Saturday, April 28, 2018

आधुनिक भारतीयता के प्रतीक पुरुष का जाना- राजेश कुमार


सच्चर साहब हमारे बीच नहीं रहेअब हम केवल कल्पना कर सकते हैं कि उनका मौजूद रहना सियासी और समाजी गिरावट के इस दौर में कितना जरूरी था। उम्र के आखिरी पड़ाव तक सच्चर साहब आम लोगों के लिए लड़ते रहे। जिस किसी ने भी इंसाफ के लिए आवाज दी, झुकी कमर के बावजूद कोर्ट सी लेकर गली-कूचों तक उस आवाज़ के साथ खड़े हो गए । अपनी आखिरी सांस तक वे अमनपसंद और बराबरी के समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाते रहे । सच्चर साहब के दिल में पीड़ितों के लिए कितनी तड़प थी यह हम 1984 के दंगों से लेकर डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम के मामले तक देख सकते हैं । सच्चर साहब ने 1984 के दंगों में मरे गए सिखों के परिवारों को दोषियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया। जब पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के सीबीआई जांच के फैसले को डेरा सच्चा सौदा ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौत दी तो राजेंद्र सच्चर ही पीड़िता के पक्ष में खड़े हुए। उसके बाद ही सीबीआई जांच शुरू हो पाई। 
सच्चर साहब बड़े राजनैतिक परिवार से थे। उनके पिता भीमसेन सच्चर स्वाधीनता सेनानी थे जो बाद में संयुक्त पंजाब के मुख्यमंत्री बने और राज्यपाल भी रहे थे। बचपन से ही सच्चर साहब ने कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपने घर में आते-जाते देखा था। लेकिन फिर भी उन्होंने विपक्ष की मुश्किल राह चुनी। सोशलिस्ट पार्टी से अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया और आजीवन सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े रहे। 
सच्चर साहब से जुड़ी कई बातें याद आती हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 और लोकसभा चुनाव 2014के दौरान मैंने सच्चर साहब की सक्रियता देखी थी। सच्चर साहब सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के संस्थापक सदस्यों में से थे और उनका मानना था कि केवल सोशलिस्ट पार्टी ही धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील भारत की लड़ाई लड़ सकती है। लोकसभा चुनाव के दौरान सच्चर साहब को मैंने खराब सेहत के बावजूद पार्टी उम्मीदवार प्रेम सिंह के पक्ष में पर्चा बांटते देखा। उम्मीदवार के पक्ष में पर्चे बांटते हुए सच्चर साहब एक ज्वैलरी की दुकान में पहुंचे। वहां उन्होंने दुकानदार से कहा कि 'जितना खरा आपका कारोबार है (सोने का) उतना ही खरा हमारा उम्मीदवार है'। इसके बाद एक सभा में जस्टिस सच्चर ने कहा था कि बीजेपी की सांप्रदायिक और नवउदारवादी राजनीति का मुक़ाबला केवल डॉ. प्रेम सिंह जैसे लोग ही कर सकते हैं। साथी अब्दुल कयूम ओखला विधानसभा से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे। उनके लिए सच्चर साहब ने छोटी-छोटी नुक्कड़ सभाओं में शिरकत की और वोट माँगा. यह अलग बात है कि इस मुस्लिम-बहुल सीट पर सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार को 145 वोट मिले!     

सच्चर साहब को लोग कई वजहों से जानते थे। सबसे पहले दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और भारत में कानून के एक बड़े जानकार के तौर पर । सच्चर साहब दुनिया में एक मजबूत मानवाधिकार कार्यकर्ता की भी पहचान रखते थे। हाल के दिनों में सच्चर साहब की सबसे बड़ी पहचान उनकी अगुवाई में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक स्थिति की जाकारी के लिए बनाई गई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट और सिफारिशों के चलते थी। इस रिपोर्ट ने इस देश के सामाजिक और राजनीतिक हलकों में तीखी बहस कड़ी कर दी। सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय, जो आजादी के बाद से ही लगातार तुष्टिकरण के आरोप झेल रहा था,सच्चर साहब की रिपोर्ट ने उन आरोपों को तथ्यों के आधार पर गलत साबित किया। रिपोर्ट में सारे आंकड़े केंद्र और राज्य सरकारों के रिकॉर्ड से लिए हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने न केवल अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी आवाज़ उठाने के लिए एक आधार प्रदान किया, बल्कि उनकी व्यवस्था में समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में एक शुरुआत भी की है। उम्मीद है कारपोरेट परस्त सियासी दलों की सत्ता बदलेगीऔर मंडल कमीशन की तरह सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी लागू होगी।
जो भी हो, सच्चर साहब ने एक समाजावादी कार्यकर्ता के तौर पर अपना सफ़र शुरु किया और समाजावादी कार्यकर्ता के रूप में ही इस दुनिया से विदा ली। सच्चर साहब ने देश को दिशा देने वाले डॉ लोहिया जैसे बड़े लोगों के साथ काम किया था, हमारी खुशकिस्मती है हमें उनके साथ काम करने का मौका मिला!  मेरे जैसे युवाओं के लिए लिए सच्चर साहब आधुनिक भारतीयता के प्रतीक पुरुष थे। वे लोहिया की तरह भारत की समृद्ध परंपरा में निहित प्रगतिशील धाराओं को आत्मसात करके आधुनिक विचारों का स्वागत और निर्माण करने वाले व्यक्ति थे। उनसे प्रेरणा लेकर हम समाजवादी विचारधारा और आंदोलन का काम करते रहेंगे। उनको हमारी यही श्रद्धांजलि है।      
राजेश कुमार
टीवी पत्रकार

