Tuesday, May 31, 2022

क्या बह जाएंगे भारतीय संविधान और राष्ट्र?-प्रेम सिंह


करीब पिछले तीन-चार दशकों से भारत सांप्रदायिकता की रंगभूमि बना हुआ था। इस दौरान संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता का मूल्य राजनीतिक सत्ता के गलियारों में इधर से उधर ठोकरें खाने के लिए अभिशप्त हो चुका था। 20वीं सदी के अस्सी और नब्बे के दशक में पूरे आसार बन चुके थे कि समाज किसी भी नाजुक मोड़ पर सांप्रदायिकता की बाढ़ में बह सकता है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में वह मोड़ आया, और देखते-देखते समाज सांप्रदायिकता की तेज बाढ़ में बहने लगा।

 

समाज देर तक सांप्रदायिकता की बाढ़ में बहता है, तो राष्ट्र के तौर पर उसके सभी निर्धारक अंग – विधायिका, कार्यपालिका, न्याय-पालिका एवं विभिन्न संवैधानिक लोकतांत्रिक संस्थाएं - उसकी चपेट में आते हैं; इन सबको संचालित करने वाली राजनीति सांप्रदायिक दांव-पेच का अखाड़ा बन जाती है; ‘लोकतंत्र का चौथा खंभा’ अपनी धुरी से उखड़ जाता है; धर्म विद्रूप हो जाता है; दर्शन और कलाएं पनाह मांगती घूमती हैं; बौद्धिक विमर्श प्राय: स्वार्थी और कलही हो जाता है; और नागरिक जीवन घृणा, वैमनस्य, अविश्वास और भय से ग्रस्त हो जाता है। किसी भी समाज के स्वास्थ्य के लिए यह बेहद बुरी स्थिति है। इसलिए सांप्रदायिकता की बाढ़ को रोकने के उपाय किए ही जाने चाहिए।

 

काशी और मथुरा विवादों के मद्देनजर  सांप्रदायिक बाढ़ में और पानी छोड़ने की तैयारी हो चुकी है। संविधानविद और संविधानवादी ताहिर महमूद ने आशा जताई है कि प्रमुख पूजा-स्थलों पर मुसलमान अपना दावा छोड़ कर समाज में शांति बहाली की दिशा में भूमिका निभाएं। (‘वी दि पीपुल’, इंडियन एक्सप्रेस, 28 मई 2022) महबूबा मुफ्ती ने एक सुझाव रखा  है : “अगर मस्जिदों को लेने से समस्याएं हल होती हैं, तो उन्हें लेने दो।“ (इंडियन एक्सप्रेस, 12 मई 2022) लेकिन मामला उतना सीधा नहीं बचा है। आरएसएस/भाजपा नेताओं के जो बयान आए हैं, उससे स्पष्ट है कि “यह बाबरी-मस्जिद राममंदिर विवाद को दोहराने की साजिश” नहीं, खुला ऐलान है।

 

आरएसएस प्रमुख घोषणा कर चुके हैं कि भारत ‘हिंदू-राष्ट्र’ बन चुका है। उनका विश्वास है अगले 15-20 साल में अखंड भारत भी स्थापित हो जाएगा। अखंड भारत की बात फिलहाल जाने दें, ‘हिंदू-राष्ट्र’ के अपने घोषित तकाजे हैं। इसके तहत हजारों साल पहले की ‘सच्चाईयों’ को सामने लाना है, और ‘गलतियों’ को ठीक करना है। यह सूची बहुत लंबी है – मस्जिदों के साथ ऐतिहासिक इमारतों पर हिंदू-दावा करना, शहरों-कस्बों-गांवों-सड़कों-उद्यानों-स्टेशनों आदि के मुस्लिम नामों को बदलना, सभ्यता-संस्कृति-कला-साहित्य-भाषा-लिपि आदि के स्तर पर हुए आदान-प्रदान का शुद्धिकरण करना, सनातन धर्म के नाम पर हिंदू धर्म की विविध धाराओं को नकार कर एकरूपता कायम करना, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों को उस एकरूप हिंदू धर्म में समायोजित करने के प्रयास तेज करना, सामान्य नागरिक संहिता के नाम पर मुसलमानों को लक्ष्य करके कानून बनाना, आजादी की लड़ाई का विरोध और अंग्रेजों का समर्थन करने वाले अपने पुरोधा-पुरुषों को ‘हिंदू-राष्ट्र’ के पक्ष में दूरदृष्टि वाला बता कर उनका महिमा-मंडन करना, उपयुक्त मौका आने पर गांधी, अंबेडकर जैसे नेताओं के बोझ को उतार फेंकना ... यह सूची काफी लंबी है। और अंतत: संविधान को पूरी तरह बदल देना। ऐसा नहीं है कि आरएसएस यह सब करने में कामयाब हो जाएगा। यह सब राजनीतिक-सत्ता और धन-सत्ता के मद में की गई फू-फां है। लेकिन इस सब के चलते भारत का भविष्य लंबे समय तक अनेक सांप्रदायिक विवादों से भरा रहेगा।

