Thursday, October 11, 2018

आज लोहिया होते तो गैर भाजपावाद का आह्वान करते-रामस्वरूप मंत्री



जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं.’ गैर-कांग्रेसवाद के जनक और समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया का यह कथन आज की सरकारों के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1960 के दशक में जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की सरकारों के लिए था.लोहिया युग पुरुष थे और ऐसे लोगों का चिंतन किसी एक काल और स्थान के लिए नहीं हर युग और पूरी मानवता के लिए प्रासंगिक होता है. उनकी व्याख्या भी शाब्दिक नहीं भावार्थ के साथ होनी चाहिए. इसलिए अगर उन्होंने उस समय की कांग्रेस पार्टी का एकाधिकार समाप्त करने और उसके कारण समाज में फैल रही बुराइयों को खत्म करने के लिए गैर-कांग्रेसवाद का आह्वान किया था तो आज अगर वे होते तो निश्चित तौर पर गैर-भाजपावाद का आह्वान करते. दुर्भाग्य की बात यही है उनके तमाम शिष्य या अनुयायी उनकी राह पर चलने का साहस नहीं जुटा पाते.उनकी  पुण्य तिथि पर उन्हें स्मरण करने का सबसे बड़ा प्रयोजन यही होना चाहिए कि उनके चिंतनसाहसकल्पनाशीलता और रणकौशल को आज के संदर्भ में कैसे लागू किया जाए.
लोहिया का पूरा चिंतन बराबरी के मूल्यबोधों में डूबा हुआ चिंतन है। बराबरी का यह लोकतांत्रिक विचार और स्त्री-पुरुष के बीच असमानता के मूल कारणों की खोज की जिजीविषालोहिया को और पढ़ने और खंगालने के लिए उकसाती है।
डा लोहिया  कहते हैंभारतीय मर्द इतना पाजी है कि अपनी औरतों को वह पीटता है। सारी दुनिया में शायद औरतें पिटती हैंलेकिन जितनी हिंदुस्तान में पिटती हैंइतनी और कहीं नहीं। हिंदुस्तान का मर्द सड़क परखेत पर या दुकान पर इतनी ज़्यादा जिल्लत उठाता है और तू-तड़ाक सुनता हैजिसकी सीमा नहीं। इसका नतीजा होता है कि वह पलटकर जवाब तो दे नहीं पातादिल में ही यह सब भरे रहता है और शाम को जब घर लौटता हैतो घर की औरतों पर सारा गुस्सा उतारता है।
राम मनोहर लोहिया का स्त्री विषयक चिंतनस्त्री मात्र पर विचार नहीं करता है। यह भारतीय संस्कृति में द्रौपदी को आदर्श चरित्र में खोजता हैयह स्त्री को एक अलग इकाई के रूप में नहींवरन समाज के अभिन्न हिस्से के रूप में देखता है। उस समय जब बाबा साहब अंबेडकर के अलावा कोई भी इसे नहीं देख पा रहा था। गांधी जहां महिलाओं को एक इकाई मानते थेवहीं लोहिया उन्हें जातिग्रस्त समाज का हिस्सा मानते थे। ज़ाहिर है लोहिया महिलाओं के सन्दर्भ में पितृसत्ता के साथ-साथ जातिग्रस्त पितृसत्ता को भी पहचान रहे थे। इसलिए वो महिलाओं की आर्थिक भागीदारी के अवसरों की पैरवी भी कर रहे थे। लोहिया उस दौर में अंतरजातीय विवाहों पर अपनी सहमति जताते हैंक्योंकि इससे महिलाओं को खुद को अभिव्यक्त करने का मौका मिलेगा और वो तमाम वर्जित क्षेत्रों में पहुंच सकेगी।
डॉ. राम मनोहर लोहिया के संपूर्ण राजनीतिक जीवन का संदेश यही है कि व्यक्ति और समाज की स्वतंत्रता और तरक्की के लिए विवेकपूर्ण संघर्ष और रचना. उन्होंने 1963 के उपचुनाव में लोकसभा पहुंच कर जब धूम मचा दी थी तो उनके साथ संख्या बल नहीं था. उनका साथ देने के लिए पार्टी के कुल जमा दो और सांसद थे. किशन पटनायक और मनीराम बागड़ी. लेकिन जिसके पास नैतिक बल होता है उसे संख्या बल की चिंता नहीं रहती.
लोहिया ने तीन आने बनाम पंद्रह आने की बहस के माध्यम से पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे शक्तिशाली और विद्वान प्रधानमंत्री को निरुत्तर कर दिया था और उनकी बात का जवाब देने के लिए योजना आयोग के उपाध्यक्ष महालनोबिस समेत कई अर्थशास्त्रियों को लगना पड़ा था.डॉ. लोहिया अपने इस दावे को वापस लेने को तैयार नहीं थे कि किस तरह इस देश का आमआदमी तीन आने रोज पर गुजर करता है. जबकि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर तीन आने रोज खर्च होता है और प्रधानमंत्री पर रोजाना पच्चीस हजार रुपए खर्च होता है.
सरकार दावा कर रही थी कि आम आदमी का खर्च तीन आने नहीं पंद्रह आने है. डॉ. लोहिया का कहना था कि अगर सरकार मेरे आंकड़ों को गलत साबित कर दे तो मैं सदन छोड़कर चला जाऊंगा. इस दौरान नेहरू जी से उनकी काफी नोंकझोंक हुई और पंडित नेहरू ने कहा कि डॉ. लोहिया का दिमाग सड़ गया है. इस पर उन्होंने उनसे माफी मांगने की अपील की.यहां सवाल कांग्रेस या पंडित जवाहर लाल नेहरू को चुनौती देने का नहीं सवाल व्यवस्था को चुनौती देने का है और लोहिया में उसका अदम्य साहस था. ऐसा इसलिए भी था कि वे साधारण व्यक्ति की तरह रहते थे और उनकी कोई निजी संपत्ति थी ही नहीं. वे जानते थे कि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस एक चट्टान की तरह से है इसीलिए उससे टकराना ही होगा तभी उसमें दरार पड़ेगी.
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि डॉ. लोहिया गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के बावजूद भगत सिंह के प्रति असाधारण सम्मान रखते थे. संयोग से जिस 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी हुई उसी दिन डॉ. लोहिया का जन्मदिन पड़ता था. इसी कारण डॉ. लोहिया अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे.
समाज को बदलने और समता व समृद्धि पर आधारित समाज निर्मित करने के लिए लोहिया निरंतर संघर्षशील रहे और अगर गुलाम भारत में अंग्रेजों ने उन्हें एक दर्जन बार गिरफ्तार किया तो आजाद भारत की सरकार ने उन्हें उससे भी ज्यादा बार. अन्याय चाहे जर्मनी में होअमेरिका में हो या नेपाल में उनके रक्त में उसे सहने की फितरत नहीं थी.
वे पूरे साहस के साथ उसका प्रतिकार करते थे फिर कीमत चाहे जो चुकानी पड़े. वे कीमत की परवाह नहीं करते थे और अकेले ही बड़ी से बड़ी ताकतों से टकरा जाते थे. लेकिन उनका संघर्ष सिर्फ टकराने के लिए नहीं बल्कि नई रचना करने और उनका व्याख्यान नया विमर्श खड़ा करने के लिए होता था. इसीलिए उन्होंने अपने साथियों को राजनीति के लिए जेलफावड़ा और वोट जैसे प्रतीक दिए थे. इसमें जेल संघर्ष का प्रतीक थी तो फावड़ा रचना और वोट लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता परिवर्तन का.
आज लोहिया के तमाम शिष्यों के पतन और जातिवादी राजनीति की चर्चा करते हुए या तो लोहिया के सिद्धांत को खारिज किया जाता है या गैर-कांग्रेसवादी राजनीति के कारण उन्हें फासीवाद का समर्थक बता दिया जाता है. कुछ लोग तो डॉ. लोहिया के जर्मनी प्रवास के दौरान उन पर नाजियों के सम्मेलन में जाने का आरोप भी लगाते हैं. लेकिन ऐसा वे लोग करते हैं जो न तो लोहिया के विचारों से अच्छी तरह वाकिफ हैं और न ही उनकी राजनीतिक बेचैनी से.
महात्मा गांधी के बारे में डॉ. लोहिया का यह कथन बेहद प्रासंगिक है कि बीसवीं सदी की बड़ी खोजें हैं एक महात्मा गांधी और दूसरा एटम बम. सदी के आखिर में एक ही जीतेगा. वे राजनीति को हिंसा और अनैतिकता से मुक्त करने के पक्ष में थे इसलिए धर्म के मूल्यों को राजनीति को संवारने के विरुद्ध नहीं थे,  ऐसा गांधी ने किया भी था.
वे धर्म और राजनीति को अलग अलग रखने के हिमायती थे. लेकिन उनकी इस बात को न समझने वाले कह देते हैं कि उनकी सांस्कृतिक नीति जनसंघ के नजदीक थी. डॉ. लोहिया रामकृष्ण और शिव की जिस तरह से व्याख्या करते हैं संभव है वह बात जनसंघ को अनुकूल लगे. लेकिन डॉ. लोहिया द्रौपदी बनाम सावित्री की जिस तरह से व्याख्या करते हैं वह बात जनसंघ और कट्टर हिंदुओं को कतई अच्छी नहीं लगेगी उनके लिए पांच पतियों की पत्नी और प्रश्नाकुल और बड़े से बड़े से शास्त्रार्थ करने वाली द्रौपदी आदर्श नारी थी न कि पति के हर आदेश का पालन करने वाली सावित्री या सीता. उनकी नजर में भारत गुलाम ही इसीलिए हुआ क्योंकि यहां का समाज जाति और यौनि के कटघरे में फंसा हुआ था.
   वे सबसे बड़ा खतरा कट्टरता को मानते हैं और कहते हैं कि अगर कट्टरता बढ़ेगी तो न सिर्फ यह स्त्रियों और शूद्रों और अछूतों और आदिवासियों के लिए खतरा पैदा करेगी बल्कि इससे अल्पसंख्यकों के साथ भी रिश्ते बिगड़ेंगे.
यही वजह है कि वे भारत की जाति व्यवस्था को हर कीमत पर तोड़ने के हिमायती थे. वे इसके लिए डॉ. आंबेडकर से हाथ मिला रहे थे लेकिन दुर्भाग्य से बाबा साहेब का 1956 में निधन हो गया. वे दक्षिण में रामास्वामी नाइकर से उस समय मिलने गए जब आंदोलन के दौरान वे गिरफ्तार थे और अस्पताल में थे. भारत की जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए उन्होंने ब्राह्मण बनिया राजनीति की कड़ी आलोचना की तो उन शूद्र जातियों की भी आलोचना की जो आगे बढ़ने के बाद ऊंची जातियों की ही नकल करने लगती हैं.
शूद्रों की राजनीति को बढ़ावा देने पर डॉ. लोहिया की आलोचना करने वालों को यह समझना चाहिए कि उन्होंने उन तमाम कमियों की ओर बहुत पहले सचेत किया था जो शूद्र जातियों के शासन में आ सकती हैं. आज के दौर में मंडल राजनीति से निकले जातिवादी और सांप्रदायिक राजनेताओं में उनकी चेतावनी की छाया देखी जा सकती है.
डॉ. लोहिया के संदर्भ में एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि उन्होंने जाति तोड़ो के लिए न तो जलन की राजनीति का समर्थन किया था और न ही सत्ता पाने के लिए चापलूसी की राजनीति की एक तरह से डॉ. लोहिया गांधी और आंबेडकर के बीच सेतु हैं. वे स्वाधीनता संग्राम को भी उतना ही जरूरी मानते हैं जितना जाति व्यवस्था के विरुद्ध संग्राम. वे देशभक्त तो हैं ही सामाजिक न्याय के भी जबरदस्त समर्थक हैं. यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि डॉ. लोहिया जातियों को तोड़ने का आह्वान करने के बाद वर्ग संघर्ष की बात भी करते हैं और चाहते हैं कि आखिर में वर्ग विहीन समाज का निर्माण हो. वे यह भी चाहते हैं कि मनुष्य इतिहास के उत्थान और पतन के चक्र से मुक्त हो और एक विश्व सरकार का गठन करके दुनिया में जातिलिंगराष्ट्र की गैर बराबरी मिटाकर लोकतंत्र कायम किया जाए.
(रामस्वरूप मंत्री सोशलिस्ट पार्टी इंडिया के मध्‍यप्रदेश केअध्यक्ष हैं )

