Wednesday, April 25, 2018

समाजवादी विज़न से प्रेरित थे सच्चर साहब-प्रेम सिंह

हम लोगों को उन्हें जस्टिस सच्चर कह कर पुकारने की मनाही थी. इसलिए मैं उन्हें हमेशा सच्चर साहब कह कर बुलाता था. उनके निधन के चार दिन बाद यह श्रद्धांजलि लिख रहा हूँ. सच्चर साहब की शख्सियत एक महाकाव्यात्मक कृति की तरह थी. इस बेहूदा दौर में एक बेहद खूबसूरत और सुसंस्कृत इंसान! मीडिया के लिए लिखी श्रद्धांजलि में उनकी शख्सियत को उस उदात्त रूप में स्मरण करने का अवसर नहीं है. यहाँ उनके विचारों, कार्यों, सरोकारों, चिंताओं को एक यथार्थ परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशश है.  
      सच्चर साहब का निधन 20 अप्रैल 2018 को हुआ. इस 22 दिसंबर को वे 95 साल के हो जाते. पीयूसीएल के अध्यक्ष साथी रविकिरण जैन कहते थे कि वे 100 वर्ष जियेंगे. उनकी जिजीविषा को देख कर यह लगता भी था. इसके पहले बीमार पड़ने पर वे खुद इलाज़ की पहल कर स्वास्थ्य लाभ करते थे. इस बार पिछले तीन महीने से लग रहा था कि उन्होंने देह-त्याग का मानस बना लिया है. अब वे स्मृतियों, विचारों और कार्यों के रूप में हमारे बीच रहेंगे.
      अखबारों-पत्रिकाओं-पोर्टलों और शोकसभाओं में उन्हें श्रद्धांजलि देने का सिलसिला चल रहा है. श्रद्धांजलियों में उनके काबिल और सफल न्यायविद होने, दिल्ली उच्च न्यायालय का मुख्य न्याधीश होने, नागरिक अधिकारों, मानवाधिकारों, समाज के वंचित और उत्पीड़ित तबकों के हितों, संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती आदि के लिए किये गए उनके अनथक प्रयासों एवं संघर्षों का बखूबी ज़िक्र किया जा रहा है. सच्चर साहब की ख्याति पिछले 10-12 सालों में सच्चर समिति की रपट और उसमें की गईं सिफारिशों के चलते ज्यादा हुई. उन्हें श्रद्धांजलि देते वक्त सभी लोग सच्चर साहब के इस बेजोड़ काम का ज़िक्र और तारीफ जरूर करते हैं.
      मेरी जानकारी में सच्चर साहब को लिखित या मौखिक श्रद्धांजलि देने वाले किसी व्यक्ति ने उनके राजनीतिक विचारों और राजनीतिक सक्रियता का उल्लेख नहीं किया है. ('द वायर' पर प्रकाशित तनवीर फैज़ल की श्रद्धांजलि इसका अपवाद है.) ऐसा नहीं माना जा सकता कि सच्चर साहब की राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक सक्रियता के बारे में उन्हें श्रद्धांजलि देने वाले पत्रकार और विद्वान् नहीं जानते हैं. फिर क्या कारण हो सकता है कि लोग सच्चर साहब के कार्यों की अतिशय प्रशंसा कर रहे हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक सम्बद्धता का ज़िक्र नहीं करते हैं? इस दुराव-छिपाव का कारण क्या है?
      अंतिम बीमारी की अवस्था में सच्चर साहब ने अपना अंतिम लेख 'इंडिया नीड्स द्रौपदी एंड नॉट सावित्री' लिखा, जो अंग्रेजी साप्ताहिक जनता के 1 अप्रैल 2018 के अंक में छपा है. इसके कुछ ही दिन पहले उन्होंने 'नो कनफ्लिक्ट बिटवीन हिंदी एंड स्टेट रीजनल लैंग्वेजेज' 3 मार्च को लिखा था. इन दोनों लेखों के विषय डॉ. लोहिया के चिंतन से जुड़े हैं. ज़ाहिर है, सच्चर साहब अंतिम सांस तक डॉ. लोहिया के चिंतन और संघर्ष को अपने लेखन और कार्यों का आधार बनाए रहे. यहाँ यह बताना मुनासिब होगा कि अपने ज्यादातर लेखों और वक्तव्यों में सच्चर साहब अक्सर समाजवादी नेताओं, खास कर अपने हीरो डॉ. लोहिया, और उनके विचारों/सिद्धांतों का उल्लेख करते थे. पीयूसीएल में उनकी गहरी रूचि का कारण था कि नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए जेपी ने यह संस्था स्थापित की थी.   
      सच्चर साहब 1948 में गठन के साथ ही सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य हो गए थे. वे दिल्ली प्रदेश के सचिव भी थे. पार्टी द्वारा किये जाने वाले आंदोलनों में वे सक्रिय भूमिका निभाते थे. मई 1949 में दिल्ली में नेपाली दूतावास के सामने किया गए प्रदर्शन में वे डॉ. लोहिया के साथ गिरफ्तार हुए थे और डेढ़ महीने जेल में रहे थे. वे बताते थे कि जजी के दौरान उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी से छुट्टी ली थी और अवकाश प्राप्ति पर फिर पार्टी के सदस्य हो गए थे. 2008-09 में सच्चर साहब, सुरेंद्र मोहन, भाई वैद्य, पन्नालाल सुराणा, प्रोफेसर केशवराव जाधव, बलवंत सिंह खेड़ा सहित पूरे देश से कई वरिष्ठ और युवा समाजवादी नेताओं/कार्यकर्ताओं ने सोशलिस्ट पार्टी की पुनर्स्थापना के लिए अलग-अलग शहरों में बैठकों का आयोजन शुरु किया. नतीज़तन, 2011 में हैदराबाद में सोशलिस्ट पार्टी की सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के नाम से पुनर्स्थापना की गई जिसमें देश के 21 प्रांतों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे. समाजवादी जन परिषद (सजप) के तत्कालीन अध्यक्ष लिंगराज ने सम्मलेन को संबोधित किया था. तब से लेकर मृत्युपर्यंत सच्चर साहब सोशलिस्ट पार्टी के काम में लगे रहे. वे इस उम्र में पार्टी के वरिष्ठतम सदस्यों भाई वैद्य और पन्नालाल सुराणा के साथ मिल कर दिनरात पार्टी का काम करते थे.
                धूप, बारिश, आंधी, ठंड में कार्यकर्ताओं के साथ सड़कों पर निकलते थे, पार्टी द्वारा आयोजित धरना-प्रदर्शनों, बैठकों-सम्मेलनों में शामिल होते थे. वे पूरे देश के कार्यकर्ताओं को लगातार फोन करके पार्टी संबंधी गतिविधियों की जानकारी लेते थे. उनसे घर पर कोई भी पार्टी कार्यकर्ता बिना पहले बताये किसी भी समय मिल सकता था. दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनावों में सोशलिस्ट पार्टी ने ओखला से उम्मीदवार खड़ा किया था. सच्चर साहब का घर उसी इलाके में पड़ता है. उन्होंने उस उम्मीदवार के लिए नुक्कड़ सभाएं कीं और भीड़ भरी गलियों में निकल कर परचे बांटे. पूर्वी दिल्ली से मेरे अपने चुनाव में भी वे परचा भरने से लेकर चुनाव अभियान के अंतिम दिन तक सक्रिय रहे. जीवन की तरह राजनीति में भी सच्चर साहब सहज विश्वासी व्यक्ति थे. हालांकि, समाजवादियों समेत, राजनीति के नाम पर ज्यादातर लोग उनके साथ फरेब करते थे. किशन पटनायक की तरह उनमें भी एक भोला विश्वास था कि एनजीओ चलाने वाले बदलाव की राजनीति में हिस्सेदार हो सकते हैं!         
      सच्चर साहब का समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों, व्यक्ति-स्वातंत्र्य और अन्याय के प्रतिकार की अहिंसक कार्यप्रणाली में अटूट विश्वास था. सच्चर साहब की बहुआयामी भूमिका की सार्थकता के मूल में उनकी लोकतांत्रिक समाजवाद और सोशलिस्ट विज़न में गहरी आस्था थी. सच्चर समिति की रपट और सिफारिशों को भी इसी दृष्टि से समझा जाना चाहिए. उनकी भूमिका के इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखे बगैर उनकी शख्सियत की प्रशंसा का कोई ख़ास मायना नहीं है.  
      क्या कारण है कि श्रद्धांजलि देने वाले पत्रकार और विद्वान् सच्चर साहब की राजनीति या राजनीतिक सच्चर साहब का उल्लेख नहीं करते? इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि सच्चर साहब सरकारों की मौजूदा नवउदारवादी नीतियों, जिन पर ज्यादातर नागरिक समाज औत मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों/नेताओं की सहमती बन चुकी है, के खिलाफ थे. सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया), जिसके वे संस्थापक सदस्य थे, ने अपने नीतिपत्र और प्रस्तावों के माध्यम से बार-बार यह कहा है कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र को नष्ट कर प्राइवेट क्षेत्र को स्थापित किया जाएगा तो संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं का नष्ट होना तय है; संविधान में निहित समाजवाद के मूल्य को त्याग कर धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों को बचाए नहीं रखा जा सकता; नवउदारवादी नीतियों का अंधानुकरण एक तरफ साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास और पोंगापंथ को बढ़ावा देता है, दूसरी तरफ अंधराष्ट्रवाद को. सोशलिस्ट पार्टी की वर्तमान राजनीतिक यथार्थ की यह समझ और विश्लेषण ज्यादातर सेक्युलर बुद्धिजीवियों और नेताओं के लिए असुविधाजनक है. वे 'फासीवाद' की सारी जिम्मेदारी आरएसएस पर डाल कर निश्चिंत हो जाते हैं. और इस तरह नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद को देश की मेहनतकश जनता और रोजगार के लिए निष्फल भटकते नौजवानों पर कहर ढाने के लिए खुला छोड़ देते हैं.      
      पहले भाई और अब सच्चर साहब. एक पखवाड़े के भीतर समाजवाद के दो दिग्गज दुनिया से चले गए! यह केवल सोशलिस्ट पार्टी की क्षति नहीं है. स्वतंत्रता आंदोलन, भारत के संविधान और समाजवादी आंदोलन में निहित मूल्यों की राजनीति के लिए यह अपूरणीय क्षति है. संघर्ष जारी रहेगा, इस संकल्प के साथ सोशलिस्ट पार्टी अपने क्रांतिकारी नेता को सलाम करती है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के अध्यक्ष हैं.)  

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