Tuesday, September 15, 2009

ये टिप्पणी मैंने मोहल्ला ब्लॉग में चल रही प्रभाष जोशी पर चर्चा के क्रम में लिखा है.........

प्रभाष जोशी पर जो भी आपके ब्ल़ऑग में छापा गया । और जिन लोगों ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी पता नहीं वो प्रभाष जी के योगदान को इस देश और हमारी हिन्दी मीडिया के लिए कितना आंकते हैं। और वो लोग प्रभाष जी को कितना जानते हैं। क्योंकि मैं सीधे उन लोगों पर सवाल खड़े कर रहा हूं कि वे प्रभाष जी को नहीं जानते हैं। एक ने आपही के ब्लाग पर क्रिकेट का हवाला दिया। तो किसी ने राजनेताओँ से दोस्ती का। ये क्या हो गया हमारे मीडियाकारों को क्या इस देश में राजनेताओँ से दोस्ती गुनाह है। क्या हम आज इतने सालों बाद जेल में बंद इन्दिरा गांधी से मिलने गए जेपी और प्रभाष जी पर सवाल खड़े करेंगे,,, मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूं आपके ब्लाग पर जिन लोगों ने प्रभाष जी पर टिप्पणियां की हैं ,,, वे लोग प्रभाष नहीं जोशी को जानते हैं ,,, मुझे ये नहीं समझ में आ रहा है कि क्या इस देश में ब्रह्मण होना गुनाह है,,, क्या इसी तरह हम जातिवाद को तोड़ पाएंगे . बिलकुल नहीं मैं पूछता हूँ कहाँ थे मीडिया के वे मशालची जब अकेला प्रभाष सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उन्मादियों से बाबरी विध्वंस के बाद लड़ रहा था. हमारी हिंदी और पत्रकारिता में विपक्ष की भूमिका को लेकर चर्चा होगी प्रभाष जी को भुलाया नहीं जायेगा.
रही बात किशन पटनायक के लेख की तो सबसे पहले तो ये संपादक का विसेशाधिकार होता है की कौन सा लेख छापना है और कौन सा नहीं. और दूसरी बाद विचारो की जिस धारा का लहू पटनायक के रगों में बहा करता था वाही प्रभाष जी की रगों में भी बहता है. हो सकता एक बड़े समाचारपत्र के संपादक की कोई और मजबूरी रही हो. जिससे वो लेख न छापा हो. अब अगर इतनी सब बातो के बाद भी प्रभाष में सिर्फ जोशी ही नज़र आता है. तो फिर बहस का कोई मतलब नहीं.
राजेश कुमार

Thursday, March 5, 2009

धूमिल का सच

मुझसे कहा गया कि

संसद देश की धड़कन को

प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है

जनता को

जनता के विचारों का

नैतिक समर्पण है

लेकिन क्या यह सच है?

या यह सच है कि

अपने यहां संसद -तेली की वह घानी है

जिसमें आधा तेल है और आधा पानी है

और यदि यह सच नहीं है

तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को

अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?

जिसने सत्य कह दिया है

हैउसका बुरा हाल क्यों है?

धूमिल

Saturday, February 28, 2009

कानून को इंतजार ?

कानून क्यों कर रहा है इंतजार
एक ख़बर मिली कि उड़ीसा के कंधमाल में हुई सांप्रदायिक हिंसा की जांच कर रहे जस्टिस पाणिग्रही इंतजार करते रहे , लेकिन कंधमाल में हुई सांप्रदायिक हिंसा का कोई चश्मदीद नहीं आया। जस्टिस पाणिग्रही कंधमाल के समीप खड़े थे। लेकिन कोई ऐसा नहीं मिला जो दंगे के खिलाफ बयान दे सके। कानून इंतजार करता रहा , और लोग अपने रोजमर्रा के काम में लगे रहे। वे लोग जिनके घर आतिशजनों ने फूंके हैं। वे लोग जिनके अपनों को मारा गया है। वे लोग जिनके उन बस्तियों को उजाड़ा गया , उन घरों को जलाया गया। जहां सदियों से वे भाईचारे के साथ रहे थे। लेकिन सियासत के हस्तछेप ने सबकुछ उलटा पुलटा कर दिया। और सदियों से अमन पसंद लोग एक दूसरे को मरने मारने पर उतारू हो गए। मुन्नवर राणा का एक शेर है कि लहू कैसे बहाया जाए ये लीडर बताते हैं,लहू का जायका कैसा है ये खादी बताती है।
सचमुच ये स्थिति बहुत ही विकट है। और चिंता खड़ी करती है। ये घटना तो साफ दिखाती है , कि लोगों का विश्वास उठ गया है। लोग कानून को बस राजनीतिक जांच भर समझने लगे है। आज अगर कंधमाल में कोई गवाही देने नहीं आया तो । हो सकता है लोग कल बड़े हादसो के बाद चुप बैठ जाएँ । जब समाज चुप्पी साधने लगे तो स्थिति बहुत भयानक होती है। जिसका अंदाजा शायद हम आज नहीं लगा पा रहे हैं।
राजेश कुमार

Sunday, February 22, 2009

कमजोर होती धर्मनिरपेक्ष राजनीती


कमजोर होती धर्मनिरपेक्ष राजनीति
(राजनीति की जिस धारा का दंभ मुलायम सिंह दिन रात भरते हैं । उसी धारा का लहू हमारी भी राजनीतिक रगों में दौड़ता है। इसीलिए इस लेख की जरुरत महसूस हुई)