 

विवादों को खुले अथवा छिपे रूप में हवा देने वाले विद्वानों की भी कमी नहीं रहेगी। हाल में समाजशास्त्री बदरी नारायण ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वस्तुत: सांप्रदायिक विद्वेष, गलत बयानी और वंचना की पूंजी को जनता के विश्वास की पूंजी घोषित किया है। (‘दि ट्रस्ट वोट’, इंडियन एक्सप्रेस 25 मई 2022) इतिहास के विद्वान एम राजीवलोचन ने यह ठीक कहा है कि मुसलमानों द्वारा हिंदू धर्म-स्थलों के ध्वंस की सच्चाई सामने आने पर कुछ लोग हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्म-स्थलों के विध्वंस के हवाले देने लगते हैं। (‘वायलेंस ऑफ मोनोथीज़्म’, इंडियन एक्सप्रेस, 28 मई 2022) लेकिन वे यह नहीं कहते कि अतीत की इस तरह की घटनाओं की जानकारी के बावजूद स्वतंत्र भारत को उसके नेताओं ने धर्मनिरपेक्ष रखने का फैसला किया था; और अतीत के झगड़ों को छोड़ कर भारत की गरिमा को नए विश्व में नए मूल्यों के आधार पर स्थापित करने का आह्वान किया था। बल्कि वे बताने लगते हैं कि हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्म-स्थलों के विध्वंस की केवल छिट-पुट घटनाओं के ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं। जबकि मुसलमान आक्रांताओं ने 11वीं सदी से 17वीं सदी तक हिंदुओं के नरसंहार, धर्म-स्थलों के ध्वंस और मूर्तियों की बेअदबी का सिलसिला बनाए रखा, जब तक कि मराठों ने उन्हें रोक नहीं दिया।

 

साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मुझे आश्चर्य है कि 700 सालों के उस भयानक दौर में अखिल भारतीय स्तर पर इतना विविध और समृद्ध भक्ति-आंदोलन और उससे प्रसूत साहित्य कैसे संभव हो गया! भक्ति-साहित्य का आधार लेकर नाट्य, अभिनय, सज्जा, गायन, वादन आदि से भरपूर रामलीलाएं, रासलीलाएं, यक्षगान, बाउलगान आदि अनेक लोक कलाएं और कई शास्त्रीय कलाएं कैसे अनवरत फलती-फूलती रहीं! भक्ति-आंदोलन को दार्शनिक आधार प्रदान करने वाला वल्लभाचार्य (शुद्धाद्वैतवाद), रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैतवाद), मध्वाचार्य (द्वैतवाद) निंबार्क आचार्य (द्वैताद्वैत) का दर्शन कैसे फलीभूत और प्रचलित हो गया! यह उल्लेख मैंने इसलिए किया है कि लेखक यह कहता है कि भारत में अद्वैतवादी अथवा एकत्ववादी ब्रह्म-चिंतन की मजबूत धारा नहीं रही है। जबकि उपर्युक्त चारों दार्शनिकों का दर्शन अद्वैत एवं द्वैत की परस्पर रगड़ से पैदा होता है। भक्तिकाल के सभी निर्गुणवादी और प्रेमाख्यानवादी (सूफी) कवि एकत्ववाद को मानने वाले हैं। तुलसीदास सगुणवादी हैं, लेकिन उन्होंने सगुण-निर्गुण में भेद नहीं मानने की सलाह दी है। यहां उल्लिखित दार्शनिकों के अलावा 8वीं सदी में शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत का दर्शन विख्यात है, जिसकी परंपरा रामकृष्ण परमहंस और उनके आगे विवेकानंद में मिलती है। विद्वान यह भी मानते हैं कि इस्लाम की एकेश्वरवाद की अवधारणा उपनिषदों और बाद के भारतीय अद्वैतवादी दर्शन की देन है।  

 

