Friday, December 18, 2015

कलम और हल के बीच का रिश्ता है 'इश्क़ में माटी सोना'-राजेश कुमार

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
इस शेर को गुनने-गाने में ना जाने कितनी पीढ़ियां निकल गई, इन पंक्तियों को हर दौर में मौजूं माना गया। लेकिन लप्रेक सीरीज़ की क़िताबें उनकी ज़ुबानी गढ़ी गई हैं, जो अपनी क़ामयाबी का सारा श्रेय इश्क़ को देते हैं। प्रेम की लघुकथाओं के जरिए ये बदलाव केवल शब्दों का नहीं सभ्यताओं का भी है। क्योंकि गिरीन्द्र नाथ झा की क़िताब इश्क़ में माटी सोना केवल एक पत्रकार के किसान बनने भर की दास्तान नहीं है। ये बग़ावत है बने-बनाए लीक पर चलने वाले हम जैसे युवाओं के लिए। ये क्रांति है कलम को हल के क़रीब लाने की। यक़ीन मानिए इसके बिना जो भी सभ्यता गढ़ी जाएगी, वो चाहे बुलेट ट्रेन की रफ्तार से ही क्यों ना निकले अधूरी होगी।
'इश्क़ में माटी सोना' भी उन क़िताबों में शुमार हो गई, जिसे मैं पढ़ने बैठा तो ख़त्म करके ही उठा। गिरीन्द्र बाबू के चनका की दास्तान पढ़ते हुए मुझे लगने लगा कि बात मेरे गाम भितिया की हो रही है । वैसे ही खेत, वैसे ही ज़मीन के झगड़े, बंदोबस्ती और भगैत। आहा क्या खूबसूरत रचना की है 'इश्क़ में माटी सोना'। दिल्ली जाने वाले युवाओं के मन में वही चलता है, जो गिरीन्द्र नाथ ने अपनी किताब में लिखा है। गाम की वेष भूषा, गमछा, माछ और अनाज से आगे एक सेक्यूलर सपना देखने की दास्तान का नाम है 'इश्क़ में माटी सोना'।  किसान काग़ज़ नहीं हल देखता है, इस एक पंक्ति में सियासत की पूरी बखिया उधेड़ कर रख दी है। चुनाव का वर्णन है। इश्क़ में घोषणापत्र नहीं होते जैसी सुंदर पंक्तियां हैं। और नॉस्टेलजिक फीलिंग तो ऐसे ऐसे जिसे हमारे जैसे युवा दिन रात अपने सीने से चिपकाए घूमते हैं । काले कलर की राजदूत मोटरसाइकिल से आपके बाबूजी आते थे। हमारे पापा आते थे। और ना जाने कितने बाबूजी आते होंगे। लेकिन 'इश्क़ में माटी सोना' में गिरीन्द्र नाथ झा चनका देरी से आए, दिल्ली में गुजारा वक़्त किताब में ज़्यादा दे दिया। अगर चनका की लप्रेक ज़्यादा गुनी जातीं। तो हमारे जैसे पाठक क़िताब के और क़रीब आते। बात 'नेपथ्य के अभिनेता' की हो या अपरूप रूप की , 'इश्क़ में माटी सोना' के हर पन्ने में गिरीन्द्र बाबू ख़ुद रेणु के 'एक अकहानी के सुपात्र' नज़र आते हैं। नायक जब तक दिल्ली में रहता है, लप्रेक अपनी लय में है। लेकिन जैसे ही बात चनका की होती है, लघुकथा अपनी व्यापकता में निखर आती है। हर शब्द का विस्तार कोसी के ओर से लेकर खेतों के छोर तक, पूरी 'परती परिकथा' की दास्तान। चनका की बातें, कदम के पत्तों की खड़खड़ाहट, और जानने का मन करता है। एक कसक और है, बाबूजी के साथ गुजारे प्रसंग को थोड़ी जगह और मिल जाती, तो किताब और निखर जाती। पूरी क़िताब पढ़ने के बाद यही लगा....कि काश थोड़ी हिम्मत मैं भी कर लेता, अपने मन की बात कहके तो आज मैं भी एक लप्रेक लिख रहा होता। 

3 comments:

अखिलेश चंद्र said...

एक समीक्षक या समालोचक के रूप में यह पोस्ट तुम्हारा बखान करती है। किताब की खूबियों और खामियों को सलीके से तुमने रखा है। अब अपने अंदर की कसक भी निकाल दो तो कुछ बात बने!

RAJESH KUMAR said...

समय के साथ बदल रहा हूँ मैं । कसक पूरी करने के लिए और हिम्मत चाहिए।

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

शुक्रिया राजेश भाई। आपने माटी की बात की है।

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