Sunday, April 28, 2019

नरेंद्र मोदी : पात्रता की पड़ताल-प्रेम सिंह


नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पात्रता के पक्ष में विभिन्न कोनों/स्रोतों से लगातार स्वीकृति और समर्थन हासिल किया है. हालांकि पांच साल प्रधानमंत्री रह चुकने के बाद काफी लोग मोदी-मोह से बाहर आ चुके हैं. फिर भी यह हवा बनाई जा रही है कि अगले प्रधानमंत्री मोदी ही होंगे. ज्यादातर मतदाता इस हवा के साथ हैं या नहीं, इसका पता 23 मई 2019 को चुनाव नतीजे आने पर चलेगा. फिलहाल की सच्चाई यही है कि टीम मोदी, कारपोरेट घराने, आरएसएस/भाजपा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), मुख्यधारा मीडिया और 'स्वतंत्र' मोदी-समर्थक उनकी एकमात्र पात्रता के समर्थन में डटे हैं. नरेंद्र मोदी की पात्रता के कोरसगान में खुद नरेंद्र मोदी का स्वर सबसे ऊंचा रहता है. मोदी की पात्रता के प्रति यह जबरदस्त आग्रह अकारण नहीं हो सकता है. इस परिघटना के पीछे निहित जटिल कारणों को सुलझा कर रखना आसान नहीं है. फिर भी मुख्य कारणों का पता लगाने कोशिश की जा सकती है.  

उन कमजोर आत्माओं को इस विश्लेषण से अलग रखा गया है, जो अभी भी मोदी को अवतार मानने के भावावेश में जीती हैं. साधारण मेहनतकश जनता को भी शामिल नहीं किया गया है, जो उसका शोषण करने वाले वर्ग द्वारा तैयार आख्यान का अनुकरण करने को अभिशप्त है. इस लेख में मोदी की समस्त गलत बयानियों (जिनमें वैवाहिक स्टेटस से लेकर शैक्षिणक योग्यता तक की गईं गलतबयानियां शामिल हैं), मिथ्या कथनों, अज्ञान, अंधविश्वास और घृणा के सतत प्रदर्शन के बावजूद उनकी पात्रता का समर्थन करने वालों की पड़ताल की कोशिश है. देश-विदेश में फैले ये मोदी-समर्थक समाज के पढ़े-लिखे, सफल और सशक्त लोग हैं. या उस पथ पर अग्रसर हैं.

पहले कोरपोरेट घरानों को लें. मोदी का अपने पिछले चुनाव प्रचार में कारपोरेट घरानों के अकूत धन का इस्तेमाल करना, बतौर प्रधानमंत्री अपनी छवि-निर्माण में अकूत सरकारी धन झोंकना, जियो सिम का विज्ञापन करना, नीरव मोदी का विश्व आर्थिक मंच के प्रतिनिधि मंडल में उनके साथ शामिल होना, विजय माल्या और मेहुल चौकसी का सरकारी मशीनरी की मदद से देश छोड़ कर भागना, राजनीतिक पार्टियों को मिलाने वाली कारपोरेट फंडिंग को गुप्त रखने का कानून बनाना, लघु व्यापारियों और छोटे किसानों की आर्थिक कमर तोड़ने के लिए नोटबंदी करना, महज कागज़ पर मौजूद रिलायंस जियो इंस्टिट्यूट को 'एमिनेंट' संस्थान का दर्ज़ा देना, विमान बनाने का 70 साल का अनुभव रखने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हिंदुस्तान एअरोनाटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के बजाय राफेल सौदे को हथियाने की नीयत से बनाई गई कागज़ी कंपनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को फ़्रांसिसी कंपनी डसाल्ट का पार्टनर बनाना, विभिन्न सरकारी विभागों में संयुक्त सचिव के रैंक पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की सीधी नियुक्ति करना, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों सहित प्रत्येक क्षेत्र में निजीकरण की प्रक्रिया को बेलगाम रफ़्तार देना ... जैसी अनेक छवियां और निर्णय यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि कारपोरेट घरानों के लिए मोदी की पात्रता स्वयंसिद्ध है.

