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र में उपलब्धियां और कमियां साझा होती हैं. मोदी के मुताबिक अगर कांग्रेस नाकाम और देश का अहित कर रही थी, तो इसकी उतनी ही जिम्मेदारी उस दौरान सक्रिय राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं की भी बनती है. क्योंकि वे वैसी सरकार पर सही नीतियों के लिए दबाव बनाने अथवा उसे चुनावों में अपदस्थ करने में नाकाम रहे. अगर यह मान लिया जाए कि कांग्रेस के शासन में कुछ नहीं हुआ, या सब गलत हुआ, तो यह देश की राष्ट्रीय नाकामी का परिचायक है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो अपने स्थापना काल से 'राष्ट्र-निर्माण' के काम में लगा हुआ है, भी उस नाकामी में शामिल माना जायेगा.

आज़ादी के बाद के लोकतांत्रिक भारत की 65 साल की उपलब्धियां गिनाने से सूची बहुत लंबी हो जाएगी. आज़ादी के बाद संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं, जिन्हें मोदी सरकार ने काफी हद तक क्षतिग्रस्त कर दिया है, के अलावा शिक्षा, शोध, साहित्य, कला, विज्ञान, वाणिज्य आदि से सम्बद्ध संस्थाओं का बड़े पैमाने पर निर्माण हुआ. पूरी दुनिया के साथ कूटनीतिक, व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध कायम किये गए. आधुनिक विकास के लिए जरूरी सामग्री के उत्पादन और उपकरणों के निर्माण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विशाल ढांचा खड़ा किया गया. यातायात के लिए केंद्रीय रेलसेवा और प्रत्येक राज्य में पथ परिवहन प्रणाली के तहत बस सेवा का विस्तार किया गया. खेती के लिए सिंचाई, बीज, खाद, आधुनिक उपकरण एवं तकनीक आदि की सुविधाएं हासिल करने का प्रयास किया गया. बड़े पैमाने पर स्कूलों-कालेजों-विश्वविद्यालयों के साथ स्टेडियमों और खेल परिसरों का निर्माण किया गया. मेडिकल कॉलेज, अस्पताल और प्रोद्योगिकी संस्थान बनाये गए. सेना के तीनों अंगों को मज़बूती और विस्तार दिया गया. ...

इस आख्यान की सच्चाई की पड़ताल के लिए दो स्थितियों को आमने-सामने रख कर देखते हैं. पहली, दिल्ली देश की राजधानी है. यहां तीन-चौथाई आबादी के लिए नागरिक सुविधाओं का अभाव है, सघन और गंदी बस्तियों की भरमार है, छोटे बच्चे-बच्चियां तरह-तरह के खतरनाक पेशों में खटते हैं, पूरे शहर में ट्रैफिक की लाल बत्तियों पर करतब दिखा कर भीख मांगते हैं, पिछले दिनों पूर्वी दिल्ली में तीन बहनों (मानसी 8 साल, शिखा 4 साल, पारो 2 साल) की भूख से मौत हो गई थी ... इस या ऐसी किसी स्थिति की तरफ ध्यान दिलाने पर मोदी और उनके समर्थक बिना शंका कहेंगे कि यह सब 65 साल के कांग्रेसी राज की वजह से है. अब एक दूसरी स्थिति पर नज़र डालते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने परिधानों से लेकर विज्ञापनों और विदेशी दौरों से लेकर जनसभाओं के आयोजनों पर अरबों-खरबों रुपया खर्च करते हैं. अगर कांग्रेसी राज में कुछ नहीं हुआ था तो मोदी यह दौलत कहां से लाते हैं? दूसरे शब्दों में, पहली स्थिति के लिए कांग्रेसी राज जिम्मेदार है तो दूसरी स्थिति, प्रधानमंत्री का ठाट-बाट, भी कांग्रेसी राज की देन है. दरअसल, मोदी और उनके समर्थक कांग्रेस यानी नवउदारवाद का काम ही आगे बढ़ा रहे हैं. डॉ. मनमोहन सिंह, ऊंचे पाए के अर्थशास्त्री होने के नाते कारपोरेट की जो सेवा शास्त्रीय ढंग से कर रहे थे, मोदी वह सेवा ब्लाइंड खेल कर करते हैं. नोटबंदी और अन्य कई अवसरों पर उनके 'नए भारत' के अर्थशास्त्रियों की झलक देश और दुनिया देख ही चुकी है.     

उपरोक्त तथ्यों और विश्लेषण के मद्देनज़र कह सकते हैं कि मोदी और उनके समर्थकों द्वारा गढ़ा गया कांग्रेसी राज की नाकामी का आख्यान झूठ पर टिका है. यह माना जा सकता है कि यह सब उद्यम अपर्याप्त था. यह भी माना जा सकता है कि वह उद्यम गलत नीतियों और नज़रिए के तहत किया गया था. लेकिन पिछले 65 सालों में कोई उद्यम हुआ ही नहीं, यह कहना या मानना झूठ में जीने के सिवाय कुछ नहीं है. कहा जाता है झूठ के पांव नहीं होते. लेकिन मोदी और उनके समर्थकों का यह झूठ पिछले पांच सालों से पांव जमा कर चल रहा है. इस परिघटना की गंभीर पड़ताल अभी तक किसी ने नहीं की है.

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इस लेख में इस परिघटना को नवउदारवाद की अपनी गतिकी (डायनामिक्स) के सन्दर्भ में समझने की कोशिश की गई है. हालांकि समझने के अन्य संदर्भ भी हो सकते हैं. कोई व्यवस्था जब अपने पांव जमा लेती है तो उसकी अपनी गतिकी विकसित हो जाती है. वह अपने को विरोध की वास्तविक चुनौती से बचाने के लिए अपने भीतर से ही विरोध का आंदोलन फेंक सकती है, जिसमें अलग-अलग मान्यताओं वाले स्वर एक मंच पर शामिल हो सकते हैं. 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' (आईएसी) के तहत चला भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन नवउदारवाद ने अपने बचाव और अगले चरण में अधिक मज़बूती पाने के लिए अपने गर्भ से पैदा किया था. इसमें एक से एक सयाने लोग शामिल थे. 'देश में मोदी और दिल्ली में केजरीवाल' को जिताने वाले साथ-साथ थे. उसी आंदोलन से आरएसएस/भाजपा का नया अवतार पैदा होता है और मोदी पूर्ण बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बनते हैं. इस तरह प्रकट और प्रछन्न नवउदारावादियों की एकजुट ताकत का इस्तेमाल करके नवउदारवाद पूरी मज़बूती के साथ अगले चरण में प्रवेश कर जाता है. नवउदारवादी व्यवस्था, भ्रष्टाचार जिसमें बद्धमूल है, के चलते भ्रष्टाचार विरोध का कोई अर्थ नहीं है. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ताओं और समर्थकों ने यह सवाल नहीं उठाने दिया, क्योंकि उन सबका हित नवउदारवादी व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है. कहना न होगा कि नवउदारवाद की यह गतिकी भारत के शासक वर्ग के साथ तालमेल से परिचालित होती है. यह अकारण नहीं है कि उस आंदोलन में शामिल लोगों ने आज तक अपनी भूमिका को लेकर खेद प्रकट नहीं किया है. बल्कि ज्यादातर वामपंथी और लिबरल केजरीवाल की पालकी के कहार बने हुए हैं.   

जिस तरह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ता वही लोग थे, जिन्होंने दो दशक के नवउदारवादी दौर में मज़बूती हासिल की थी, कांग्रेसी राज का विरोध करने वाले भी मोदी सहित वही लोग हैं, जिनकी हैसियत कांग्रेसी राज में बनी है. इसे थोड़ा पीछे से समझने का प्रयास करें. 1991 में लागू की गईं नई आर्थिक नीतियों से पिछले तीन दशकों में सबसे ज्यादा वे लोग लाभान्वित हुए हैं, जो पहले से शिक्षा और रोजगार संपन्न थे. यानी जिन्हें आज़ादी के बाद सरकार की ओर से किसी समय शिक्षा और रोजगार के अवसर प्राप्त हुए थे. सरकारी क्षेत्र में शिक्षा सस्ती थी और छोटे से लेकर बड़े रोजगार के साथ इलाज, मकान, बच्चों की शिक्षा, पेंशन आदि की सुविधा जुड़ी हुई थी. ऊपरी कमाई तो थी ही. नई आर्थिक नीतियों के आने से इस तबके को पंख लग गए. सरकार की ओर से उपलब्ध कराई गई सस्ती जमीन और कर्ज (हाउस लोन) से इनके मकान पहले ही बन चुके थे. सरकारी खर्चे पर विदेशों में आवा-जाही भी शुरू हो चुकी थी. प्रत्येक विभाग की अपनी ट्रेड यूनियनें थीं जो अड़ कर सरकार से अपनी मांगें मनवाती थीं. बड़े अफसरों ने पूरे देश में अपने ठहरने और मनोरंजन के लिए अतिथि गृह और क्लब बनवाये हुए थे. उनके बच्चे सरकारी सुविधा से मेडिकल और इंजिनियरी की शिक्षा पाकर विदेश में जाकर बस चुके थे.

नई आर्थिक नीतियां आने के बाद छठे और सातवें वेतन आयोग ने आर्थिक रूप से उन्हें काफी मजबूत बना दिया. उनके बच्चे महंगी से महंगी शिक्षा खरीद कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नियुक्त होकर भारत के महानगरों और यूरोप-अमेरिका में फ़ैल गए. सरकारी योजनाओं के तहत बने इनके मकानों की कीमत करोड़ों रुपयों में हो गई. ये मकानों का तरह-तरह से कमर्शियल इस्तेमाल करने लगे. ज्यादातर ने पुराना मकान तोड़ कर बिल्डर से लिफ्ट के साथ चार मंजिलें बनवा लीं. बदले में एक मंजिल बिल्डर को बेचने के लिए दे दी और दो मंजिलें खुद बेच दीं. इनके एशोआराम के लिए महानगरों/नगरों के चारों ओर फार्म हाउस, कारों के शोरूम, लग्जरी विला, होटल, मोटेल, बैंक्विट हाल, बहुमंजिली रिहायशी इमारत, कमर्शियल काम्प्लेक्स, मॉल, एअरपोर्ट, प्राइवेट स्कूल/कॉलेज/यूनिवर्सिटी आदि बनते चले गए. विदेशी शराबों सहित सभी उपभोक्ता वस्तुओं की घर बैठे उपलब्धता हो गई. सोवियत रूस का विघटन हो जाने से पूर्वी यूरोप और मध्य एशियाई देशों की महिलाएं इन्हीं लोगों के भरोसे भारत के महानगरों में वेश्यावृत्ति के लिए आने लगीं. ...

कांग्रेसी राज के दोनों चरणों का अधिकतम फायदा उठाने वाले ये लोग सबसे ऊंचे स्वर में कहते हैं कि पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ. दरअसल ये नवउदारवाद के तहत होने वाली संसाधनों और श्रम की लूट से गिरने वाली जूठन पर हमेशा के लिए अपनी संततियों का कब्ज़ा रखना चाहते हैं. ये लोग ओपिनियन मेकर हैं. नवउदारवाद के पक्ष में सहमति निर्माण का काम करते हैं. मोदी के नेतृत्व में 'पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ' का संदेश इन्होंने सबसे निचले स्तरों तक पहुंचा दिया. तीस साल से नवउदारवाद की कड़ी मार झेलने वाले मेहनतकश भी कहने लगे कि पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ. ऐसा वे अपने लिए नहीं कहते, जबकि उन्हें कहना चाहिए. बल्कि वे, वाया नवउदारवाद, कांग्रेस राज के लाभार्थियों के लिए ऐसा कहते हैं. मोदी राज में बड़े लोगों को उनका हक़ मिलेगा तो मुमकिन है उनकी भी बारी आए! क्योंकि 'मोदी है तो मुमकिन है'. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तरह मोदी-लहर ने भी नवउदारवाद को एक बार फिर मज़बूत आधार दे दिया है. नवउदारवाद के लिए इससे बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है कि उसके शिकार मान रहे हैं कि कोठी-कार वालों के लिए पिछले 65 साल में कुछ नहीं हुआ! बहुजन क्रांति से लेकर खूनी क्रांति तक की बात करने वाले, यदि पूरी तरह राजनीतिक निरक्षरता का शिकार नहीं हुए हैं, प्रतिक्रांति की यह ताकत देख-समझ लें.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं)

Sunday, April 28, 2019

नरेंद्र मोदी : पात्रता की पड़ताल-प्रेम सिंह


नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पात्रता के पक्ष में विभिन्न कोनों/स्रोतों से लगातार स्वीकृति और समर्थन हासिल किया है. हालांकि पांच साल प्रधानमंत्री रह चुकने के बाद काफी लोग मोदी-मोह से बाहर आ चुके हैं. फिर भी यह हवा बनाई जा रही है कि अगले प्रधानमंत्री मोदी ही होंगे. ज्यादातर मतदाता इस हवा के साथ हैं या नहीं, इसका पता 23 मई 2019 को चुनाव नतीजे आने पर चलेगा. फिलहाल की सच्चाई यही है कि टीम मोदी, कारपोरेट घराने, आरएसएस/भाजपा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), मुख्यधारा मीडिया और 'स्वतंत्र' मोदी-समर्थक उनकी एकमात्र पात्रता के समर्थन में डटे हैं. नरेंद्र मोदी की पात्रता के कोरसगान में खुद नरेंद्र मोदी का स्वर सबसे ऊंचा रहता है. मोदी की पात्रता के प्रति यह जबरदस्त आग्रह अकारण नहीं हो सकता है. इस परिघटना के पीछे निहित जटिल कारणों को सुलझा कर रखना आसान नहीं है. फिर भी मुख्य कारणों का पता लगाने कोशिश की जा सकती है.  

उन कमजोर आत्माओं को इस विश्लेषण से अलग रखा गया है, जो अभी भी मोदी को अवतार मानने के भावावेश में जीती हैं. साधारण मेहनतकश जनता को भी शामिल नहीं किया गया है, जो उसका शोषण करने वाले वर्ग द्वारा तैयार आख्यान का अनुकरण करने को अभिशप्त है. इस लेख में मोदी की समस्त गलत बयानियों (जिनमें वैवाहिक स्टेटस से लेकर शैक्षिणक योग्यता तक की गईं गलतबयानियां शामिल हैं), मिथ्या कथनों, अज्ञान, अंधविश्वास और घृणा के सतत प्रदर्शन के बावजूद उनकी पात्रता का समर्थन करने वालों की पड़ताल की कोशिश है. देश-विदेश में फैले ये मोदी-समर्थक समाज के पढ़े-लिखे, सफल और सशक्त लोग हैं. या उस पथ पर अग्रसर हैं.

पहले कोरपोरेट घरानों को लें. मोदी का अपने पिछले चुनाव प्रचार में कारपोरेट घरानों के अकूत धन का इस्तेमाल करना, बतौर प्रधानमंत्री अपनी छवि-निर्माण में अकूत सरकारी धन झोंकना, जियो सिम का विज्ञापन करना, नीरव मोदी का विश्व आर्थिक मंच के प्रतिनिधि मंडल में उनके साथ शामिल होना, विजय माल्या और मेहुल चौकसी का सरकारी मशीनरी की मदद से देश छोड़ कर भागना, राजनीतिक पार्टियों को मिलाने वाली कारपोरेट फंडिंग को गुप्त रखने का कानून बनाना, लघु व्यापारियों और छोटे किसानों की आर्थिक कमर तोड़ने के लिए नोटबंदी करना, महज कागज़ पर मौजूद रिलायंस जियो इंस्टिट्यूट को 'एमिनेंट' संस्थान का दर्ज़ा देना, विमान बनाने का 70 साल का अनुभव रखने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हिंदुस्तान एअरोनाटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के बजाय राफेल सौदे को हथियाने की नीयत से बनाई गई कागज़ी कंपनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को फ़्रांसिसी कंपनी डसाल्ट का पार्टनर बनाना, विभिन्न सरकारी विभागों में संयुक्त सचिव के रैंक पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की सीधी नियुक्ति करना, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों सहित प्रत्येक क्षेत्र में निजीकरण की प्रक्रिया को बेलगाम रफ़्तार देना ... जैसी अनेक छवियां और निर्णय यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि कारपोरेट घरानों के लिए मोदी की पात्रता स्वयंसिद्ध है.

आरएसएस/भाजपा की नज़र में मोदी की पात्रता के बारे में इतना देखना पर्याप्त है कि उनके किसी नेता ने मोदी की कारपोरेटपरस्त नीतियों का परोक्ष विरोध तक नहीं किया है. क्योंकि आरएसएस/भाजपा संतुष्ट हैं कि मोदी ने दिल्ली में एक हजार करोड़ की लागत वाला केंद्रीय कार्यालय बनवा दिया है, नागपुर मुख्यालय गुलज़ार है और बराबर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय खबरों में रहता है, वर्तमान और भविष्य की सुरक्षा के लिए अकूत दौलत का इंतजाम कर दिया है. आरएसएस विचारक मग्न हैं कि मोदी के राज में वे सरकारी पदों-पदवियों-पुरस्कारों के अकेले भोक्ता हैं. पूरे संघ परिवार ने स्वीकार कर लिया है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कमल मोदी के नेतृत्व में भ्रष्ट और अश्लील (वल्गर) पूंजीवाद के कीचड़ में खिलता है. यह वही आरएसएस/भाजपा हैं जिन्होंने दिवंगत मोहम्मद अली जिन्नाह को सेकुलर बताने पर लालकृष्ण आडवाणी से पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा ले लिया था. लेकिन मोदी के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से बिना राजकीय कार्यक्रम के अचानक जाकर मिलने पर कोई एतराज नहीं उठाया. क्योंकि वे समझते हैं कि मोदी 'मुस्लिम तुष्टिकरण' के लिए नवाज़ शरीफ से मिलने नहीं गए थे. वे जरूर किन्हीं बड़े व्यापारियों का हित-साधन करने गए होंगे!       
मोदी के समर्थक पढ़े-लिखे, सफल और सशक्त लोगों को गहरा नशा है कि मोदी ने मुसलमानों को हमेशा के लिए ठीक कर दिया. जब मोदी पाकिस्तान और आतंकवादियों को ठिकाने लगा देने की बात करते हैं, तब उनके समर्थकों के जेहन में मोदी की तरह भारतीय मुसलमान ही होते हैं. उन्होंने मोदी से सीख ली है, जिसे वे दुर्भाग्य से अपने बच्चों में भी संक्रमित कर रहे हैं, कि मुसलामानों से लगातार घृणा में जीना ही जीवन में 'हिंदुत्व' की उपलब्धि है, और वही 'सच्ची राष्ट्रभक्ति' भी है. इन लोगों को मोदी की पात्रता का अंध-समर्थक होना ही है. यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि 'कांग्रेसी राज' में शिक्षा, रोजगार और व्यापार की सुविधाएं पाने वाला यह मध्यवर्गीय तबका नवउदारीकरण के दौर में काफी समृद्ध हो चुका है.      

