Tuesday, April 13, 2010

नाम गांव का अनाम कवि

बिहार के ऑफिसियल मानचित्र पर बांका ज़िले के बीचों बीच भितिया गांव साफ दिखाई देता है।अपनी आदिवासी पृष्ठभूमि साफ सुथरा रहन सहन,वन्य संपदा और जागरुक लोगों की वजह से पूरे इलाके में अपनी खास पैठ रखता है...। तमाम लोग ऐसे हैं जिनकी वजह से इस गांव की अलग ही पहचान है..।लेकिन यहां मैं एक सख्स से खासा प्रभावित हूं..। जिन्होंने अपनी कलम को लोकप्रियता का हथियार न बनाते हुए...उसे अपना धर्म मान लिया..। इस कलम के सिपाही ने कभी भी वो हथकंडे नहीं अपनाए, जिनका आज के साहित्य में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है..। जिस राही की कहानी मैं बताने जा रहा हूं उन्होंने अपनी ज़िंदगी का सफर इस कहावत से शुरू किया था कि ..

लीक लीक सब चले...लीक पे चले कपूत..

बिना लीक के तीन चले...शायर शेर सपूत...

और बस फिर क्या था नियति को चाहे जो मंजूर हो , शायर ने कह दिया कि मैं न तो ज़माने की नपी नपाई लीक पर चलूंगा..। और नही उस धंधे में फिट हो जाउंगा जिसे पूर्वजों ने हमारे लिए चुना है..। जब किताबों में खोए रहने की उम्र थी.. तब हाथों में बंदूक थाम ली..वजह भी कोई खास नहीं ..बस यूं ही वीरानों में बेवजह धमाके करने का मन बना लिया था...। हां राह--शौक में कुछ और चीजें थी..मसलन जुर्म के ख़िलाफ क़लम चलाने का जुनून..। लेकिन वहां तो बंदूक का नाम लेना तक गंवारा नहीं था ...। लिहाजा होनी को कुछ और ही मंजूर था...। तभी तो हाथों में असलहे और होठों पर गीत...। यहीं से शुरु होता है हमारे प्रिय अप्रकाशित कवि भूप नारायण मिश्र का...। अब ये अलग बात है कि आने वाले कुछ सालों में बंदूक की जगह धीरे- धीरे बांसुरी ने ले ली...। लेकिन उधेड़बुन अपनी जगह क़ायम रहा..। बस प्रेरणा इतनी सी कि...

ओ पिंजरे के पंछी कवि मन...खिड़की भर आकाश न कम है...

दिया मौत ने जितना तुमके...उतना भी अवकाश न कम है...

और सपने बस इतने कि...

मेहनत से जो मिल जाए..

पका-अधपका फल बड़ा मीठा लगा...

इस बीच जब भी व्यवस्था की आहट हुई... दुनिया ने अपने सांचे में कवि को फिट करना चाहा , तो कवि ने हमेशा की तरह साफ कह दिया कि तेरी दुनिया की नेमतें तुझे मुबारक..मैं तो अपनी धुन का राही हूं...मुझे तेरे ज़माने के रिवाज न तो समझ में आए..और न ही मैं तुम्हारे सांचो में फिट होने के लिए लिखता हूं...। लेकिन हद तो तब हो गई जब शाश्वत बागी की तर्ज पर कवि ने बंधे बंधाए कविता के अनुबंधों और साहित्यिक दुनिया के रिवाजों को भी मानने से इंकार कर दिया..। कविताएं लिखकर कागज पर सजाते चले गए..। स्वयमेव भाव से कविता का मानस उद्धृत होता चला गया और कवि के शब्द चारदिवारी में ही रह गए...। कविताओं की नदियों में अविरल पानी बहता रहा। और कवि गाता रहा कि...

जीवित रह मेरे एक गीत...

संकलन जिए यह चाह नहीं...

हो एक गीत की वाह वाह...

बस कवि की थोड़ी सी चाह यही...। इस बार जब गांव गया तो अपने प्रिय कवि से उनकी कविताओं की मांग की..कहा कि आपकी कविता का बड़ा प्रशंसक हूं और चाहता हूं कि इसे मूर्त रुप मिले...और ये जल्दी कहीं छप जाए..बातों बातों में एक बात मुंह से निकल गई कि ... मैं चाहता हूं आपको उचित सम्मान मिले...। लेकिन पता नहीं दुनिया भर की बातों को चहक-चहक कर सुनने वाले कवि ने कभी मेरी इस बात को गंभीरता से क्यों नहीं लिया...। बोल बैठे... अब और कुछ दिन की है तन्हाई हमारी... बुलाए जा रहे हैं हम इशारे हो रहे हैं... ऐसा भी नहीं है कि इस कवि ने कभी कविता मंचों और पत्र पत्रिकाओं में अपनी आजमाइश नहीं की...। जहां भी गया हाथों हाथ लिया गया...लेकिन अपनी कविता छपवाने की बात जैसे ही कही कवि बिफर पड़े...

पैर निकट भी सांप देखकर ऐसे कभी न उछले थे..

देख आपको इस महफिल में ऐसे उछल गए सब लोग...

ज्यादा कुछ न कहते हुए उनकी साहित्यिक सरिता पर किसी बड़े शायर के ये शब्द जरुर कहना चाहूंगा...कि

जब उनकी मलाहत के किस्से लिखूंगा ग़ज़ल के शेरों में ..

हर रुखे-सूखे मिसरे में तासीर--नमक आ जाएगी...

आज जब हर काम और हर रचना बस अवॉर्ड के लिए ही लिखी जा रही है...बावजूद इसके साहित्य के इस छोटे से संसार में कुछ लोग ऐसे हैं जो लिखने को अपना धर्म समझते हैं...। यहीं नहीं लिखते भी इसीलिए हैं कि रचनाओं की सुंदरता पर कोई सवाल न उठा दे..। जब भी ये पूछिए कि भाई आपने तो जो भी लिखा वो तो अपने पास ही रख लिया .. तो जवाब मिलेगा कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है ..बात वहां तक पहुंच गई है...जहां तक पहुंचाने के लिए मुंह में जबान मिली थी...


- राजेश कुमार


comment....


aahsas said...

लेख के माध्यम से गाँव के अनाम कवि की जानकारी मिली है निश्चित रूप से उनके सृजनशीलता पर शक नहीं है लेकिन उनका नेपथ्य में रहना खलल डालता है.हर बात पे असहमत रहने वाले भी इस बात पे सहमत होंगे की न जाने ऐसे कई प्रतिभाशाली भूपनारायण मुख्या धारा में नहीं आ सके या ऐसा कहे की `वंचित`रह गए.मैंने वंचित शब्द का प्रयोग करके आरक्षण की मांग नहीं उठाई है बल्कि प्रोत्साहन की बात पर जोर देना चाहता हूँ.हमारे सामाजिक ढांचे में प्रोत्साहक तत्व कि कमी है जो लीक से हटकर सोचने वाले को हतोत्साहित करता है जिसका परिणाम है ये अनाम कलाकार...!

फिर सोचता हूँ कि कला किसी मंच का मोहताज नहीं होती.असली सुख तो सृजन में है पुब्लिसिटी हो या न हो फर्क नहीं परता.शायद इसी सोच के कारण ऐसे कवि लिखते जा रहे है....``विह्वलता गर आए मन में रच-रच रचकर रचना कहना !! धन्य हो चिट्टा जगत का जहाँ किसी नामवर के यहाँ अर्जी दिए बगैर जगह मिल जाती है !अब हमारा यह उत्तर दायित्वा बनता है है कि हम इन नेपथ्य के सितारों को सामने लाये.

April 1, 2010 4:47 AM


2 comments:

sudhakarsingh0007 said...

नाम गांव के अनाम कवि से बहुत कुछ सीखने को मिलता है...आज जब अंधी शोहरत की दौड़ में लोग दूसरे की रचनाएं और गीत चुराने लगे हैं...ऐसे में एक शख्स ऐसा भी है जिसे इन सबकी कोई परवाह नहीं है..वो प्रसिद्धि नहीं पाना चाहता है...साथ-साथ वो ये भी नहीं चाहता है कि उसकी कविताएं कहीं और छपें...भितिया की मिट्टी के इस लाल को सलाम...शायद मुझे लगता है कि दुष्यंत कुमार की ये लाइन उन पर बिल्कुल फिट बैठती है...दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं है...आजकल नेपथ्य में संभावना है...वो नेपथ्य में ही रहना चाहते हैं...लिहाजा उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ देना जायज होगा...हां अगर वो तैयार हों तो उनसे एक गुजारिश ज़रूर की जा सकती है..वो ये कि उनके न रहने के बाद
वो अपनी कविताओं को छपवाने की इजाज़त दे दें...अगर वो तैयार हो जाते हैं तो साहित्य जगत के इस अनाम कवि से हम-आप जैसे कविता प्रेमियों के दिल को सुकून पहुंचेगा...मुझे उम्मीद ही नहीं यकीन भी है कि इसके लिए आदरणीय भूप नारायण मिश्र जी तैयार हो जाएंगे....वैसे इस लेख के लिए आप साधुवाद के हक़दार हैं..क्योंकि भले ही उनकी कविताओं को अभी हम नहीं जान पाए हैं...लेकिन आपके लेख के ज़रिए उसकी सोंधी महक ज़रूर महसूस हो रही है...
सुधाकर, हैदराबाद

chaibiskutt said...

नाम गाँव का अनाम कवि..राजेश जी निश्चित रूप से इन श्रेष्ठजन से इतना कुछ सीखने को मिल रहा है जो आजतक सीखना तो चाहा लेकिन इच्छाशक्ति की कमी के चलते नही सीख पाया..हमें अपने हर फन को लोकप्रियता के लिए नही डेवलप करना चाहिए ये बात सबसे अहम रही इस लेख में..आपको दुबारा साधुवाद..

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