इस देश की राजनीतिक नसों में जो सबसे ज्यादा सक्रिय अल्फाज है , और जिसने १९९२ के बाद से लगातार मंडल मुद्दे को पीछे छोड़ते हुए हमारे राजनीतिक फैसलों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। वो है धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिक राजनीति । लगभग आज़ादी मिलने के बाद से ही इस शब्द के विशाल आवरण से पूरा भारतीय राजनीतिक परिदश्य आभामंडित है। और बस धर्मनिरपेक्षता को बरकरार रखने के लिए ही हमने बड़ी-बड़ी कुर्बानियां दी , सिर्फ गुजरात ही नहीं , बस मऊ, धार और भागलपुर ही नहीं , इस देश का एक बड़ा हिस्सा बलवे की आग में जला। देश की आत्मा कही जाने वाली संविधान की मूल स्वर धर्मनिरपेक्षता को बचाए रखने के लिए हमने निरंतर अपनी सत्ता को दाव पर लगाया । बाबरी मस्जिद बिध्वंस के बाद के तथाकथित सांस्कतिक राष्ट्रवाद का सामना किया, गुजरात और देश के अलग-अलग हिस्सों के गहरे जख्मों को साफ किया। देश के सीमाओं के पार के आतंकवाद को झेलते हुए भी अपनी आत्मा अछुण्ण रखी।

इकबाल का मशहूर शेर कुछ बात है कि मिटती हस्ती नहीं हमारी , इतने दिनों के बाद ग़लत साबित होने लगा , और हमें अपनी हस्ती मिटती दिखाई देने लगी। अचानक ये लगने लगा कि , देश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति कमजोर होने लगी, सच्चर समिति रिपोर्ट की आंच से झुलसी सांप्रदायिक राजनीति के जख्मों को मानो मरहम मिल गया । सबसे पहले धर्म की राजनीति करने वालों को गुजरात चुनाव परिणाम ने संबल दिया। और गुजरात चुनाव से पहले तक राम की परछाई से कतराकर चल रही भारतीय जनता पार्टी अचानक से राम मंदिर के जिन्न को बोतल से बाहर निकालने की फिराक में लग गई। उसके बाद धर्मनिरपेक्ष राजनीति को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उत्तर प्रदेश के एक ही मंच पर मुलायम और कल्याण सिंह साथ दिखे। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में सक्रिय राजनीति करने वाले दो नेताओं मायावती और मुलायम सिंह में जो बड़ा फर्क भाजपाई दूरी को लेकर था, उसे कल्याण की दोस्ती ने पाट दिया। अब उत्तर प्रदेश की सक्रिय राजनीति में कोई अछूत नहीं। मुलायम की सपा ने आडवाणी को क्लीन चीट दे दी, मुलायम भले भूल सकते हों कि अपने पूरे संसदीय राजनीति में जितनी बातें उन्होंने धर्मनिरपेक्ष राजनीति की दुहाई देते हुई कही होंगी उतना शायद ही इस देश के किसी और नेता ने कहा हो। मुळायम भूल गए होंगे कि उन्होंने मायावती के खिलाफ में जितने संगीन आरोप लगाए हैं। उनमें से एक आरोप ये भी है कि मायावती और भाजपा का पुराना साथ रहा है। अब मुलायम सिंह अपने नए राग और नए याराने के बारे में क्या कहेंगे। हमें अमर सिंह से कोई गिला नहीं , क्योंकि हमें न तो उनसे कोई उम्मीद है , और न ही हमारी जमात उन्हें समाजवादी मानती है । और हम उनके हाथो समाजवाद का कुछ हित चाहते भी नहीं है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि जिसने रहनुमाई का दावा किया वही रहजन निकला। फिराक का एक मशहूर शेर है ,,,
तू इधर-उधर की न बात कर,

ये बता कि काफिला क्यों लूटा।

तेरी रहबरी का सवाल है,

मुझे राहजन से गरज नही।
इस अंधेरी रात में जितने दिए जल रहे थे वो भी बुझने लगे। ऐसे मौके पर साहिर साहब याद आ रहे हैं, जिन्होंने बहुत पहले ही कहा था कि ,,, वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा,,,,। इस देश का राजनीति इतिहास भले बाद में लिखा जाएगा , और इतिहासकारों की नज़रों में मुलायम की क्या क़ीमत होगी ये भी बाद में देखी जाएगी। लेकिन हमने मुळायम सिंह को अपना फ़ैसला सुना दिया है। और हमारा फ़ैसला मुलायम को जार्ज की बिरादरी में खड़ा कर समाजवाद को कलंकित करने वालों में शुमार करता है।
राजेश कुमार

Wednesday, February 4, 2009

एक फोटो



ऐसी बात नहीं है कि आज के युवा राजनीति पसंद नहीं करते बस ,,, अरे हम तो तैयार बैठे हैं ,,,, पोस्टर छापूंगा तो यही फोटो लगाउंगा



राजेश कुमार

ईमानदारी की मिशाल


इस फोटो को देखकर कौन यकीन करेगा कि कभी पटना की राजनीतिक गलिया इस आदमी की ईमानदारी की मिसाल दिया करती होगी ,,,लेकिन मेरी राय मानिए तो आप ईमानदारी की जगह मेरे दादाजी (जयप्रकाश मिश्र) का नाम लिख सकते हैं ,,,, कभी आईंसटिन ने महात्मा गांधी की फोटो देखकर कहा था कि आने वाली पीढ़ियां शायद ही इस बात पर यकीन करे कि इस प्रकार का मानव धरती पर चला होगा ,,,लेकिन मैं कहता हूं कि आज भी इनकी ईमानदारी से लोग डरते हैं ,,,,,, राजेश कुमार

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवा...