Monday, August 27, 2012

पूंजीवाद के पहलवान

(आज शुद्ध राजनीतिक चिंतन का जो घोर अभाव हो चला है उसकी कमी को पूरा करने वाला डॉ प्रेम सिंह का आलेख . में इसे अँधेरी रात में जुगनू की चमक मानता हूँ .)


पूंजीवाद विचारधारा और व्यवस्था दोनों स्तरों पर अपना पक्ष मजबूत करने का निरंतर और मुकम्मल उद्यम करता है। यूं तो हर व्यवस्था यह करती है, लेकिन पूंजीवाद इस मामले में बहुत चाक-चैबंद साबित हुआ है। अपने सामने उसने किसी भी विकल्प को खड़ा नहीं होने दिया। कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट नाम से जो व्यवस्थाएं यूरोप में या एशिया, लैटिन अमेरिका आदि में बनी, पूंजीवाद उनमें घुस कर बैठा हुआ था। मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं, राजशाहियों और तानाशाहियों में भी उसकी मौजूदगी बराबर बनी रही है। आज, जबकि उसके एक और संकट का समय चल रहा है, उसने अपने को विकल्पहीन घोषित किया हुआ है । अपनी सीमाओं और संभावनाओं के साथ पूंजीवाद हर देश की सरकार के भीतर मौजूद है। लेकिन उसकी दुर्निवार उपस्थिति सरकारों और व्यवस्थाओं तक सीमित नहीं है। प्रकृति उसके कब्जे में है। कौन जीवधारी और कौन वनस्पती बचेंगे और कब तक बचेंगे, इसका फैसला पूंजीवाद के हाथ में है। उसने धर्मों, संस्कृतियों,
भाषाओं, शिक्षा और सबसे बढ़ कर विज्ञान में अपनी गहरी घुसपैठ बनाई है। पूंजीवाद की गिरफ्त से छूटे मनुष्य दुनिया में बहुत थोड़े मिलेंगे। अलबत्ता उसके हाथों मरने वाले कई करोड़ हैं। जिस पूंजीवाद को सामंतवाद से मुक्ति का दर्शन कहा गया था, आधुनिक दुनिया उसकी बंधक बन गई है। पूंजीवाद का अपनी प्रतिष्ठाा के उद्यम में वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों पर सबसे ज्यादा भरोसा और दारोमदार रहा है। पहले वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी थोड़े हुआ करते थे। आज वे असंख्य हैं और प्रयोगशालाओं और अध्ययन संस्थानों में पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष में वैज्ञानिक और बौद्धिक काम काम कर रहे हैं। अक्सर वैज्ञानिकों और बौद्धिकों को पता भी नहीं होता कि वे किसके लिए काम कर रहे हैं। उनमें जो आला दरजे का काम करते हैं, उनके लिए बड़े-बड़े पुरस्कारों की व्यवस्था है। उनकी एक अलग दुनिया पूंजीवादी व्यवस्था ने बना दी है। हाल में नासा ने मंगल ग्रह पर जब क्युरियोसिटी यान को सफलतापूर्वक उतारा तो प्रयोगशाला में बैठे वैज्ञानिक पागलों जैसी खुशी से झूम उठे। अकूत धन से चलने वाले प्रयोगों और खोजों में डूबे वैज्ञानिकों के दिमाग में शायद ही कभी यह आता हो कि दुनिया में भूख, भय और मौत ने जो असंख्य लोगों को अपनी गिरफ्त में लिया हुआ है, उसका गहरा संबंध उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों से है। मंगल ग्रह पर उतारे गए क्युरियोसिटी यान पर होने
वाला खर्च 2. 5 अरब डालर बताया गया है। इसके साथ एनजीओ का विशाल जाल बिछाया गया है जो पूंजीवादी साम्राज्यवाद का किसी भी परिवर्तनकारी प्रतिरोध से बचाव करते हैं। पूरी तीसरी दुनिया में लाखों की संख्या में फैले एनजीओ पूंजीवादी सरकारों और संस्थाओं से अरबों डालर का दान पाते
हैं। उनमें से कुछ के कर्ताओं का बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीईओ जैसा ठाठ-बाट होता है। वे बुद्धिजीवी की हैसियत रखते हैं और लोगों को बताते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था अंतिम और आत्यंतिक है। उसके विकल्प की बात करना निरर्थक है। दुनिया में, यानी तीसरी दुनिया में, अगर गरीबी है, बीमारी है, अशिक्षा है, भूख है, कुपोषण है, असुरक्षा है, अशांति है, तो व्यवस्था परिवर्तन की बात मत करिए। एनजीओ बनाइए, धन लीजिए और समस्या का समाध् ाान कीजिए। पूंजीवाद के एजेंट नेताओं और सरकारों सेस्वराजमांगने तक के लिए विदेशी धन मिल सकता है। खास कर गरीब देशों में बताया जाता है कि समस्याओं के उच्च अध्ययन और शोध के लिए विदेशी धन का कोई विकल्प नहीं है। वह लेना ही चाहिए और उसमें कसेई बुराई नहीं है।
एनजीओ वाले कितने ही बेरोजगार नौजवानों को कम से कम वेतन पर खटाते हैं। उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व और चिंतन को दबा कर उन्हें दब्बू बना देते हैं। राजनीतिक कार्यकर्ता पर उनकी निगाह पड़ी नहीं कि मुंह में पानी जाता है। वे उसे, हैसियत के अनुसार कीमत देकर, अपने एनजीओ में शामिल कर लेते हैं। एनजीओ ने देश और दुनिया से राजनीतिक एक्टिविज्म को ही खत्म नहीं किया है, गांध्ाी के रचनात्मक काम की परंपरा को भी विनष्ट कर दिया है। मजेदारी यह है कि अगर कहीं पूंजीवाद का विकल्प चिंतन और काम के स्तर पर बनने लगता है और लोगों का ध्यान उस पर जाने लगता है, तो ये लोग साल में दस जगह दस बार विकल्प की चचाएं चला कर लोगों का ध्यान उधर हटा देते हैं। कांग्रेस नीत यूपीए या भाजपा नीत एनडीए के राजनीतिक प्रतिरोध और वैकल्पिक राजनीति के निर्माण के प्रयास पिछले 20-25 सालों से हो रहे हैं। हालांकि आपस में विकल्प की विचारधारा और तरीके को लेकर विद्यमान मतभेद प्रयास की सफलता में प्रमुख बाधा है, लेकिन पूंजीवाद के पक्ष में एनजीओबाजों का अड़ंगा भी उतनी ही बड़ी बाधा बना हुआ है। पूंजीवाद की इस कदर मजबूती के कई प्रत्यक्ष कारणों के अलावा अप्रत्यक्ष कारण भी हैं। उनमें शायद सबसे महत्वपूर्ण कारण पूंजीवाद की यह विशेषता है कि वह अपने विरोध का भी खुद निर्माण और पोषण करता चलता है। वह बड़ी सफाई और गहराई से यह काम करता है। अपने जन्म से लेकर आज तक पूंजीवाद अपनी इस योग्यता के बल पर बचता और फलता-फूलता आया है। उसने यह सिद्ध किया है कि उसके गर्भ में विनाश के नहीं, उसके विकास के बीज छिपे होते हैं। पिछली करीब डेढ़ शताब्दी से पूंजीवाद के विनाश का मंत्र जानने का दावा करने वाला वैज्ञानिक माक्र्सवाद पूंजीवाद की मजबूती के काम आकर विश्रांत अवस्था में पड़ा है। वह अपने पैरों के बल खड़ा होने की स्थिति में नहीं है। संकट से जूझता हुआ पूंजीवाद अलबत्ता माक्र्सवाद को एक बार फिर अपने विरोध में खड़ा होने का मौका दे सकता है। गतिरोध या संकट का शिकार होने पर पूंजीवाद अपनी कोख में पले पहलवानों को अपने खिलाफ खड़ा कर देता है। रातों-रात उन्हें बड़ा भी बना देता है। भारत का मामला हो तो सीध् ो गांधी और जेपी जैसा।दूसरी दुनिया संभव है’, ‘सत्ता नहीं व्यवस्था परिवर्तन करना है’, ‘भारत माता की जय’ ‘दूसरी आजादी’, ‘तीसरी आजादी’, ‘क्रांति’, ‘महाक्रांतिजैसे नारों के साथ पूंजीवाद
 के पहलवान मैदान में कूद पड़ते हैं। अपने बचाव के लिए अपना विरोध करने की पूंजीवाद की चाल को समझना अक्सर आसान नहीं होता। उसके स्वनिर्मित विरोध को वास्तविक विरोध समझकर पूंजीवाद
के वास्तविक विरोधी भी कई बार उसमें शामिल हो जाते हैं। पूंजीवाद की चैतरफा गिरफ्त और मार से त्रस्त भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश की जनता में जो थोड़ी-बहुत वास्तविक विरोध की चेतना बनती है, विचार बनता है और उसके बल पर पूंजीवाद के वास्तविक विरोध् ाी संगठनों में जो थोड़ी-बहुत ताकत जुटती है, पूंजीवाद के पहलवानों की टोली उसे पीछे धकेल देती है। कुछ करने के जज्बे से भरे नौजवान, जिन्हें अक्सर परिवर्तनकारी राजनीति से दूर रखा जाता है, नारों-झंडों से प्रभावित होकर उस मुहिम में शामिल हो जाते हैं। भीड़ जुट जाती है। पूंजीवाद बच जाता है और आगे तक का वास्तविक विरोध एकबारगी खारिज हो जाता है।

पूंजीवाद का अपने खिलाफ विरोध का कारोबार किस कदर फल-फूल चुका है, भारत में उसकी बानगी अन्ना आंदाोलन के नाम से मशहूर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में देखी जा सकती है। कुछ एनजीओ वालों द्वारा सुनियोजित ढंग से अंजाम दिए गए और राजनीति को एक सिरे से बुरा बताने वाले इस आंदोलन की परिणति
पिछले दिनों एक तरफ एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने और दूसरी तरफ भाजपा नीत एनडीए को समर्थन देने की घोषणा में हुई है। जुलाई के अंत और अगस्त के प्रारंभ में आगे-पीछे हुई ये दोनों घोषणाएं एक ही उद्देश्य की पूर्ति करती हैं - भारत में नवउदारवादी निजाम को बचाना और मजबूत बनाना। टीम अन्ना के, जिसे अन्ना हजारे द्वारा भंग किए जाने का समाचार आया था, राजनीतिक पार्टी बनाने के फैसले पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं। ज्यादातर समर्थकों ने इसे गलत फैसला माना है। टीम के एक-दो प्रमुख सदस्यों ने भी राजनीतिक पार्टी बनाने पर अपना एतराज जताया है। शुरू में सुना यह भी गया था कि अन्ना हजारे खुद पार्टी बनाने के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन टीम केचाणक्यअरविंद केजरीवाल ने स्पष्ट किया कि अन्ना हजारे पार्टी बनाने के फैसले के साथ हैं। टीम अन्ना के मामले में उन्हीं की बात प्रामाणिक मानी जाती है। बहरहाल, जो लोग आंदोलन को गैर-राजनीतिक मान कर शामिल हुए थे, पार्टी बनाई जाने और चुनाव लड़ने के फैसले
पर उनकी शिकायत वाजिब कही जा सकती है। टीम ने अपने गैर-राजनीतिक होने का दावा किया था और, साथ ही, राजनीति और नेताओं के प्रति घृणा का माहौल और भावना पैदा की थी। टीम के प्रमुख लोगों की मंशा और योजना जन लोकपाल बनवा कर उस पर कब्जा करने की थी। जैसा लोकपाल वे चाहते हैं, वैसा उनकी समर्थक पार्टियां - भाजपा से लेकर माकपा तक - भी बनाने के लिए तैयार नहीं होंगी। अगले आम चुनाव में भाजपा की सरकार बने या तीसरे मोर्चे की, टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावति जन लोकपाल विध्ोयक कानूनी शक्ल नहीं ले पाएगा। कांग्रेस ने भी संसद के बाहर तैयार किया गया जन लोकपाल विधेयक कानून नहीं बनाया। हालांकि इन पार्टियों की भारतीय संविधान में आस्था नहीं है। लेकिन संविध्ाान और लोकतंत्र में सच्ची आस्था रखने वाली किसी भी पार्टी में जन लोकपाल जैसे प्राधिकारवादी कानून के लिए जगह नहीं हो
सकती। मीडिया आंदोलन के माफिक हो गया और भीड़ ज्यादा उमड़ पड़ी तो टीम के प्रमुख सदस्यों की राजनीतिक हसरतें जोर मारने लगीं। उन्हें समानांतर सरकार और संसद होने का गुमान हो गया कि वे जो चाहे कर सकते हैं। यानी राजनीति कर सकते हैं। टीम अन्ना द्वारा आंदोलन के पहले उफान के तुरंत बाद होने
वाले मध्यावधि कुछ विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के उम्मीदवारों को हरवाने का प्रयास अपने लिए राजनीतिक संभावनाएं तलाशने के लिए किया गया था। भीतर राजनीतिक हसरतें और बाहर तीखा राजनीति विरोध - ऐसे में आंदोलन को गैर-राजनीतिक मान कर शामिल हुए नागरिकों का ठगे जाना अनुभव करना स्वाभाविक है। लेकिन टीम के उन सदस्यों और समर्थकों, जो राजनीति समझते हैं और करते हैं, पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने के फैसले की शिकायत का वाजिब आधार नहीं है। खबरों से पता चलता है टीम के भीतर राजनीति में उतरने के बारे में चर्चा बराबर होती रही। रामलीला मैदान में हुए पिछले अनशन के वक्त टीम के सदस्यों और समर्थकों की ओर से यह आग्रह जोरों पर हुआ कि वहीं से राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा कर दी जाए। जिहाजा, फैसले से असहमति रखने वाले सदस्य जानते हैं कि वह वैसा अचानक नहीं है। भले ही वह लिया गया रामदेव के दबाव में हो कि वे पार्टी बनाने की पहले घोषणा न कर दें। पार्टी बनाने के फैसले पर क्षोभ व्यक्त करने वाले टीम के सदस्यों का एतराज कई रूपों में सामने आया है। लेकिन असली दिक्कत की तरफ से वे सभी आंखें मूंदे हुए हैं। वे जानबूझ कर यह नहीं देखना चाहते कि इस आंदोलन ने परिवर्तकारी राजनीति और विमर्शों को ही नहीं, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के संवैधानिक
मूल्यों को भी गड्डमड्ड कर दिया है। आंदोलन की कोख से जो राजनीतिक पार्टी बनने जा रही है, जाहिर है, उसमें भी यह मिलावट जारी रहेगी। अपने को लोकतांत्रिक दिखाने के लिए जनता के उम्मीदवार खड़े करने की जो बात की जा रही है, वे टीम के प्रमुख नेताओं के बाद होंगे। जैसे कांग्रेस समेत हर पार्टी हाईकमान को जनता चाहिए होती है, अन्ना की पार्टी को भी चाहिएगी। इसमें नई क्या बात है? जो लोग पूरी टीम और मुख्य समर्थकों से सलाह नहीं करते, वे जनता को कितना पूछेंगे, यह आसानी से समझा जा सकता है। और हकीकत समझ आने पर जनता उन्हें कितना पूछेगी, यह भी देखने की बात है। नई पार्टी बनाने वालों की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है। जाहिर है, समझ भी नहीं है। राजनीति का मतलब उनके लिए सोनिया-मनमोहन सिंह और अडवाणी-मोदी की राजनीति रहा है। एक समय संवादमें हमने बताया था कि अरविंद केजरीवाल ने पिछले आम चुनाव में इन नेताओं सेस्वराजमांगने वाले होर्डिंगों से पूरी दिल्ली को पाट दिया था। राजनीतिक निरक्षरता का वह स्व-प्रचार देखने लायक था। एनजीओ वालों की राजनीतिक समझ इतनी ही नजर आती है कि ये नवउदारवादी राजनीति से प्रेम, और प्रतिदान मिलने पर घृणा कर सकते हैं।
ये लोग कैसी राजनीतिक चेतना जगाएंगे इसकी एक बानगी हमें मेरठ में देखने को मिली थी। जंतर-मंतर के पहले धरने के वक्त हमारा चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय जाना हुआ। विश्वविद्यालय के गेट पर अन्ना के समर्थकमैं अन्ना हूंकी टोपी पहन कर धरना कर रहे थे। उनमें जो बोल रहा था उसकी बात हमने कुछ देर खड़े रह कर सुनी। जानकारों के मुताबिक वह अरएसएस की नैतिक पुलिस का सिपाही नहीं था। एक स्थानीय प्रापर्टी डीलर था जो राजनैतिक पार्टियों की दलाली भी करता था। उसका भाषण फैशन करने वाली लड़कियों कीबदचलनीपर केंद्रित था। धरने में कोई स्त्री नहीं थी लेकिन छात्राएं -जा रही थीं। हमने सोचा, लड़कियां वह भाषण सुन कर क्या सोचती होंगी? भाषण खत्म करने के बाद उसने जोर से तिरंगा लहराया और अन्ना हजारे का जैकारा लगाया। राजनीति में आने के फैसले के पीछे गंभीरता होती तो ये लोग पहले से मौजूद मुख्यधारा राजनीति का विरोध करने वाली किसी एक या अलग-अलग पार्टियों में शामिल हो सकते थे। कई छोटी पार्टियां देश में हैं जो नई आर्थिक नीतियों के नाम पर लागू की गई नवउदारवादी व्यवस्था का मुकम्मल विरोध करती हैं। लेकिन टीम अन्ना चरित्रतः वह नहीं कर सकती। बल्कि अगले आम चुनाव में यह पार्टी इन्हीं छोटी पार्टियों से मुकाबला करेगी। भारत की सिविल सोसायटी वैसे भी छोटी पार्टियों को लोकतंत्र के लिए खतरा बताती है। टीम अन्ना की पार्टी छोटी पार्टियों का भक्षण करके बड़ी बनने की कोशिश करेगी। छोटी राजनीतिक पार्टियों के जो लोग टीम अन्ना के पार्टी बनाने के फैसले का स्वागत कर रहे हैं और (बिना मांगी) सलाहें दे रहे हैं, समस्याएं, चुनौतियां और मुद्दे बता रहे हैं, उनके बारे में कहा जा सकता है कि वे अपनी राजनीतिक नियति नई पार्टी के साथ जोड़ कर देख रहे हैं। अन्ना हजारे के अनुसार वे पार्टी को बाहर से सुझाव देंगे। उन्होंनेअच्छे’ (राइट) उम्मीदवार खड़ा करने की सलाह दी है। अच्छे का पैमान क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। लेकिन नई पार्टी बनाने वालेअच्छे लोगोंको स्वाभाविक तौर अच्छे उम्मीदवार का पैमाना माना जाएगा। यानी नई पार्टी को केजरीवाल, किरन बेदी और प्रशांत भूषण जैसे अच्छे लोग चाहिए होंगे। आइए इन पर थोड़ा गौर करें। ये तीनों अपनी आज की हैसियत में उच्च मध्यवर्गीय हैं। जिस तरह से केजरीवाल और किरन बेदी बड़े-बड़े एनजीओ चलाते हैं और वे सारे धत्कर्म करते हैं जो ज्यादातर एनजीओ चलाने वाले करते हैं, सेवा में रहते हुए जिन्होंने अपनी पोजीशन का उसी तरह दुरुपयोग किया जिस तरह ज्यादातर अफसरान करते हैं, उससे यही पता चलता है कि वे वर्ग-स्वार्थ से परिचालित हैं,
 कि अपने वर्ग-चरित्र को बदलने की प्रेरणा से। यहां हमें मुक्तिबोध्ा की कविताअंधेरे मेंका काव्यनायक याद आता है। वह एक कमजोर मध्यवर्गीय व्यक्ति है जो सामान्य जनता के पक्ष में व्यक्तित्वांतरण करना चाहता है। काफी पीड़ादायक अनुभव से गुजरने के बाद वह अपने को बदल भी पाता है। इन दोनों महानुभावों और उनके समर्थकों से पूछा जाए कि मेहनतकशों की कमाई का जो ध्ान पूंजीवादी निजाम उन्हें एनजीओ की मार्फत उपलब्ध कराता है, उसमें कार से लेकर हवाई जहाज तक कितना खर्च उनके ऊपर होता है? प्रशांत भूषण पारिवारिक पृष्ठभूमि और पेशे से ही अमीर हैं। वे और अमीर होना चाहते हैं। अमीरी की भूख के चलते
इलाहाबाद में उन्होंने करोड़ों की संपत्ति कौड़ियों में खरीद ली। आपको याद होगा कि इन अच्छे लोगों के कारनामे जब साामने आए तो उन्होंने स्वयं और उनके समर्थकों ने कहा कि सरकार अपना भ्रष्टाचार छिपाने के लिए गड़े मुर्दे उखाड़ रही है। यह तर्क आपको इस पार्टी के और भी बहुत से उम्मीदवारों के बारे में सुनने को मिलेगा। दरअसल, ये सब राजनीतिक निरक्षर हैं। कुछ भी कशिश होती तो ये काफी पहले कुछ कुछ राजनीतिक पहलकदमी करते। ये एनजीओ वाले हैं, एनजीओ वाले रहेंगे। एनजीओ में भी ये लोग दलित, आदिवासी, महिला विरोधी गुट के हैं। ये लोग खुल्लमखुल्ला आरक्षण के विरोधी हैं, और सांप्रदायिकता के पोषक हैं। फिर भी व्यापक समर्थन पा रहे हैं। विदेशी धन में वाकई बड़ी ताकत है। नई पार्टी की राह भी वही होगी जो रामदेव की है। उसके अलावा और कुछ हो नहीं सकता। सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों की तरफ से 2004 में कांग्रेस के साथ यह औपचारिक चर्चा चली थी कि वह मेधा पाटकर के लिए महाराष्ट्र में एक सीट छोड़ दे। उसके लिए राजापुर सीट चिन्हित भी की गई थी। मेधा पाटकर और सोनिया के सलाहकार ही बता सकते हैं कि मामला सिरे क्यों नहीं चढ़ पाया। यह पार्टी जब चुनाव लड़ेगी तो भाजपा और अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ भी यह दिक्कत आएगी। दिक्कत हल नहीं हुई तो हो सकता है पार्टी बनाने वाले खुद चुनाव लड़ें। अगर आने वाले समय में एनजीओ के धन को राजनीतिक गतिविधियों में इस्तेमाल करने की सहूलियत नहीं हो 
पाई, तो पार्टी अगले आम चुनाव के बाद बंद भी की जा सकती है। रामदेव लीला के किरदार दुनिया अब सचमुच कचरे का ढेर बन गई है, जिस पर चढ़ कर कोई भी मुर्गा बांग देता है तो मसीहा बन जाता है। बाबा
भी एक वैसा ही मसीहा है। इसका कारण है कि असली मसीहाओं की विमर्श-विनोदियों ने मिट्टी पलीद करके रख दी है। ऐसे में निम्न की तरफ झुका हुआ मध्यवर्ग का एक अच्छा-खासा हिस्सा रामदेव के साथ जुट गया। प्रमुख नेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, मीडियाकारों और दलालों को बाबा ने चेला मूंड लिया। रामदेव ने अन्ना हजारे के सीन पर आने से पहले राजनीतिक पार्टी बनाने का एलान और प्रक्रिया शुरू की थी। नारा था कि सत्ता परिवर्तन तो बार-बार हुआ है, अबकी व्यवस्था परिवर्तन करना है। उस समय भगवा बाबा को सब कुछ हरा-हरा लग रहा था। लेकिन आरएसएस को उनका मंसूबा काला लगने लगा और बाबा को पार्टी बनाने का विचार रोकना पड़ा। बाबा का इरादा कांग्रेस और भाजपा दोनों को उलझाए रखने का था ताकि उनकी गुरुगीरी और व्यापार सुभीते से चलते रह सकें। रामदेव कांग्रेस के साथ चाल खेलने लगे तो चालबाजों की सरताज कांग्रेस ने उन्हें पिछले साल रामलीलीला मैदान से बेज्जत करके खदेड़ दियो। पिछली शर्म मिटाने के लिए रामदेव इस बार रामलीला मैदान में तैयारी के साथ आए। उसके पहले जंतर-मंतर पर भीड़ के इंतजार में
बैठे अन्ना हजारे और उनके लोगों को अपनी ताकत दिखा कर जता दिया कि इस बार बाजी उनके हाथ में रहेगी। तीन दिन तक सरकार ने जब कोई ध्यान नहीं दिया तो उन्होंने भाजपा और दूसरे नेताओं को काले धन के मसले पर अपनी ओर खींचा। भ्रष्टाचार के दागों से भरे नेताओं को यह अच्छा मौका लगा और उन्होंने बाबा के समर्थन में संसद और बाहर आवाज उठाई। उस आवाज की ध्वनि साफ थी कि हम यहां छोटा-मोटा भ्रष्टाचार करते हैं। कांग्रेस बड़ी भ्रष्टाचारी है जिसके नेताओं का धन विदेशी बैंकों में जमा है। अपने और भाजपा के भ्रष्टाचार कोराष्ट्रवादी भ्रष्टाचारमानने वाले बाबा का हौसला बढ़ गया।  जैसा कि खबरों में आया, कांग्रेस छोड़ भाजपा समेत विपक्ष के अन्य नेताओं को मंच पर बुलाने की कवायद की गई। खबरों में ही यह आया कि भाजपा अध्यक्ष गडकरी ने शर्त लगा दी कि वे तभी आएंगे जब बाबा कांग्रेस का खुल्लमखुल्ला और पूरा विरोध करे और आरएसएस-भाजपा की तारीफ करे। कांग्रेस से पूरी तरह टूट चुके बाबा ने आरएसएस-भाजपा और नरेंद्र मोदी की तारीफ और धन्यवाद किया। नरेंद्र मोदी की तारीफ वे इस बीच गुजरात जाकर भी कर आए थे। अब वे आरएसएस वालों के साथ अपनी अगली रणनीति बना रहे होंगे।
यूं तो इस पूरे आंदोलन में भाषा और बोलने की कोई मर्यादा नहीं रही है, लेकिन रामदेव गजब के वाचाल हैं। उनकी दाद देनी होगी कि वाचालता के अखाड़े में उन्होंने पूरी टीम अन्ना को अकेले पछाड़ दिया है। इस बार उनकी वाचालता अपने शबाब पर थी। जहां वाचालता होगी, झूठ अपने आप चला आएगा। अभी न भ्रष्टाचार हटा है, काला धन वापस आया है, लेकिन रामदेव अपने आंदोलन को लाख प्रतिशत सफल घोषित कर देते है। कहते हैं, उनके समर्थन में लाखों लोग दिल्ली की सड़कों पर उतर आए हैं। बात काला धन वापस लाने, भ्रष्टाचार हटाने की होती है और तुरंत क्रांति, महाक्रांति, दूसरी आजादी, तीसरी आजादी तक पहुंच जाती है। खुद को और समर्थकों को बार-बार सच्चा देशभक्त, क्रांतिकारी और शहीद बताते हैं। उन्होंने जीते जी शहीद होने की एक नई परंपरा स्थापित कर दी है। उनके मैनेजर बालकृष्ण सीबीआई की हिरासत में हैं, लेकिन बाबा ने उनकी तस्वीर शहीदों की तस्वीरों के साथ लगा दी। यह आंदोलन वाचालता के साथ शहीदों और तिरंगे के अपमान के लिए भी याद किया जाएगा। गांधी, जेपी, लोहिया, अंबेडकर आदि की राजनीतिक पार्टियों द्वारा काफी फजीहत होती है। लेकिन अभी तक किसी राजनीतिक पार्टी ने शहीदों और तिरंगे को इतना सस्ता नहीं
बनाया था। यहश्रेयइस आंदोलन को ही जाता है। इस देश के नौजवानों का खून इस कदर पानी हो गया है कि एनजीओबाज और ध्र्म के धंधेबाज अपने निहित स्वार्थों के लिए शहीदों को सरेआम अपमानित कर रहे हैं और उन्हें गुस्सा छोड़िये, बुरा भी नहीं लगता।
जिस आंदोलन की सराहना और समर्थन में टाटा-बिड़ला,फिक्की, एसोचेम से लेकर अमेरिकी प्रतिष्ठान तक हों, यह स्वाभाविक है भारत का ज्यादातर नागरिक समाज उसका समर्थन करे। योगेंद्र यादव और उन जैसे आंदोलन के समर्थकों का विवेचन सभी के साथ जाता है। हम अलग से उनका नाम नहीं लेते, अगर उन्होंने अपनी सफाई में लिखे लेख (‘व्हाय आई चूज टीम अन्ना’, इंडियन एक्सप्रैस, 7अगस्त 2012) में किशन पटनायक का उल्लेख नहीं किया होता। उनके मुताबिक वह लेख किसी मित्र के सवाल के जवाब में लिख गया है। लिखने की यह शैली काफी प्रचलित है कि आप अपने मन के सवालों को किसी मित्र के नाम पर डाल कर हल करने की कोशिश करें। लेकिन किशन पटनायक का उल्लेख करने का औचित्य उस लेख में कहीं से नजर नहीं आता। स्पष्ट है कि वे कहना चाहते हैं, अगर किशन पटनायक होते तो टीम अन्ना और आंदोलन का स्वागत और समर्थन करते। योगेंद्र यादव की इस धारणा पर हमारा कुछ कहना मुनासिब नहींे है। राजनीति और जनांदोलनों में और भी साथी हैं जो किशन पटनायक को अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं। बेहतर है कि वे ही बताएं किशन पटनायक के समस्त चिंतन और संघर्ष को दरकिनार करके इस प्रायोजित आंदोलन के
पक्षकार के रूप में उन्हें घसीटना कहां तक उचित है? अद्र्धसत्य झूठ से ज्यादा बुरा होता है। योगेंद्र यादव का यह कहना कि हम सबके मन के कोने में एक अन्ना बैठा है, अद्र्धसत्य है। हम सबमें केवल वे हम सब आते हैं, जिनके मन में चोर है। भला एक मेहनतकश किसान, कारीगर, मजदूर, बेरोजगार - वह औरत हो,
मर्द हो, बच्चा हो, जवान हो, बूढ़ा हो - को अन्ना की क्यों जरूरत पड़ने लगी? उसके मन के कोने में कौन-सा पाप छिपा हो सकता है? अपने यानी नवउदारवादी मध्यवर्ग के देवता को सबका देवता बताना क्सा पूरी सच्चाई है? समर्थकों द्वारा अन्ना को गांधी बनाने के पीछे का मनोविज्ञान समझा जा सकता है। वेपवित्रता की मूर्तिकी छाया में अपने पवित्र होने का अहसास करते हैं। वरना किसी को थप्पड़ मारे जाने पर एक सामान्य समझदार बजुर्ग भी वह नहींे कहेगा जो अन्ना हजारे ने कहा। इस नए गांधी की नजर पापियों के हृदय पर नहीं, शरीर के मांस पर होती है, जिसे वे गिद्ध-कौओं को खिला देना चाहते हैं। अन्ना हजारे ने अपना कुछ नहीं छिपाया है। दरअसल, ये दूसरे लोग हैं जिन्होंने अपनापापछिपाने के लिए अन्ना की आड़ ली है।
हो यह भी सकता है कि खुद अन्ना ने मन के किसी पाप को ध्ाोने के लिए सेवा का व्रत लिया हो? सीमा पर युद्ध में उनके साथी मारे गए और वे बच गए। युद्धस्थल में ऐसा होता है। लेकिन यह भी होता है कि बचने वाले असल में बच निकलने वाले होते हैं। दो विश्वयुद्ध ों में हिस्सा लेने वाले कई जनरलों और सिपाहियों ने अपने अनुभव लिखे हैं। यूरोप में विपुल युद्ध-साहित्य उपलब्ध है। युद्ध ों के लोक-प्रचलित किस्से भी बहुत सारे होते हैं। उनमें दोनों तरह के उदाहरण मिलते हैं - सीमा पर मर-मिटने वालों के भी और भाग निकलने वालों के भी। हमारे गांव के लोककवि कर्म सिंह ने लड़ाई परहोलीबनाई थी। उसका मुखड़ा है - ‘लड़ रहे सजीले ज्वान, कायर तो पीठ दिखावें।वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा के साथ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव शुरू से साथ हैं। योगेंद्र यादव फिर भी कहते हैं कि अन्ना और उनकी टीम रामदेव से अलग हैं। इसे वे टीम अन्ना को चुनने का प्रमुख आधार बनाते हैं। वे शुरू से टीम अन्ना के समर्थक हैं तो रामदेव के भी समर्थक हुए। आंदोलन के हाल के आयोजन में रामदेव जंतर-मंतर पर आए। रामदेव के पहले से भक्त जनरल वीके सिंह ने जूस पिला कर अनशनकारियों का अनशन तुड़वाया। वे रामदेव के अनशन तोड़ने के अवसर पर भी मौजूद रहे।भारत की बेटीको जंतर-मंतर और रामलीला मैदान दोनों जगह रहना ही था।नया क्रांति धर्मनिभाने के उत्साही समर्थक दोनों जगह मौजूद थे। अरविंद केजरीवाल रामदेव का समर्थन करने का एलान किया। अन्ना और रामदेव ही नहीं, कांग्रेस-भाजपा समेत यह पूरी एक टीम है। लेखक गिरिराज किशोर अन्ना केत्याग और तपस्याके कायल हैं। गांधी के जीवन पर उपन्यास लिखने वाले लेखक को अन्ना हजारे में गांधी नजर आते हैं, तो बाकियों की भ्रांति को समझा जा सकता है। लेकिन गिरिराज किशोर यह नहीं बताते कि अन्ना त्याग और तपस्या की कीमत वसूलते रहे हैं। विश्व बैंक, मैगसेसे और भारत सरकार के पुरस्कार उन्हें मिले हैं। उनका जन्मदिन तक लाखों में मनता है, जिसका हिसाब रखने की जरूरत नहीं समझी जाती। हमने पहले भी यह कहा है कि इस आंदोलन में गांधी के साथ बड़ा ही भौंड़ा बर्ताव किया गया है। एक कोशिश होती है कि व्यक्ति अपने आदर्श के औदात्य की छाया को छूने की कोशिश करता है। लेकिन एक व्यक्ति उसे अपने स्तर पर गिरा लेता है। इस आंदोलन ने गांधी को वाकई सवर्णों और पूंजीपतियों का नेता बना दिया है। गांधी को इस स्तर पर गिराने में कई गांधीवादियों की सहभागिता रही है। दलित विचारक और नेता चाहें तो खुद गांधीवादियों द्वारा कमजोर किए गए गांध्  की इसदशाका लाभ उठा कर अपने हमले तेज सकते हैं। उन्हें
कोई यह कहने वाला नहीं रहेगा कि कि गांधी को गाली देने के साथ वे अगड़ों की नकल करते हैं और पूंजीवाद की पूजा। आंदोलन में सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह का नया किरदार जुड़ा है। हाल में अवकाश पाने वाले जनरल साहब ने कहा है कि अवकाश प्राप्त फौजी अनुशासित होते हैं। उन्हें राजनीति में आना चाहिए। उनकी अपनी चैकसी गौरतलब है। राजनीति में आने के पहले उन्होंने जाति-समागमों में जाने का काफी ध्यान रखा है! शुक्र यही मनाना चाहिए कि कल को वे अवकाश प्राप्त फौजियों को कुछ ढीला पाकर, सेवारत फौजियों का आह्वान कर डालें? वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर जनरल से बहुत खफा हैं। (देखें, ‘दि बैटल हैज जस्ट बिगन’, जनता, 19 अगस्त 2012) उन्हें जनरल के राजनीति की बात करने में लोकतंत्र कमजोर होने का खतरा लगता है। उन्होंने सुझाव दिया है कि अवकाश प्राप्ति के 5 साल तक फौजियों को चुनाव नहीं लड़ने देने का कानून बनना चाहिए। हालांकि लगे हाथ सिविल अधिकारियों पर भी उन्होंने यह कानूनी पाबंदी लगाने की बात की है। नैयर साहब यह देखें कि भारतीय लोकतंत्र सबको खपाने की क्षमता रखता है। जब वह संत, संन्यासी, दलाल, भांड, बाहुबली, धनबली, नेताओं के बेटा-बेटी (ग्लोबलाइजेशन की यही रफ्तार बनी रही तो एनआरआई भी एक दिन यहां चुनाव लड़ेंगे) - सबको झेल जाता है, तो क्या एक अवकाश प्राप्त जनरल को नहीं झेल पाएगा? जनरल ने अभी तक अलग पार्टी बनाने की बात नहीं कही है। अगर वे राजनीति करेंगे तो अन्ना और रामदेव के साथ ही करेंगे, जिनके मंचों पर उनकी सम्मिलित आवा-जाही रही है और जहां से उन्होंने जेपी का नाम लेकर राजनीतिक ललकार दी है। नैयर साहब अन्ना और रामदेव दोनों के प्रशंसक हैं। जब उनसे लोकतंत्र को खतरा नहीं है तो जनरल से कैसे हो जाएगा? जैसा कि हमने ऊपर कहा, नैयर साहब अन्ना और रामदेव के प्रशंसक हैं। और अन्ना और रामदेव नरेंद्र मोदी के। दोनों  प्रशंसा पात्रों में मोदी सबसे पहले आते हैं। इसके बावजूद दोनों की अहिंसा से भी नैयर साहब बड़े प्रभावित हैं। भले ही अन्ना के अंध-समर्थकों ने प्रशांत भूषण पर उनके कश्मीर संबंध् बयान के विरोध में चैंबर में घुस कर हमला किया और अन्ना ने हमलावरों की देशभक्ति की ताईद की। इस टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य चेतन भगत आजकल दिखाई नहीं दे रहे हैं। (सुना है वे प्रध्नमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के मुकाबले राहुल गांधी को पछाड़ने के नेट पर किए जाने वाले सर्वे में व्यस्त हैं।) आंदोलन की सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने नरेंद्र मोदी से राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करने की गुहार लगाई थी। यह उन्हीं दिनों की बात है जब नरेंद्र मोदी ने अन्ना हजारे द्वारा अपनी प्रशंसा पर उन्हें आभार और धन्यवाद का पत्र लिखा था। और आगाह भी किया था कि उनके शत्रु उन्हें यानी को अन्ना को उनसे विमुख करने की कोशिश करेंगे। रामदेव अपने समर्थकों को पुलिस के हवाले छोड़ कर स्त्रीवेश में भाग खड़े हुए थे। राजदेवी की दुखद मौत की जिम्मेदारी पुलिस के साथ रामदेव की भी उतनी ही
है, जिनकी तस्वीर को रख कर वे जनभावनाओं का शोषण करते हैं। हालांकि यह भारत आजादी के बाद से गांधी का नहीं है, फिर भी अहिंसा पर उनके चिंतन और आचरण के हवाले से कहा जा सकता है कि अहिंसा क्रोधी और कायर का हथियार नहीं होती। धोखा देने वालों का तो कतई नहीं। नैयर साहब को अन्ना और रामदेव के आंदोलन से भ्रष्टाचार मिटने और काला धन वापसी के साथ देश का दारिद्रय मिटने का पूरा भरोसा लगता है। क्योंकि किंचित किंतु-परंतु के बाद नई पार्टी का उन्होंने स्वागत किया है। (देखें, ‘पार्टी राइजिज फ्राम एशीज आॅफ मूवमेंट’, जनता, 12 अगस्त 2012) हालांकि अब वे अन्ना के लोगों को बाबा और उनके मसलमैनों से बचने की सलाह देते हैं। अन्ना के लोग कौन हैं? मेधा पाटकर और अरुणा राय, जैसा कि नैयर साहब कहते हैं, या केजरीवाल, किरन बेदी, चेतन भगत, प्रशांत भूषण आदि? अन्ना के आंदोलन में धन किसका लगा है और रणनीति किसकी चलती है? जिनका धन लगा है और जिनकी रणनीति चलती है, वही अन्ना के असली लोग हैं। नैयर साहब अन्ना के अनशन और तरीके को गांधी के विपरीत भी बताते हैं और उन्हें पक्का गांधीवादी भी कहते हैं। उनका अन्ना आंदोलन की खूबी और प्रशंसा में कहा गया यह कथन - ‘अन्ना आंदोलन ने इंटैलिजेंसिया के पैर उखाड़ दिए’ - सही बैठता है। जिन्हें वे अन्ना के लोग बता रहे हैं, दरअसल, वे लोग हैं जो अन्ना आंदोलन की आंधी में पैर उखड़ने के चलते उसमें जा मिले। नैयर साहब कहते हैं कि सबके पैर उखाड़ देने वाले इस आंदोलन पर ठीक ही 18 महीनों तक मीडिया का फोकस बना रहा। हालांकि इसे उलट कर भी कहा जा सकता है कि मीडिया के फोकस से यह आंदोलन खड़ा हुआ और मीडिया की भूख ने ही बहुतों की पैर उखाड़े।
नैयर साहब समेत इस आंदोलन के समर्थकों की लोकतंत्र की चिंता परिवर्तनकारी राजनीति की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। जैसा कि नैयर साहब कहते हैं, मान लिया यह आंदोलन अहिंसक है। लेकिन किसके पक्ष में है? पूंजीवाद के पक्ष में भारत का नागरिक समाज आंदोलन करेगा तो उसके विरोध में हिंसक आंदोलन होगा ही। हिंसक परिवर्तन के हिमायती यही तो कहते हैं कि यह पूंजीवादी लोकतंत्र है। तो कौन-से अहिंसक लोकतंत्र की चिंता इस आंदोलन के समर्थक कर रहे हैं? हमें जनरल के राजनीति में आने पर एतराज का कोई कारण नजर नहीं आता। उनके पहले कई अवकाश प्राप्त फौजी राजनीति में रहे हैं और अभी भी हैं। कांग्रेस में भी हैं और भाजपा में भी। जनरल साहब से हमारी शिकायत अलग है। वे रामदेव के पहले से भक्त हैं। कहीं उनकी देशभक्ति रामदेव जैसी हो? दूसरे, जिन मुद्दों को वे उठा रहे हैं, पिछले 25 सालों से नवउदारवाद विरोधी पार्टियां और संगठन उन पर संघर्ष कर रहे हैं। अगर देश के लुटाए जाने वाले संसाधनों और किसानों की तबाही को लेकर जनरल को वाकई चिंता होती, तो वे अपनी एक साल की और नौकरी के लिए कानून-कचहरी नहीं करते। सोचते कि प्रोपर्टी डीलर बन चुकी देश की सरकार के खिलाफ संघर्ष में जुटने का एक साल पहले मौका मिल रहा है। गौर करें, अन्ना से लेकर जनरल तक, यह पूरा आंदोलन मुद्दों की उठाईगीरी का आंदोलन है। किसानों की जमीन को लेकर जनरल साहब खासे चिंतित हैं। यह अच्छी बात है। आदिवासियों के बाद नवउदारवादी निजाम ने किसानों का बाढा लगाया है और खुदरा में विदेशी निवेश का
फैसला करके छोटे व्यापारियों की तबाही का फरमान लिख दिया है। सेना के सिपाही की सभी इज्जत करते हैं। कांग्रेस से अलग भाजपा और क्षेत्रीय क्षत्रप उनकी बात पर गौर करेंगे। वे कम से कम उनसे यह वायदा
ले लें कि अमेरिका में तैयार अमेरिका के फायदे के लिए अमेरिका के साथ किया गया परमाणु करार रद्द किया जाएगा; खुदरा में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश का कानून भी रद्द किया जाएगा; और 1894 में बने लैंड एक्वीजीशन एक्ट सहित हाल बने लैंड एक्वीजीशन, रीहेबिलिटेशन एंड रीसेटलमेंट बिल, 2011 को भी रद्द किया जाएगा। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा को मुनाफाखोर पूंजी की चरागाह बनाया जा रहा है। भारत के विश्वविद्यालयी ढांचे को नष्ट करके निजी और विदेशी विश्वविद्यालयों की बाढ़ लाई जा रही है। जनरल साहब कहें कि आने वाली सरकार को 1991 के बाद अक्सर अध्यादेशों के जरिए हुए संविधान विरोधी फैसलों और कानूनों की समीक्षा करनी होगी और संविधान को सबसे ऊपर रखना होगा। उनके अपने गृहराज्य हरियाणा में राजीव गांधी एजुकेशन सिटी के नाम पर 6 गांवों की अत्यंत उपजाऊ जमीन सरकारी दर पर लेकर निजी घ्ारानों को सौंपी गई है। किसानों की सरकार ने सुनी, अदालत ने। जनरल साहब हरियाणा में अगली बार आने वाली सरकार से वायदा लें कि बेचने के अनिच्छुक किसानों को उनकी जमीन वापस की जाएगी
और बाजार के भाव पर मुआवजा मिलेगा। अगर अगली बार हरियाणा में गैर-कांग्रेसी सरकार बनती है तो वे वादा लें कि फतेहाबाद के पास गोरखपुर में परमाणु पावर रिएक्टर नहीं लगाया जाएगा। तभी पता लगेगा
कि उनकी चिंता कितनी सच्ची है। वरना जनरल साहब, गरीबों के श्रम और देश के संसाधनों की बिकवाली से जो बड़ी दावत चल रही है, उसमें जूठन बीनने वालों की कमी नहीं है। सफल संपूर्ण प्रतिक्रांति इस आंदोलन के होते यूपी के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने नौजवानों को लैपटॉप देने का चुनावी वादा किया। हाल में यूपीए सरकार ने सबको मोबाइल फोन देने की घ्ाोषणा की है।टाइमपत्रिका द्वारा मनमोहन सिंह को अपेक्षा से कम उपलब्धियां हासिल करने के लिए लताड़ा गया तो भाजपा ने मनमोहन सिंह से आगे बढ़ कर उपलब्धियां हासिल कर दिखाने का हौसला और दावा पेश किया। नवउदारवाद का यह बहुरूपी सिलसिला आगे और ध्ड़ल्ले से चलेगा। पिछले 25 सालों में नवउदारवाद विरोध की जो वास्तविक राजनीति संगठित हुई थी, उसकी जगह टीम अन्ना की नकली राजनीति गई है। ये लोग पार्टी भी बनाएं, जो नुकसान करना
था, वह हो चुका है। इस आंदोलन ने पूंजीवाद के ज्यादा खूंखार संस्करण को प्रमाणपत्र दे दिया है। मनमोहन सिंह अभी तक के सर्वाधिक क्रूर प्रध्ाानमंत्री हैं। जैसे आज विकास और ग्रोथ के नाम पर गुजरात के राज्य
प्रायोजित नरसंहार को भूलने की नसीहतें दी जा रही हैं, वैसे ही उन्होंने थोड़े मुआवजे के बदले सिखों के कत्लेआम को भूलने की सलाह दी थी। मनमोहन सिंह जिस पार्टी से प्रधानमंत्री हैं, वह सूक्ष्म सांप्रदायिकता की माहिर पार्टी है। आरएसएस-भाजपा खुली संाप्रदायिकता करते हैं। नरेंद्र मोदी ने उसे कुछ ज्यादा ही खुले
आयाम पर पहुंचा दिया है। यह अलग सवाल है कि दोनों में कौन ज्यादा खतरनाक है, लेकिन इस आंदोलन ने आरएसएस-भाजपा की ज्यादा खुली सांप्रदायिकता के पक्ष को मजबूत और स्वीकार्य बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। यह आंदोलन जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के नरेंद्र मोदी की प्रशंसा से शुरू हुआ था और रामलीला मैदान में रामदेव की नरेंद्र मोदी और आरएसएस की प्रशंसा के साथ समाप्त हुआ है। ऐसे में आरएसएस वालों का खुश होना बनता है। आपको याद होगा, पहले अनशन के वक्त सत्ता की सूंघ पाकर राजघाट पर वे किस कदर मतवाले होकर नाचे थे! इस आंदोलन और पूरी दुनिया में पूंजीवाद ने अपने विरोध्  का जो तिलस्म रचा हुआ है, उसके आधार पर कह सकते हैं कि आध्ाुनिक दुनिया की अभी तक की सदियां समाजवाद के बरक्स पूंजीवाद के पक्ष में प्रतिक्रांतियों की सदियां रही हंै। पूंजीवाद की ताकत और उसके वास्तविक विरोधी संघर्षों की कमियों कमजोरियों को जानने के लिए इतिहास का वैसा पाठ किया जाना जरूरी है ताकि इतिहास के अंत की घोषणाओं को झुठलाया जा सके। लोहिया ने कहा है कि माक्र्सवाद या गांधीवाद विरोधी होने का कोई मायना नहीं है। पूंजीवाद के बरक्स विविध स्रोतों से नई समाजवादी विचारधारा के दार्शनिक आधार तैयार करने की जरूरत होती है। किशन पटनायक ने जो शास्त्र-संकट की बात की है, उसका आशय यही है कि पूंजीवाद के विरोध का सम्यक शास्त्र हमसे नहीं तैयार हो पाया है। अंत में, जो लोग कह रहे हैं कि अन्ना आंदोलन विफल हो गया, पूरी तरह से गलत हैं। आंदोलन पूरी तरह से सफल हुआ है। डंकल संधि की तारीख से शुरू हुआ प्रतिक्रांति का अध्याय इस आंदोलन ने पूरा कर दिया। किशन पटनायक लिखते हैं, ‘‘इस वक्त समूची दुनिया में जो हो रहा है, वह शायद विश्व इतिहास की सबसे बड़ी प्रतिक्रांति है। यह संगठित है, विश्वव्यापी है और समाज तथा जीवन के हर पहलू को बदल देने वाली है। यहां तक कि प्रकृति और प्राणिजगत को प्रभावित करने वाली है। इक्कीसवीं सदी के बाद भी अगर मानव समाज और सभ्यता की चेतना बची रहेगी, तो आज के समय के बारे में इसी तरह का जिक्र इतिहास की पुस्तकों में होगा। डंकेल संधि की तारीख इस प्रतिक्रांति की शुरुआत की तारीख मानी जा सकती है।’’ (‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’, पृ. 172, राजकमल प्रकाशन, 2000) प्रतिक्रांति का भारतीय अध्याय इतना जल्दी पूरा हो जाएगा, यह किशन पटनायक को नहीं लगा होगा। इस आंदोलन के चलते भारत वैश्विक प्रतिक्रांति के साथ नत्थी मजबूती के साथ (इंटीग्रेटिड) हो गया है।
डॉ प्रेम सिंह
राष्ट्रीय महासचिव , सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया)
25 अगस्त 2012

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