थोड़ी बात नरेंद्र मोदी की करें कि वे अपनी पात्रता के बारे में क्या सोचते हैं? इधर एक फिल्म एक्टर को दिए अपने इंटरव्यू में मोदी ने कहा बताते हैं कि वे कभी-कभी कुछ दिनों के लिए जंगल में निकल जाते थे. वहां जाकर वे केवल अपने आप से बातें करते थे. उनका जुमला 'मेरा क्या है, जब चाहूं झोला उठा कर चल दूंगा' काफी मशहूर हो चुका है. यानी वे इन बातों से अपने वजूद में वैराग्य भाव की मौजूदगी जताते हैं. भारत समेत पूरी दुनिया के चिंतन में वैराग्य की चर्चा मिलती है. शमशान घाट का वैराग्य मशहूर है. कुछ ख़ास मौकों और परिस्थितियों में जीवन की निस्सारता का बोध होने पर व्यक्ति में वैराग्य भाव जग जाता है. वैराग्य की भावदशा में व्यक्ति सांसारिकता से हट कर सच्ची आत्मोपलब्धि (रिकवरी ऑफ़ ट्रू सेल्फ) की ओर उन्मुख होता है. हालांकि वह जल्दी ही दुनियादारी में लौट आता है, लेकिन इस तरह का क्षणिक वैराग्य और उस दौरान आत्मोपलब्धि का प्रयास हमेशा निरर्थक नहीं जाता. व्यक्ति अपनी संकीर्णताओं और कमियों से ऊपर उठते हुए जीवन को नए सिरे से देखने और जीने की कोशिश करता है.

लगता यही है कि नरेंद्र मोदी का आत्मालाप उन्हें आत्मोपलब्धि की तरफ नहीं ले जाता, केवल आत्मव्यामोहित बनाता है. वरना सामान्यत: इंसान के मुंह से कोई गलत तथ्य, व्याख्या अथवा किसी के लिए कटु वचन निकल जाए तो वह बात उसे सालती रहती है. वह अपनी गलती के सुधार के लिए बेचैन बना रहता है. अवसर पाकर अपने ढंग से गलती का सुधार भी करता है. मोदी के साथ ऐसा नहीं है. वे एक अवसर पर अज्ञान, मिथ्यात्व और घृणा से भरी बातें करने के बाद उसी उत्साह से अगले अवसर के आयोजन में लग जाते हैं. ज़ाहिर है, वे अपनी नज़र में अपनी पात्रता को संदेह और सवाल से परे मानते हैं. इसीलिए उन पर संदेह और सवाल उठाने वालों पर उन्हें केवल क्रोध आता है. मोदी ने अपना यह 'गुण' अपने समर्थकों में भी भलीभांति संक्रमित कर दिया है. दोनों संदेह और सवाल उठाने वाले 'खल' पात्रों को ठिकाने लगाने में विश्वास करते हैं.   

मोदी सबसे पहले खुद अपने गुण-ग्राहक हैं. उनकी कामयाबी यह है कि अपने 'गुणों' को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए वे अभी तक के सबसे बड़े इवेंट मैनेजर बन कर उभरे हैं. कहना न होगा कि अपने 'गुणों' को प्रचारित-प्रसारित करने का यह फन उनके कारपोरेटपरस्त चरित्र से अभिन्न है. मोदी आत्ममुग्धता में यह मान सकते हैं कि कारपोरेट घराने उनके खिलोने हैं. जबकि सच्चाई यही है कि वे खुद कारपोरेट घरानों के हाथ का खिलौना हैं. साहित्य, विशेषकर यूरोपीय उपन्यास में, आत्मव्यामोहित नायकों की खासी उपस्थिति मिलती है. अपनी समस्त आत्ममुग्धता के बावजूद वे वास्तव में यथास्थितिवाद का खिलौना मात्र होते हैं. इन नायकों की परिणति गहरे अवसाद और कई बार आत्महत्या में होती है. बहरहाल, जिस तरह कारपोरेट पूंजीवाद के लिए मोदी की पात्रता स्वयंसिद्ध है, मोदी के लिए भी वैसा ही है - वे कारपोरेट पूंजीवाद के स्वयंसिद्ध सर्वश्रेष्ठ पात्र हैं.             

मोदी की पात्रता की स्वीकृति का एक महत्वपूर्ण कोना/स्रोत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति का है. अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, चीन जैसे आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य दबदबे वाले देश दुनिया के सत्ता पक्ष और विपक्ष के महत्वपूर्ण नेताओं की पूरी जानकारी रखते हैं. ऐसा नहीं है कि ये देश मोदी के इतिहास और विज्ञान के ज्ञान के बारे में नहीं जानते हैं. मोदी के साम्प्रदायिक फासीवादी होने समेत उन्हें सब कुछ पता है. अमेरिका ने गुजरात के 2002 के साम्प्रदायिक दंगों को धार्मिक स्वतंत्रता का हनन बताते हुए 2005 में मोदी के अपने देश में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. ब्रिटेन ने 2002 के दंगों के बाद गुजरात की मोदी सरकार से 10 साल तक आधिकारिक सम्बन्ध तोड़ लिए थे. अन्य कई देशों ने दंगों के लिए नरेंद्र मोदी की तीखी भर्त्सना की थी.

लेकिन जैसे ही मनमोहन सिंह के बाद निगम पूंजीवाद के स्वाभाविक ताबेदार नेता की खोज शुरु हुई, उनकी नज़र मोदी पर गई जो पहले से गुजरात में नवउदारवाद की विशेष प्रयोगशाला चला रहे थे और इस नाते कुछ देशी कारपोरेट घरानों की पहली पसंद बन चुके थे. एक विदेशी प्रतिनिधि मंडल ने प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से दिल्ली में मुलाकात की. प्रधानमंत्री बनने पर अमेरिका ने उनका वीजा बहाल कर दिया. राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें कांग्रेस का संयुक्त अधिवेशन संबोधित करने के लिए बुलाया और अपने साथ प्राइवेट डिनर का मौका प्रदान किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर ओबामा भारत के गणतंत्र दिवस पर विशिष्ट अतिथि के रूप शामिल हुए. आगे की कहानी सबको मालूम है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में खुदरा से लेकर रक्षा क्षेत्र तक - सब कुछ सौ प्रतिशत विदेशी निवेश के लिए खोल दिया गया. दरअसल, नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का एक एजेंडा भारत से साम्राज्यवाद विरोध की चेतना और विरासत को नष्ट करना है. ये शक्तियां जानती हैं आरएसएस और मोदी के सत्ता में रहने से यह काम ज्यादा आसानी और तेजी से हो सकता है. नवसाम्राज्यवादी शक्तियों की नज़र में मोदी की पात्रता का यह विशिष्ट आयाम गौरतलब है.   