Tuesday, October 9, 2018

विपक्षी गठबंधन की गांठें और मुसलमान -प्रेम सिंह


                मोदी-शाह की जोड़ी की एक के बाद एक चुनावी जीत ने केंद्र और विभिन्न राज्यों में सत्ता के प्रमुख खिलाड़ियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया था. घबराये विपक्षी दलों में भाजपा-विरोधी चुनावी गठबंधन बनाने की कोशिशें होने लगीं. लोकतंत्र पर फासीवादी संकट के मद्देनज़र सिविल सोसाइटी एक्टिविस्टों और बुद्धिजीवियों ने भी मुद्दों, नीतियों और पार्टियों/नेताओं के चरित्र को दरकिनार करके विपक्ष के चुनावी गठबंधन की जबरदस्त वकालत करना शुरू कर दी. सभी ने एक स्वर से गैर-भाजपावाद का नारा बुलंद कर दिया. उत्तर प्रदेश की तीन लोकसभा सीटों पर हुए मध्यावधि चुनावों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोकदल और कांग्रेस के साझा उम्मीदवारों के जीतने और कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के समर्थन से जनता दल (सेकुलर) की सरकार बनने से यह लगा कि विपक्ष का चुनावी गठबंधन आगे भी चलेगा. यानी उत्तर प्रदेश और कर्नाटक के चुनावों के पांच महीने बाद होने वाले पांच राज्यों - राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, मिजोरम - के विधानसभा और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव भाजपानीत राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) से इतर दल मज़बूत चुनावी गठबंधन बना कर लड़ेंगे.
      ऐसे माहौल में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बीच गठबंधन की उम्मीद की जा रही थी. क्योंकि इन विधानसभा चुनावों को करीब 6 महीने बाद होने लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया जा रहा था. लेकिन चुनावों की तारीख घोषित होने पर गठबंधन को लेकर जो स्थिति सामने आई है, उससे साफ़ लगता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में भाजपानीत एनडीए के बरक्स विपक्षी दलों के गठबंधन के प्रयासों में गंभीरता नहीं आ पाई है. साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि सत्ता से जुड़े नेताओं, चाहे वे किसी भी राजनैतिक पार्टी के हों, को उस फासीवादी संकट की परवाह नहीं है, जिसकी दुहाई पिछले चार साल से लगातार दी जा रही है. देश के खजाने और लूट के धन की बदौलत असीमित सुविधाओं का भोग करते हुए सर्वोच्च सुरक्षा-घेरे में रहने वाले नेताओं को केवल अपनी सत्ता पर आया संकट ही असली संकट लगता है. देश, समाज, संविधान, साझा विरासत आदि पर संकट की उन्हें वास्तविक चिंता नहीं है.   
                हमें नहीं पता कि मायावती पर केंद्र सरकार ने सीबीआई का दबाव बनाया है या नहीं. लेकिन दिग्विजय सिंह पर भाजपा एजेंट होने का आरोप मायावती की पुरानी आदत को ही दर्शाता है. वे अक्सर इस या उस नेता को भाजपा का एजेंट बताती रहती हैं. कांग्रेस भ्रष्ट है, यह सही है, लेकिन सत्ता के गलियारों में कौन-सी पार्टी भ्रष्ट नहीं है? कांग्रेस का सोशल मीडिया सेल राहुल गांधी को अगले प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में जोर-शोर से प्रचारित कर रहा है. जनेऊ धारण कराने के बाद उन्हें मंदिरों, घाटों, तीर्थस्थलों, राम वनगमन पथ आदि पर घुमाया जा रहा है. बुद्धिजीवियों से मिलवाया जा रहा है. सोनिया के पुराने सेकुलर सिपाही सोशल मीडिया पर राहुल गांधी और कांग्रेस के गुण-गान में उतर आये हैं. इससे मायावती को लगा होगा कि कांग्रेस प्रधानमंत्री के पद के लिए उनकी दावेदारी स्वीकार नहीं करती है. नीतीश कुमार चाहते थे कि कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार स्वीकार करे. जब उन्होंने अच्छी तरह से जान लिया कि कांग्रेस वैसा नहीं करने जा रही है, तो वे वापस एनडीए में चले गए. मायावती ने नीतीश कुमार के पलायन को अपने लिए बढ़िया मौका माना होगा.  
                मायावती चाहेंगी कि उनके साथ गठबंधन न करने की सजा में कांग्रेस राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव हार जाए. ऐसा होने पर लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस पर प्रधानमंत्री पद के लिए दबाव बना पाएंगी. शायद इसीलिए अभी उन्होंने सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रति नरम रुख दिखाया है. कांग्रेस से कड़ी बारगेनिंग करके वे अपने मतदाताओं को यह संदेश देना चाहती हैं कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बसपा की करारी हार ईवीएम में की गई गड़बड़ी के कारण थी. भले ही कुछ जानकार पत्रकार कहते हों कि मायावती जिस वोट बैंक के मुगालाते में कड़ा रुख अपना रही हैं, वह कभी का भाजपा की तरफ खिसक चुका है.   
                बहरहाल, बात अकेले मायावती और कांग्रेस की नहीं है. लोकसभा चुनाव में 6 महीने रह गए हैं. लेकिन गैर-एनडीए दलों के नेताओं में गठबंधन को लेकर ज़िम्मेदारी और गंभीरता का अभाव बना हुआ है. किसी मुकम्मल गठबंधन की बात छोड़िये, फुटकर गठबंधन की तस्वीर भी लोगों के सामने अभी तक साफ़ नहीं है. ऐसे में दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने में आ रही हैं. एक, जैसा कि व्यक्तिगत बातचीत में साथी रविकिरण जैन ने कहा, 'भाड़ में जाए यह देश, इसका कुछ नहीं हो सकता! इस तरह के आपसी अविश्वास के साथ ये लोग चुनाव में जीत भी जाते हैं, तो वह सरकार ज्यादा दिन नहीं चलेगी. भाजपा फिर पूरी ताकत से वापस आएगी.' दो, जैसा कि कुछ संजीदा नागरिकों ने सोशल मीडिया पर आक्रोश व्यक्त किया है, 'लड़ने दो नाकारा विपक्ष को आपस में, जिसे अपनी सत्ता के अलावा देश-समाज की ज़रा भी चिंता नहीं है. इनका विनाश होने पर ही नई राजनीति की संभावनाएं बनेंगी!'
                मैंने जून महीने में 'लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया' शीर्षक से एक विस्तृत लेख लिखा था, जो हस्तक्षेप डॉट कॉम सहित सोशल मीडिया की कई साइटों पर छपा था. यह लेख अंग्रेजी में 'मेनस्ट्रीम वीकली', 'जनता वीकली' पत्रिकाओं और काउंटर कर्रेंट डॉट कॉम पर भी प्रकाशित हुआ था. मैंने बहुत से साथियों को मेल से भी हिंदी और अंग्रेजी लेख भेजा था. एसपी शुक्ला, पुष्करराज, प्रो. अनिल सदगोपाल और रविकिरण जैन के अलावा किसी साथी ने लेख पर अपनी टिप्पणी नहीं भेजी. हालांकि लेख में विपक्षी गठबंधन के मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने के लिए सभी विचारशील साथियों से आग्रह किया गया है. मैंने लेख में कहा है कि कैसी भी निराशा की स्थिति हो, एनडीए से इतर जो मुख्यधारा राजनीतिक दल हैं, उन्हीं का चुनावी गठबंधन बन सकता है.
                यह सही है कि विपक्षी नेताओं को संजीदा लोगों के हिसाब से जिम्मेदार और गंभीर नहीं बनाया जा सकता. लेकिन यह भी सही है कि उनकी जगह पर नई राजनीति रातों-रात खड़ी नहीं की जा सकती. मौजूदा राजनीतिक दल और उनके ऊपर सम्पूर्ण निगम-प्रतिष्ठान यह आसानी से नहीं होने देंगे. डेविड सी कार्टन का हवाला लें तो यह वह समय है जब दुनिया पर निगम (कार्पोरेशंस) राज कर रहे हैं. संविधान-विरोधी नई आर्थिक नीतियां थोपी जाने के साथ पूरे देश में जो स्वाभाविक तौर पर प्रतिरोध आंदोलन खड़े हुए थे, उन्हें अंतत: 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' (आईएसी) द्वारा आयोजित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने नष्ट कर दिया. बताने की जरूरत नहीं कि उस आंदोलन में प्राय: समस्त सेकुलर और प्रगतिशील बुद्धिजीवी शामिल थे. उसी आंदोलन की पीठ पर सवार होकर नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बने. उनके नेतृत्व में नवउदारवाद उग्र साम्प्रदायिकता के साथ गठजोड़ बना कर नए मज़बूत चरण में पहुंच गया. उस आंदोलन में अपनी उत्साहपूर्ण भूमिका के लिए आज तक एक भी बुद्धिजीवी ने खेद प्रकट नहीं किया है. उल्टा कार्पोरेट की सीधे कोख से निकली आम आदमी पार्टी (आप) के वे शुरू से आज तक अंध-समर्थक बने हुए हैं. आज देश में जो राजनीति फल-फूल रही है, उसमें बुद्धिजीवियों की बड़ी भूमिका है. इस सच्चाई से टकराए बगैर देश में संविधान-सम्मत राजनीति और नीतियां बहाल नहीं हो सकतीं. कारपोरेट-साम्प्रदायिक गठजोड़ के बरक्स नई अथवा वैकल्पिक राजनीति की तो बात ही छोड़ दीजिए. सचमुच संजीदा लोगों को यह समझना होगा कि निराशा में पल्ला झाड़ने से कुछ भी सार्थक हासिल नहीं हो सकता.  
                लोकसभा चुनाव के पहले एनडीए के खिलाफ गठबंधन बनेगा या नहीं; बनेगा तो उसका क्या स्वरूप  होगा, इसके बारे में पता अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद ही चल पाएगा. गठबंधन में शामिल होने वाले दल इन विधानसभा चुनावों में एक-दूसरे के आमने-सामने होंगे. आरोप-प्रत्यारोप भी होंगे. परस्पर अविश्वास और कटुता बढ़ भी सकती है. भाजपा इस सबका ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की कोशिश करेगी और उस लकीर को लोकसभा चुनाव तक खींचेगी. तब गठबंधन की गांठें सुलझेंगी या और ज्यादा उलझती जाएंगी यह देखने की बात है.   
      अलबत्ता आगामी चुनावी घमासान में एक बात पूरी तरह से स्पष्ट है - मुसलामानों की एक बार फिर बुरी गत बननी है. उन पर गैर-एनडीए दल/नेता ही नहीं, एनडीए में शामिल 'सेकुलर' दल/नेता भी चील की तरह झपटेंगे. मुसलमान, हमेशा की तरह, अंत तक 'महान भारतीय लोकतंत्र' का तमाशा देखेंगे और चुनाव के दिन अंतिम क्षण में जो भाजपा को हराता दिखेगा उसे वोट कर करेंगे! इस तरह वे कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, तरह-तरह के जनतादलों, डीएमके, एडीएमके, आप (जिसने हाल में दिल्ली को राज्य का दर्ज़ा देने के बदले में लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रचार करने का वादा किया है), और आधिकारिक कम्युनिस्ट पार्टियों (जो आप सुप्रीमो केजरीवाल का सदैव बिना शर्त समर्थन करती हैं) को एकमुश्त वोट करेंगे. देश के सेकुलर दलों/नेताओं/बुद्धिजीवियों ने उन्हें यही आदत डाली है. इसके बावजूद कि सांप्रदायिक आरएसएस/भाजपा और सेकुलर दलों की सम्मिलित साम्प्रदायिक राजनीति ने बहुसंख्यक हिंदू आबादी के मानस में मुस्लिम-घृणा का शायद कभी न नष्ट होने वाला बीज बो दिया है, अपनी अस्मिता और जान की खैर मनाते हुए वे अकेले धर्मनिरपेक्षता के धर्म का पालन करेंगे!
                साम्प्रदायिक राजनीति का जवाब स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत और संविधान की धुरी पर स्थित राजनीतिक पार्टी ही हो सकती है. संवैधानिक रूप से अवैध निगम राजनीति (कारपोरेट पॉलिटिक्स) के वाहक नेता ऐसी किसी राजनैतिक पार्टी को पैर नहीं जमाने देंगे. बुद्धिजीवियों की स्थिति ऊपर बता दी गई है. विडम्बना यह है कि अपने ठहरे हुए राजनीतिक मानस के चलते मुसलमान भी कभी ऐसी राजनैतिक पार्टी का समर्थन नहीं करेंगे. मैंने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले मुसलामानों के सामने एक सुझाव रखा था : "हमारा मानना है कि यह दुश्चक्र तभी तोड़ा जा सकता है जब देश के मुसलमान नागरिक कम से कम एक बार आम चुनाव और एक बार सभी विधानसभा चुनावों में वोट नहीं डालने का कड़ा फैसला लें. भारत की राजनीति में उससे बड़ा बदलाव हो सकता है. मुसलामानों के इस 'सत्याग्रह' से धर्मनिरपेक्षता के दावेदार और साम्प्रदायिकता के झंडाबरदार - दोनों संविधान की ओर लौटने के लिए मज़बूर होंगे. और तब देश का संविधान सांप्रदायिकता पर भारी पड़ेगा." (प्रेम सिंह, संविधान पर भारी सांप्रदायिकता, पृष्ठ 27, युवा संवाद प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013)
                मैं फिर दोहराना चाहता हूं कि मुसलमान गठबंधन की गांठों की जकड़ अपने को बाहर रखते हुए लोकसभा 2019 के चुनाव की सविनय अवज्ञा कर दें.  पूरे मुस्लिम समाज के स्तर पर यह बड़ा काम आसान नहीं होगा. लेकिन सामाजिक, धार्मिक एवं नागरिक संगठन समझदारी और एका बना कर यह फैसला कर सकते हैं. इस 'शाक ट्रीटमेंट' से भारत की राजनीति में तो बड़ा बदलाव आ ही सकता है, मुस्लिम समुदाय में राजनीतिक मानस के ठहराव को तोड़ने और नागरिक-चेतना को मज़बूत करने में यह कदम क्रांतिकारी साबित हो सकता है.   

Monday, September 10, 2018

नवसाम्राज्यवादी जुए के नीचे राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह की फर्जी जंग-प्रेम सिंह


       भारत का नागरिक जीवन, खास कर पिछले दो दशकों से, राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह के बीच छिड़ी जंग से आक्रांत चल रहा है. लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ - विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका सहित चौथा स्तंभ कहा जाने वाला प्रेस-प्रतिष्ठान, शिक्षा एवं शोध-संस्थान, नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) के स्वतंत्र और प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी और अलग-अलग क्षेत्रों के एक्टिविस्ट/जनांदोलनकारी इस जंग में भाग लेते देखे जा सकते हैं. यहां तक कि देश का रक्षा-प्रतिष्ठान भी अक्सर इस जंग में जूझता नज़र आता है. सत्ता-सरंचना में समाज के ऊंचे और मंझोले स्तरों पर दिन-रात जारी यह जंग निचले स्तरों पर अपना का असर न डाले यह संभव नहीं है.   
       मौजूदा सरकार के सत्तासीन होने के बाद से यह जंग ज्यादा तेज़ हुई है. यह स्वाभाविक है. राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह का जुड़ाव राष्ट्रवाद से है. राष्ट्रवाद को पूंजीवाद के साथ जोड़ कर देखा जाता है. उग्र- पूंजीवाद को उग्र-राष्ट्रवाद चाहिए. उग्र-राष्ट्रवाद में राष्ट्रीय अस्मिता/चेतना का पूंजीवादी लूट को सुरक्षित बनाने के लिए अंध-दोहन किया जाता है. इस प्रक्रिया में लोगों के सामने राष्ट्र-द्रोही के रूप में एक फर्जी शत्रु बना कर खड़ा कर दिया जाता है. लोग अपने और राष्ट्र के असली शत्रु (वर्तमान दौर में कार्पोरेट पूंजीवाद) को भूल कर फर्जी शत्रु से भिड़ंत में जीने लगते हैं. भारत और दुनिया के कई देशों में उभरा उग्र-राष्ट्रवाद किसी न किसी रूप में उग्र-पूंजीवाद की अभिव्यक्ति (मेनिफेस्टेशन) है.       
       भारत में छिड़ी राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह की जंग के मूल में राष्ट्र को लेकर कोई सुचिंतित और गंभीर वैचारिक अंतर्वस्तु (कंटेंट) नहीं है. यह सिद्ध करने के लिए इस जंग के विभिन्न वैचारिक-रणनीतिक प्रसंगों और आयामों की लंबी तफसील देने की जरूरत नहीं है. जिस तरह से पक्षों, पात्रों, विचारों, आख्यानों, मुद्दों, प्रतीकों, लक्ष्यों, रणनीतियों आदि का पल-पल पाला बदल होता है, उससे राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह की जंग की विमूढ़ता स्वयंसिद्ध है. राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह की जंग का स्वरुप किस कदर विद्रूप और हास्यास्पद बन गया है, यह महज तीन बिंबों पर नज़र डालने से यह स्पष्ट हो जाता है. एक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में टैंक रखवाया जाना; दो, कश्मीर में फौजी अफसर का एक नागरिक को जीप के बोनेट से बांध कर प्रतिरोधकर्ताओं के सामने घुमाना; तीन, इस बार हज करने मक्का गए भारतीय मुसलामानों का वहां पर राष्ट्र-ध्वज तिरंगे का अजीबोगरीब प्रदर्शन करना.
       कई विद्वान् इस जंग में राष्ट्र के अलग-अलग आख्यान और उनकी टकराहट खोजते हैं. उस बहस पर मैं यहां गहराई में नहीं जाना चाहता. केवल यह कहना है कि आधुनिक भारत में राष्ट्र की अवधारणा का संबंध अनिवार्यत: उपनिवेशवाद विरोध से जुड़ा हुआ है. राष्ट्र का कोई भी आख्यान अगर नवसाम्राज्यवाद को संबोधित नहीं करता है, तो वह खुद अपने फर्जी होने की सच्चाई स्वीकार करता है. राष्ट्रीय जीवन के केंद्र में राजनीति होती है. राजनीति वास्तविक भी हो सकती है (होनी चाहिए) और फर्जी भी. जहां फर्जी राजनीति समवेत रूप में धड़ल्ले से चलती है, वहां राष्ट्रीय जीवन में सब कुछ फर्जी होता चला जाता है. भारत में पिछले करीब तीन दशकों से यही होता चला आ रहा है. राष्ट्र-द्रोह के आरोपों की बौछार झेलने वाले पक्ष की तरफ से जिस भारतीय-राष्ट्र के तर्क दिए जाते हैं, वे भी प्राय: उतने ही उथले हैं, जितने खुद अपने को राष्ट्र-भक्ति का प्रमाणपत्र देने वाले हिंदू-राष्ट्र के दावेदारों द्वारा दिए जाते हैं.
       एक उदाहरण पर्याप्त होगा. पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुख्यालय में भाषण देने जाने पर काफी विवाद हुआ. जब उन्होंने भाषण दे दिया तो उनके जाने का विरोध करने वाले तुरंत पाला बदल कर उनकी प्रशंसा के पुल बांधने लगे. कहा गया कि श्री मुखर्जी ने आरएसएस को उसके मुख्यालय में जाकर भारतीय-राष्ट्र का पाठ अच्छी तरह से पढ़ा दिया है. यह कहते वे मगन हो गए कि भारतीय-राष्ट्र का विचार और उसके प्रणेता कितने महान हैं! और, ज़ाहिर है, उस विचार तथा उसके प्रणेताओं को मानने वाले हम भी!
       यह सवाल उठाया ही नहीं गया कि भारतीय-राष्ट्र के महान विचार और प्रणेताओं के रहते हिंदू-राष्ट्र का इस कदर उभार कैसे हो गया? जबकि वह पिछले 80 सालों, डॉ. लोहिया के 'हिंदू बनाम हिंदू' निबंध का हवाला लें तो हजारों साल से हवा में तैर रहा था. यह सवाल उठता तो यह भी पूछा जाता कि देश के समस्त अकादमिक, शैक्षिक, साहित्यिक, कलात्मक, सांस्कृतिक संस्थानों और बड़े-बड़े एनजीओ की जिम्मेदारी लिए होने के बावजूद देश का साधारण सहित शिक्षित-संपन्न तबका भारत से लेकर विदेशों तक हिंदुत्ववादी-फासीवादी मानसिकता के साथ क्यों चला गया? दरअसल, भारतीय-राष्ट्र के दावेदार अपनी जिम्मेदारी का सवाल बहस में आने ही नहीं देना चाहते. जिम्मेदारी का सवाल बहस में आने से उन्हें आत्मालोचना करनी होगी. आत्मालोचना वही करता है, जो अपने को आलोचना से परे नहीं मानता. भारतीय-राष्ट्र के खास कर मार्क्सवादी, आधुनिकतावादी और इच्छा-स्वातंत्र्यवादी (लिबरटेरीयंस) दावेदार नहीं चाहेंगे कि इस बात पर खुले में चर्चा हो. वे भारतीय-राष्ट्र का हिंदू-राष्ट्र के बरक्स रणनीतिक इस्तेमाल भर करते हैं. वह रणनीति आरएसएस को एक अकेला शत्रु चित्रित करने की है. (यह आरएसएस को माफिक आता है, क्योंकि उसकी भी वही रणनीति है.)
       उपनिवेशवादी वर्चस्व के दौर से लेकर आजादी हासिल करने तक जो भारतीय-राष्ट्र का स्वरुप बना, और जो अपनी खूबियों-कमियों के साथ अभी भी क्षीण रूप में निर्माणाधीन है, मार्क्सवादी, आधुनिकतावादी और इच्छा-स्वातंत्र्यवादी उस स्वरुप को लेकर स्पष्टता नहीं बरतना चाहते. शायद उनमें से ज्यादातर की निष्ठा उसमें नहीं है. उनका सरोकार अपने बौद्धिक दाव-पेचों से है, जिनके बल पर वे राष्ट्रवाद का खटराग चलाए रखना चाहते हैं, जिसमें एक तरफ भारतीय-राष्ट्र के दावेदार हों और दूसरी तरफ हिंदू-राष्ट्र के दावेदार. ज्यादातर अंग्रेजी में पगे ये बौद्धिक अभिजन यह समझने को तैयार नहीं हैं कि भारत की मेहनतकश जनता ने उनके इन बौद्धिक दाव-पेचों की भारी कीमत चुकाई है; और वह अब तरह-तरह की भ्रांतियों का शिकार हो चुकी है.
       श्री मुखर्जी के भाषण के संदर्भ में भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों की ओर से यह सवाल उठाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता कि ये दोनों राष्ट्र ख़ुशी-ख़ुशी नवसाम्राज्यवाद का जुआ खींचने में एक साथ जुते हुए हैं. आरएसएस विरोधी कितना ही लोकतंत्र का वास्ता देकर फासीवाद विरोध का आह्वान करते हों, आरएसएस जानता है भाजपा की सरकार हमेशा नहीं रहनी है. उसने राहुल गांधी को अपने मुख्यालय में आने का निमंत्रण दे दिया है. भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों के समर्थन से जब कारपोरेट के किसी और प्यादे की पूरी मज़बूती बन जायेगी, तो आरएसएस उसे भी अपने यहां बुला लेगा. यह अप्रोप्रिएसन नहीं है. नवसाम्राज्यवाद के समर्थन में दो फर्जी पक्षों का एका है, जो 1991 के बाद से अंदरखाने उत्तरोतर मज़बूत होता गया है.

2
       यह अकारण नहीं है. आधुनिक भारत के संदर्भ में राष्ट्रवाद के ये दोनों विचार अवास्तविक हैं. संघियों का 'स्वर्णिम' राष्ट्र सुदूर काल में स्थित है और कम्युनिस्टों, आधुनिकतावादियों और इच्छा स्वातंत्र्यवादियों का 'स्वर्णिम' राष्ट्र सुदूर स्थान में स्थित है, जो सुविधानुसार बदलते रहते हैं. आश्चर्य नहीं कि राष्ट्र के इन दोनों अवास्तविक विचारों की परिणति अनिवार्यत: वर्तमान निगम पूंजीवाद में होती है. उसीका नतीज़ा यह है कि हिंदू-राष्ट्र में डिज़िटल इंडिया के साथ 'मनुवाद' नत्थी कर दिया जाता है. दूसरी तरफ, भारतीय-राष्ट्र के दावेदार डिज़िटल इंडिया में कई वादों (इज्म्स) का विचित्र घालमेल नत्थी करते हैं. उपनिवेशवाद के साथ संघर्ष और संवाद की प्रक्रिया में भारतीयता को पुनर्परिभाषित और पुनर्व्याख्यायित करने का जो ऐतिहासिक उद्यम शुरू हुआ था, उसमें लगभग ठहराव आ चुका है. उस दौर में वैश्विक पटल पर भारत को पुनर्व्यवस्थित करने की वह धारा अब क्षीण रूप में ही बची रह गई है. राष्ट्र का ठहरा हुआ विचार मानसिकता में बदल जाता है, जो एक साथ हिंसावादी, षड्यंत्री और कायर हो सकती है.    
       पूंजीवाद रहता है तो पूंजीवादी दमन के खिलाफ लोग प्रतिरोध करते हैं. लोग प्रतिरोध न करें, या प्रतिरोध में शामिल न हों, इसके लिए पूंजीवादी निजाम ने एनजीओ बनाए हैं. लेकिन विशाल आबादी वाले भारत में पूंजीवादी तबाही का कोई अंत नहीं है. यहां एनजीओ की बाड़ लगा कर लोगों को लड़ने से नहीं रोका जा सकता. लोग नागरिक के तौर पर राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ पाते तो धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा के नाम पर लड़ते हैं. भारतीय-राष्ट्र और हिंदू-राष्ट्र के दावेदारों के बीच सारा झगड़ा प्रतिरोधरत लोगों को अपने-अपने पक्ष में फोड़ने का है. वे कोई बीच का रास्ता नहीं छोड़ना चाहते. ऐसे में भारत एक 'भीड़-राष्ट्र' में तब्दील हो रहा हो तो आश्चर्य नहीं.           
       यह सोचने की बात है कि भारतीय-राष्ट्र के दावेदार सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट फासीवादी हमले के खिलाफ समुदायों (दलित, मुस्लिम, आदिवासी, पिछड़े आदि) को एक मंच पर लाने का आह्वान करते हैं. वे उन्हें 'टेक इट फॉर ग्रांटेड' लेते हुए उनके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा ठेकेदार निर्माण मजदूरों के साथ करते हैं. भारतीय-राष्ट्र के दावेदार बुद्धिजीवी समझते हैं ज्ञान की पूंजी केवल उनके पास है. आरएसएस की रणनीति शुरू से समुदायों को अपने पक्ष में गोलबंद करने की रही है. इस रूप में आरएसएस शुरू से आधुनिक नागरिकता-बोध का सबसे बड़ा अवरोधक बना हुआ है. क्या भारतीय राष्ट्र के दावेदार सिविल सोसाइटी एक्टिविस्टों ने भी फैसला कर लिया है कि हिंदू-राष्ट्र का मुकाबाला नागरिक-राष्ट्र से नहीं करना है? कहां तो 1991 में नई आर्थिक नीतियां लागू की जाने के साथ ही अलग-अलग क्षेत्रों के मुद्दा-आधारित प्रतिरोध आंदोलनों को जोड़ कर नवसाम्राज्यवादी हमले को परास्त करने के लिए वैकल्पिक राजनीति खड़ी करने के प्रयास हो रहे थे, कहां कारपोरेट राजनीति की गोद में बैठ कर समुदायों को एकजुट करने अथवा/और आपस में लड़वाने के आह्वान किये जा रहे हैं!
       एक समय ऐसा माना गया था कि जाति-समीकरण (पिछड़े-दलित-मुसलमान) की राजनीति सांप्रदायिकता की काट है. उसे सामाजिक न्याय की राजनीति जैसा सुंदर नाम दिया गया था. लेकिन आरएसएस ने आगे बढ़ कर उसे अपना हथियार बना लिया. क्योंकि भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों ने सामाजिक न्याय की राजनीति को समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की संवैधानिक विचारधारात्मक धुरी पर कायम नहीं किया. चुनावों में 'सोशल इंजीनियरिंग' तक ही सामाजिक न्याय की राजनीति सीमित रह गई. बाकी रहा-सहा काम जातिवादी-परिवारवादी नेताओं ने कर दिया. कहने की जरूरत नहीं है कि इस भीड़ बनते राष्ट्र में सबसे ज्यादा दुर्गति मुसलमानों की हुई है. राजनीतिकरण की प्रक्रिया से अलग-थलग पड़ा ज्यादातर मुस्लिम समाज इस या उस सामाजिक समुदाय और राजनीतिक पार्टी/नेता का पुछल्ला बनने को बाध्य है. उनके लिए हिंदू-राष्ट्र में जगह नहीं है. कम से कम बराबरी की जगह नहीं है. लेकिन भारतीय-राष्ट्र में भी उनकी जगह बराबरी की हैसियत वाले नागरिकों की नहीं है. वहां उनके साथ रक्षक-भाव से बर्ताव किया जाता है. वह बर्ताव अपने को धर्मनिरपेक्ष दिखाने और उसके बदले में पद-पुरस्कार-अनुदान पाने की नीयत से परिचालित होता है.              

3
       भारतीय-राष्ट्र का दायरा बांध कर राष्ट्र की दावेदारी के जितने आख्यान सक्रिय हैं, उनके एक साझा (कॉमन) पाखण्ड पर ध्यान देने की जरूरत है. वे सभी गांधी के विरोधी हैं. वे गांधी को कभी भगत सिंह की छड़ी से, कभी अम्बेडकर की छड़ी से, कभी सुभाषचंद्र बोस की छड़ी से, कभी जवाहरलाल नेहरू की छड़ी से, कभी जिन्ना की छड़ी से पीटते हैं. लेकिन आरएसएस का सामना होते ही प्राय: वे सभी गांधी की हत्या का रोदन करने लगते हैं. मैं यहां पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता के आपदायी चरित्र को उसकी जययात्रा के दौर में पहचान लेने वाले गांधी; हिंसा-ग्रस्त दुनिया को राजनीति का नया अर्थ और तरीका बताने वाले गांधी; और 'राष्ट्रपिता' गांधी की बात नहीं कर रहा हूं. भारत में गांधी को इन रूपों में याद करने की कोई प्रासंगिकता भी नहीं है. क्योंकि भारतीय-राष्ट्र और हिंदू-राष्ट्र दोनों के दावेदार कारपोरेट पूंजीवाद पर एकमत हैं और उसके साथ ही गांधी के राजनैतिक दर्शन को अमान्य करने पर एकमत हैं. भारतीय-राष्ट्र के दावेदार भले ही खुल कर न कहते हों, हिंदू-राष्ट्र के दावेदारों की तरह 'राष्ट्रपिता' गांधी भी उन्हें स्वीकार नहीं है. भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों को चाहिए कि वे गांधी को 'राष्ट्रपिता' की बेड़ियों से भी तुरंत मुक्त कर दें. इस पर सर्वानुमति बनाने में किसी कोने से कोई दिक्कत नहीं आएगी. हिंदू-राष्ट्रवादी मन, जो अभी तक गांधी की हत्या में क्रूरता का सुख लेता है; अथवा गोडसे की जगह गांधी की हत्या करने की अभिलाषा पालता है, इसके लिए तुरंत तैयार होगा.         
       मैं यहां उस गांधी की बात कर रहा हूं जिसने सदियों से वर्ण-जाति-सम्प्रदाय में विभाजित और साम्राज्यवादी लूट से जर्जर विशाल भारतीय समाज की सामूहिक चेतना को साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के साथ जोड़ दिया था. गांधी ने आगे बढ़ कर यह भी किया कि तत्कालीन विविध बौद्धिक समूहों को भी जनता की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के साथ एकबद्ध होने को बाध्य कर दिया था. स्वतंत्र आधुनिक भारतीय-राष्ट्र के लिए गांधी की यह अनोखी देन थी कि अपने इस उद्यम में उन्होंने साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों के प्रति शत्रुता का भाव नहीं रखा, और भारतीयों को भी इसके लिए तैयार करने की कोशिश की. मार्टिन लूथर किंग जूनियर से लेकर नेल्सन मंडेला तक गांधी की इस सीख के प्रति धन्यवादी रहे हैं. अगर भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों को वह गांधी भी नहीं चाहिए, तो अपने भारतीय-राष्ट्र से उन्हें गांधी को तुरंत बेदखल कर देना चाहिए. यह काम बुद्धिजीवी ही कर सकते हैं, क्योंकि एक समूह के तौर पर गांधी को लेकर सबसे ज्यादा पाखंड वे ही करते हैं. दुनिया में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहां एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ, जिसने स्वतंत्रता संघर्ष में अपना जीवन लगाया, अपनी भली-बुरी भूमिका के एवज़ में स्वतंत्र नवोदित राष्ट्र से न कुछ चाहा, न कुछ लिया, उसे देश के बुद्धजीवियों से अपार घृणा और तिरस्कार मिला हो.
       भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों द्वारा गांधी-मुक्त भारत बनाने से एक बड़ा फायदा यह होगा कि शासकवर्ग गांधी को मोहरा बना कर अपनी सत्ता की मज़बूती नहीं बना पायेगा. क्योंकि गांधी को लेकर बुद्धिजीवियों का पाखंड शासकवर्ग द्वारा जनता के खिलाफ उनके नाम के इस्तेमाल में मदद करता है. गांधी-मुक्त भारत होने पर शासकवर्ग द्वारा दुनिया में गांधी को बेचने का धंधा भी एक दिन ख़त्म हो जा सकता है. गांधी ने एक बार अपनी राजनीति में सक्रियता का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना बताया था. भारतीय-राष्ट्र के दावेदार गांधी-मुक्त भारत बना कर उन्हें सचमुच मुक्ति देने का काम करेंगे!   