Wednesday, April 25, 2018

समाजवादी विज़न से प्रेरित थे सच्चर साहब-प्रेम सिंह

हम लोगों को उन्हें जस्टिस सच्चर कह कर पुकारने की मनाही थी. इसलिए मैं उन्हें हमेशा सच्चर साहब कह कर बुलाता था. उनके निधन के चार दिन बाद यह श्रद्धांजलि लिख रहा हूँ. सच्चर साहब की शख्सियत एक महाकाव्यात्मक कृति की तरह थी. इस बेहूदा दौर में एक बेहद खूबसूरत और सुसंस्कृत इंसान! मीडिया के लिए लिखी श्रद्धांजलि में उनकी शख्सियत को उस उदात्त रूप में स्मरण करने का अवसर नहीं है. यहाँ उनके विचारों, कार्यों, सरोकारों, चिंताओं को एक यथार्थ परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशश है.  
      सच्चर साहब का निधन 20 अप्रैल 2018 को हुआ. इस 22 दिसंबर को वे 95 साल के हो जाते. पीयूसीएल के अध्यक्ष साथी रविकिरण जैन कहते थे कि वे 100 वर्ष जियेंगे. उनकी जिजीविषा को देख कर यह लगता भी था. इसके पहले बीमार पड़ने पर वे खुद इलाज़ की पहल कर स्वास्थ्य लाभ करते थे. इस बार पिछले तीन महीने से लग रहा था कि उन्होंने देह-त्याग का मानस बना लिया है. अब वे स्मृतियों, विचारों और कार्यों के रूप में हमारे बीच रहेंगे.
      अखबारों-पत्रिकाओं-पोर्टलों और शोकसभाओं में उन्हें श्रद्धांजलि देने का सिलसिला चल रहा है. श्रद्धांजलियों में उनके काबिल और सफल न्यायविद होने, दिल्ली उच्च न्यायालय का मुख्य न्याधीश होने, नागरिक अधिकारों, मानवाधिकारों, समाज के वंचित और उत्पीड़ित तबकों के हितों, संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती आदि के लिए किये गए उनके अनथक प्रयासों एवं संघर्षों का बखूबी ज़िक्र किया जा रहा है. सच्चर साहब की ख्याति पिछले 10-12 सालों में सच्चर समिति की रपट और उसमें की गईं सिफारिशों के चलते ज्यादा हुई. उन्हें श्रद्धांजलि देते वक्त सभी लोग सच्चर साहब के इस बेजोड़ काम का ज़िक्र और तारीफ जरूर करते हैं.
      मेरी जानकारी में सच्चर साहब को लिखित या मौखिक श्रद्धांजलि देने वाले किसी व्यक्ति ने उनके राजनीतिक विचारों और राजनीतिक सक्रियता का उल्लेख नहीं किया है. ('द वायर' पर प्रकाशित तनवीर फैज़ल की श्रद्धांजलि इसका अपवाद है.) ऐसा नहीं माना जा सकता कि सच्चर साहब की राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक सक्रियता के बारे में उन्हें श्रद्धांजलि देने वाले पत्रकार और विद्वान् नहीं जानते हैं. फिर क्या कारण हो सकता है कि लोग सच्चर साहब के कार्यों की अतिशय प्रशंसा कर रहे हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक सम्बद्धता का ज़िक्र नहीं करते हैं? इस दुराव-छिपाव का कारण क्या है?
      अंतिम बीमारी की अवस्था में सच्चर साहब ने अपना अंतिम लेख 'इंडिया नीड्स द्रौपदी एंड नॉट सावित्री' लिखा, जो अंग्रेजी साप्ताहिक जनता के 1 अप्रैल 2018 के अंक में छपा है. इसके कुछ ही दिन पहले उन्होंने 'नो कनफ्लिक्ट बिटवीन हिंदी एंड स्टेट रीजनल लैंग्वेजेज' 3 मार्च को लिखा था. इन दोनों लेखों के विषय डॉ. लोहिया के चिंतन से जुड़े हैं. ज़ाहिर है, सच्चर साहब अंतिम सांस तक डॉ. लोहिया के चिंतन और संघर्ष को अपने लेखन और कार्यों का आधार बनाए रहे. यहाँ यह बताना मुनासिब होगा कि अपने ज्यादातर लेखों और वक्तव्यों में सच्चर साहब अक्सर समाजवादी नेताओं, खास कर अपने हीरो डॉ. लोहिया, और उनके विचारों/सिद्धांतों का उल्लेख करते थे. पीयूसीएल में उनकी गहरी रूचि का कारण था कि नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए जेपी ने यह संस्था स्थापित की थी.   
      सच्चर साहब 1948 में गठन के साथ ही सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य हो गए थे. वे दिल्ली प्रदेश के सचिव भी थे. पार्टी द्वारा किये जाने वाले आंदोलनों में वे सक्रिय भूमिका निभाते थे. मई 1949 में दिल्ली में नेपाली दूतावास के सामने किया गए प्रदर्शन में वे डॉ. लोहिया के साथ गिरफ्तार हुए थे और डेढ़ महीने जेल में रहे थे. वे बताते थे कि जजी के दौरान उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी से छुट्टी ली थी और अवकाश प्राप्ति पर फिर पार्टी के सदस्य हो गए थे. 2008-09 में सच्चर साहब, सुरेंद्र मोहन, भाई वैद्य, पन्नालाल सुराणा, प्रोफेसर केशवराव जाधव, बलवंत सिंह खेड़ा सहित पूरे देश से कई वरिष्ठ और युवा समाजवादी नेताओं/कार्यकर्ताओं ने सोशलिस्ट पार्टी की पुनर्स्थापना के लिए अलग-अलग शहरों में बैठकों का आयोजन शुरु किया. नतीज़तन, 2011 में हैदराबाद में सोशलिस्ट पार्टी की सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के नाम से पुनर्स्थापना की गई जिसमें देश के 21 प्रांतों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे. समाजवादी जन परिषद (सजप) के तत्कालीन अध्यक्ष लिंगराज ने सम्मलेन को संबोधित किया था. तब से लेकर मृत्युपर्यंत सच्चर साहब सोशलिस्ट पार्टी के काम में लगे रहे. वे इस उम्र में पार्टी के वरिष्ठतम सदस्यों भाई वैद्य और पन्नालाल सुराणा के साथ मिल कर दिनरात पार्टी का काम करते थे.
