Saturday, January 30, 2010

चले गए जनेश्वरजन


बात मेरे जन्म से क़रीब पांच साल पहले की है। सन १९७७ के उपचुनाव, सीट समाजवादियों का गढ़ रही बिहार की बांका लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र . सीधा मुक़ाबला कांग्रेस और समाजवादियों के बीच। चन्द्रिका प्रसाद सिंह के असामयिक निधन पर खाली हुई सीट से कांग्रेस ने शंकुतला सिंह पर दांव आजमाया था। बांका की ऊपजाउ सियासी ज़मीन पर या यूं कहे पूरे पूरे अंगभाषी इलाक़े में दिग्गज और तेज तर्रार कांग्रेसी के रुप में चन्द्र्शेखर सिंह चर्चित हो चुके थे। पटना से लेकर दिल्ली तक के राजनीतिक गलियारों में उनकी साख थी। और इसी वक्त समाजवादी आंदोलन में बिखराव शुरू हो चुका था। जॉर्ज फर्नांडिज और मधुलिमये का खेमा अलग हो चुका था। और राजनारायण और जनेश्वर आदि संयुक्त् सो्शलिस्ट पार्टी का गठन कर चुके थे।बांका से मधुलिमये ने सांसद के लिए पर्चा भरा। बतौर समाजवादी उनकी जीत के पूरे समीकरण मौजूद थे। लेकिन संयुक्त सोशलिस्ट् पार्टी की तरफ से राजनारायण ने ताल ठोंकी और बांका में समाजवादी तेवर दिखने लगे। ख़ैर समाजवादी विचारों की बात करें तो लोहिया और जयप्रकाश के साथ-साथ कर्पूरी और नरेन्द्र् देव का नामलेवा मैं खानदान में पहला व्यक्ति हूं। लिहाजा मेरा पूरा परिवार अपनी पूरी ताक़त से कांग्रेसी उम्मीदवार को जीताने में लगा था। लेकिन सियासत ने तब इतनी ओछापन और मलिनता नहीं थी। तभी तो फूलपूर के सांसद जनेश्वर मिश्र जब भितिया पहुंचे तो एक कांग्रेसी विधायक के घर ठहरे। गरमी अपने चरम पर थी।लिहाजा जनेश्वर ने धूप काटने का मन बनाया। बाबा शकुन्तला देवी के प्रचार को निकले थे। पापा ने पेड़ा मंगाया और गांव के कुंए का ठंडा पानी पीकर आराम से चौड़ी सी बेंच पर सो गए। मानो कोई गवई मजदूर हो जो दोपहर काटने के लिए सुस्ता गया हो। दोहरे बदन वाले उस निडर और धवल चरित्र के आदमी को देखकर शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह आदमी भारत की सर्वोच्च पंचायत का निर्वाचित सदस्य है और सिर्फ समाजवादी आंदोलन के लोग ही नहीं पूरे हिन्दुस्तान की सियासत में इनका नाम इज्जत के साथ लिया जाता है। और यह बस केवल अपने विचारों के आधीन होकर फूलपूर से हजारों किलोमीटर दूर बांका के भितिया में बेंच पर सोकर दोपहरी काट रहा है।
लिहाजा पापा के मुंह से सुनी इतनी कहानी ही जनेश्वर का पहला परिचय थी। फिर जब दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ परिषर में पत्रकारिता की क्लास में नामांकन हुआ। और सिद्धु कान्हू मुर्मु विवि से सीधा देश के ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले दिल्ली विवि में पहुंच गया था पहले क्लास में प्रभाष जी का व्याख्यान होना था। मुझे सिर्फ समाजवाद की सनक भर लगी थी। उसका असली स्वाद नहीं चखा था। गणेश नगर से खुलने वाली ७४० नंबर की बस पर सवार होकर जैसे ही कनॉ़ट प्लेस पंहुचा और गांड़ी ने ज्यों ही टर्न लिया एक एमपी आवास में बड़े बढ़े लाल रंग के शब्द दिखाई दिए लोहिया के लोग। मानो तन बदन में झंकार की लय गई। मैंने सोचा किसने कहा समाजवाद अब अप्रासंगिक है। एक जनेश्वर है जो देश के दिल दिल्ली के धड़कन कनॉट प्लेस के लगभग बीचों बीच चीख चीखकर कह रहा है हम हैं लोहिया के लोग और हमारे जैसे लोग जब तक रहेंगे समावाद जिंदा रहेगा।
अब भी दिल्ली जाऊंगा सोचता हूं कनॉट प्लेस कैसा लगेगा बिना लोहिया का कनॉट प्लेस बिना जनेश्वर का कनॉट प्लेस बस सोचता हूं किसी तरह वो बोर्ड बच पाता। लोगों ने तो अपने विचारों को बनाए रखने के लिए पूरे शहर को सार्वजनिक पार्क बना दिया लेकिन हमें सिऱ्फ एक बोर्ड चाहिए जनेश्वर की याद के लिए...उनकी संघर्षों की याद के लिए.....

2 comments:

aahsas said...

jab tak lohiyaa k log rahege tab tak samajwa jinda rahega. rachna ne kan ko nahi balki DIL KI CHUAA.

Unknown said...

बहुत ही अच्छा लिखा है,,आपने ,हालांकि आपसे मुझे ऐसी ही लेखन की आशा रहती है

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