लेख से यह ध्वनि भी निकलती है कि आरएसएस/भाजपा भारत में बहुदेववाद को प्रश्रय देने वाले हैं। जबकि आरएसएस/भाजपा का न बहुदेववाद से कोई गंभीर रिश्ता है, न एकत्ववाद से। लेखक ने एकत्ववाद-बहुदेववाद का प्रश्न उठाने के बावजूद यह समझा ही नहीं है कि दर्शन और भक्ति की दुनिया में कुंठित एवं पराजित मानसिकता के लोग प्रवेश नहीं कर सकते। लेखक मध्यकाल से इक्कीसवीं सदी तक चला आया है, और इस्लामी आतंकवादियों/तालीबान के हवाले से इस्लाम की मूलभूत कट्टरता का प्रतिपादन करता है। यह सही है कि कई विद्वान इस्लाम के बारे में यह मान्यता रखते हैं। यह भी सही है कि भारत में कुछ ऐसे कट्टर मुस्लिम हैं, जो दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णुता और हीनता का नजरिया रखते हैं। यह भी सही है कि भारत से, भले ही नगण्य संख्या में, मुस्लिम युवक दूसरे देशों में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा खिलाफत कायम करने के जिहाद में शामिल हुए हैं। यह भी सही है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की मांग करने वाले बहुत से मुसलमान इस्लामी देशों के धर्माधारित राज्यों को स्वाभाविक और सही मानते हैं।

 

लेकिन क्या यह संख्या उन कट्टर हिंदुओं से अधिक है, जिन्होंने देश की राजधानी में हजारों सिखों का कत्ल कर डाला था? जिन्होंने गुजरात में मुसलमानों के राज्य-प्रायोजित नरसंहार और बच्चियों-महिलाओं के बलात्कार में गर्व-पूर्वक हिस्सा लिया था? जो राम-मंदिर आंदोलन के समय से लेकर आज दिन तक मुसलमानों को अपशब्द कहने, भीड़-हत्या करने से नहीं हिचकते, उन्हें गोली मारने, उनके खिलाफ हथियार उठाने, मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार करने का आह्वान करते हैं? जिन्होंने ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जिंदा जल दिया था, जो जब-तब गिरजाघरों में जाकर तोड़-फोड़ मचा देते हैं। अगर हिंदू समाज के बारे में यह सही है कि वह बड़े पैमाने पर कट्टरपंथी नहीं हो सकता, तो भारत के मुस्लिम समाज के बारे में भी यह सही है।

 

दरअसल, स्वतंत्रता आंदोलन और संविधान के मूल्यों के परे जाकर भारत का एक “साभ्यतिक राज्य” के रूप में बखान करने वाले विद्वानों के भाषणों (‘आइडिया ऑफ इंडिया : बिफोर एण्ड बिऑन्ड’ शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित, इंडियन एक्सप्रेस, 24 मई 2022) की अकादमिक परीक्षा करने से पहले, उनकी मानसिकता को समझने की जरूरत है। ये लोग सांप्रदायिक मानसिकता में लिथड़ी किसी घटना पर मुंह नहीं खोलते। लेकिन अपने को परिवार और समाज में सभ्य दिखाने की कोशिश में महान सभ्यता का वाहक होने का भ्रम पालते हैं। यह सर्वविदित है कि परंपरागत भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर देश-विदेश के विद्वानों द्वारा आलोचनात्मक सराहना के साथ काफी महत्वपूर्ण काम हुआ है। इन लोगों को अपनी कुंठा से मुक्त होकर वह काम देखना चाहिए, और भाषणबाजी की जगह शोध की वैश्विक स्तर पर निर्धारित पद्धति का निर्वाह करते हुए भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर अपना काम करना चाहिए।

 

डॉ. लोहिया की चेतावनी थी कि हिंदू धर्म की कट्टरवादी धारा के वाहक अगर जीत जाएंगे तो भारतीय राष्ट्र के टुकड़े कर देंगे। आज की सांप्रदायिक ताकतों ने भारतीय राष्ट्र को अंदर से काफी हद तक तोड़ दिया है। वह बाहर से नहीं टूटे, और अंदर की टूट जल्द से जल्द से दूर हो, ऐसा प्रयास सभी को करना चाहिए। यह कैसे होगा इस सवाल का बना-बनाया उत्तर शायद ही किसी के पास हो। अलबत्ता, जो भी यह काम करेंगे उनका कट्टरता की कैद से मुक्त होना जरूरी है।

 

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय अध्ययन संस्थान के पूर्व फ़ेलो हैं   

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

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