Saturday, December 16, 2017

एग्जिट पोल : अंधविश्वास का उत्साह- प्रेम सिंह

गुजरात चुनाव या उसके संभावित नतीजों पर टिप्पणी करने का हमारा इरादा नहीं था. सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा गया यह चुनाव भाजपा की ओर से रणनीति और भाषणों के स्तर पर काफी नीचे गिरा हुआ था. दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस 22 साल बाद भी वहीँ थी जहाँ पहले - नरम साम्प्रदायिकता के रास्ते पर. 

राहुल गाँधी तिलक लगा कर मंदिर-मंदिर चक्कर लगाते रहे और कांग्रेसी उन्हें पक्का जनेऊधारी ब्राह्मण बताते रहे. दोनों पक्ष कमोबेश 'ऊंच-नीच' के साथ नवउदारवादी दौर की कार्पोरेट राजनीति के मैदान में एक साथ थे. विपक्ष कहीं नहीं था.  
      भाजपा को अब 2002 में ट्रेन के डिब्बे में जला कर मारे गए कारसेवकों को याद करने की ज़रुरत नहीं रह गयी है. वह मोदी के नेतृत्व में साम्प्रदायिक राजनीति की डगर पर काफी आगे निकल आई है. कांग्रेस ही नहीं, सेकुलर बुद्धिजीवियों ने भी कारसेवकों और उनकी हत्या के बाद हज़ारों की संख्या में मारे गए मुस्लिम नागरिकों, बेईज्ज़त की गयी महिलाओं, लूटी व नष्ट की गयी संपत्तियों के बारे में अभी तक कितना न्याय हो पाया है, यह पूछने की हिम्मत नहीं दिखाई. कम से कम गुजरात का चुनाव 'मुसलमान-मुक्त' हो गया. यह आरएसएस की बड़ी जीत है.
      गुजरात चुनाव ने भी यह साफ़ कर दिया है कि कांग्रेस को धर्मनिरपेक्षता की वैसी चिंता नहीं है, जैसी सोनिया के अथवा स्व-घोषित सेकुलर सिपाहियों को सताती रहती है. क्योंकि कांग्रेस को उन समस्यायों के प्रति कोई संवेदना नहीं है, जिनकी मार से किसान-मजदूर, छोटे उद्यमी, बेरोजगार, छात्र मारे-मारे फिर रहे हैं. कांग्रेस को देश की सबसे बड़ी अकलियत पर जो संकट आया हुआ है, उससे भी परेशानी नहीं हो सकती. अकलियत के खिलाफ जो भीड़तंत्र जारी है, उसके प्रति कांग्रेस ने आज तक कोई प्रतिरोध नहीं किया है. बल्कि कांग्रेस चाहती है मुसलमान इतना डर जाएं कि भविष्य में पूरी तरह उसका वोट बैंक बन कर रहें.
      अमित शाह से बहुत पहले राहुल गाँधी ने दलितों के घरों में जाकर कांग्रेस का खोया जनाधार फिर से हासिल करने की कोशिश की थी. लेकिन कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि दलितों का राजनीतिकरण हो चुका है. अपनी राजनीतिक शक्ति का सौदा करके वे आरएसएस के साथ चले जाते हैं, लेकिन कांग्रेस की तरफ मुड़ कर नहीं देखते. अगर मुसलामानों का राजनीतिकरण होता है, तो कांग्रेस की राजनीति कभी पहले की तरह स्वतंत्र रूप में खड़ी नहीं हो सकती.
      यह सही है कि नवउदारवाद के दमन की शिकार मेहनतकश आबादी तिलक और जनेऊधारी कांग्रेस को उसके देशव्यापी नेटवर्क के चलते फिर सत्ता में ला सकती है. लेकिन वह कोई टिकाऊ बन्दोबस्त नहीं होगा. उस बीच आरएसएस-भाजपा साम्प्रदायिक अजेंडा पर जम कर काम करते रहेंगे और भाजपा फिर पूरी ताक़त से सत्ता में लौटेगी. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में करीब दो दशकों तक सेकुलर सरकारें रहने के बावजूद भाजपा ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों में विपक्ष का सूपड़ा साफ़ कर दिया. यह उसकी थी जिसे सेकुलर सरकारें और उनके समर्थक बुद्धिजीवी रोक नहीं सकते. लिहाज़ा, जो लोग बहस अथवा विरोध को नवउदारवाद से अलग साम्प्रदायिकता पर केन्द्रित करने की जिद ठाने रहते हैं, वे देश और समाज को और गहरी साम्प्रदायिक खायी में धकेलने के जिम्मेदार हैं.
      गुजरात में कांग्रेस जीत भी जाती है तो उससे नवउदारवाद-साम्प्रदायिकता के गठजोड़ पर फर्क नहीं पड़ेगा. जो मुख्यमंत्री बनेगा वह नीतीश कुमार की तरह आरएसएस-भाजपा के साथ जाकर नहीं मिल जाएगा, इसकी क्या गारंटी है? या कल को लालू प्रसाद यादव का लड़का मुख्यमंत्री बनने के लिए भाजपा के साथ नहीं चला जाएगा, इसकी भी क्या गारंटी है? मुलायम सिंह जैसे सेकुलर सूरमा कल्याण सिंह के साथ मिल कर सरकार बना चुके हैं. जो सेकुलर बुद्धिजीवी कांग्रेस को धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट देते नहीं थकते, वे 1984 के दंगों को दरकिनार कर देते हैं, जिनमें देश की राजधानी में हज़ारों सिख नागरिकों का क़त्ल हुआ; और आज तक एक भी व्यक्ति को सजा नहीं हुई है.
      शंकर सिंह बाघेला ने सही कहा है कि कांग्रेस ने भाजपा को जिताने की सुपारी ली है. वरना उसे 6 महीने पहले चुनाव की तैयारी शुरू करनी चाहिए थी. तभी उसके कुछ कार्यकर्त्ता बन पाते जो विधानसभा चुनाव की रीढ़ होते हैं. लेकिन कांग्रेस को कार्यकर्त्ता नहीं बनाने, राहुल गाँधी को देश का प्रधानमन्त्री बनाना है. ऐसा चुनाव अपने में खुद एक टिप्पणी है. उस पर अलग से क्या कहा जा सकता था?    
      लेकिन अंतिम दौर के चुनाव के बाद से एग्जिट पोल का कोहराम सुन कर यह टिप्पणी करने की विवशता बनी. 1991 में नई आर्थिक नीतियों (उदारीकरण) के आने के साथ एग्जिट पोल भी आ गए थे. उदारीकरण जल्द ही नवउदारीकरण बन गया और उसने अपनी बढ़त के लिए जन राजनीति की जगह कार्पोरेट राजनीति का तेज़ी से सूत्रपात कर दिया. कार्पोरेट राजनीति के परवान चढ़ने के साथ-साथ एग्जिट पोल भी निखरते चले गए और आज कार्पोरेट राजनीति के चुनावों का अविभाज्य हिस्सा बन चुके हैं.  
      देहात में कहावत है 'नाई रे नाई कितने बाल?' ज़वाब होता है 'जजमान अभी सामने आये जाते हैं!' नवउदारवादी दौर में किसी को दो पल के लिए भी तसल्ली नहीं है. हर पल कुछ न कुछ होते रहना चाहिए और उसका पता भी चलते रहना चाहिए. यह धार्मिक-सामाजिक अस्मिताओं के लिए भी सत्य है, राजनीतिक पार्टियों के लिए भी और व्यक्तियों के लिए भी. बाज़ार की राजनीति से लेकर राजनीति के बाज़ार तक यह देखा जा सकता है. नवउदारवाद के तहत यह नयी प्रवृत्ति विकसित हुई है. जीवन में कुछ न कुछ होते रहना चाहिए - भले ही झूठ-मूठ! एग्जिट पोल उस प्रवृत्ति को तुष्ट करने का अत्यंत लोकप्रिय और उत्साही माध्यम बन चुका है.    
      कुछ न कुछ नया होने और करने के अपने-अपने दावे और तरीके होते हैं. लेकिन उनमें एक सच्चाई समान होती है - वे सब नवउदारवाद और उसकी वाहक कार्पोरेट राजनीति के दायरे में ही घटित होते हैं. उसके बाहर कोई भी बात या चर्चा करना, यहाँ तक कि भारत के संविधान की चर्चा करना तक पिछड़ेपन की निशानी माना जाता है. कोई भी पीछे भला क्यों रहना चाहेगा? देश के संसाधनों और श्रम की नवउदारवादी लूट से जो जूठन गिर रही है, उसमें सबको सबसे पहले और सबसे ज्यादा हिस्सा चाहिए. सदियों से अनेक जातियों में विभाजित भारत के समाज में नवउदारवाद ने यह एक नई बिरादरी बनायी है!
      ऐसा नहीं है इस दुनियां में विकल्प की चर्चा नहीं होती है. खूब होती है. (क्रांति तो यहाँ पल-पल पग-पग पर होती चलती है.) लेकिन वह नवउदारवाद के विकल्प की चर्चा नहीं होती. उसे विकल्हीन मन जाता है.  बल्कि नवउदारवाद और उसकी संचालक शक्ति कार्पोरेट राजनीति के विकल्प की जो चर्चाएँ 1991 के बाद चलीं और संघर्ष हुए उन्हें नष्ट करने के लिए 'विकल्प' और 'क्रांति के बिगुल फूंके गए; और अभी भी फूंके जाते हैं.  
      आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के अपने अंधविश्वास हैं. यहाँ इस विस्तार में नहीं जाया जा सकता कि उन अंधविश्वासों के चलते कितने करोड़ लोगों की बलि ली जा चुकी है, कितने करोड़ तबाह किये जा चुके हैं, कितने करोड़ प्रतिदिन तबाह किये जा रहे हैं, और पर्यावरण का अभूतपूर्व संकट खड़ा हो गया है. एग्जिट पोल भी एक अन्धविश्वास है. चार दिन काटने के लिए दोनों पक्ष (जो वस्तुत: एक हैं) अंधविश्वास में जी रहे हैं. जो लोग कहते हैं एग्जिट पोल का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता, वे भी एग्जिट पोल की भाजपा के जीतने की भविष्यवाणी के बावजूद आँख बंद करके मनोकामना कर रहे हैं कि वास्तविक नतीजों में भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो जाए! एग्जिट पोल की खुशखबरी के बावजूद 'भक्त' आँख बंद करके मोदी का जादू चलते रहने की मन्नत मान रहे हैं!
      भक्तों का जो हॉल है सो है, यह स्थिति सेकुलर नागरिक समाज की बुरी दशा को दर्शाती है. वहां उस समझ और संकल्प का अभाव दिखता है जो संकट का समग्रता में मुकाबला और समाधान कर सके. ऐसा अकारण नहीं है. नागरिक समाज अपने (वर्ग) स्वार्थ और बड़बोलेपन को थोड़ा भी लगाम लगाने को तैयार नहीं है. उसे अपने पर अंधा विश्वास है कि देश में समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र, यानी आधुनिक भारतीय सभ्यता (जैसी भली-बुरी वह बन पाई) के साथ जो दुर्घटना घटी है, उसमें उसकी कोई भूमिका नहीं है.

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