4
       यह अकारण नहीं है कि भारतीय-राष्ट्र के लगभग सभी दावेदार संकट की गहनता के बावजूद किसी राजनैतिक विकल्प की चर्चा तक नहीं करते. बल्कि उन्होंने 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' (आईसीए) के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उस आंदोलन की पार्टी के साथ पूर्ण एकजुटता बना कर 1991 के बाद बनी वैकल्पिक राजनीति की समस्त संभावनाओं को सफलता पूर्वक नष्ट कर दिया है. ध्यान दिया जा सकता है कि पब्लिक डोमेन में भारत माता और तिरंगे को राष्ट्र-भक्ति के प्रदर्शन का ब्रांड-उपकरण भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और आम आदमी पार्टी ने ही बनाया था. भारत में बुद्धिजीवियों का काफी तूमार बांधा जाता है. यह विडम्बना ही है कि राष्ट्र के सामने उपस्थित गहन संकट के बावजूद वे कोई नया रास्ता नहीं बनाना चाहते. जबकि आधुनिक युग की यह अलग विशेषता है कि यहां जो भी होता है, उसकी रूपरेखा बुद्धिजीवी तैयार करते हैं; भले ही उनमें कई ऊंचे पाए के नेता भी होते हों.        
       कांग्रेस ने जब 1991 में नई आर्थिक नीतियां थोपीं तो अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि अब कांग्रेस ने उनकी विचारधारा और काम अपना लिए हैं. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब भाजपा की गठबंधन सरकार बनी और उसने एक के बाद एक अध्यादेशों के ज़रिये कारपोरेट-हित के फैसले लिये तो किशन पटनायक ने 'राष्ट्रवादी' आरएसएस से जवाब तलब किया था. आरएसएस की असलियत अब खुलकर सामने आ गई है. उसकी सारी 'सांस्कृतिक' और 'राष्ट्रवादी' फू-फां पूंजीवादी बाजारवाद की जूठन पर कब्ज़ा ज़माने के लिए थी. संस्कृति और उस पर उपलब्ध विपुल चिंतन के मद्देनज़र आरएसएस की सांस्कृतिक समझ और प्रतिबद्धता पर चिंता ही की जा सकती है! शिकागो में गरजने वाले आरएसएस के 'हिंदू शेर' मोहन भागवत ने रक्षा-क्षेत्र में सौ प्रतिशत विदेशी निवेश के अपनी सरकार के फैसले पर म्याऊं तक नहीं की. जिन छोटे और मंझोले व्यापारियों ने स्थापना के समय से ही आरएसएस/जनसंघ/भाजपा को तन-मन-धन दिया, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेट घरानों से यारी होते ही आरएसएस ने उन्हें लात लगा कर नीचे गिरा दिया. लिहाज़ा, आरएसएस के 'हिडन अजेंडे' का बार-बार खुलासा और विरोध करने का ज्यादा अर्थ नहीं है.
       लेकिन भारतीय-राष्ट्र के दावेदारों के यहां भारत और दुनिया में पसरी नवसाम्राज्यवाद की परिघटना, भारत में साम्प्रदायिक फासीवाद जिसका उपोत्पाद है, पर अब कोई चर्चा नहीं होती. गोया इतनी कुर्बानियों से हासिल की गई आज़ादी को गंवाना कोई चिंता की बात नहीं है. उनकी मूल चिंता केवल आरएसएस के फासीवाद को परास्त करने की है. इस कवायद में भारतीय-राष्ट्र के दावेदार बुद्धिजीवी पूरी बहस को ही दिग्भ्रमित (मिसगाइड) करने से नहीं हिचकते. वे नवसाम्राज्यवादी शिकंजे से ध्यान हटा कर बहस को कभी फासीवाद बनाम लोकतंत्र, कभी हिंदुत्व बनाम हिंदू-धर्म, कभी ब्राह्मणवाद बनाम दलितवाद, ब्राह्मणवाद बनाम पिछड़ावाद आदि के रूप में पेश करते हैं. उनका सारा जोर इन्हीं संघर्षों (कन्फलिक्ट्स) को तेज़ करने की रणनीतियां बनाने पर रहता है. यह तथ्य है कि लोकतंत्र के चलते कुछ जातिगत-समुदायों की राजनीतिक ताकत बनी है. वे उस ताकत को सुरक्षित रखते हुए और ज्यादा बढ़ाने की जद्दोजहद करते हैं. उनका यह संघर्ष (स्ट्रगल) लोकतांत्रिक धरातल पर ही चलना चाहिए. क्योंकि वहीँ से वह ताकत हासिल की गई है और आगे वहीँ से बढ़ाई जा सकती है. लेकिन देखने में आता है कि कुछ बुद्धिजीवी अपनी रणनीति के तहत इन समुदायों में 'मिलिटेंट' तत्वों की तलाश करके उन्हें भारतीय राज्य के विरुद्ध हिंसक प्रतिरोध से जोड़ना चाहते हैं. क्या फासीवाद के मुकाबले की इस तरह की रणनीति के पीछे की मंशा को ईमानदार कहा जा सकता है?    


5
       देश पर 1991 में नई आर्थिक नीतियां थोपे जाने पर समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने राष्ट्र-भक्ति और राष्ट्र-द्रोह की बहस को एक उचित परिप्रेक्ष्य और दिशा देने की कोशिश की थी. उन्होंने भारत पर दो सदियों के उपनिवेशवादी आधिपत्य के अनुभव को अपने चिंतन का मुख्य आधार बनाया है. वे भारत में नवउदारवाद की शुरुआत को गुलामी की शुरुआत से जोड़ कर देखते हैं और इसके लिए भारत के बुद्धिजीवियों को जिम्मेदार ठहराते हैं. उनकी स्थापना है कि नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद के बरक्स भारतीय बुद्धिजीवियों का दिमाग स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पाता है. किशन पटनायक नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद का मुकाबला करने के लिए आर्थिक राष्ट्रवाद का सूत्र प्रस्तावित करते हैं. उनके अनुसार देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों की भारत के संसाधनों की लूट का निर्णायक विरोध करते हुए नवउदारवाद के विकल्प का रास्ता तैयार करने वाले राष्ट्र-भक्त की कोटि में आते हैं. उन्होंने स्पष्ट कहा नहीं है, लेकिन नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद के समर्थक अपने आप राष्ट्र-द्रोही की कोटि में आ जाते हैं.  (इस विषय पर विस्तृत विवेचन के लिए उनकी पुस्तकें - 'भारत शूद्रों का होगा', 'विकल्पहीन नहीं है दुनिया', 'भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि' तथा 'सामयिक वार्ता' व अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेख देखे जा सकते हैं)
       अंत में : उग्र-पूंजीवाद हमारे संसाधनों और श्रम को ही नहीं लूट रहा है, हमारे राष्ट्रीय बोध को भी खोखला कर रहा है. बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि हमारा राष्ट्रीय बोध खोखला हो चुका है, तभी देश के संसाधनों और श्रम की इस कदर खुली लूट संभव हो पा रही है. राष्ट्रीय बोध नहीं रहने पर हमारा राष्ट्रीय जीवन समृद्ध बना नहीं रह सकता. जैसा कि हम देख रहे हैं, वह सतही और कलही होने के लिए अभिशप्त है. दरअसल, यह जो उग्र-राष्ट्रवाद दिखाई दे रहा है, वह राष्ट्रीय बोध के खोखलेपन को भरने की एक निरर्थक कवायद है. इसके तहत येन-केन प्रकारेण ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक सत्ता हथिया कर नवउदारवादी लूट की ज्यादा से ज्यादा जूठन बीनने की छीना-झपटी चलती है. लगता है यह दौर कुछ समय तक ऐसे ही चलेगा. लेकिन यह स्वीकार करना चाहिए कि हमेशा यह स्थिति नहीं रहेगी. समय आयेगा जब किसी पीढ़ी में वास्तविक (जेनुइन) राष्ट्रीय बोध की भूख जागृत होगी. अगर भारत के राष्ट्रीय जीवन में वह समय नहीं आता है, तो मान लेना चाहिए कि हम राष्ट्र होने के लायक नहीं हैं. आधुनिक विश्व में गुलामी हमारी नियति है!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी का शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी (भारत) का अध्यक्ष है)    

Wednesday, September 5, 2018

लो कम्यूनिस्टों ने भी पहन ली कॉर्पोरेट की टोपी

(पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट: जहां मार्क्स और लेनिन पर भारी है दावेदारी)

वाराणसी संसदीय सीट से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल ने जब गंगा में डुबकी लगाई थी तो उस वक्त आम आदमी पार्टी के नेता और स्वारज इंडिया के संस्थापक योगेंद्र यादव ने कहा था कि 'आज गंगा कुछ पवित्र ही हो गई है'। 28 अगस्त को जब समाचार पत्रों में आम आदमी पार्टी के पूर्वी दिल्ली कार्यालय के उद्घाटन के दौरान हवन करती आतिशी मर्लेना और दूसरे नेताओं की फोटो देखी तो मैंने सोचा कि आज अगर योगेंद्र यादव AAP में होते तो कुछ यूं कह रहे होते 'पूर्वी दिल्ली कार्यालय से निकले हवन के धुएं ने पूर्वी दिल्ली की हवा को दैवीय सुगंध से भर दिया है'।

बात केवल एक चुनावी कार्यालय के उद्घाटन करने के तरीके भर की नहीं है। दरअसल ये आडंबर है आम आदमी पार्टी की राजनीति का जिसके वशीभूत वामपंथी विचारक और नेता अपनी सारी जमा पूंजी लुटाने में लगे हैं। ख़ैर अब ना तो योगेंद्र यादव आम आदमी पार्टी में हैं और ना ही उनका कोई बयान आया है । असली ख़बर ये है कि पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से 'आम आदमी पार्टी' की संभावित उम्मीदवार आतिशी ने मार्क्स और लेनिन को जोड़कर सृजित किए गए अपने सरनेम की आहुति दे दी है। आतिशी के अति वामपंथी विचारक माता पिता का दिया गया मर्लेना सरनेम आतिशी के साथ पिछले 37 सालों से जुड़ा हुआ था। लेकिन मार्क्स और लेनिन को जोड़कर सृजित किया गया सरनेम पूर्वी दिल्ली लोकसभा संसदीय सीट की दावेदारी के आगे पत्तों की तरह उड़ गया। इस बदलाव को 'आम आदमी पार्टी' ने आतिशी का निजी फैसला कहा है साथ ही बीजेपी पर आरोप लगाया है कि मर्लेना सरनेम देखकर वो मतदाताओं को ईसाई कहकर भड़का सकते हैं। इस आरोप ने एक बार फिर से 'आम आदमी पार्टी' की राजनीतिक विवेकहीनता ज़ाहिर की है। सवाल सीधा है कि क्या अगर किसी इसाई को चुनाव लड़ना हो तो क्या वो भी अपना नाम बदल ले। आम आदमी पार्टी के हवाले से इस तरह की भी ख़बर है कि सिर्फ आतिशी रखने या आतिशी सिंह लगाने से पूर्वी दिल्ली की अल्पसंख्यक आबादी का रूझान होगा। ज़ाहिर है ये 'आम आदमी पार्टी' की राजनीतिक नासमझी और सांप्रदायिक-जातिवादी सोच से ज्यादा कुछ नहीं।

आतिशी के नाम से मर्लेना हटाए जाने की ख़बर के अगले ही दिन एक और ख़बर समाचारपत्रों में 'आम आदमी पार्टी' के पूर्व नेता और पूर्व पत्रकार आशुतोष को लेकर भी सामने आई। आशुतोष ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और 'आम आदमी पार्टी' पर आरोप लगाया है कि लोकसभा चुनाव में जब आशुतोष दिल्ली की चांदनी चौक लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे थे तो पार्टी ने जबरदस्ती उनके नाम के आगे गुप्ता सरनेम लगाया था। जबकि आशुतोष पूरी ज़िंदगी टीवी पत्रकारिता बग़ैर सरनेम लगाए आशुतोष के नाम से ही करते रहे। ज़ाहिर है ऐसा चांदनी चौक सीट पर वैश्य मतदाताओं को रिझाने के लिए किया गया था । हालांकि ये भी सच है कि आशुतोष को तभी इस बात का विरोध करना था ।

बात एक बार फिर से करते हैं मर्लेना की, जिन्होंने केजरीवाल की विचारधारा विहीन राजनीति के शरण में मार्क्स और लेनिन दोनों को कुर्बान कर दिया है। ये वामपंथ की नई चिंतन धारा है जिसने मार्क्सवाद को केजरीवाल के चरणों में समर्पित कर दिया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में  वाराणसी संसदीय सीट से सीपीएम के टिकट पर हीरालाल यादव चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन दिल्ली से मार्क्सवादी कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी केजरीवाल के पक्ष में माहौल बनाने के लिए बनारस जा रहे थे। हालांकि कॉर्पोरेट राजनीति के आगे नतमस्तक होते कम्यूनिस्ट नेतृत्व के इस ख़तरे से डॉ प्रेम सिंह ने उस वक्त भी अगाह कराया था। डॉ प्रेम सिंह दो बार पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से चुनाव लड़ चुके हैं। वे जिस ख़तरे को भांप रहे थे, भारत के बुद्धिजीवियों के सबसे मजबूत धड़े वामपंथियों ने या तो आसन्न खतरे को नज़रअंदाज़ कर दिया या जानबूझकर संकट सामने देखकर आंखें मूंद ली। नतीजा नरेंद्र मोदी सरकार की भूमिका लिख दी गई। हालात अब भी नहीं बदले आतिशी मर्लेना का राजनीतिक हृदय परिवर्तन वामपंथी राजनीति के विचलन की सबसे ताजा मिसाल है।
  
दिल्ली में जब कॉर्पोरेट की अगुवाई में चले आंदोलन की कोख से 'आम आदमी पार्टी' का गठन हुआ तो समाजवादी सबसे पहले विचलित हुए। समाजवादियों के बीच कॉर्पोरेट की टोपी पहनने की होड़ लग गई। 'आम आदमी पार्टी' और उसके नेता अरविंद केजरीवाल ने इस्तेमाल के बाद समाजवादियों का क्या हाल किया ये किसी से छिपा नहीं है। अब बारी कम्यूनिस्टों की है, जो उसी बेताबी से कॉर्पोरेट टोपी पहनने में लगे हैं।
-राजेश कुमार

Thursday, August 30, 2018

छात्र राजनीति में भी विचारधारा का अंत

आईसा और सीवाईएसएस का अवसरवादी और सिद्धांतहीन गठबंधन

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव में सीपीआई (एमएल) की छात्र शाखा आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आईसा) और आम आदमी पार्टी की छात्र शाखा छात्र युवा संघर्ष संस्थान (सीवाईएसएस) ने आधिकारिक तौर पर गठबंधन का एलान किया है। इस अवसरवादी और सिद्धान्तहीन गठजोड़ से यह साफ़ हो गया है कि मुख्यधारा राजनीति की तरह छात्र राजनीति में भी विचारधारा का अंत हो गया है। आईसा की राजनीतिक पार्टी अति वामपंथी विचारधारा को मानने का दावा करती रही है और सीवाईएसएस की राजनीतिक पार्टी शुरु से ही राजनितिम में किसी भी विचारधारा की जरूरत से इनकार करती रही है। विचारधारात्मक आईसा और वैचारिक रूप से शून्य सीवाईएसएस के बीच ये गठजोड़  छात्र राजनीति में अवसरवाद और सिद्धांतहीनता का संभवत: अभी तक का बेजोड़ नमूना।  

अगर सीवाईएसएस का इतिहास देखें तो यह पूर्व में शिक्षा और रोजगार में संवैधानिक आरक्षण के ख़िलाफ बने संगठन 'यूथ फॉर इक्वलिटी' का ही विस्तार है। आईसा ने उसके साथ हाथ मिलाया है तो जाहिर सी बात है कि आरक्षण विरोध की 'राजनीति' अब केम्पसों में भी जोर-शोर से चलेगी। भारत में उच्च शिक्षा पहले से ही व्यावसायीकरण और साम्प्रदायिकरण का हमला झेल रही है। यह हमला और तेज़ होगा क्योंकि यह गठजोड़ डूसू चुनाव में भाजपा की छात्र शाखा एबीवीपी को सीधे फायदा पहुंचाएगा। अगर इस गठजोड़ को डूसू चुनाव में आंशिक सफलता भी मिलती है तो ये दोनों पार्टियां देश के बाकी कॉलेज-विश्वविद्यालयों में भी यह गठजोड़ चलाएंगी। शिक्षा में नवउदारवादी एजेंडा का रास्ता इससे और साफ़ होगा और नवउदारवादी अजेंडे के विरोध का आंदोलन कमजोर होगा। 

शिक्षा के साम्प्रदायिकरण के विरोध की लड़ाई भी इससे कमजोर पड़ेगी। आम आदमी पार्टी को शिक्षा का साम्प्रदायिकरण करने वाली भाजपा से कोई परहेज़ नहीं है। हाल में ही 'आप' मुखिया दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा देने के एवाज़ में आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा का समर्थन करने की घोषणा कर चुके हैं। भाजपा का इस गठजोड़ पर कहना है कि केजरीवाल की (कम्युनिस्ट होने की) असलियत खुल कर सामने आ गई है। जबकि केजरीवाल पिछले 3-4 सालों में ही भाजपा जैसे साम्प्रदायिक और अधिनायकवादी चरित्र का प्रदर्शन कर चुके हैं।   

दरअसल, आईसा और सीवाईएसएस के बीच गठजोड़ बेमेल नहीं है। दोनों का एक कॉमन ग्राउंड है। यह मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का पूर्व छात्र और छात्र संघ चुनाव की राजनीति में दिलचस्पी रखने के अपने अनुभव से कह सकता हूं। वह कॉमन ग्राउंड है दोनों ही संगठनों की पार्टियों का एनजीओ से संबद्ध होना। यह सब जानते हैं कि आईसा नेताओं के लिंक शुरु से ही बड़े-बड़े एनजीओ संचालकों से जुड़े हैं जो उसे फंडिंग करते हैं। आम आदमी पार्टी तो है ही एनजीओ धारा का राजनीतिक रूपांतरण। यानी वह एनजीओ से निकली हुई पार्टी है। संविधान और समाजवाद/सामाजिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को जानने वाला कोई भी छात्र यह बता सकता है कि पूरी दुनिया में फैला एनजीओ-तंत्र पूंजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने में सेफ्टी वाल्व का काम करता है। आम आदमी पार्टी की हकीकत शुरु से सबके सामने है। इस गठजोड़ से अति वामपंथ का दम भरने वाली भाकपा (माले) की हकीकत सामने आ गई है कि विचारधारा से उसका भी कोई लेना-देना नहीं है। इसे कॉर्पोरेट परस्त राजनीतिक धारा के आगे उसका समर्पण कहा जाए या आत्मस्वीकार! मजेदारी यह है कि 1990 में अपने गठन के बाद से बीते 28 सालों में आईसा हर चुनाव में एसएफआई और एआईएसएफ पर मार्क्सवादी विचारधारा से विचलन का आरोप लगाता रहा है। 


अभी तक डूसू छात्रसंघ के पदों पर एबीवीपी और एनएसयूआई  ही काबिज होती रही हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह चुनाव में झोंका जाने वाला अकूत धन है। इन दोनों छात्र इकाइयों को धनबल में कोई और संगठन टक्कर नहीं दे सकता। ओमप्रकाश चौटाला के लोकदल ने अपनी छात्र शाखा बना कर धनबल में टक्कर देने की कोशिश की थी। लेकिन संगठनात्मक आधार नहीं होने के चलते उसे सफलता नहीं मिल पाई। जिस तरह से आम आदमी पार्टी पैसा खींचती और प्रचार पर लुटाती है, उससे साफ़ है कि आईसा और सीवाईएसएस के गठजोड़ को धन की कमी नहीं रहेगी। 

तक़रीबन चार दशक तक डूसू चुनाव से अनुपस्थित रहने के बाद सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस) ने जब 2012 और 2013 के डूसू चुनाव में अपना पैनल उतारा तो साधनहीन होने के बावजूद उसका पैनल एनएसयूआई और एबीवीपी के बाद तीसरे नंबर पर रहा। क्योंकि उसने छात्र राजनीति के सही मुद्दों को उठाया था। न्यूनतम चंदा भी नहीं मिल पाने की वजह से एस वाई एस ने उसके बाद अपना पैनल नहीं उतारा। लेकिन रचनात्मक ढंग से उसका काम जारी रहता है। देखना है कि आईसा और सीवाईएसएस के गठजोड़ से बने डूसू चुनाव के नए हालातों में एसवाईएस इस बार क्या करती है? अपना पैनल उतारती है या एबीवीपी और आईसा-सीवाईएसएस गठजोड़ की प्रतिक्रियावादी राजनीति का मुकाबला करने के लिए किसी मॉडरेट संगठन अथवा गठबंधन को अपना समर्थन देती है?     
-राजेश कुमार

Monday, August 27, 2018

गांधी की डेढ़ सौंवी सालगिरह : एक विनम्र सुझाव-प्रेम सिंह


      गांधी की डेढ़ सौंवी सालगिरह को लेकर काफी चर्चा है. इस अवसर पर केंद्र सरके की ओर से देश और विदेश में भारी-भरकम आयोजन होंगे. इसके लिए सरकार ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक विस्तृत राष्ट्रीय समिति का गठन किया है. इसके साथ एक एग्जीक्यूटिव समिति और 6 उपसमितियां बनाई गई हैं. समितियों में केंद्र और प्रांतीय सरकारों के अनेक नेता, विपक्ष के नेता, नौकरशाह, एक-दो गांधीजन और कुछ विदेशी मेहमान शामिल हैं. संसद का एक दिन अथवा एक सप्ताह का विशेष सत्र भी इस मौके पर बुलाया जाएगा.
      केंद्र सरकार ने गांधी की डेढ़ सौंवी सालगिरह को 'ग्लोबल इवेंट' बनाने का फैसला किया है. विदेशों में स्थित सभी भारतीय मिशन कार्यक्रमों का आयोजन और प्रचार-प्रसार करेंगे. 2 अक्तूबर 2018 से शुरु होने वाले विविध कार्यक्रमों की विस्तृत सूची सामने आ चुकी है. सारा साल या दो साल तक पूरा देश गांधीमय होगा. मसलन, इस बार के गणतंत्र दिवस की हर झांकी गांधी का संदेश लिए होगी. नोबेल पुरस्कार प्राप्त विद्वानों के व्याख्यानों से लेकर 'रियलिटी शो' के रंगारंग कार्यक्रम इस 'ग्लोबल इवेंट' का हिस्सा हैं. 'ग्लोबल इवेंट' की थीम सरकार ने सांप्रदायिक सौहार्द रखी है, और लक्ष्य देश के युवाओं तक गांधी की विचारधारा पहुंचाना.
      देश में विमूढ़ता का जो विराट पर्व चल रहा है उसमें गांधी की डेढ़ सौंवी सालगिरह के इस महायोजन पर कुछ भी कहने का कोई मतलब नहीं है. गांधी के बारे में भी कुछ कहने का कोई मतलब नहीं है. यह भी कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश और विदेश के लिए अभी तक का बचा-खुचा गांधी इस डेढ़ सौंवी सालगिरह के उत्सव में एकबारगी दम तोड़ जाएगा, और वैश्वीकरण के दौर का एक नया गांधी पैदा होगा.  
      अलबत्ता एक कार्यक्रम की चर्चा हम करना चाहते हैं. इस कार्यक्रम का आईडिया शायद पिछले दिनों दिवंगत हुए नारायण देसाई से लिया गया है. जीवन की कला सिखाने के लिए मशहूर श्रीश्री रविशंकर नाम के 'अध्यात्मिक गुरु' इस अवसर पर 'गांधी-कथा' सुनाएंगे. कहने को जग्गी वासुदेव, मुरारी बापू और ब्रह्मकुमारियों का नाम भी 'गांधी-कथा' सुनाने वालों में रखा गया है, लेकिन प्रमुखता रविशंकर की ही है. राष्ट्रीय समिति ने कार्यक्रमों के बारे में नागरिकों के सुझाव मांगे हैं. हमारा विनम्र सुझाव, बल्कि प्रार्थना है कि समिति कम से कम 'गांधी-कथा' का कार्यक्रम न करे. सुधी नागरिकों को भी गांधी को 'पुराण' बनाने की इस चेष्टा को रोकने का सुझाव सरकार को देना चाहिए.         

Thursday, August 16, 2018

संकट, समाधान और बुद्धिजीवी-प्रेम सिंह

(जहां सर्वाधिक संगठित और ताकतवर बौद्धिक समूह सहित ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी, नवउदारवाद छोड़िये, साम्प्रदायिकता विरोध की अपनी भूमिका ईमानदारी से नहीं निभाते हों, वह देश एक दिन गहरे संकट का शिकार होना ही था. ज्यादा चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी देश को और ज्यादा गहरे संकट की तरफ धकेल रहे हैं. अपने तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए वे भाजपा के सामानांतर एक अन्य फासीवादी/अधिनायकवादी सत्ता-सरंचना का पोषण करने में लगे हैं. कारपोरेट पूंजीवादी प्रतिष्ठान आगे की भारतीय राजनीति में यही चाहता है.)
वर्तमान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने सभी क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोल दिया है. देश के संसाधनों और श्रम की लूट इस फैसले के साथ जुड़ी हुई है. सरकार के मंत्री संविधान बदलने सहित अक्सर तरह-तरह की संविधान-विरोधी घोषणाएं करते हैं. शिक्षा का तेज़ी से बाजारीकरण और सम्प्रदायीकरण किया जा रहा है. रोजगार की गंभीर समस्या को प्रधानमंत्री ने प्रहसन में बदल दिया है. न्यायपालिका सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट किया जा रहा है. प्रधानमंत्री समेत पूरी सरकार अज्ञान, असत्य, अंधविश्वास, पाखंड, षड्यंत्र, घृणा और प्रतिशोध का अधार लेकर चलती नज़र आती है. सरकारी कर्तव्य और धार्मिक कर्मकांड की विभाजक रेखा लगभग मिटा दी गई है. मानवता, तर्क और संवैधानिक मूल्यों का पक्ष लेने वाले नागरिकों की निशाना बना कर हत्या कर दी जाती है. सरकार के साथ सम्बद्ध गैर-राजकीय संगठन/व्यक्ति योजनाबद्ध ढंग से गौ-रक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों की हत्या कर रहे हैं. भीड़ कहीं भी किसी भी नागरिक को पकड़ कर पीटती है या हत्या कर देती है, पुलिस उपयुक्त कार्रवाई नहीं करती. पूरे देश में कानून-व्यवस्था की जगह भीड़ का राज होता जा रहा है. भारतीय-राष्ट्र गहरे संकट में पड़ गया है. कारपोरेट पूंजीवाद और सांप्रदायिक कट्टरवाद के मुकम्मल गठजोड़ से यह संकट पैदा हुआ है. ऐसी गंभीर स्थिति में संविधान और कानून-व्यवस्था में भरोसा करने वाले नागरिकों का चिंतित होना स्वाभाविक है.

भाजपा की केंद्र के अलावा देश के 22 राज्यों में सरकारें हैं. लिहाज़ा, नागरिकों का यह विचार करना भी स्वाभाविक है कि अगले आम चुनाव में इस सरकार को बदला जाए. अगले लोकसभा चुनाव में वर्तमान सरकार को बदलने की दिशा में विपक्ष प्रयास करता नज़र आता है. हालांकि अभी तक वह कोई पुख्ता रणनीति नहीं बना पाया है, जबकि चुनाव में केवल 9 महीने का समय बाकी रह गया है. यह कहा जा सकता है कि विपक्षी एकता के प्रयासों में संकट के मद्देनज़र वाजिब गंभीरता नहीं है. विपक्षी नेता उपस्थित संकट की स्थिति का फायदा उठा कर सत्ता हथियाने की नीयत से परिचालित हैं. लेकिन लोकतंत्र में इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि जो विपक्ष मौजूद है, जनता उसीसे बदलाव लाने की आशा करे. भले ही वह मात्र सत्ता के लिए सरकार का बदलाव हो.     

हालांकि देश का जागरूक नागरिक समाज विपक्ष के सत्ता की नीयत से परिचालित प्रयास को कुछ हद तक संकट के समाधान की दिशा में मोड़ सकता है. संकट के समाधान की दिशा संविधान-सम्मत नीतियों की दिशा ही हो सकती है. संकट के मद्देनज़र इस सच्चाई को समझने में अब और देरी नहीं करनी चाहिए कि प्रचलित कारपोरेट पूंजीवादी नीतियों के साथ आरएसएस/भाजपा का हिंदू-राष्ट्र ही चलेगा. भारतीय-राष्ट्र संविधान-सम्मत नीतियों के साथ ही चल सकता है, जिन्हें कांग्रेस समेत सभी सेक्युलर पार्टियों और बुद्धिजीवियों ने लगभग त्याग दिया है. हिंदू-राष्ट्र के बरक्स भारतीय-राष्ट्र का पुनर्भव होना है तो कारपोरेट परस्त नवउदारवादी नीतियों की जगह संविधान-सम्मत नीतियां अपनानी होंगी. जागरूक नागरिक समाज चाहे तो यह लगभग असंभव दिखने वाला काम हो सकता है. जागरूक नागरिक समाज विविध बुद्धिजीवी समूहों से बनता है. लेकिन भारत के ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी करीब तीन दशक बाद भी संकट की सही पहचान करने को तैयार नहीं हैं. समाधान की बात तो उसके बाद आती है. वे नवउदारवादी नीतियों को चलने देते हुए संकट के लिए केवल आरएसएस/भाजपा के फासीवादी चरित्र को जिम्मेदार मानते हैं. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी इस सदी के पहले दशक तक यह कहते थे कि नवउदारवादी नीतियों से बाद में निपट लेंगे, पहले फासीवाद के खतरे से निपटना जरूरी है. लेकिन यह उनका बहाना ही है. फासीवाद के विरुद्ध उनका संघर्ष 2004 में वाजपेयी के नेतृत्व में और 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनने से नहीं रोक पाया है. यानी समाज और राजनीति में साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियां तेज़ी से मज़बूत होती गई हैं. इस सच्चाई के बावजूद धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी उपस्थित संकट का समाधान केवल आरएसएस/भाजपा को सत्ता से बाहर करने में देखते हैं. नवउदारवादी नीतियां अब उनके विरोध का विषय ही नहीं रह गई हैं.    

राजनीति को संभावनाओं का खेल कहा जाता है. अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार से संकट के समाधान का मार्ग खुलने की संभावना बनेगी. इसलिए धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों के आरएसएस/भाजपा को परास्त करने के एकल आह्वान की सार्थकता बनती है. भले ही वह नवउदारवादी नीतियों का विरोध हमेशा के लिए ताक पर रख कर चलाया जाए. लेकिन इस संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की ईमानदारी (इंटीग्रिटी) का सवाल अहम है. फिलहाल के लिए भी और 2019 के चुनाव में भाजपा की हार हो जाने के बाद के लिए भी. अगर वे आरएसएस/ भाजपा-विरोध के साथ-साथ आरएसएस/भाजपा का समर्थन करने वाले फासीवादी-अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से परिचालित नेताओं/पार्टियों का बचाव करते हैं, तो उनके अभियान को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता. संकट के प्रति उनकी चिंता भी खोखली मानी जाएगी. बल्कि उनका बुद्धिजीवी होना ही सवालों के घेरे में आ जायेगा. एक ताज़ा प्रसंग लेकर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की ईमानदारी की पड़ताल की जा सकती है.

आम आदमी पार्टी ('आप') के सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पिछले दिनों घोषणा की कि यदि केंद्र सरकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा दे तो वे उसके बदले अगले चुनाव में भाजपा का समर्थन करने को तैयार हैं. हाल में राज्यसभा में उपसभापति के चुनाव में 'आप' के सांसदों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया. पार्टी के एक सांसद ने यह बताया कि विपक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करने के लिए केजरीवाल की शर्त थी कि राहुल गांधी उन्हें फोन करें. अब केजरीवाल ने घोषणा की है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपानीत एनडीए के खिलाफ बनने वाले विपक्ष के गठबंधन में वे शामिल नहीं होंगे. ज़ाहिर है, केजरीवाल को आरएसएस/भाजपा की तरफ से कोई संकट नज़र नहीं आता - न अभी, न भाजपा के फिर सत्ता में आने से. उनके नज़रिए से देखा जाए तो कहा जाएगा कि देश में कहीं कोई संकट की स्थिति नहीं है, संकट का केवल हौआ खड़ा किया जा रहा है.  इसमें केजरीवाल को दोष नहीं दिया जा सकता. उन्होंने एक सामान्य मांग के बदले भाजपा के समर्थन की खुली घोषणा करके एक बार फिर अपनी स्थिति स्पष्ट की है कि राजनीति में विचारधारा अथवा नैतिकता की जगह नहीं होती. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि उन्हें किसी संकट के समाधान से नहीं, सत्ता से लेना-देना है.      

धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल के उपरोक्त ताज़ा फैसलों का हल्का-सा भी विरोध नहीं किया है. यह दर्शाता है कि देश और समाज के सामने दरपेश संकट की स्थिति के बावजूद केजरीवाल द्वारा सीधे भाजपा का समर्थन करने से धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को कोई ऐतराज़ नहीं है. जबकि, ख़ास कर कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी, स्वतंत्रता आंदोलन और स्वातंत्र्योत्तर युग के नेताओं-विचारकों से लेकर समकालीन नेताओं-बुद्धिजीवियों को साम्प्रदायिक सिद्ध करने के नुक्ते निकालने में देरी नहीं करते. लेकिन केजरीवाल का सामना होते ही उनकी सारी तर्क-बुद्धि और वैज्ञानिक दृष्टि अंधी हो जाती है. वे पिछले करीब 5 साल से 'आप' और उसके सुप्रीमो के समर्थन में डट कर खड़े हुए हैं. केजरीवाल निश्चिंत रहते हैं कि दिल्ली और पूरे देश के स्तर पर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी मुख्यधारा और सोशल मीडिया में उनके समर्थन की बागडोर मुस्तैदी से सम्हाले हुए हैं. राजनीतिशास्त्र के कई प्रतिष्ठित विद्वान अंग्रेजी अखबारों और पत्रिकाओं में 'आप' और केजरीवाल की राजनीति के समर्थन/दिशा-निर्देशन में अक्सर लेख लिखते हैं. इससे केजरीवाल को अपना पूरा ध्यान सरकारी विज्ञापनों पर केंद्रित करने की सुविधा होती है, जो करदाताओं का धन खर्च करके तैयार किये जाते हैं.

हालांकि दोहराव होगा लेकिन केजरीवाल और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों से सम्बद्ध कुछ तथ्यों को एक बार फिर देख लेना मुनासिब होगा. केजरीवाल और उनके साथी नेता बनने के पहले यूरोप-अमेरिका की बड़ी-बड़ी दानदाता संस्थाओं से मोटा धन लेकर एनजीओ चलाते थे और मनमोहन सिंह, लालकृष्ण अडवाणी, सोनिया गांधी से 'स्वराज' मांगते थे. उनका 'ज़मीनी' संघर्ष केवल 'यूथ फॉर इक्वेलिटी' का गठन कर दाखिलों और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करने की मांग तक सीमित था. इन लोगों ने अन्ना हजारे, रामदेव, श्रीश्री रविशंकर और विभिन्न विभागों के अवकाश-प्राप्त अफसरों, अन्य एनजीओ चलने वालों के साथ मिल कर दिल्ली में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की. पहली बार में आंदोलन नहीं उठ पाया. अगली बार सत्तारूढ़ कांग्रेस की बदनामी को आंदोलन की टेक बनाया गया. मीडिया को अच्छी तरह से साधा गया. 'जो आंदोलन के साथ नहीं है, वह भ्रष्टाचारियों के साथ है' यह संदेश मीडिया ने घर-घर पहुंचा दिया. बहुत-से परिपक्व जनांदोलानकारी, सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट, प्रगतिशील बुद्धिजीवी, कम्युनिस्ट, समाजवादी, गांधीवादी आंदोलन में शामिल हो गए. पिछले 25 साल की नवउदारवादी नीतियों से लाभान्वित मध्यवर्ग का आंदोलन को अभूतपूर्व समर्थन मिला. आरएसएस ने मौका भांप लिया और अंदरखाने आंदोलन का पूरा इंतजाम सम्हाल लिया. आंदोलनकारियों के गुरु अन्ना हजारे ने शुरू में ही अच्छा शासन देने के लिए पहले नंबर पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, और दूसरे नंबर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रशंसा की.

'भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की राख' से उठ कर 'आम आदमी' की नई पार्टी खड़ी हो गई. 'अन्ना क्रांति' का अध्याय जल्दी ही समाप्त हो गया; 'केजरीवाल क्रांति' का डंका चारों तरफ बजने लगा. कार्पोरेट राजनीति का रास्ता प्रशस्त करते हुए घोषणा कर दी गई कि राजनीति में विचारधारा की बात नहीं होनी चाहिए. पार्टी पर देश-विदेश से धन की बारिश होने लगी. दीवारों पर 'केंद्र में पीएम मोदी, दिल्ली में सीएम केजरीवाल' के पोस्टर लग गए. कांग्रेस की सत्ता जाती देख, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल का दामन कस कर पकड़ लिया. तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है. केजरीवाल के मोदी की जीत सुनिश्चित करने के लिए बनारस से चुनाव लड़ने, वहां गंगा में डुबकी लगा कर बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने, मुजफ्फरपुर और दिल्ली के दंगों पर मुहं न खोलने, दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली सम्पूर्ण जीत पर हवन कर उसे ईश्वर का पुरस्कार बताने, केंद्र सरकार के दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलने के फैसले का आगे बढ़ कर स्वागत करने, दिल्ली का यमुना तट विध्वंस के लिए श्रीश्री रविशंकर को सौंपने जैसे अनेक फैसलों का धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने कभी विरोध नहीं किया. वे तब भी चुप रहे जब दिल्ली सरकार के पूर्व कानून मंत्री सोमनाथ भारती ने नैतिक पुलिसगीरी करते हुए मालवीय नगर इलाके में चार विदेशी महिलाओं पर आधी रात में धावा बोला. वे तब भी चुप रहे जब फांसी पर लटकाए गए अफज़ल गुरु की पत्नी अंतिम संस्कार के लिए अपने पति का शव मांगने दिल्ली आई तो 'आप' के हुड़दंगियों ने प्रेस कांफ्रेंस में घुस कर विरोध किया. प्रशांत भूषण पर उनके चेंबर में घुस कर हमला करने वाले अन्ना हजारे और केजरीवाल के समर्थक थे, लेकिन धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी कुछ नहीं बोले. वे तब भी चुप रहे जब केजरीवाल ने पार्टी के कुछ समाजवादी नेताओं पर अभद्र टिप्पणी की. तब भी नहीं बोले जब केजरीवाल के समर्थकों ने एक बैठक में समाजवादी नेताओं के साथ हाथापाई की और अंतत: पार्टी से बाहर कर दिया. फासीवादी/अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को दर्शाने वाली यह फेहरिस्त काफी लंबी है.  

अलबत्ता, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी समय-समय पर जनता को बताते रहते हैं कि 'आप' में कुमार विश्वास और कपिल मिश्रा जैसे संघी तत्व घुसे हुए हैं, जिनका काम केजरीवाल की छवि खराब करना है. गोया वे जानते नहीं कि 'आप' अवसरवादी तत्वों का ही जमावड़ा है! इस जमावड़े में संघी, कांग्रेसी, समाजवादी, वामपंथी और तरह-तरह के गैर-राजनीतिक लोग शामिल हैं. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों का केजरीवाल सरकार के पक्ष में हमेशा तर्क होता है कि वह लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार है. गोया केंद्र और अन्य राज्यों की सरकारें लोगों ने नहीं चुनी हैं! कपिल मिश्रा प्रकरण के समय एक लेखिका ने कहा, 'एक शेर को चारों तरफ से गीदड़ों ने घेर लिया है!' एक लेखिका बता चुकी हैं कि केजरीवाल जैसा मुख्यमंत्री अन्य कोई नहीं हो सकता. दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एक अवकाशप्राप्त प्रोफेसर शुरु से केजरीवाल के बड़े गुण-गायक हैं. कोई अवसर, कोई विषय हो, वे अपना व्याख्यान केजरीवाल की स्तुति से शुरू और समाप्त करते हैं. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों द्वारा केजरीवाल की गुण-गाथा की यह फेहरिस्त भी काफी लंबी है. चुनाव नजदीक आने पर केजरीवाल समर्थक बुद्धिजीवियों ने दिल्ली सरकार के साथ मिल कर एक नया अभियान चलाया है. 'विकास का गुजरात मॉडल' की तर्ज़ पर वे शिक्षा और स्वास्थ्य के दिल्ली मॉडल का मिथक गढ़ने में लगे हैं.

तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित ने दिल्ली और देश भर के धर्मनिरपेक्ष लेखकों-बुद्धिजीवियों को स्वतंत्रता के साथ भरपूर अनुदान, पद और पुरस्कार दिए. एक-एक नाट्य प्रस्तुति पर सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च किये. लेखकों के घर जाकर उनका सम्मान किया. बीमारी में सरकार की तरफ से आर्थिक समेत सब तरह की सहायता प्रदान की. लेकिन जैसे ही उनकी हार के आसार बने, लेखकों-बुद्धिजीवियों ने इस कदर नज़रें घुमा लीं, गोया शीला दीक्षित से कभी वास्ता ही न रहा हो! बिना किसी दुविधा के वे शीला दीक्षित को हराने वाले शख्स के 'भक्त' बन गए.    

भारत में कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी समूह सर्वाधिक संगठित और ताकतवर है. वह आरएसएस/भाजपा के फासीवाद को परास्त करने के आह्वान में प्रगतिशील और वैज्ञानिक दृष्टि के दावे के साथ सबसे आगे रहता है. लेकिन साथ ही केजरीवाल और उनकी पार्टी का भी वह सतत रूप से सबसे प्रबल समर्थक है. (भारत की तीनों आधिकारिक कम्युनिस्ट पार्टियों की भी वही लाइन है.) इसकी गहन समीक्षा में जाने की जरूरत नहीं है. यही देखना पर्याप्त है कि ऐसा है. समझना यह है कि जहां सर्वाधिक संगठित और ताकतवर बौद्धिक समूह सहित ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी, नवउदारवाद छोड़िये, साम्प्रदायिकता विरोध की अपनी भूमिका ईमानदारी से नहीं निभाते हों, वह देश एक दिन गहरे संकट का शिकार होना ही था. ज्यादा चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी देश को और ज्यादा गहरे संकट की तरफ धकेल रहे हैं. अपने तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए वे भाजपा के सामानांतर एक अन्य फासीवादी/अधिनायकवादी सत्ता-सरंचना का पोषण करने में लगे हैं. कारपोरेट पूंजीवादी प्रतिष्ठान आगे की भारतीय राजनीति में यही चाहता है.  
-डॉ प्रेम सिंह

Monday, August 13, 2018

कश्मीरनामा- दर्द को शब्द देती एक मुकम्मल क़िताब


कश्मीरनामा- दर्द को शब्द देती एक मुकम्मल क़िताब 

'कश्मीरनामा' युवा लेखक अशोक कुमार पाण्डेय की एक सार्थक रचना है। मेरी नज़र में ये क़िताब कश्मीर की अनकही दास्तां को शेष भारत के साथ साझा करने का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज है। निरंकुश राजाओं, बर्बर आक्रमणकारियों, धार्मिक कट्टरपंथियों, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के पक्षधरों, अखंड भारत के नारों, राजनीतिक अवसरों , वादाखिलाफियों और सदियों की लूट से तबाह एक क्षेत्र विशेष और वहां के लोगों की कहानी को बिना किसी पूर्वग्रह के कलमबद्ध करने की कामयाब कोशिश के लिए अशोक कुमार पाण्डेय बधाई के पात्र हैं।

जो कश्मीर अपनी सूफी पहचान के लिए जाना जाता था, जहां ऋषियों और सूफीयों की निशानियां सालों की साजिशों के बाद भी मौजूद हैं। जहां 18वीं सदी के अंतिम वर्षों में सर्वे के लिए आए एक अंग्रेज अफ़सर वॉल्टर लॉरेन्स को कश्मीरी मुसलमान और कश्मीरी हिन्दुओं में फ़र्क करना मुश्किल हो गया था(कश्मीरनामा से)। ज़ाहिर है उस धरती पर नफरत की फसल एक रात में तैयार नहीं हुई होगी। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और शासन की नाकामियों की वजह से विलय संधि और आज़ादी की एक राजनीतिक प्रक्रिया आज नासूर बन गई । कश्मीर के लोगों के इसी बेपनाह पीर को 'कश्मीरनामा' के जरिये शब्दशः काग़ज़ पर उकेरकर रख दिया है अशोक कुमार पाण्डेय ने।

कश्मीर को विस्तार से बयान करती क़रीब 450 पृष्ठों की ये क़िताब पहली नज़र में आपको भारी-भरकम लग सकती है। लेकिन एक पाठक के नाते मैं कह सकता हूं कि पूरा पढ़ने के बाद आप भी मेरी तरह सोचेंगे कि क़िताब में कुछ पन्ने और जोड़े जाने चाहिए थे। 'कश्मीरनामा' ना केवल जम्मू-कश्मीर के बारे में बनाई गई कई अवधारणाओं को खंडित करती है बल्कि कश्मीर के बारे में एक आम भारतवासी की सभी जिज्ञासाओं को भी शांत करती है।

'कश्मीरनामा' हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बरक्स कश्मीर के दो और पक्षकारों शेख अब्दुल्ला और हरि सिंह की भूमिका को भी ईमानदारी से पेश करती है। इस संवेदनशील मुद्दे पर पंडित नेहरू और सरदार पटेल की भूमिका के बारे में भी किताब नई जानकारियां देती है। आज के माहौल में जब इतिहास को लेकर तथ्यों की बात लगभग बेमानी हो गई है, 'कश्मीरनामा' जैसी गंभीर कोशिश ना केवल स्वागत योग्य है बल्कि साहसिक भी है।

अशोक कुमार पाण्डेय के मुताबिक कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए ये ज़रूरी है कि भारत के शेष भाग से कश्मीर का बेहतर संवाद स्थापित हो। कश्मीर के लोग शेष भारत के लोगों से और शेष भारत के लोग कश्मीर के लोगों से ज्यादा मिलने के मौके तलाशें ताकि ऐतिहासिक परिस्थितियों से अवगत होकर ग़लतफहमियों को दूर किया जा सके। लेखक ने 'कश्मीरनामा' की रचना कर इस समस्या के समाधान के लिए एक बेमिसाल काम किया है। हिन्दी में कश्मीर के ऊपर 'कश्मीरनामा' अकेली मुकम्मल किताब है।

ये एक ज़रूरी क़िताब है उन सबके लिए जो कश्मीर में दिलचस्पी रखते हैं, जिनके लिए कश्मीर भूमि के एक टुकड़े से बढ़कर भारत की एक धर्मनिरपेक्ष पहचान है, वे जो कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं और वो जिनके लिए कश्मीर कराहते इंसानियत का मुल्क है। कश्मीरनामा सबको पढ़नी चाहिए। एक बार फिर से कश्मीर पर शानदार कृति 'कश्मीरनामा' के लिए अशोक कुमार पाण्डे को बधाई।
-राजेश कुमार

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