Wednesday, February 1, 2012

घोषणाओं की ज़मीनी हक़ीकत



एक बहुत पुराना शेर है , ... तेरे वादे पे जिये हम जो ये जान झूठ जाना ... कि खुशी से मर न जाते अगर एतबार होता ... ये शेर उत्तर प्रदेश के ताज़ा राजनीतिक हालात पर सटीक बैठता है। अगर मीडिया में मचाए जा रहे माथा फुटौव्वल को छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश को लोग अलग अलग राजनीति दलों के घोषणा पत्रों को गंभीरता से नहीं ले रहे। हां कांग्रेस और संघी फांको में कटे समाज के तथाकथित वे बुद्धिजीवी जिनका यूपी चुनाव से दूर दूर तक का कोई लेना देना नहीं है , वे इस घोषणापत्र को ज़रूर गंभीरता से ले रहे हैं। ये बुद्धिजीवी यूपी की ज़मीनी हकीक़त से जितनी दूर हैं उतना ही दूर राजनीतिक दलों का घोषणापत्र आम लोगों से है।
जितनी मेरी उम्र है और जितना इस देश की सियासत को जान पाया हूं, एक दावा तो कर ही सकता हूं कि हमारे बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी कोई चुनावी घोषणापत्र पढ़कर वोट नहीं करता। बस इसी बात का फायदा उठाया सभी राजनीतिक पार्टियों ने , और वे वचनं किं दरिद्रता की उक्ति पर उतर गए। रोजी ,, रोटी ,, सिंचाई ,, पढ़ाई और दवाई से गुजरते हुए चुनावी वायदे कब टेबलेट कंप्यूटर और स्वास्थ्य लोकपाल तक पहुंच गया पता ही नहीं चला। अब कांग्रेस को ये कौन बताए कि जो असली लोकपाल अटका है उसकी सेहत क्या यूपी की समाजवादी या फिर बहुजन समाज पार्टी दिल्ली में जाकर दुरूस्त करेगी। बीजेपी अभी इसलिए व्यस्त दिख रही है क्योंकि उसकी पूरी ताकत तमाम दागियों के काले कारनामों को भगवा पर्दों में ढंकने में लगी है।

जब से तमाम पार्टियां चुनावों से ठीक पहले रंगीन चुनावी घोषणा पत्र जारी करने लगी। तब से हवाई घोषणाओं का अंबार लग गया । जनता चुनाव दर चुनाव धोखे खा रही है इसीलिए वो अब चुनावी वादों को गंभीरता से नहीं लेती। लेकिन इसके बाद भी आयोग की ज़िम्मेदारी खत्म नहीं होती। चुनाव आयोग को कड़ाई से इन घोषणापत्र में किए गए वादे को पालन कराना चाहिए। और जो पार्टियां चुनाव घोषणा पत्र में किए गए वादे को लागू करने के लिए क़दम नहीं उठाती उनके खिलाफ उचित कार्रवाई करनी चाहिए।

राजेश कुमार

2 comments:

indian socialist society said...
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indian socialist society said...

अब समय आ गया है कि हम दिन गिनकर हिसाब मांगे. क्योंकि समय रुकता नहीं . और हम पिछड़े रहे . सही कहिये तो पूरे चुनावी सिस्टम को बदलने कि जरुरत है .

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