                धूप, बारिश, आंधी, ठंड में कार्यकर्ताओं के साथ सड़कों पर निकलते थे, पार्टी द्वारा आयोजित धरना-प्रदर्शनों, बैठकों-सम्मेलनों में शामिल होते थे. वे पूरे देश के कार्यकर्ताओं को लगातार फोन करके पार्टी संबंधी गतिविधियों की जानकारी लेते थे. उनसे घर पर कोई भी पार्टी कार्यकर्ता बिना पहले बताये किसी भी समय मिल सकता था. दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनावों में सोशलिस्ट पार्टी ने ओखला से उम्मीदवार खड़ा किया था. सच्चर साहब का घर उसी इलाके में पड़ता है. उन्होंने उस उम्मीदवार के लिए नुक्कड़ सभाएं कीं और भीड़ भरी गलियों में निकल कर परचे बांटे. पूर्वी दिल्ली से मेरे अपने चुनाव में भी वे परचा भरने से लेकर चुनाव अभियान के अंतिम दिन तक सक्रिय रहे. जीवन की तरह राजनीति में भी सच्चर साहब सहज विश्वासी व्यक्ति थे. हालांकि, समाजवादियों समेत, राजनीति के नाम पर ज्यादातर लोग उनके साथ फरेब करते थे. किशन पटनायक की तरह उनमें भी एक भोला विश्वास था कि एनजीओ चलाने वाले बदलाव की राजनीति में हिस्सेदार हो सकते हैं!         
      सच्चर साहब का समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों, व्यक्ति-स्वातंत्र्य और अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्यप्रणाली में अटूट विश्वास था. सच्चर साहब की बहुआयामी भूमिका की सार्थकता के मूल में उनकी लोकतांत्रिक समाजवाद और सोशलिस्ट विज़न में गहरी आस्था थी. सच्चर समिति की रपट और सिफारिशों को भी इसी दृष्टि से समझा जाना चाहिए. उनकी भूमिका के इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखे बगैर उनकी शख्सियत की प्रशंसा का कोई ख़ास मायना नहीं है.  
      क्या कारण है कि श्रद्धांजलि देने वाले पत्रकार और विद्वान् सच्चर साहब की राजनीति या राजनीतिक सच्चर साहब का उल्लेख नहीं करते? इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि सच्चर साहब सरकारों की मौजूदा नवउदारवादी नीतियों, जिन पर ज्यादातर नागरिक समाज औत मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों/नेताओं की सहमती बन चुकी है, के खिलाफ थे. सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया), जिसके वे संस्थापक सदस्य थे, ने अपने नीतिपत्र और प्रस्तावों के माध्यम से बार-बार यह कहा है कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र को नष्ट कर प्राइवेट क्षेत्र को स्थापित किया जाएगा तो संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं का नष्ट होना तय है; संविधान में निहित समाजवाद के मूल्य को त्याग कर धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों को बचाए नहीं रखा जा सकता; नवउदारवादी नीतियों का अंधानुकरण एक तरफ साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास और पोंगापंथ को बढ़ावा देता है, दूसरी तरफ अंधराष्ट्रवाद को. सोशलिस्ट पार्टी की वर्तमान राजनीतिक यथार्थ की यह समझ और विश्लेषण ज्यादातर सेक्युलर बुद्धिजीवियों और नेताओं के लिए असुविधाजनक है. वे 'फासीवाद' की सारी जिम्मेदारी आरएसएस पर डाल कर निश्चिंत हो जाते हैं. और इस तरह नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद को देश की मेहनतकश जनता और रोजगार के लिए निष्फल भटकते नौजवानों पर कहर ढाने के लिए खुला छोड़ देते हैं.      
      पहले भाई और अब सच्चर साहब. एक पखवाड़े के भीतर समाजवाद के दो दिग्गज दुनिया से चले गए! यह केवल सोशलिस्ट पार्टी की क्षति नहीं है. स्वतंत्रता आंदोलन, भारत के संविधान और समाजवादी आंदोलन में निहित मूल्यों की राजनीति के लिए यह अपूरणीय क्षति है. संघर्ष जारी रहेगा, इस संकल्प के साथ सोशलिस्ट पार्टी अपने क्रांतिकारी नेता को सलाम करती है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के अध्यक्ष हैं.)  

Monday, April 16, 2018

आसिफा के न्यायप्रिय हत्यारे!-प्रेम सिंह

  

(आसिफा को इंसाफ़ अब तक नहीं मिला, ये उस व्यवस्था का स्वाभाविक रंग है जहां किसी भी तरह के न्याय की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन जिस तरह से आसिफा के गुनहगारों को तिरंगे और भगवे की आड़ में छिपाने की कोशिश की गई है, वो फासीवादी सत्ता का सबसे विद्रूप चेहरा है। उसे हराकर ही हम आसिफा को इंसाफ दे सकेंगे। पढ़िए डॉ प्रेम सिंह का लेख जो आईने की तरह बताता है कि हम किस कदर अन्याय की व्यवस्था के आदि हो चुके हैं।)
  'आसिफा को न्याय' (जस्टिस फॉर आसिफा) की गुहार दिल्ली से संयुक्त राष्ट्र संघ तक गूँज रही है. सामाजिक-नागरिक संगठन आसिफा की सामान्य और मृतावस्था की तस्वीर लगा कर अपने नाम के बैनर-झंडे लहराते हुए, नारे लगते हुए आसिफा को न्याय दिलाने के लिए सड़कों पर उतर पड़े हैं. कठुआ से लेकर दिल्ली और देश के अन्य कई शहरों में प्रतिरोध मार्च और कैंडल विजिल हो रहे हैं. बच्चे भी हिस्सा ले रहे हैं. दिल्ली सरकार की एक महिला अधिकारी 'महिलाओं की सुरक्षा' के सवाल पर भूख हड़ताल पर बैठी हैं. उनका कहना है कि मोदी जब एक झटके में विमुद्रीकरण कर सकते हैं तो महिलाओं की सुरक्षा क्यों नहीं कर सकते! सोशल मीडिया आसिफ़ा को न्याय दिलाने की पोस्टों से पट गया है. अखबारों के स्तंभकार, सामाजिक-राजनीतिक सरोकार रखने वाले बुद्धिजीवी 'आसिफा को न्याय' पर लेख लिख रहे हैं. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया पर भी यह प्रमुख खबर बनी है. उत्तर प्रदेश के उन्नाव बलात्कार मामले पर लोगों का आक्रोश जारी था कि जम्मू-कश्मीर की अपहरण, बलात्कार और हत्या की दिल दहला देने वाली यह वारदात सामने आ गई.
   
      ज़ाहिर है, बर्बरता की शिकार हुई आसिफा को पता नहीं था कि देश में न्याय देने के लिए एक न्यायपालिका होती है, जिसमें बड़े-बड़े न्यायधीश, वकील और गवाह सबूतों के आधार पर न्याय करते हैं. उसे पता नहीं था कि दुनियां में संयुक्त राष्ट्र संघ भी है जो न्याय दिलवाता है. आसिफा नहीं जानती थी कि सरकारें बर्बरतापूर्वक मार दी जाने वाली बच्चियों के माता-पिता को कुछ धनराशि देकर न्याय करती हैं. आसिफा को यह भी कहाँ पता था कि देश में 'फासीवाद' आ चुका है; लोग बताएँगे कि उसका वैसा हश्र उसी फासीवाद का नतीज़ा है; और फासीवादी ताकतों को हराना ही आसिफा को न्याय दिलाना है! उसे शायद यह भी नहीं पता चला हो कि मंदिर में उसके साथ 'हिंदू न्याय' किया जा रहा है! आसिफा तिरंगे झंडे के बारे में नहीं जानती होगी, जिसे लहरा कर अदालत से लेकर सड़कों तक 'हिंदू न्याय' का जुलूस निकला गया.
     
      पता नहीं आसिफा को कितना पता था कि वह कितनी मुसलमान है! अलबत्ता उसने छोटी-सी उम्र में यह जरूर जान लिया कि दोजख ज़मीन पर ही है - धरती का स्वर्ग कही जाने वाली ज़मीन पर! दुनिया छोड़ने से पहले उसने यह भी जान लिया कि शैतान अलग से नहीं होता. क़यामत के दिन खुदा आसिफा का क्या न्याय करेगा!    

      रूह अगर कोई चीज़ है तो आसिफा हैरत से सोचती होगी कि उसकी हत्या के तीन महीने बाद अचानक देश भर में इतने लोग और संगठन उसे न्याय दिलाने के लिए आंदोलित हो उठे हैं! अपहरण और हत्या के समय से ही उसके साथ हुए नृशंस कृत्य का प्रतिरोध करने वाले उसके गाँव के युवा वकील तालिब हुसैन अब उसे अकेले नहीं लगते होंगे. परिपूर्ण का अंश रूह पर शायद उम्र का असर नहीं रहता होगा. रूह बन कर आसिफा देख रही होगी कि हिन्दुस्तान और दुनिया कितनी बड़ी और घात-प्रतिघातों से भरी है.
           
      वह अच्छी तरह समझ रही होगी कि यह दुनिया और व्यवस्था उसे न्याय नहीं दे सकती. इस व्यवस्था में जितने भी न्याय हैं - सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, नागरिक न्याय, मानवीय न्याय, बाल न्याय - उन सबसे उसे बाहर रखा गया. तभी इतना आसान हुआ कि उसके वजूद को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया गया और पूरे देश में तीन महीने तक कहीं पत्ता नहीं खड़का. वह समझ रही होगी कि उसे न्याय दिलाने का यह जोश जल्दी ही ठंडा हो जाएगा. अगली वारदात होने पर फिर एक उबाल आएगा और ठंडा पड़ जाएगा. अन्य रूहों के साथ वह समझ गई होगी कि उबलने, ठंडा पड़ने का यह सिलसिला चलते रहना है.
     
      आसिफा को आश्चर्य होता होगा कि ये इतने लोग क्या ढोंग करते हैं? उनकी क्या मजबूरी है? नहीं, ढोंग नहीं करते. वे अपने में सच्चे हैं. आसिफाओं का सारा हिस्सा मार कर वे खुद को न्यायप्रिय दिखाना चाहते हैं. जताना चाहते हैं कि यह सब उनके नाम पर नहीं हो रहा है. रूहों को किसी के प्रति द्वेष नहीं होता. आसिफा मुस्कुरा कर कहेगी - न्यायप्रिय हत्यारे!     
     
      तीन सामान्य सुझाव हैं, ठीक लगें तो : आसिफा को न्याय के बहाने हम यह फैसला कर सकते हैं कि राष्ट्र-ध्वज फिर से केवल राष्ट्रीय मामलों में इस्तेमाल किया जाए. सुप्रीम कोर्ट का 2004 का वह निर्णय वापस ले लिया जाए, जिसमें किसी भी भारतीय नागरिक को किसी भी अवसर पर, किसी भी स्थान पर, किसी भी समय (दिन या रात) सम्मान के साथ तिरंगा फहराने का अधिकार दिया गया था. दूसरे, हम चुप रहना सीखें और अपने से बात-चीत ज्यादा करें. शायद तब हम जान पायें कि हम सब इस व्यवस्था के ही हिस्सेदार और ताबेदार हैं. तीसरी बात, आरएसएस वाले यह समझने की कोशिश करें कि 'हिंदुत्व' का जो पिटारा वे खोले हुए हैं, उसकी समाज, सभ्यता, राष्ट्र, इंसान - किसी के लिए कोई सार्थकता नहीं है. देश की राजनीति कारपोरेट के हाथों में चली गई है. कारपोरेट पूंजीवाद की विष्ठा खाने वाला कोई भी संगठन सत्ता में आ सकता है. लेकिन जब तक मानव सभ्यता की सांस बाकी है, उसका सामाजिक और मानवीय बहिष्कार बना रहेगा.     
     
      शायद आसिफा की रूह को इससे सुकून मिले और उसके अम्मी-अब्बा, भाई-बहनों को सहने की ताकत! बाकी सरकार और कानून-व्यवस्था कुछ न कुछ करेंगी ही. उन्हें अपने होने का धर्म जो निभाना है. जम्मू और कश्मीर में दो मंत्रियों के इस्तीफे हो चुके हैं. अदालती कार्रवाई भी कुछ न कुछ होगी ही.

Friday, April 13, 2018

अलविदा भाई : संघर्ष जारी रहेगा-प्रेम सिंह

उनका पूरा नाम भालचंद्र भाई वैद्य था. लोग उन्हें भाई वैद्य के नाम से जानते और पुकारते थे. मैंने हमेशा उन्हें भाई कहा. हमारे गाँव में पिता को ज्यादातर भाई कह कर बुलाया जाता था. हम सब भाई-बहन भी अपने पिता को भाई कह कर बुलाते थे. पिता के निधन के बाद मैं भाई के व्यक्तिगत संपर्क में आया. सोशलिस्ट पार्टी की पुनर्स्थापना के पहले वे मुझे प्रोफेसर कह कर बुलाते थे और मैं उन्हें भाई. संबंध का एक अदृश्य सूत्र हम दोनों के बीच पहली बार मिलने पर ही जुड़ गया था!
      सोशलिस्ट पार्टी में सात साल साथ काम करने के दौरान पार्टी के नीतिगत मामलों में उन्होंने मेरी प्राय: हर बात का सम्मान किया. वे सभी नीतिगत फैसलों, प्रस्तावों, ज्ञापनों, प्रेस विज्ञप्तियों के विषय में राय पूछने पर सूत्र में संकेत कर देते थे. सरकार के किसी फैसले या किसी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटना-विशेष पर पार्टी का वक्तव्य भेजना हो या धरना-प्रदर्शन करना हो, वे पूना से फोन से एक निर्देशात्मक एसएमएस कर देते थे. भाई के पार्टी का अध्यक्ष रहते मैंने उनके साथ पार्टी के महासचिव और प्रवक्ता की जिम्मेदारी निभाई थी.  
      इंडिया अगेंस्ट करप्सन (आईएसी) और आम आदमी पार्टी (आप) के खिलाफ मैंने भारत के संविधान और समाजवादी विचारधारा के आधार पर स्टैंड लिया तो भाई ने हमेशा कहा कि पार्टी मेरे पीछे मजबूती से खड़ी है. नवउदारवाद के निर्णायक बचाव में उठी उस आंधी में सोशलिस्ट पार्टी के एक भी सदस्य का विचलन नहीं हुआ, इसके पीछे भाई के व्यक्तित्व, समझदारी और वैचारिक दृढ़ता का बड़ा योगदान था.
      2 अप्रैल 2018 को भाई का निधन अग्नाशय के कैंसर से हो गया. उन्हें 26 मार्च को पूना हस्पताल में भर्ती कराया गया था. उसके करीब 20 दिन पहले ही उनकी बीमारी का पता चला था. हालाँकि मुझे इस बाबत उन्हें हस्पताल में भर्ती कराये जाने के बाद मालूम पड़ा. डॉ. अभिजीत वैद्य ने फोन पर बताया कि इस उम्र में ऑपरेशन या कीमोथेरेपी करना मुनासिब नहीं है. उन्होंने यह भी बताया कि भाई हस्पताल से घर आना चाहते हैं. लेकिन यह संभव नहीं हुआ और उन्होंने अंतिम सांस हस्पताल में ही ली. पूना और महारष्ट्र के साथी उनसे मिलने हस्पताल जाते रहे. हम बाहर के साथियों के लिए भाई की मृत्यु एक अचानक लगने वाला अघात था.
      भाई को अंतिम अलविदा कहने मैं 3 अप्रैल को पूना पहुंचा. उनका पार्थिव शरीर राष्ट्र सेवा दल (आरएसडी) के मुख्यालय साने गुरूजी स्मारक में अंतिम दर्शन के लिए रखा गया था. सुबह से दोपहर ढलने तक उन्हें अंतिम प्रणाम करने वालों का तांता लगा रहा. श्रद्धांजलि देने वालों में महिलाओं की बड़ी संख्या थी. राष्ट्र सेवा दल के सैनिक और सैनिकाएं पूरा दिन मुस्तैदी से सभी की सहायता और सहूलियत का काम करते रहे. 4 बजे पुलिस प्रशासन के लोग आ गए और भाई के पार्थिव शरीर को राष्ट्रीय ध्वज में लपेट दिया. शमशान स्थल पहुँचने पर पुलिस टीम ने बैंड-धुन बजाई और बंदूकों से फायर किये. तत्पश्चात पार्थिव शरीर को विद्युत् शवदाह गृह में ले जाया गया और अंत्येष्टि की गई. यह राजकीय सम्मान उन्हें महारष्ट्र का पूर्व गृह राज्यमंत्री (1978 -1980) और पूना का पूर्व महापौर (1974-75) होने के नाते दिया गया.
      मेरे लिए आश्चर्य यही था कि पिछले तीन दशक से सत्ता के गलियारों से दूर नवसाम्राज्यवादी गुलामी लाने वाली सरकारों के खिलाफ शहरों-देहातों में अनाम संघर्ष करने वाले नेता की अंतिम यात्रा में हज़ारों की संख्या लोग शामिल हुए! शवयात्रा में शामिल लोग करीब अढ़ाई किलोमीटर दूर स्थित शमशान स्थल तक पैदल चले. उनमें 'भाई वैद्य अमर रहें' 'भाई तेरे सपनों को हम मंजिल तक पहुंचाएंगे', 'लोकशाही समाजवाद - जिंदाबाद जिंदाबाद', 'भाई वैद्य को लाल सलाम' 'लड़ेंगे जीतेंगे', 'समाजवाद लाना है - भूलो मत भूलो मत' जैसे क्रान्तिकारी नारे लगाने वाले सोशलिस्ट पार्टी/सोशलिस्ट युवजन सभा के कार्यकर्ता मुठ्ठी भर ही थे. ज्यादातर लोग सामान्य नागरिक समाज से थे. ज़ाहिर है, वे प्रेम, सेवा और करुणा के अद्भुत मेल से बने भाई के विरल व्यक्तित्व से प्रभावित रहे थे. मराठी और अंग्रेजी के लगभग सभी अखबारों ने उनके निधन पर स्टोरी छापी. एक अखबार ने लिखा कि उनकी ईमानदारी दंतकथा बन गई थी. नेताओं में मैंने किशन जी के बाद भाई में ही पाया कि उनमें किसी के प्रति कटुता और द्वेष का भाव नहीं था. मध्यकालीन संतों ने सहजता को विरल गुण माना है. लेकिन साथ ही स्वीकार किया है कि सहज होना बड़ी कठिन तपस्या से हासिल होता है. भाई ने जीवन की साधना में सहजता हासिल कर ली थी.      
      भाई ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया. जब कुछ लोग साम्राज्यवादियों की मुखबरी कर रहे थे, तब 14 साल की उम्र में भाई स्वतंत्रता आंदोलन की निर्णायक लड़ाई में हिस्सा ले रहे थे. भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान गाँधी ने किया था, लेकिन उसका नेतृत्व युवा समाजवादी नेताओं ने किया. यह स्वाभाविक है कि 1946 में भाई 18 साल की उम्र में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के सदस्य हो गए और फिर 1948 में सोशलिस्ट पार्टी की मार्फ़त अपना लम्बा राजनीतिक संघर्ष करते रहे, जिसमें गोवा मुक्ति संघर्ष (1955-1961), जेपी आंदोलन (1974-74) प्रमुखता से शामिल हैं. 1975 से 1977 तक वे मीसा में जेल में बंद रहे. राष्ट्र सेवा दल में भाई की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी जिसके वे 2001 में अध्यक्ष बने. भाई की इच्छा थी कि राष्ट्र सेवा दल सोशलिस्ट पार्टी के लिए काडर निर्माण का काम करे ताकि युवाओं को साम्प्रदायिक राजनीति की चपेट से बचाया जा सके.      
      भाई समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र में एमए थे. वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी और अध्ययनशील व्यक्ति थे. लेकिन उनकी शख्सियत मूलत: राजनीतिक थी. समाजवादी आंदोलन की कोख में पले भाई पर गाँधी के साथ फुले और आम्बेडकर के विचारों का गहरा प्रभाव था.  उनका वैश्विक स्तर पर पूंजीवाद और साम्यवाद की विचारधाराओं/व्यवस्थाओं का अच्छा अध्ययन था. वे सभी विषयों पर प्रकाशित अद्यतन लेख और पुस्तकें पढ़ते रहते थे.   
      मेरी राय में भाई की 1991 के बाद शुरु होने वाली राजनीतिक पारी ज्यादा महत्वपूर्ण है. इस साल संविधानिक मूल्यों और प्रावधानों के बरखिलाफ कांग्रेस ने नई आर्थिक नीतियों को देश पर थोप दिया. उस समय भाजपा के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि 'अब कांग्रेस ने उनका (भाजपा का) का काम हाथ में ले लिया है'. इस अवैध फैसले के समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए आपदायी नतीजे निकालने ही थे, जिन्हें यह समाज और राष्ट्र झेल रहा है. यह सही है कि समाजवादियों ने उस नवसाम्राज्यवादी हमले का राजनीतिक मुकाबला करने बजाय सत्ता को ही राजनीति का ध्येय बना लिया. ऐसा करते हुए उन्होंने पूरे आंदोलन को न केवल तहस-नहस, बल्कि बदनाम भी कर दिया. लेकिन यह भी सही है कि नवसाम्राज्यवाद को मुकम्मल और निर्णायक विचारधारात्मक चुनौती भी समाजवादियों की ओर से ही मिली. किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा, विनोदप्रसाद सिंह, सुरेंद्र मोहन, भाई वैद्य, जस्टिस राजिंदर सच्चर, पन्नालाल सुराणा, डॉ. जीजी पारिख, सुनील सरीखे समाजवादी नेताओं/विचारकों ने नवसाम्राज्यवाद के मुकम्मल विकल्प में एक लघु किन्तु नवीन राजनीतिक धारा पैदा करने का बड़ा उद्यम किया. यह भी उल्लेखनीय है कि मुख्यधारा राजनीति में समाजवादी नेता चंद्रशेखर ने नई आर्थिक नीतियों का शुरु से सतत विरोध किया.   
      भाई 1995 में गठित समाजवादी जन परिषद के महामंत्री बने. 2011 में सोशलिस्ट पार्टी की पुनर्स्थापना होने पर उन्हें उसका अध्यक्ष बनाया गया. उस समय उनकी उम्र अस्सी के पार थी. वे यह जिम्मेदारी लेना नहीं चाहते थे. लेकिन जस्टिस सच्चर और युवा समाजवादियों की जिद पर उन्होंने अध्यक्ष बनना मंज़ूर किया. पूरी सक्रियता के साथ उन्होंने उस जिम्मेदारी का निर्वाह किया. 1991 के बाद भाई का जीवन नवसाम्राज्यवाद के खिलाफ लगातार संघर्ष करने में बीता. उन्होंने खास तौर पर शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ लम्बा संघर्ष किया.
      ऐसा नहीं है कि नवसाम्राज्यवाद के विरोध में अन्य नेता अथवा राजनीतिक संगठन सक्रिय नहीं रहे हैं. लेकिन वे सब विकास की अवधारणा को लेकर या तो भ्रमित हैं या विकास का रास्ता साम्राज्यवाद के हमजाद पूंजीवाद को ही स्वीकार करते हैं. भाई ने सोशलिस्ट पार्टी के नीतिपत्र और अपने वक्तव्यों में यह स्पष्ट तौर पर कहा है कि कम्युनिस्ट विकास के पूंजीवादी विचार और मॉडल को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. वे उद्योगवाद को ही विकास का पैमाना मानते हैं. भाई लोकशाही समाजवादी विचारधारा को पूंजीवाद का विकल्प मानते थे. पूंजीवाद की आसन्न पराजय में उनका दृढ़ विश्वास था. इसी विश्वास की ज़मीन से वे सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं को निरंतर प्रेरणा देते थे. वह प्रेरणा भाई के बाद भी जीवित है.  
      अलविदा भाई! आपको शांतिमय रहीं. नवसाम्राज्यवादी मंसूबों के खिलाफ समता और स्वतंत्रता का संघर्ष जारी रहेगा!

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

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