आरएसएस/भाजपा की नज़र में मोदी की पात्रता के बारे में इतना देखना पर्याप्त है कि उनके किसी नेता ने मोदी की कारपोरेटपरस्त नीतियों का परोक्ष विरोध तक नहीं किया है. क्योंकि आरएसएस/भाजपा संतुष्ट हैं कि मोदी ने दिल्ली में एक हजार करोड़ की लागत वाला केंद्रीय कार्यालय बनवा दिया है, नागपुर मुख्यालय गुलज़ार है और बराबर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय खबरों में रहता है, वर्तमान और भविष्य की सुरक्षा के लिए अकूत दौलत का इंतजाम कर दिया है. आरएसएस विचारक मग्न हैं कि मोदी के राज में वे सरकारी पदों-पदवियों-पुरस्कारों के अकेले भोक्ता हैं. पूरे संघ परिवार ने स्वीकार कर लिया है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कमल मोदी के नेतृत्व में भ्रष्ट और अश्लील (वल्गर) पूंजीवाद के कीचड़ में खिलता है. यह वही आरएसएस/भाजपा हैं जिन्होंने दिवंगत मोहम्मद अली जिन्नाह को सेकुलर बताने पर लालकृष्ण आडवाणी से पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा ले लिया था. लेकिन मोदी के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से बिना राजकीय कार्यक्रम के अचानक जाकर मिलने पर कोई एतराज नहीं उठाया. क्योंकि वे समझते हैं कि मोदी 'मुस्लिम तुष्टिकरण' के लिए नवाज़ शरीफ से मिलने नहीं गए थे. वे जरूर किन्हीं बड़े व्यापारियों का हित-साधन करने गए होंगे!       
मोदी के समर्थक पढ़े-लिखे, सफल और सशक्त लोगों को गहरा नशा है कि मोदी ने मुसलमानों को हमेशा के लिए ठीक कर दिया. जब मोदी पाकिस्तान और आतंकवादियों को ठिकाने लगा देने की बात करते हैं, तब उनके समर्थकों के जेहन में मोदी की तरह भारतीय मुसलमान ही होते हैं. उन्होंने मोदी से सीख ली है, जिसे वे दुर्भाग्य से अपने बच्चों में भी संक्रमित कर रहे हैं, कि मुसलामानों से लगातार घृणा में जीना ही जीवन में 'हिंदुत्व' की उपलब्धि है, और वही 'सच्ची राष्ट्रभक्ति' भी है. इन लोगों को मोदी की पात्रता का अंध-समर्थक होना ही है. यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि 'कांग्रेसी राज' में शिक्षा, रोजगार और व्यापार की सुविधाएं पाने वाला यह मध्यवर्गीय तबका नवउदारीकरण के दौर में काफी समृद्ध हो चुका है.      

थोड़ी बात नरेंद्र मोदी की करें कि वे अपनी पात्रता के बारे में क्या सोचते हैं? इधर एक फिल्म एक्टर को दिए अपने इंटरव्यू में मोदी ने कहा बताते हैं कि वे कभी-कभी कुछ दिनों के लिए जंगल में निकल जाते थे. वहां जाकर वे केवल अपने आप से बातें करते थे. उनका जुमला 'मेरा क्या है, जब चाहूं झोला उठा कर चल दूंगा' काफी मशहूर हो चुका है. यानी वे इन बातों से अपने वजूद में वैराग्य भाव की मौजूदगी जताते हैं. भारत समेत पूरी दुनिया के चिंतन में वैराग्य की चर्चा मिलती है. शमशान घाट का वैराग्य मशहूर है. कुछ ख़ास मौकों और परिस्थितियों में जीवन की निस्सारता का बोध होने पर व्यक्ति में वैराग्य भाव जग जाता है. वैराग्य की भावदशा में व्यक्ति सांसारिकता से हट कर सच्ची आत्मोपलब्धि (रिकवरी ऑफ़ ट्रू सेल्फ) की ओर उन्मुख होता है. हालांकि वह जल्दी ही दुनियादारी में लौट आता है, लेकिन इस तरह का क्षणिक वैराग्य और उस दौरान आत्मोपलब्धि का प्रयास हमेशा निरर्थक नहीं जाता. व्यक्ति अपनी संकीर्णताओं और कमियों से ऊपर उठते हुए जीवन को नए सिरे से देखने और जीने की कोशिश करता है.

लगता यही है कि नरेंद्र मोदी का आत्मालाप उन्हें आत्मोपलब्धि की तरफ नहीं ले जाता, केवल आत्मव्यामोहित बनाता है. वरना सामान्यत: इंसान के मुंह से कोई गलत तथ्य, व्याख्या अथवा किसी के लिए कटु वचन निकल जाए तो वह बात उसे सालती रहती है. वह अपनी गलती के सुधार के लिए बेचैन बना रहता है. अवसर पाकर अपने ढंग से गलती का सुधार भी करता है. मोदी के साथ ऐसा नहीं है. वे एक अवसर पर अज्ञान, मिथ्यात्व और घृणा से भरी बातें करने के बाद उसी उत्साह से अगले अवसर के आयोजन में लग जाते हैं. ज़ाहिर है, वे अपनी नज़र में अपनी पात्रता को संदेह और सवाल से परे मानते हैं. इसीलिए उन पर संदेह और सवाल उठाने वालों पर उन्हें केवल क्रोध आता है. मोदी ने अपना यह 'गुण' अपने समर्थकों में भी भलीभांति संक्रमित कर दिया है. दोनों संदेह और सवाल उठाने वाले 'खल' पात्रों को ठिकाने लगाने में विश्वास करते हैं.   

मोदी सबसे पहले खुद अपने गुण-ग्राहक हैं. उनकी कामयाबी यह है कि अपने 'गुणों' को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए वे अभी तक के सबसे बड़े इवेंट मैनेजर बन कर उभरे हैं. कहना न होगा कि अपने 'गुणों' को प्रचारित-प्रसारित करने का यह फन उनके कारपोरेटपरस्त चरित्र से अभिन्न है. मोदी आत्ममुग्धता में यह मान सकते हैं कि कारपोरेट घराने उनके खिलोने हैं. जबकि सच्चाई यही है कि वे खुद कारपोरेट घरानों के हाथ का खिलौना हैं. साहित्य, विशेषकर यूरोपीय उपन्यास में, आत्मव्यामोहित नायकों की खासी उपस्थिति मिलती है. अपनी समस्त आत्ममुग्धता के बावजूद वे वास्तव में यथास्थितिवाद का खिलौना मात्र होते हैं. इन नायकों की परिणति गहरे अवसाद और कई बार आत्महत्या में होती है. बहरहाल, जिस तरह कारपोरेट पूंजीवाद के लिए मोदी की पात्रता स्वयंसिद्ध है, मोदी के लिए भी वैसा ही है - वे कारपोरेट पूंजीवाद के स्वयंसिद्ध सर्वश्रेष्ठ पात्र हैं.             

मोदी की पात्रता की स्वीकृति का एक महत्वपूर्ण कोना/स्रोत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति का है. अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, चीन जैसे आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य दबदबे वाले देश दुनिया के सत्ता पक्ष और विपक्ष के महत्वपूर्ण नेताओं की पूरी जानकारी रखते हैं. ऐसा नहीं है कि ये देश मोदी के इतिहास और विज्ञान के ज्ञान के बारे में नहीं जानते हैं. मोदी के साम्प्रदायिक फासीवादी होने समेत उन्हें सब कुछ पता है. अमेरिका ने गुजरात के 2002 के साम्प्रदायिक दंगों को धार्मिक स्वतंत्रता का हनन बताते हुए 2005 में मोदी के अपने देश में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. ब्रिटेन ने 2002 के दंगों के बाद गुजरात की मोदी सरकार से 10 साल तक आधिकारिक सम्बन्ध तोड़ लिए थे. अन्य कई देशों ने दंगों के लिए नरेंद्र मोदी की तीखी भर्त्सना की थी.

लेकिन जैसे ही मनमोहन सिंह के बाद निगम पूंजीवाद के स्वाभाविक ताबेदार नेता की खोज शुरु हुई, उनकी नज़र मोदी पर गई जो पहले से गुजरात में नवउदारवाद की विशेष प्रयोगशाला चला रहे थे और इस नाते कुछ देशी कारपोरेट घरानों की पहली पसंद बन चुके थे. एक विदेशी प्रतिनिधि मंडल ने प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से दिल्ली में मुलाकात की. प्रधानमंत्री बनने पर अमेरिका ने उनका वीजा बहाल कर दिया. राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें कांग्रेस का संयुक्त अधिवेशन संबोधित करने के लिए बुलाया और अपने साथ प्राइवेट डिनर का मौका प्रदान किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर ओबामा भारत के गणतंत्र दिवस पर विशिष्ट अतिथि के रूप शामिल हुए. आगे की कहानी सबको मालूम है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में खुदरा से लेकर रक्षा क्षेत्र तक - सब कुछ सौ प्रतिशत विदेशी निवेश के लिए खोल दिया गया. दरअसल, नवसाम्राज्यवादी शक्तियों का एक एजेंडा भारत से साम्राज्यवाद विरोध की चेतना और विरासत को नष्ट करना है. ये शक्तियां जानती हैं आरएसएस और मोदी के सत्ता में रहने से यह काम ज्यादा आसानी और तेजी से हो सकता है. नवसाम्राज्यवादी शक्तियों की नज़र में मोदी की पात्रता का यह विशिष्ट आयाम गौरतलब है.   

मोदी की पात्रता की पड़ताल करने वाली यह चर्चा अधूरी रहेगी अगर इसमें प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमे की भूमिका को अनदेखा किया जाए. इस विषय में विस्तार में जाए बगैर केवल इतना कहना है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) के तत्वावधान में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले सारा सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य गड्डमड्ड कर दिया था. उसकी पूरी तफसील 'भ्रष्टाचार विरोध : विभ्रम और यथार्थ' (वाणी प्रकाशन, 2015) पुस्तक में दी गयी है. नवउदारवाद के वैकल्पिक प्रतिरोध को नष्ट करके उसे (नवउदारवाद को) मजबूती के साथ अगले चरण में पहुँचाने के लक्ष्य से चलाया गया वह आंदोलन नवउदारवाद के अगले चरण के नेता (नरेंद्र मोदी) को भी ले आया. विचारधारात्मक नकारवाद के उस शोर में सरकारी कम्युनिस्टों ने केजरीवाल नाम के एनजीओ सरगना में लेनिन देख लिया था और उसे मोदी का विकल्प बनाने में जुट गए थे. (मोदी के कांग्रेस-मुक्त भारत के आह्वान के पहले ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कर्ताओं ने अपनी तरफ से कांग्रेस का मृत्यु-लेख लिख दिया था.) इस तरह विकल्प का संघर्ष भी अगले चरण में प्रवेश कर गया! भारतीय राजनीति में हमेशा के लिए यह तय हो गया कि मुख्यधारा राजनीति में अब लड़ाई नवउदारवाद और नवउदारवाद के बीच है. अर्थात नवउदारवाद के साथ कोई लड़ाई नहीं है. जो भी झगड़ा है वह जाति, धर्म, क्षेत्र, परिवार और व्यक्ति को लेकर है. या फिर देश के संसाधनों और श्रम की नवउदारवादी लूट में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने को लेकर. वही पूरे देश में हो रहा है. यह सही है कि मोदी भ्रष्ट और अश्लील पूंजीवाद का खिलौना भर हैं, लेकिन इस रूप में वे भारत के शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं.
 (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं)     

Wednesday, April 3, 2019

लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया-डॉ प्रेम सिंह



मौजूदा दौर की भारतीय राजनीति में नीतियों के स्तर पर सरकार और विपक्ष के बीच अंतर नहीं रह गया है. दरअसल, राजनीतिक पार्टियों के बीच का अंतर ही लगभग समाप्त हो गया है. लोग अक्सर एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आवा-जाही करते रहते हैं. क्योंकि विचारधारा ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का आधार नहीं रह गई है. केंद्र अथवा राज्यों में कौन सरकार में है और कौन विपक्ष में - यह चुनाव में बाज़ी मारने पर निर्भर करता है. चुनाव के बाद ही या अगला चुनाव आते-आते पार्टियां अपना गठबंधन, और नेता अपनी पार्टी बदल लेते हैं. इस चलन का अब बुरा नहीं माना जाता. यह अकारण नहीं है. 1991 में जब कांग्रेस ने नई आर्थिक नीतियां लागू की थीं, उस समय भाजपा के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कांग्रेस ने अब भाजपा का काम हाथ में ले लिया है. शायद तभी उन्होंने आकलन कर लिया था कि वे निकट भविष्य में देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं. वर्ना 80 के दशक तक यही सुनने को मिलता था कि आरएसएस/जनसंघ से जुड़े वाजपेयी अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता के बावजूद कभी भी देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. वाजपेयी गठबंधन सरकार के पहले दो बार अल्पकालिक, और उसके बाद पूर्णकालिक प्रधानमंत्री बने. अब नरेंद्र मोदी अकेले भाजपा के पूर्ण बहुमत के प्रधानमंत्री हैं.

1991 के बाद से मुख्यधारा राजनीति के लगभग सभी दलों का देश के संविधान के प्रतिकूल नई आर्थिक नीतियों के पक्ष में अनुकूलन होता गया है. लिहाज़ा, पिछले तीन दशकों में परवान चढ़ा निगम पूंजीवाद भारत के राजनीतिक दलों और नेताओं को खुले रूप में निर्देशित करता है. जब संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की जगह निगम पूंजीवाद की वैश्विक संस्थाओं - विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि, और देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों/कारपोरेट घरानों के आदेशों ने ले ली तो संविधान के समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे मूलभूत मूल्यों पर संकट आना ही था. इनमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हम लगभग गवां चुके हैं. इस क्षति का सच्चा अफसोस भी हमें नहीं है. नई पीढ़ियां इस प्रतिमान विस्थापन (पेराडाईम शिफ्ट) की प्राय: अभ्यस्त हो चुकी हैं. लोकतंत्र का कंकाल अलबत्ता अभी बचा हुआ है. यह कंकाल जब तक रहेगा, देश में चुनाव होते रहेंगे.   

किसी देश की राजनीति में यह अत्यंत नकारात्मक स्थिति मानी जायेगी कि वहां सरकार और विपक्ष का फैसला तात्कालिक रूप से चुनाव की जीत-हार पर निर्भर करता हो. स्वाभाविक तौर पर होना तो यही चाहिए कि संविधान-सम्मत नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने और संवैधानिक संस्थाओं के बेहतर उपयोग और संवृद्धि की कसौटी पर सरकार और विपक्ष दोनों को कसा जाए. लेकिन निगम पूंजीवाद से अलग विचारधारा, यहां तक कि संविधान की विचारधारा पर भी राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता आस्था रखने को तैयार न हों, तो मतदाताओं के सामने विकल्प नहीं बचता. कांग्रेस और भाजपा निगम पूंजीवाद के तहत नवउदारवादी नीतियों की खुली वकालत करने वाली पार्टियां हैं. इन दोनों के अलावा जितनी छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां, देश के ज्यादातर बुद्धिजीवी, नागरिक समाज संगठन तथा एक्टिविस्ट भी घुमा-फिर कर नवउदारवादी नीतियों के दायरे में ही अपनी भूमिका निभाते हैं. मुख्यधारा मीडिया इसी माहौल की उपज है और उसे ही दिन-रात लोगों के सामने परोसता है. जिसे 'गोदी मीडिया' का प्रतिपक्ष बताया जाता है, वह मीडिया भी ज्यादातर नवउदारवाद के दायरे में ही काम करता नज़र आता है. इस बीच एक तरफ स्वतंत्रता संघर्ष के दौर के प्रतीक-पुरुषों को नेताओं द्वारा नवउदारवाद के हमाम में खींचा जाता है, दूसरी तरफ सत्ता की राजनीति में परिवारों से अलग जो नए चेहरे निकल कर आते हैं, उन पर जाति, धर्म और क्षेत्र की छाप लगी होती है.

किशन पटनायक ने 90 के दशक में इसे प्रतिक्रांति की शुरुआत कहा था. तब से पिछले 20-25 सालों में प्रतिक्रांति अच्छी तरह पक चुकी है. प्रतिक्रांति के पकने का प्रमाण है कि कुछ एनजीओबाज़, धर्म-अध्यात्म के धंधेबाज़, सरकारी आला अफसर और प्रोफेशनल हस्तियां  भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन करते हैं और देश का पूरा लेफ्ट-राईट इंटेलीजेंसिया और मीडिया उसके पक्ष और प्रचार में एकजुट हो जाता है. आंदोलन की 'राख' से 'आम आदमी' की एक नई पार्टी निकल कर आती है जो आरएसएस/भाजपा तथा सोशलिस्टों/कम्युनिस्टों को एक साथ साध लेती है. कारपोरेट पूंजीवाद की यह अपनी पार्टी है जो अब कांग्रेस को भी घुटनों पर लाने का जोर भरती है! ऐसी स्थिति में कारपोरेट पूंजीवाद, जो नवसाम्राज्यवाद का दूसरा नाम है, के विरोध की राजनीति के लिए चुनावों के रास्ते जगह बनाना लगभग असंभव है.

लेकिन इस नकारात्मक यथार्थ के बावजूद चुनाव ही वह आधार बचता है, जहां से सकारात्मक स्रोतों को तलाश की जा सकती है. इसी मकसद से मैंने पिछले साल जून में 'लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया' निबंध लिखा था. विपक्ष के चुनावी गठबंधन के मद्देनज़र काफी विस्तार से लिखा गया वह निबंध हिंदी में 'हस्तक्षेप डॉट कॉम' पर और अंग्रेजी में 'मेनस्ट्रीम वीकली', 'काउंटर कर्रेंट', 'जनता वीकली' समेत कई जगह छपा था. वर्तमान में जैसा भी हमारा लोकतंत्र है, उसमें चुनावों की बहुआयामी भूमिका रेखांकित करते हुए निबंध में मुख्यत: चार  सुझाव रखे गए थे  : भाजपा और कांग्रेस से अलग भारतीय राजनीति की तीसरी शक्ति कही जाने वाली पार्टियों और वामपंथी पार्टियों का राष्ट्रीय स्तर का एक अलग गठबंधन 'सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा' (नेशनल फ्रंट फॉर सोशल जस्टिस) नाम से बनाया जाना चाहिए; विपक्ष के किसी एक नेता को उस मोर्चे का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना चाहिए; कांग्रेस को पांच साल तक बाहर से राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार का समर्थन करना चाहिए; और देश के बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय मोर्चे के गठन और कामयाबी की दिशा में अग्रसक्रिय (प्रोएक्टिव) भूमिका निभानी चाहिए. ये चारों बातें संभव नहीं हो पाईं. लोकसभा चुनाव घोषित हो चुके हैं और 11 अप्रैल 2019 को पहले चरण का मतदान होगा. ऐसे में लेख का दूसरा भाग लिखने का औचित्य शायद नहीं रह जाता है. लेकिन विपक्ष के पाले में बने चुनावी गठबंधनों और रणनीतियों के मद्देनज़र थोड़ी चर्चा की जा सकती है.

यह स्पष्ट है कि भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के मुकाबले न 'सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा' मैदान में है, न कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए). महागठबंधन जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं लेकिन एनडीए के मुकाबले कांग्रेस समेत विपक्ष ने राज्यवार फुटकर गठबंधन ही बनाए हैं. इन गठबंधनों की चुनावों में जो भी शक्ति और सीमाएं हों, चुनावों के बाद उनकी विश्वसनीयता और स्थायित्व को लेकर अभी से अटकलें लगाई जाने लगी हैं. माना जा रहा है कि जो भी फुटकर गठबंधन हुए हैं, उनका चरित्र विश्वसनीय और स्थायी नहीं है. उनमें शामिल कुछ पार्टियां/नेता भाजपा की बढ़त की स्थिति में एनडीए के साथ जा सकते हैं. करीब 35 पार्टियों का गठबंधन लेकर चलने वाले मोदी विपक्ष की इस सारी कवायद को 'महामिलावट' कहते हैं! कांग्रेस अपने से इतर गठबंधनों पर अस्थायित्व की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाती है.           

हालांकि स्थिति इससे अलग भी हो सकती थी. हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा गया था. उन चुनावों में भाजपा को हरा कर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें बनी थीं. ध्यान दिया जा सकता है कि कांग्रेस की यह जीत किसान आंदोलन के चलते हुई थी. 5 जून 2017 को मध्यप्रदेश के मंदसौर कस्बे में पुलिस की गोली से 6 किसानों की मौत हुई थी. उस घटना से स्वत:स्फूर्त किसान आंदोलन उठ खड़ा हुआ. आंदोलन के संचालन के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति का गठन हुआ. महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में चल रहे किसान आंदोलनों के साथ मंदसौर से उठा आंदोलन दिल्ली तक पहुंच गया. कांग्रेस की उस आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी. लेकिन वह तीन राज्यों में चुनाव जीत गई.

पांच राज्यों में भाजपा की पराजय के बाद स्वाभाविक रूप से यह होना चाहिए था कि किसान आंदोलन की उठान को मज़दूर आंदोलन, छात्र-युवा आंदोलन और छोटे-मझौले व्यापारियों के आंदोलन के साथ जोड़ कर लोकसभा चुनाव तक एक प्रभावी आंदोलन बनाए रखा जाता. मोदी सरकार की किसान-मजदूर-युवा-लघु उद्यमी विरोधी नीतियों का सच लगातार सामने रखा जाता. इसके साथ मोदी सरकार का अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने वाला नोटबंदी का फैसला, अभूतपूर्व महंगाई और बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था की विफलता, चहेते बिजनेस घरानों को धन लुटाना, आर्थिक अपराधियों को देश छोड़ कर भागने में मदद करना, राफेल विमान सौदे में घोटाला करना, सरकारी परिसंपत्तियों-संस्थाओं-संयंत्रो को निजी हाथों में बेचना, संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं का ध्वंस करना जैसे ठोस मुद्दों को चर्चा में बनाये रखा जाता. वैसा होने पर मोदी और भाजपा चाह कर भी भावनात्मक मुद्दों को उस तरह नहीं उछाल पाते जैसा अब कर रहे हैं. लेकिन विपक्ष अपनी पिच तैयार नहीं कर पाया. वह ज्यादातर मोदी की पिच पर ही खेलता रहा. कांग्रेस ने बाकायदा जाति और धर्म की राजनीति करने का फैसला करके आरएसएस/भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति को वैधता प्रदान कर दी.     

विपक्ष ने लोकसभा चुनाव को लेकर परिपक्वता का परिचय नहीं दिया है. जबकि मोदी-शाह राज में साम्प्रदायिक फासीवाद चरम पर है; अमित शाह अगले 50 साल तक सत्ता पर काबिज रहने की घोषणा कर चुके हैं; और इस लोकसभा चुनाव के बाद देश में आगे कभी चुनाव नहीं होंगे जैसी धमकी एक भाजपा नेता की तरफ से आ चुकी है. आगे चुनाव नहीं होने की सूरत तभी बन सकती है, जब देश की जनता का चुनावों से विश्वास उठ जाए. आज की आरएसएस/भाजपा यह चाहेगी और उस दिशा में भरपूर प्रयास करेगी. लिहाज़ा, चुनावी प्रक्रिया को पवित्रता और गरिमा प्रदान करना विपक्ष की जिम्मेदारी बनती है. लेकिन कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्ष चुनाव को गंभीरता से लेने के बजाय चुनाव की ही गरिमा गिराने पर लगा है. टिकटों की खरीद-फरोख्त और अपराधियों से लेकर सेलेब्रेटियों तक को चुनाव में उतारने की कवायद चल रही है. जनता की नज़र से यह सब छुपा नहीं है. ज़ाहिर है, विपक्ष को जनता का विश्वास टूटने की कोई चिंता नहीं है.  

थोड़ा बुद्धिजीवियों की भूमिका पर भी विचार करें. ऊपर जिस निबंध का उल्लेख किया गया है वह इन पंक्तियों के साथ समाप्त होता है : 'देश के सभी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट, जो संविधान के आधारभूत मूल्यों - समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र - और संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण को लेकर चिंतित हैं, उन्हें राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण और स्वीकृति की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. भारत में अक्सर नेताओं ने बुद्धिजीवियों-कलाकारों को प्रेरणा देने का काम किया है. आज की जरूरत है कि बुद्धिजीवी, कलाकार और नागरिक समाज के सचेत नुमाइंदे नेताओं का मार्गदर्शन करें.' फासीवाद आने की सबसे ज्यादा बात करने के बावजूद बुद्धिजीवी उसके मुकाबले के लिए विपक्षी एकता की दिशा में कोई सार्थक भूमिका नहीं निभा पाए. वे भाजपेतर सरकार में पद-पुरस्कार तो पाना चाहते हैं, लेकिन समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के हक़ में नेताओं की आलोचना नहीं करना चाहते. धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल साम्प्रदायिकता कहलाती है. ऐसे बुद्धिजीवी भी सामने आए जिन्होंने राहुल गांधी की धर्म और ब्राह्मणत्व की राजनीति को आरएसएस/भाजपा से अलग और अच्छे के लिए बताया. बाकी ज्यादातर बुद्धिजीवियों ने इस विषय पर चुप रहने में भलाई समझी. यह एक उदाहरण है. दरअसल, आरएसएस/भाजपा का हिंदू-राष्ट्र धर्मनिरपेक्षता के चोर बाज़ार में बनता है!

निष्कर्ष रूप में कहा सकता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में जनता के स्तर पर मोदी सरकार के प्रति पर्याप्त नाराजगी है, लेकिन विपक्ष और बौद्धिक वर्ग ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह पूरी तरह से नहीं किया है. जो भी हो, राजनीति की तरह चुनाव भी संभावनाओं का खेल है. इस चुनाव में यह देखना रोचक होगा कि कारपोरेट-साम्प्रदायिक गठजोड़ की सारी जकड़बंदी और उसमें मीडिया की सहभागिता के बावजूद मतदाता मौजूदा संविधान-विरोधी सरकार को उखाड़ फेंके. यह भी हो सकता है कि सरकार की पराजय का प्रतिफल कांग्रेस को न मिल कर तीसरी शक्ति को मिले. वैसी स्थिति में अगले पांच साल के लिए देश की सत्ता की बागडोर सम्हालने की ऐतिहासिक भूमिका के बारे में तीसरी शक्ति के नेताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए. अगर इस बार यह नहीं होता है तो 2024 के लोकसभा चुनाव में पूरी तयारी के साथ प्रयास करना चाहिए.                

यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद से सीधे टकराने वाली राजनीति का काम बंद हो जाना चाहिए. वह समस्त बाधाओं के बावजूद चलते रहना चाहिए. बल्कि वह चलेगा ही, और एक दिन सफल भी होगा. जैसे स्वाधीनता का संघर्ष उपनिवेशवादियों के समस्त दमन और कुछ देशवासियों की समस्त दगाबाजियों के बावजूद अपरिहार्य रूप से चला और सफल हुआ.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं.)   

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवा...