Monday, June 18, 2012

सेवा यात्रा की सच्चाई

भारतीय राजनीति में यात्राओं का बड़ा योगदान है। आजादी के पहले से ही राजनीतिक यात्राओं ने हमारी एकता को नई पहचान दी है। महात्मा गांधी की दांडी यात्रा तो स्वाधीनता की लड़ाई में मील का पत्थर साबित हुई थी। उसके बाद गांधी की ग्राम यात्रा और आचार्य बिनोवा भावे की भूदान यात्राओं ने देश को सामाजिक मजबूती प्रदान की।  आजाद भारत में भी सियासी यात्राओं ने अपनी छाप छोड़ी। पूर्व प्रधानमंत्री और युवा तुर्क के नाम से मशहूर चंद्रशेखर की पदयात्रा ने भी देश में राजनीतिक जागृति जगाने की कोशिश की। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी की यात्रा ने भी मजबूत दिख रहे चंद्रबाबू नायडू के सत्ता से बाहर कर दिया था। यही नहीं समाजसेवी पी वी राजगोपाल की जनादेश यात्रा ने भी सोई व्यवस्था को झकझोरने का काम किया था।

इसके साथ ही यात्राओं के लेकर हमारे पास कुछ कटु अनुभव भी हैं। नब्बे के दशक में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा और बीजेपी की तिरंगा यात्रा ने देश को कई कभी ना मिटने वाले जख्म दिए। सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ और देश में अल्पसंख्यकों के मन में असुरक्षा का भाव मजबूत हुआ। बावजूद इसके अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने में इन यात्राओं ने बड़ी भूमिका अदा की। कुल मिलाकार हमारा इतिहास सियासी यात्राओं के संस्मरणों से भरा पड़ा है। ज़रूरत है सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर उसके प्रभावों के आकलन की। यात्राएं कभी भ्रष्टाचार हटाने के लिए शुरू की जाती है, तो कभी विकास के एंजेडे को प्रचारित करने के लिहाज़ से।

इन सबसे इतर एक और यात्रा है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सेवा यात्रा।  जो आजकल प्रशासनिक ताम झाम और सरकारी चकाचौंध के बीच लोगों की सेवा के नाम पर करोड़ों खर्च कर की जा रही है। मुख्यमंत्री पहले ज़िले में अपने पहुंचने की सूचना भिजवाते हैं। फिर उनका कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की जाती है। उसके बाद तमाम स्थानीय प्रशासन उनकी यात्रा को सफल बनाने की चेष्टा में जुट जाते हैं। मुख्यमंत्री ज़िले में विश्राम करते हैं और कई कार्यक्रमों में शिरकत भी करते हैं। सेवा यात्रा में मुख्यमंत्री जनता दरबार लगाते हैं और जनता की समस्याओं के तुरंत निपटारे का दावा करते हैं। उनके साथ मौजूद प्रशासनिक अमला समस्या के समाधान की क़वायद में जुटने की बात भी करता है। लेकिन सच्चाई इन सबसे कोसों दूर है। इसकी एक बानगी देखने को मिली बांका में जहां मुख्यमंत्री पिछले साल नवंबर में सेवा यात्रा के दौरान गए थे।  वहीं एक स्थानीय नागरिक ने भितिया कटोरिया मार्ग के वन विभाग की सड़क में क़रीब एक किलोमीटर तक किए गए अतिक्रमण को लेकर शिकायत की। मुख्यमंत्री ने आवेदन को गंभीरता से देखा और समीप ही खड़े ग्रामीण विकास सचिव से मामले में कार्रवाई करने की बात कही। ग्रामीण विकास सचिव ने युवक से पूरी जानकारी लेकर उचित कार्रवाई का आ·ाासन दिया। साथ ही अपना नंबर भी शिकायतकर्ता को दिया ताकि इस मामले के संबंध में आगे भी जानकारी ली जा सके। लेकिन क़रीब सात महीने बीत जाने के बाद भी उक्त मामले में कोई कार्रवाई नहीं की गई। यहां तक की शिकायत की कोई सुध तक नहीं ली गई। अब इस मामले में हाल ये है कि शिकायतकर्ता ने कई बार ग्रामीण विकास सचिव द्वारा दिए गए नंबर पर बात करने की भी कोशिश की, लेकिन दूसरी तरफ से कोई इस संबंध में बात करने तक को तैयार नहीं है।

ये महज एक उदाहरण भर है बांका में सेवा यात्रा के दौरान मिली अधिकांश शिकायतों का हाल यही है। अगर बांका के अनुभव को पूरे सूबे में साझा किया जाए तो सेवा यात्रा की हक़ीकत समझ में आती है। सरकारी मशीनरी को दुरूस्त करने के लिए मुख्यमंत्री भले ही कई उपाय करने का दावा करते होंं , लेकिन प्रदेश में अधिकारियों की सुस्ती और बढ़ती लालफीताशाही किसी भी तरह के सुधार की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। अब इस मामले में दो बातें हो सकती है, एक तो ये कि सारा खेल मुख्यमंत्री की जानकारी में खेला जा रहा है। और मुख्यमंत्री जान बूझकर आंख मूंदे पड़े हैं। और दूसरी बात ये कि मुख्यमंत्री तथ्यों से दूर हैं , और अधिकारी मुख्यमंत्री को वस्तुस्थिति की जानकारी नहीं दे रहे। दोनों ही स्थितियां बिहार के विकास के लिए सही नहीं है जिसका दंभ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिन रात भरते रहते हैं।
राजेश कुमार

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