मोदी की पात्रता की पड़ताल करने वाली यह चर्चा अधूरी रहेगी अगर इसमें प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमे की भूमिका को अनदेखा किया जाए. इस विषय में विस्तार में जाए बगैर केवल इतना कहना है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) के तत्वावधान में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले सारा सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य गड्डमड्ड कर दिया था. उसकी पूरी तफसील 'भ्रष्टाचार विरोध : विभ्रम और यथार्थ' (वाणी प्रकाशन, 2015) पुस्तक में दी गयी है. नवउदारवाद के वैकल्पिक प्रतिरोध को नष्ट करके उसे (नवउदारवाद को) मजबूती के साथ अगले चरण में पहुँचाने के लक्ष्य से चलाया गया वह आंदोलन नवउदारवाद के अगले चरण के नेता (नरेंद्र मोदी) को भी ले आया. विचारधारात्मक नकारवाद के उस शोर में सरकारी कम्युनिस्टों ने केजरीवाल नाम के एनजीओ सरगना में लेनिन देख लिया था और उसे मोदी का विकल्प बनाने में जुट गए थे. (मोदी के कांग्रेस-मुक्त भारत के आह्वान के पहले ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ताओं ने अपनी तरफ से कांग्रेस का मृत्यु-लेख लिख दिया था.) इस तरह विकल्प का संघर्ष भी अगले चरण में प्रवेश कर गया! भारतीय राजनीति में हमेशा के लिए यह तय हो गया कि मुख्यधारा राजनीति में अब लड़ाई नवउदारवाद और नवउदारवाद के बीच है. अर्थात नवउदारवाद के साथ कोई लड़ाई नहीं है. जो भी झगड़ा है वह जाति, धर्म, क्षेत्र, परिवार और व्यक्ति को लेकर है. या फिर देश के संसाधनों और श्रम की नवउदारवादी लूट में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने को लेकर. वही पूरे देश में हो रहा है. यह सही है कि मोदी भ्रष्ट और अश्लील पूंजीवाद का खिलौना भर हैं, लेकिन इस रूप में वे भारत के शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं.
 (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं)     

Wednesday, April 3, 2019

लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया-डॉ प्रेम सिंह



मौजूदा दौर की भारतीय राजनीति में नीतियों के स्तर पर सरकार और विपक्ष के बीच अंतर नहीं रह गया है. दरअसल, राजनीतिक पार्टियों के बीच का अंतर ही लगभग समाप्त हो गया है. लोग अक्सर एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आवा-जाही करते रहते हैं. क्योंकि विचारधारा ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का आधार नहीं रह गई है. केंद्र अथवा राज्यों में कौन सरकार में है और कौन विपक्ष में - यह चुनाव में बाज़ी मारने पर निर्भर करता है. चुनाव के बाद ही या अगला चुनाव आते-आते पार्टियां अपना गठबंधन, और नेता अपनी पार्टी बदल लेते हैं. इस चलन का अब बुरा नहीं माना जाता. यह अकारण नहीं है. 1991 में जब कांग्रेस ने नई आर्थिक नीतियां लागू की थीं, उस समय भाजपा के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कांग्रेस ने अब भाजपा का काम हाथ में ले लिया है. शायद तभी उन्होंने आकलन कर लिया था कि वे निकट भविष्य में देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं. वर्ना 80 के दशक तक यही सुनने को मिलता था कि आरएसएस/जनसंघ से जुड़े वाजपेयी अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता के बावजूद कभी भी देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. वाजपेयी गठबंधन सरकार के पहले दो बार अल्पकालिक, और उसके बाद पूर्णकालिक प्रधानमंत्री बने. अब नरेंद्र मोदी अकेले भाजपा के पूर्ण बहुमत के प्रधानमंत्री हैं.

1991 के बाद से मुख्यधारा राजनीति के लगभग सभी दलों का देश के संविधान के प्रतिकूल नई आर्थिक नीतियों के पक्ष में अनुकूलन होता गया है. लिहाज़ा, पिछले तीन दशकों में परवान चढ़ा निगम पूंजीवाद भारत के राजनीतिक दलों और नेताओं को खुले रूप में निर्देशित करता है. जब संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की जगह निगम पूंजीवाद की वैश्विक संस्थाओं - विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि, और देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों/कारपोरेट घरानों के आदेशों ने ले ली तो संविधान के समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे मूलभूत मूल्यों पर संकट आना ही था. इनमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हम लगभग गवां चुके हैं. इस क्षति का सच्चा अफसोस भी हमें नहीं है. नई पीढ़ियां इस प्रतिमान विस्थापन (पेराडाईम शिफ्ट) की प्राय: अभ्यस्त हो चुकी हैं. लोकतंत्र का कंकाल अलबत्ता अभी बचा हुआ है. यह कंकाल जब तक रहेगा, देश में चुनाव होते रहेंगे.   

किसी देश की राजनीति में यह अत्यंत नकारात्मक स्थिति मानी जायेगी कि वहां सरकार और विपक्ष का फैसला तात्कालिक रूप से चुनाव की जीत-हार पर निर्भर करता हो. स्वाभाविक तौर पर होना तो यही चाहिए कि संविधान-सम्मत नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने और संवैधानिक संस्थाओं के बेहतर उपयोग और संवृद्धि की कसौटी पर सरकार और विपक्ष दोनों को कसा जाए. लेकिन निगम पूंजीवाद से अलग विचारधारा, यहां तक कि संविधान की विचारधारा पर भी राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता आस्था रखने को तैयार न हों, तो मतदाताओं के सामने विकल्प नहीं बचता. कांग्रेस और भाजपा निगम पूंजीवाद के तहत नवउदारवादी नीतियों की खुली वकालत करने वाली पार्टियां हैं. इन दोनों के अलावा जितनी छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां, देश के ज्यादातर बुद्धिजीवी, नागरिक समाज संगठन तथा एक्टिविस्ट भी घुमा-फिर कर नवउदारवादी नीतियों के दायरे में ही अपनी भूमिका निभाते हैं. मुख्यधारा मीडिया इसी माहौल की उपज है और उसे ही दिन-रात लोगों के सामने परोसता है. जिसे 'गोदी मीडिया' का प्रतिपक्ष बताया जाता है, वह मीडिया भी ज्यादातर नवउदारवाद के दायरे में ही काम करता नज़र आता है. इस बीच एक तरफ स्वतंत्रता संघर्ष के दौर के प्रतीक-पुरुषों को नेताओं द्वारा नवउदारवाद के हमाम में खींचा जाता है, दूसरी तरफ सत्ता की राजनीति में परिवारों से अलग जो नए चेहरे निकल कर आते हैं, उन पर जाति, धर्म और क्षेत्र की छाप लगी होती है.

किशन पटनायक ने 90 के दशक में इसे प्रतिक्रांति की शुरुआत कहा था. तब से पिछले 20-25 सालों में प्रतिक्रांति अच्छी तरह पक चुकी है. प्रतिक्रांति के पकने का प्रमाण है कि कुछ एनजीओबाज़, धर्म-अध्यात्म के धंधेबाज़, सरकारी आला अफसर और प्रोफेशनल हस्तियां  भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन करते हैं और देश का पूरा लेफ्ट-राईट इंटेलीजेंसिया और मीडिया उसके पक्ष और प्रचार में एकजुट हो जाता है. आंदोलन की 'राख' से 'आम आदमी' की एक नई पार्टी निकल कर आती है जो आरएसएस/भाजपा तथा सोशलिस्टों/कम्युनिस्टों को एक साथ साध लेती है. कारपोरेट पूंजीवाद की यह अपनी पार्टी है जो अब कांग्रेस को भी घुटनों पर लाने का जोर भरती है! ऐसी स्थिति में कारपोरेट पूंजीवाद, जो नवसाम्राज्यवाद का दूसरा नाम है, के विरोध की राजनीति के लिए चुनावों के रास्ते जगह बनाना लगभग असंभव है.

लेकिन इस नकारात्मक यथार्थ के बावजूद चुनाव ही वह आधार बचता है, जहां से सकारात्मक स्रोतों को तलाश की जा सकती है. इसी मकसद से मैंने पिछले साल जून में 'लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया' निबंध लिखा था. विपक्ष के चुनावी गठबंधन के मद्देनज़र काफी विस्तार से लिखा गया वह निबंध हिंदी में 'हस्तक्षेप डॉट कॉम' पर और अंग्रेजी में 'मेनस्ट्रीम वीकली', 'काउंटर कर्रेंट', 'जनता वीकली' समेत कई जगह छपा था. वर्तमान में जैसा भी हमारा लोकतंत्र है, उसमें चुनावों की बहुआयामी भूमिका रेखांकित करते हुए निबंध में मुख्यत: चार  सुझाव रखे गए थे  : भाजपा और कांग्रेस से अलग भारतीय राजनीति की तीसरी शक्ति कही जाने वाली पार्टियों और वामपंथी पार्टियों का राष्ट्रीय स्तर का एक अलग गठबंधन 'सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा' (नेशनल फ्रंट फॉर सोशल जस्टिस) नाम से बनाया जाना चाहिए; विपक्ष के किसी एक नेता को उस मोर्चे का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना चाहिए; कांग्रेस को पांच साल तक बाहर से राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार का समर्थन करना चाहिए; और देश के बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय मोर्चे के गठन और कामयाबी की दिशा में अग्रसक्रिय (प्रोएक्टिव) भूमिका निभानी चाहिए. ये चारों बातें संभव नहीं हो पाईं. लोकसभा चुनाव घोषित हो चुके हैं और 11 अप्रैल 2019 को पहले चरण का मतदान होगा. ऐसे में लेख का दूसरा भाग लिखने का औचित्य शायद नहीं रह जाता है. लेकिन विपक्ष के पाले में बने चुनावी गठबंधनों और रणनीतियों के मद्देनज़र थोड़ी चर्चा की जा सकती है.

यह स्पष्ट है कि भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के मुकाबले न 'सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा' मैदान में है, न कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए). महागठबंधन जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं लेकिन एनडीए के मुकाबले कांग्रेस समेत विपक्ष ने राज्यवार फुटकर गठबंधन ही बनाए हैं. इन गठबंधनों की चुनावों में जो भी शक्ति और सीमाएं हों, चुनावों के बाद उनकी विश्वसनीयता और स्थायित्व को लेकर अभी से अटकलें लगाई जाने लगी हैं. माना जा रहा है कि जो भी फुटकर गठबंधन हुए हैं, उनका चरित्र विश्वसनीय और स्थायी नहीं है. उनमें शामिल कुछ पार्टियां/नेता भाजपा की बढ़त की स्थिति में एनडीए के साथ जा सकते हैं. करीब 35 पार्टियों का गठबंधन लेकर चलने वाले मोदी विपक्ष की इस सारी कवायद को 'महामिलावट' कहते हैं! कांग्रेस अपने से इतर गठबंधनों पर अस्थायित्व की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाती है.           

हालांकि स्थिति इससे अलग भी हो सकती थी. हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा गया था. उन चुनावों में भाजपा को हरा कर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें बनी थीं. ध्यान दिया जा सकता है कि कांग्रेस की यह जीत किसान आंदोलन के चलते हुई थी. 5 जून 2017 को मध्यप्रदेश के मंदसौर कस्बे में पुलिस की गोली से 6 किसानों की मौत हुई थी. उस घटना से स्वत:स्फूर्त किसान आंदोलन उठ खड़ा हुआ. आंदोलन के संचालन के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति का गठन हुआ. महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में चल रहे किसान आंदोलनों के साथ मंदसौर से उठा आंदोलन दिल्ली तक पहुंच गया. कांग्रेस की उस आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी. लेकिन वह तीन राज्यों में चुनाव जीत गई.

पांच राज्यों में भाजपा की पराजय के बाद स्वाभाविक रूप से यह होना चाहिए था कि किसान आंदोलन की उठान को मज़दूर आंदोलन, छात्र-युवा आंदोलन और छोटे-मझौले व्यापारियों के आंदोलन के साथ जोड़ कर लोकसभा चुनाव तक एक प्रभावी आंदोलन बनाए रखा जाता. मोदी सरकार की किसान-मजदूर-युवा-लघु उद्यमी विरोधी नीतियों का सच लगातार सामने रखा जाता. इसके साथ मोदी सरकार का अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने वाला नोटबंदी का फैसला, अभूतपूर्व महंगाई और बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था की विफलता, चहेते बिजनेस घरानों को धन लुटाना, आर्थिक अपराधियों को देश छोड़ कर भागने में मदद करना, राफेल विमान सौदे में घोटाला करना, सरकारी परिसंपत्तियों-संस्थाओं-संयंत्रो को निजी हाथों में बेचना, संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं का ध्वंस करना जैसे ठोस मुद्दों को चर्चा में बनाये रखा जाता. वैसा होने पर मोदी और भाजपा चाह कर भी भावनात्मक मुद्दों को उस तरह नहीं उछाल पाते जैसा अब कर रहे हैं. लेकिन विपक्ष अपनी पिच तैयार नहीं कर पाया. वह ज्यादातर मोदी की पिच पर ही खेलता रहा. कांग्रेस ने बाकायदा जाति और धर्म की राजनीति करने का फैसला करके आरएसएस/भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति को वैधता प्रदान कर दी.     

विपक्ष ने लोकसभा चुनाव को लेकर परिपक्वता का परिचय नहीं दिया है. जबकि मोदी-शाह राज में साम्प्रदायिक फासीवाद चरम पर है; अमित शाह अगले 50 साल तक सत्ता पर काबिज रहने की घोषणा कर चुके हैं; और इस लोकसभा चुनाव के बाद देश में आगे कभी चुनाव नहीं होंगे जैसी धमकी एक भाजपा नेता की तरफ से आ चुकी है. आगे चुनाव नहीं होने की सूरत तभी बन सकती है, जब देश की जनता का चुनावों से विश्वास उठ जाए. आज की आरएसएस/भाजपा यह चाहेगी और उस दिशा में भरपूर प्रयास करेगी. लिहाज़ा, चुनावी प्रक्रिया को पवित्रता और गरिमा प्रदान करना विपक्ष की जिम्मेदारी बनती है. लेकिन कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्ष चुनाव को गंभीरता से लेने के बजाय चुनाव की ही गरिमा गिराने पर लगा है. टिकटों की खरीद-फरोख्त और अपराधियों से लेकर सेलेब्रेटियों तक को चुनाव में उतारने की कवायद चल रही है. जनता की नज़र से यह सब छुपा नहीं है. ज़ाहिर है, विपक्ष को जनता का विश्वास टूटने की कोई चिंता नहीं है.  

थोड़ा बुद्धिजीवियों की भूमिका पर भी विचार करें. ऊपर जिस निबंध का उल्लेख किया गया है वह इन पंक्तियों के साथ समाप्त होता है : 'देश के सभी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट, जो संविधान के आधारभूत मूल्यों - समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र - और संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण को लेकर चिंतित हैं, उन्हें राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण और स्वीकृति की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. भारत में अक्सर नेताओं ने बुद्धिजीवियों-कलाकारों को प्रेरणा देने का काम किया है. आज की जरूरत है कि बुद्धिजीवी, कलाकार और नागरिक समाज के सचेत नुमाइंदे नेताओं का मार्गदर्शन करें.' फासीवाद आने की सबसे ज्यादा बात करने के बावजूद बुद्धिजीवी उसके मुकाबले के लिए विपक्षी एकता की दिशा में कोई सार्थक भूमिका नहीं निभा पाए. वे भाजपेतर सरकार में पद-पुरस्कार तो पाना चाहते हैं, लेकिन समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के हक़ में नेताओं की आलोचना नहीं करना चाहते. धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल साम्प्रदायिकता कहलाती है. ऐसे बुद्धिजीवी भी सामने आए जिन्होंने राहुल गांधी की धर्म और ब्राह्मणत्व की राजनीति को आरएसएस/भाजपा से अलग और अच्छे के लिए बताया. बाकी ज्यादातर बुद्धिजीवियों ने इस विषय पर चुप रहने में भलाई समझी. यह एक उदाहरण है. दरअसल, आरएसएस/भाजपा का हिंदू-राष्ट्र धर्मनिरपेक्षता के चोर बाज़ार में बनता है!

निष्कर्ष रूप में कहा सकता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में जनता के स्तर पर मोदी सरकार के प्रति पर्याप्त नाराजगी है, लेकिन विपक्ष और बौद्धिक वर्ग ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह पूरी तरह से नहीं किया है. जो भी हो, राजनीति की तरह चुनाव भी संभावनाओं का खेल है. इस चुनाव में यह देखना रोचक होगा कि कारपोरेट-साम्प्रदायिक गठजोड़ की सारी जकड़बंदी और उसमें मीडिया की सहभागिता के बावजूद मतदाता मौजूदा संविधान-विरोधी सरकार को उखाड़ फेंके. यह भी हो सकता है कि सरकार की पराजय का प्रतिफल कांग्रेस को न मिल कर तीसरी शक्ति को मिले. वैसी स्थिति में अगले पांच साल के लिए देश की सत्ता की बागडोर सम्हालने की ऐतिहासिक भूमिका के बारे में तीसरी शक्ति के नेताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए. अगर इस बार यह नहीं होता है तो 2024 के लोकसभा चुनाव में पूरी तयारी के साथ प्रयास करना चाहिए.                

यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद से सीधे टकराने वाली राजनीति का काम बंद हो जाना चाहिए. वह समस्त बाधाओं के बावजूद चलते रहना चाहिए. बल्कि वह चलेगा ही, और एक दिन सफल भी होगा. जैसे स्वाधीनता का संघर्ष उपनिवेशवादियों के समस्त दमन और कुछ देशवासियों की समस्त दगाबाजियों के बावजूद अपरिहार्य रूप से चला और सफल हुआ.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं.)   

Sunday, March 3, 2019

बुजदिल और गुलाम दिमाग की देशभक्ति-प्रेम सिंह

आधुनिक औद्योगिक सभ्यता दो विश्वयुद्ध देख चुकी है. युद्ध विशेषज्ञ अभी तक तय नहीं कर पाए हैं कि दो विश्वयुद्धों में कितनी मौतें - फौजी और नागरिक - हुईं. दोनों विश्वयुद्धों में मारे गए लोगों का अनुमानित आंकड़ा 10 से 15 करोड़ के बीच में बताया जाता है. पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के आगे-पीछे कई बड़े-छोटे युद्ध हुए हैं. सभी उपनिवेशित देशों ने अपने-अपने स्वतंत्रता युद्ध लड़े हैं. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 1946 से सोवियत रूस के विघटन तक चले शीतयुद्ध के दौर को भी विद्वानों ने एक ख़ास तरह का विश्वयुद्ध कहा है और उसमें मारे जाने वाले लोगों की भी बड़ी संख्या बताई है. शीतयुद्ध के दौरान और बाद भी कई सीधे और प्रॉक्सी युद्ध हुए हैं, जिनमें दो देशों से लेकर पांच-छह देशों की भागीदारी रही है. कई युद्धों, जैसे युगोस्लाविया के विघटन के बाद हुए आतंरिक संघर्षों में गृहयुद्ध और नस्ली नरसंहार का मिश्रण हो गया है. पिछले कुछ दशकों में इस्लामी आतंकवादियों ने युद्ध और गृहयुद्ध को मिला कर युद्ध को एक अलग आयाम दे दिया है. इसके चलते 'आतंक के खिलाफ युद्ध' (वार अगेंस्ट टेरर) नाम से एक नया युद्ध शुरू हुआ है, जिसका विस्तार विश्वव्यापी है.

पहले विश्वयुद्ध में रासायनिक हथियारों का प्रयोग तो हुआ था, लेकिन परमाणु हथियारों का नहीं. दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु बम गिरा कर आने वाले समय में अपने चक्रवर्तित्व की घोषणा कर दी थी. तभी से दुनिया जहां एक ओर परमाणु युद्ध के खतरे में जी रही है, वहीँ दूसरी ओर परमाणु हथियारों को तीसरे विश्वयुद्ध को रोकने का एक बड़ा निवारक (डेटेर्रेंट) भी माना जाता है. हालांकि हथियार-निर्माता देश एक से बढ़ कर एक एक्सट्रीम वेपन्स बनाते जा रहे हैं. इस बीच तीसरे विश्वयुद्ध की चर्चा भी लगातार होती रही है. दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय से ही माना जाता है कि यूरोप और अमेरिका ने यह फैसला कर लिया था कि तीसरा विश्वयुद्ध युद्ध उनकी धरती पर नहीं लड़ा जाएगा. अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा है, 'मुझे नहीं मालूम तीसराविश्वयुद्ध किन हथियारों से लड़ा जाएगा, लेकिन चौथा विश्वयुद्ध छड़ियों और पत्थरों के साथ लड़ा जाएगा.'  

भारत ने भी युद्धों की इस सभ्यता में कुछ हिस्सेदारी की है. कई युद्धों और उसके बाद संधियों के माध्यम से ब्रिटेन ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया. ब्रिटेन का उपनिवेश होने के नाते दोनों विश्वयुद्धों में भारत की भी सीमित हिस्सेदारी रही. 1857 और 1942 में उसने उपनिवेशवादी सत्ता के खिलाफ सीधा युद्ध किया. दूसरेविश्वयुद्ध के बीचों-बीच सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में धुरी (एक्सिस) देशों के साथ सहयोग बना कर आज़ाद हिंद फौज ने भी अपने ढंग का भारत की आजादी का युद्ध लड़ा. 1857 के संघर्ष में लाखों भारतीयों ने अपने प्राणों की बाज़ी लगाई. 1942 में भी, डॉ. लोहिया के अनुसार, 50 हज़ार भारतीयों ने अपने प्राण गवांए. आज़ादी के बाद 1948, 1962, 1965, 1971 और 1999 में भारत ने अपने दो पड़ोसियों पकिस्तान और चीन के साथ युद्ध किए.

यह संक्षिप्त उल्लेख मैंने युद्ध से होने वाली जान और माल की तबाही अथवा मनुष्य पर पड़ने वाले उसके दारुण प्रभावों को दिखाने के लिए नहीं किया है. वह समस्या अपनी जगह है. साम्राज्यवादी लूट रहेगी तो युद्ध रहेंगे. लूट करने वाले देश लूटे जाने वाले देशों को आपस में लड़ाते रहेंगे. संसाधनों पर वर्चस्व के लिए वे आपस में भी भिड़ते रहेंगे. लूटे जाने वाले देशों का साम्राज्यवादी हितों का दलाल तबका खुद देश की मेहनतकश जनता के साथ युद्ध छेड़े रहेगा. यहां केवल यह कहना है कि युद्धों की सभ्यता में जीते हुए भी भारत के मुख्यधारा नागरिक समाज, जिसमें ज्यादातर बौद्धिक समाज भी समाहित है, की युद्ध के बारे में गंभीर समझ नहीं मिलती. न अपने लिए, न देश के लिए, न दुनिया के लिए. न उसे दुनिया में फैले युद्ध-उद्योग के बारे में जानकारी है, न फिलहाल चलने वाले अथवा संभावित युद्धों में भारत की क्या भूमिका रहेगी, इसकी जानकारी है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही कहा जाता है कि अगला विश्वयुद्ध, उसका जो भी स्वरूप रहे, एशिया की धरती पर लड़ा जाएगा. उस युद्ध में भारत की भूमिका और उस युद्ध के बाद भारत कैसा होगा, इस बारे में भारत के नागरिक समाज की कोई सोच देखने-सुनने को नहीं मिलती. क्योंकि वह यह तक नहीं जानता है कि उपनिवेशवादियों से पहले के आक्रमणकारियों और उपनिवेशवादियों को भारत की सेनाओं को परास्त करने में कामयाबी क्यों मिलती चली गयी. भारत की आज़ादी के दो बड़े युद्धों - 1857 का सशस्त्र संग्राम और 1942 का जनसंग्राम - के बारे में वह प्राय: निरक्षर है.   

यह हो सकता है कि कोई नागरिक समाज देश की मजबूती और खुशहाली के लिए युद्ध की तरफ से आंख फेर कर अन्य क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करे. दुनिया में जापान समेत ऐसे कई देश हैं. भारत में तो गांधी का सहारा भी लिया जा सकता है कि हम हिंसक संघर्ष में विश्वास करने वाले समाज नहीं है. लेकिन सैन्य-जगत की स्थिति और गति से अनभिज्ञ भारत के नागरिक समाज का सपना भारत को जल्द से जल्द महाशक्ति के रूप में देखने का है. बल्कि नागरिक समाज का एक हिस्सा भारत के विशाल बाज़ार और उसके साथ जुड़ी अर्थव्यवस्था की चकाचौंध में भारत को महाशक्ति मानता है. भारत का यह नागरिक समाज तरह-तरह से देशभक्ति का प्रदर्शन करता हुआ 'युद्धं देहि' की उग्र ललकार से भरा नज़र आता है. इस सिलसिले में अब स्थिति यह हो चली है कि वह गोल बना कर, यहां तक कि कई बार अकेले ही, 'घर में छिपे गद्दारों' पर हमला कर बैठता है. ऐसे तत्वों द्वारा खुलेआम गाली-गलौच, महिलाओं के प्रति भी, आम बात हो गयी है.

कहने की जरूरत नहीं कि वास्तविकता में भारत के नागरिक समाज को अपने देश की पहचान नहीं है. न उसका देश के प्रति लगाव है. क़ुरबानी देने की बात वह सोच भी नहीं सकता. इसके बावजूद वह पूरे देश का ठेकेदार बन कर दिन-रात देशभक्ति और युद्ध के उन्माद से ग्रस्त नज़र आता है.  कहने को यह भारत का नागरिक समाज है, लेकिन इसके सदस्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय संविधान की कसौटी पर भारत के अवैध नागरिक ठहरते हैं. किशन पटनायक के शब्दों में इनके दिमाग में गुलामी का ऐसा छेद हो गया है जिसकी मरम्मत आसान काम नहीं है. मैंने अपने पत्रकारी लेखन में भारतीय नागरिक समाज से जुड़ी इस परिघटना पर पिछले 20-25 सालों में कई बार लिखा है. देखने में यही आ रहा है कि इस चिंतनीय परिघटना में कमी आने बजाय तेजी आती जा रही है. लिहाज़ा, दोहराव के बावजूद, यहां संक्षेप में एक बार फिर से इस पर विचार किया गया है.  

2.

नई आर्थिक नीतियों के साथ जो 'नया भारत' बनना शुरू हुआ, उसमें नागरिक समाज पर देशभक्ति भूत की तरह सवार होती चली गई है. इसके सामानांतर उसका पहले से ही संकुचित नागरिकता बोध और ज्यादा संकुचित होता गया है, और इंसानियत की खूबियां भी घटती गई हैं. सभी जानते हैं पिछले तीन दशकों में देश के संसाधनों और श्रम की निगम पूंजीवाद (कारपोरेट कैपिटलिज्म) के हक़ में उत्तरोत्तर भारी लूट हुई है. नरेंद्र मोदी के शासन में यह प्रक्रिया अंधी दौड़ में बदल चुकी है. संविधान की मान्यताओं के खिलाफ सार्वजनिक क्षेत्र की कीमत पर प्राइवेट क्षेत्र को खड़ा किया जा रहा है. समस्त लोकतान्त्रिक संस्थाओं को विनष्ट किया जा रहा है. लोकतंत्र भीड़तन्त्र में बदलता जा रहा है. भारत नवसाम्राज्यवादी शिकंजे में बुरी तरह से फंस चुका है. राजनीतिक नेतृत्व द्वारा आज़ादी, संविधान, संसाधन, श्रम, संस्थाएं गंवाते जाने का यह कारनामा नागरिक समाज की सहमति के बिना नहीं हो सकता था. लेकिन नागरिक समाज  अपने को देश का गद्दार या साम्राज्यवादी ताकतों का गुलाम मानने को तैयार नहीं है. क्योंकि उसने पिछले तीन दशकों में अच्छी-खासी आर्थिक-सामाजिक हैसियत बना ली है. जैसे-जैसे भारत के नागरिक समाज की गद्दारी और गुलामी बढ़ती जाएगी, उसकी देशभक्ति का प्रदर्शन भी नए-नए रूपों में बढ़ता जाएगा. निगम पूंजीवाद ऐसे प्रदर्शन को पूरी हवा देगा, ताकि लूट से तबाह विशाल आबादी देशभक्ति का नशे की तरह सेवन करती रहे. नागरिक समाज इस आबादी को बताता रहता है कि उनकी समस्याओं का कारण निगम पूंजीवाद की लूट नहीं, मुसलमान हैं. हालांकि, माहौल का ऐसा असर है कि मुसलमान देशभक्ति दिखाने की होड़ में किसी से पीछे नहीं रहना चाहते!     

नागरिक समाज की देशभक्ति के आदर्श समय-समय पर बदलते रहते हैं. लेकिन उसके आदर्श-पुरुष के लिए एक आधारभूत शर्त है - उसकी आस्था निगम पूंजीवाद में होनी चाहिए. पिछले कुछ सालों से उसके आदर्श नरेंद्र मोदी और आरएसएस हैं. पहले आरएसएस को लें. आरएसएस की अपने स्थापना काल से ही बलवती इच्छा रही है कि उसे देशभक्त मान लिया जाए. कहते हैं परमात्मा जब देता है, छप्पर फाड़ कर देता है. आज का परमात्मा निगम पूंजीवाद है. उसकी कृपा से आरएसएस आज देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांट रहा है! वह बताता है कि उसके स्वयंसेवकों की सेना भारतीय सेना से पहले मोर्चा सम्हाल सकती है! गाय के गोबर से तैयार किये गए बंकर डोकलम में चीन का आक्रमण विफल कर देंगे! राष्ट्र-रक्षा यज्ञ करने से देश सुरक्षित हो जाता है! सैनिकों को शूरवीरता बढ़ाने के लिए नित्य गीता-रामायण का पाठ करना चाहिए! अपने कुछ नेताओं के माध्यम से वह यह भी बता देता है कि सैनिक देश की सुरक्षा में मरने के लिए ही होते हैं! और यह भी कि सैनिकों के मरने से बने माहौल में भाजपा चुनाव में कितनी सीटें जीत जाएगी! पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए जासूसी करते हुए उसके कार्यकर्ता पकड़े जाते हैं, लेकिन उससे आरएसएस की देशभक्ति पर कोई फर्क नहीं पड़ता! क्योंकि उसकी नज़र में वे 'पवित्र पापी' हैं!     

नरेंद्र मोदी, जिन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही रक्षा-क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश कर दिया, बताते हैं कि व्यापारी देश के लिए सैनिकों से ज्यादा जोखिम उठाते हैं! वे यह भी बताते हैं कि उनकी नस-नस में व्यापार दौड़ता है! 'देशभक्त' व्यापारी उनके साथ देश-विदेश में दौड़ लगाते नज़र आते हैं! शायद इसी दौड़ा-दौड़ी में नरेंद्र मोदी एक दिन बिना राजकीय कार्यक्रम के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से मिलने पहुंच गए! रफाल विमान सौदे में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी हिन्दुस्तान एरोनौटिकल लिमिटेड (एचएएल) का नाम हटा कर उद्योगपति अनिल अम्बानी की कंपनी का नाम चढ़ा दिया! वे जिस तरह धन्नासेठों से अपनी यारी की खुलेआम और सगर्व घोषणा करते हैं, उसी तरह का व्यवहार सेना के अभियानों के बारे में भी करते हैं! व्यापारियों का हित उनके लिए सर्वोपरि है, बशर्ते वे बड़े व्यापारी हों! जोखिम उठाने वाले, कि देश छोड़ कर विदेश भाग जाएं!

ऐसे नरेंद्र मोदी भारत के नागरिक समाज की देशभक्ति का आदर्श हैं. देशभक्ति के मामले में उनके प्रति नागरिक समाज का पूजा-भाव किसी भी सवाल से परे है. लिहाज़ा, नरेंद्र मोदी खुद को भी सवालों से ऊपर मानते हैं और आश्वस्त रहते हैं कि उनके पुजारी बखूबी सारा काम सम्हाल लेने में सक्षम हैं! तभी पुलवामा में 14 फरवरी को सुरक्षा बलों पर हुए आतंकी हमले के बाद वे पुजारियों को खुली छूट देकर अपने ऊपर फिल्म बनवाने, उदघाटन करने और चुनावी रैलियों में भाषण देने में व्यस्त बने रहे!

पुलवामा हमले के बारे में थोड़ी चर्चा की जा सकती है. किसी भी व्यवस्थित देश में सुरक्षा बल के सैनिकों की आतंकी हमले में मौत की जांच का काम सबसे पहले और पूरी गंभीरता के साथ किया जाता. और अभी तक हमले से जुड़े कुछ सुराग हाथ में आ जाते. लेकिन भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ. अभी तक हमले में शहीद होने वाले सैनिकों की संख्या भी जनता के सामने स्पष्ट नहीं है. कहीं 42 लिखा मिलता है, कहीं 44 और कहीं 40 से ऊपर. पुलवामा हमले में अगर चूक शासन की तरफ से भी हुई है, जैसा कि हमले के बाद राज्यपाल महोदय ने कहा, तो उसका ईमानदारी से पता लगाया जाना चाहिए था. जवाबदेही तय की जानी चाहिए थी, और कानून के तहत दोषियों को सजा दी जानी चाहिए थी. जैशे मोहम्मद द्वारा हमले की जिम्मेदारी लेने की सच्चाई का भी आगे की सैन्य सुरक्षा की दृष्टि से पता लगाया जाना चाहिए था. लेकिन अफसोस की बात है कि 'युद्धं देहि' के शोर में 14 फरवरी डूब गया. उनकी मौत का कोई मोल नहीं है, क्योंकि वे सैनिक निगम पूंजीवाद की लूट से मुटाए नागरिक समाज के सदस्य नहीं थे. हां, राजनीति करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा सकता था, सो बखूबी कर लिया गया है!    

लोकतंत्र में सैन्य प्रतिष्ठान राजनीतिक नेतृत्व के तहत काम करता है. लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि राजनीतिक नेतृत्व कम से कम देश की सुरक्षा के मामले में साम्राज्यवादी शक्तियों के दबाव में काम नहीं कर रहा हो. भारतीय वायुसेना ने 26 फरवरी को मुंह-अंधेरे पाकिस्तान की सीमा में प्रवेश करके बालाकोट स्थित जैशे मोहम्मद के ट्रेनिंग कैंप पर बम गिराए. विदेश सचिव के बयान के मुताबिक वायुसेना की यह 'गैर-सैन्य प्रीइम्पटिव कार्रवाई' (नोन-मिलिट्री प्रीइम्पटिव एक्शन) थी. पुलवामा हमले के बदले में भारत कुछ बड़ा करेगा, यह बयान अमेरिका के राष्ट्रपति दे चुके थे. भारतीय वायुसेना की कार्रवाई के बदले में पाकिस्तान की वायुसेना ने भारत की सीमा में दाखिल होकर सैन्य अड्डे पर हमला किया. लड़ाकू विमान मिग 21 के क्षतिग्रस्त होने से पायलट अभिनन्दन वर्तमान को पाकिस्तान की सीमा में उतरना पड़ा. अमेरिकी राष्ट्रपति ने फिर बताया कि पाकिस्तान से अच्छी खबर आने वाली है. इंदिरा गांधी के बाद से देश के सभी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में कमोबेस अमेरिका भारत का भाग्यविधाता बना रहा है. 1 अक्तूबर 2001 को जैशे मोहम्मद ने श्रीनगर में विधानसभा पर आतंकी हमला किया था, जिसमें 27 लोग मारे गए थे और 60 घायल हुए थे. प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने चिठ्ठी लिख कर अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से पकिस्तान को समझाने की गुहार लगायी थी. तब तक 9/11 हो चुका था और वाजपेयी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के साथ आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की 'नई जंग' में सबसे पहले शामिल हो चुके थे. लेकिन अमेरिका तब भी पकिस्तान के साथ था, आज भी साथ है. अमेरिका पाकिस्तान को डिक्टेट करे यह समझ आता है, लेकिन वह भारत को कैसे निर्देश दे सकता है?

14 फरवरी से लेकर आज तक घटे घटनाक्रम में नागरिक समाज की ओर से निरंतर युद्ध की मांग होती रही. युद्ध न होना था, न हुआ. अलबत्ता, एक पखवाड़े में 50 से ज्यादा भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं. अभी यह भी पक्का नहीं है कि सीमा के उस पार इससे ज्यादा संख्या में आतंकवादी मार गिराए गए हैं. बालाकोट में गिराए गए बम इज़रायल से खरीदे गए थे. युद्ध मांगने वालों ने पूरी कवायद में यह चर्चा नहीं की कि एक समय सोवियत रूस से हथियार लेने और उनके बल पर पाकिस्तान से युद्ध जीतने वाला भारत इज़रायल से हथियार क्यों खरीदने लगा? क्या भारत की सुरक्षा हमेशा के लिए विदेश से खरीदे गए हथियारों के भरोसे रहेगी? क्या हथियार बेचने वाली ताकतें भारत को ऐसे हथियार मुहैया कराती रहेंगी जिनसे संभावित तीसरे विश्वयुद्ध या किसी भी युद्ध में वह अपनी सीमाओं को सुरक्षित रख सके? क्या भारत की सुरक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की कीमत पर याराना पूंजीवाद के खिलाड़ियों द्वारा मुनाफे की हविस से आनन-फानन में कायम की गईं निजी कंपनियों के भरोसे छोड़ दी जाएगी? क्या युद्ध मांगने वाले नागरिक समाज का 'मक्का' अमेरिका, जिसकी वह पिछले 40 सालों से पूजा करने में लगा है, पाकिस्तान को हथियार और अन्य आर्थिक सहायता देना बंद कर देगा? और क्या खरीदे गए हथियारों के बल पर भारत महाशक्ति बन पायेगा?

पुलवामा की घटना के 12 दिन बाद जो हवाई कार्रवाई हुई उसमें यह ठीक ख़याल रखा गया  कि हमले में नागरिक हताहत न हों. लेकिन आतंकवादियों की सरपरस्त पाकिस्तानी सेना के ठिकानों को हमले के लक्ष्य से बाहर रखने का युद्ध में क्या औचित्य बनता है? युद्ध तो दो देशों की दो सेनाओं के बीच में होता है. अगर युद्ध की मांग करने वाले इस कार्रवाई को आतंकवाद की कमर तोड़ देने वाली मान रहे हैं तो उन्हें आतंकवाद के पाकिस्तान स्थित और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विद्यमान नेटवर्क की जानकारी नहीं है. प्रधानमंत्री के खून में व्यापार बहता है. वणिक वृत्ति से युद्ध नहीं लड़ा जा सकता, युद्ध के नाम पर राजनीतिक व्यापार किया जा सकता है. युद्ध वीर रस की कला है. वीर रस का स्थायी भाव 'उत्साह' होता है. काव्यशास्त्रियों ने बताया है कि यह भाव उत्तम प्रकृति के स्त्री-पुरुषों में ही पाया जाता है. जिनके विवेक को गुस्सा आक्रांत कर  लेता है, वे युद्ध से जुड़े वीरता के भाव में नहीं जी सकते.

दरअसल, 'युद्धं देहि' की ललकार देने वाले और उनके नायक घृणा की भावना से परिचालित हैं. उनकी घृणा किसके प्रति है, यह बताने की जरूरत नहीं है. हर इंसान अपनी भावनाओं को अच्छी तरह जानता है. वर्ना 1962 के युद्ध में चीन से हुई पराजय के बाद से भारत की 20 हजार वर्ग किलोमीटर धरती चीन के कब्जे में है. भारत की संसद ने उसे वापस लेने का सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया हुआ है. लेकिन भारत का युद्धोन्मादी नागरिक समाज उसके लिए कभी युद्ध की मांग नहीं करता. वह अमेरिका के बहिष्कार की भी कभी मांग नहीं करता, जो ओसामा बिन लादेन को अपने देश में छिपा कर रखने वाले पाकिस्तान का शुरू से सरपरस्त बना हुआ है. कहने का आशय यह है कि युद्ध मांगने वाला नागरिक समाज राष्ट्रीय भावना से किये जाने वाले युद्ध के मूल चरित्र (बेसिक स्पिरिट) से अनभिज्ञ है. बुजदिल और गुलाम दिमाग वाला नागरिक समाज कलह कर सकता है, युद्ध नहीं कर सकता. इसका सबसे चिंतनीय पहलू यह है कि लम्बे समय तक घृणा से परिचालित नागरिक समाज का सेना के मनोजगत पर गलत असर पड़  सकता है.             

3.

आरएसएस और मोदी को देशभक्ति का आदर्श मानने वाले केवल आरएसएस/भाजपा तक सीमित नहीं हैं. आरएसएस/भाजपा के समर्थकों से ज्यादा बड़ी संख्या दूसरी पार्टियों से जुड़े लोगों की है. उनके साथ वे तमाम उच्च शिक्षा प्राप्त प्रोफेशनल्स और सरकारी अफसर भी जुड़ जाते हैं, जो अपनी सारी काबिलियत के बावजूद मूलत: राजनीतिक निरक्षर (पोलिटिकल इलीट्रेट) होते हैं. उन सबसे आरएसएस/भाजपा ब्रांड देशभक्ति को बड़ी ताकत हासिल होती है. नागरिक समाज का धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील खेमा आरएसएस/भाजपा ब्रांड देशभक्ति का विरोधी है. लेकिन वह हाशिये पर चला गया है. आरएसएस/भाजपा के खिलाफ कुछ पुराने प्रचलित तथ्यों को दोहराने या सोशल मीडिया पर 'भक्तों' को चिढ़ाने वाली फुलझड़ियां छोड़ने के अलावा कुछ नहीं कर पाता. उसकी ताकत नहीं बन पाती, इसके कई कारण हैं. सर्वोपरि, वह अंदरखाने निगम पूंजीवाद का समर्थन करने के चलते आरएसएस/भाजपा के साथ खड़ा हो जाता है. इसके अलावा आरएसएस से निरंतर 'युद्ध' की स्थिति बनाए रखने की उसकी रणनीति भी आरएसएस/भाजपा को ही मजबूत बनाती है. भाजपेतर राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ उसका अवसरवादी व्यवहार निगम पूंजीवाद का निर्णायक विकल्प खड़ा करने के लिए प्रयत्नशील राजनीतिक धारा को बाधित करता है और इस तरह आरएसएस/भाजपा को स्थायी फायदा पहुंचता है. इस खेमे के ज्यादातर सामाजिक न्यायवादी-बहुजनवादी बुद्धिजीवी औए एक्टिविस्ट हिंदू धर्म और देवी-देवताओं को गाली देकर आरएसएस/भाजपा की राजनीतिक ताकत को बढ़ाते हैं. धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील खेमे में ऐसे व्यक्ति और समूह भी हैं, जो भारतीय राज्य (इंडियन स्टेट) के प्रति हमेशा गुस्से से भरे होते हैं. गुस्से में वे राज्य में कायम सरकारों और राज्य के बीच का फर्क नहीं रख पाते. उनका गुस्सा उन्हें भारतीय राज्य के ही विरोध में ले जाता है. इसका फायदा आरएसएस/भाजपा को मिलता है. नागरिक समाज में एक विशेष समूह भारतीयतावादियों का भी होता है. वे अपने को गांधी से जोड़ते हैं. अक्सर देखा गया है कि उनमें से ज्यादातर गांधी को विकृत करते हैं और आरएसएस उनकी अंतिम शरणस्थली बनता है. इधर एक टोली, जो अपने को विचारधारा-निरपेक्ष बताती है, सीधे कारपोरेट पूंजीवाद की कोख से निकल कर आई है. उसकी भगवा से लेकर लाल तक लंबी रेंज है. हालांकि, देशभक्ति का ब्रांड उसने आरएसएस/भाजपा वाला ही रखा है.          

धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील खेमा पिछले तीन दशकों में देशभक्ति का आरएसएस/भाजपा से अलग आख्यान नहीं रच पाया है. अब उसकी यह इच्छा भी नहीं लगती. वह 'आईडिया ऑफ़ इंडिया' की ऐसे बात करता है गोया भारत किसी किताब में रहता हो. वह अपनी बुद्धि, जिस पर वह कभी शंका नहीं करता, का इस्तेमाल या तो कुछ अस्मितावादी विमर्शों और गठजोड़ों में करता नज़र आता है या पद-पुरस्कारों की छीना-झपटी में. सामने कोई प्रामाणिक विकल्प नहीं होने पर आरएसएस/भाजपा ब्रांड की नकली, खोखली और पाखंडी देशभक्ति का ही सिक्का चलना है. वही चल रहा है. जब तक यह सिक्का चलेगा, देश के सामने दरपेश वास्तविक संकट - आज़ादी पर कसा हुआ नवसाम्राज्यवादी शिकंजा - से मुक्ति नहीं पाई जा सकती. आरएसएस/भाजपा की यह बड़ी 'उपलब्धि' है कि उसने कारपोरेट पूंजीवाद के साथ गठजोड़ बना कर देश में एक बुजदिल और गुलाम दिमाग को प्रतिष्ठा दिला दी है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं)               

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवा...