Tuesday, May 3, 2016

नवउदारवादी शिकंजे में आजादी और गांधी: प्रेम सिंह


जो गांधी के नाम पर संस्थान चला रहे हैं, या फिर जिन्होंने गांधी के नाम पर सरकारें चलाई है। उनसे ये सवाल तो बनता है कि आखिर गांधी की हत्या का आरोपी संगठन की राजनीतिक शाखा इस देश की गद्दी पर बहुमत से कैसे विराजमान हो गई। लेकिन सवाल उन लोगों से भी है जो अपने को वैचारिक , बुद्धिजीवी और प्रगतिशील होने का दंभ भरते हैं। ये आत्मचिंतन और आत्म अवलोकन का भी दिन है।  कि क्या आज़ादी के संघर्ष के मूल्य इतने जल्दी इतने कमजोर हो गए। आज़ादी के मूल्यों को बचाने के संघर्ष के लिए अब गिनती के लेख लिखे जा रहे हैं। डॉ प्रेम सिंह का ये लेख इसी कड़ी में है.....''आरएसएस ‘गांधी वध’ से संतुष्ट नहीं हुआ। भारत-विभाजन का विरोध और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए उसने मरने के बाद भी गांधी को माफ नहीं किया। ‘मुसलमान-मुक्त’ भारत बनाने यानी देश समाज को एक बार फिर से तोड़ने की कवायद में लग गया। गांधी के साथ नेहरू व कांग्रेस की बदनामी का निम्नस्तरीय अभियान चलाया। इस तरह वह आजादी के पहले व आजादी के बाद राष्ट्र-निर्माण की जिम्मेदारी से पूर्णतः मुक्त ‘राष्ट्रवादी’ बन गया। ")
आरएसएस ने आजादी के संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया; और वह गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार है - ये दो तथ्य नए नहीं हैं। आजादी के बाद से आरएसएस के खिलाफ इन्हें अनेक बार दोहराया जा चुका है। आरएसएस आजादी के संघर्ष में हिस्सेदारी का दावा तो ठोंक कर नहीं करता, अलबत्ता गांधी की हत्या में संलिप्तता को गलत आरोप बताता है। जब से केंद्र में मोदी-सरकार बनी है, सेकुलर खेमा इन दो तथ्यों को जोर देकर लगातार दोहरा रहा है। पिछले कुछ महीनों से उसके इस उद्यम में काफी तेजी आई है। शायद वह सोचता है कि इन दो बिंदुओं को लगातार सामने लाकर वह आरएसएस को देश के लोगों की निगाह में गिरा देगा, जिसका राजनैतिक फायदा उसे मिलेगा। सेकुलर खेमे की इस सोच पर ठहर कर विचार करने की जरूरत है। जिस रूप में और जिस मकसद से सेकुलर खेमा इन दो बिंदुओं को उठा कर आरएसएस पर हमला बोलता है, उसकी आजादी और गांधी, जिनका वास्‍ता वह देता है, के लिए कोई सार्थकता नहीं है। सार्थकता तब होती अगर सेकुलर खेमा गंभीरता और ईमानदारी से सवाल उठाता कि आजादी के संघर्ष से द्रोह और गांधी की हत्या जैसे संगीन कृत्य करने के बावजूद भाजपा नरेंद्र मोदी के सीधे नेतृत्व में बहुमत सरकार बनाने में कैसे कामयाब हो गई? वह इस गहरी पड़ताल में उतरता कि क्या आजादी और गांधी भारतवासियों के लिए वाकई महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैं? अगर नहीं रह गए हैं तो उसके क्या कारण हैं? तब सेकुलर खेमा शायद आत्मालोचना भी करता कि यह स्थिति बनने में वह खुद कितना जिम्मेदार है? और अपने से यह प्रश्‍न पूछता कि क्या वह खुद आजादी के मूल्य और गांधी की प्रतिष्ठा चाहता है? 
अपने को किसी भी प्रश्‍न से परे मानने वाला सेकुलर खेमा तर्क दे सकता है कि यह केवल 31 प्रतिशत मतदाताओं के समर्थन की सरकार है; बाकी का भारतीय समाज आजादी और गांधी को मान देने वाला है, जिसे वह आरएसएस के खिलाफ सचेत कर रहा है। यहां पहली बात तो यह कि 31 प्रतिशत नागरिकों का आजादी और गांधी से विमुख होना सेकुलर खेमे के लिए कम चिंता की बात नहीं होनी चाहिए। यह समाज का बड़ा हिस्सा बैठता है। वैचारिक और सांस्थानिक स्तर पर राष्ट्रीय जिम्मेदारी निभाने वाला सेकुलर खेमा समाज को तेरे-मेरे में बांट कर नहीं चल सकता। बात यह भी है कि क्या सेकुलर खेमा आश्‍वस्‍त कि जिन्होंने भाजपा को वोट नहीं दिया, वे सब आजादी के संघर्ष और गांधी में आस्था रखने वाले लोग हैं? वस्तुस्थिति यह है कि बाकी 69 प्रतिशत मतदाताओं का मत जिन नेताओं और पार्टियों को मिला है, वे सभी नेता और पार्टियां कमोबेस नवउदारवाद के पक्षधर हैं। कहने की जरूरत नहीं कि नवउदारवाद का पक्षधर आजादी के मूल्यों और गांधी का विरोधी होगा। लिहाजा, अगर सवाल यह पूछा जाएगा कि आजादी का विरोध और गांधी की हत्या करने के बावजूद आरएसएस-भाजपा ने बहुमत की सरकार कैसे बना ली, तो कुछ आंच पूछने वालों पर भी आएगी। उस आंच से बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जो तथ्य आप नहीं देखना चाहते, छिपाना चाहते हैं, ऐसा नहीं है कि लोग भी उन्हें नहीं देख रहे हैं।   
आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट कर दें कि गांधी को सभी के लिए अथवा किसी के लिए भी मानना जरूरी नहीं है। लेकिन नहीं मानने वालों को बार-बार उनकी हत्या का हवाला देकर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। गांधी की विरोधी मायावती और दलित अस्मिता के वाहक दलित बुद्धिजीवी उनकी हत्या की कभी दुहाई नहीं देते। यही स्थिति आजादी के मूल्य की भी है। जरूरी नहीं है कि सभी लोग आजादी के संघर्ष और उस दौर में अर्जित मूल्यों का समर्थन करें। लेकिन फिर ऐसे लोगों को आजादी के संघर्ष में हिस्सा नहीं लेने के लिए आरएसएस पर हमला नहीं बोलना चाहिए।  
पहले आजादी की बात लें। वह गांधी से पहले और ज्यादा महत्वपूर्ण है। पिछले कुछ सालों से गंभीर विद्वानों द्वारा भी ध्यान नहीं दिया जाता कि 1991 के बाद नवसाम्रज्यवादी गुलामी की शुरुआत करने वाली नई आर्थिक नीतियों के लागू किए जाने साथ ही उसके विरोध की एक सशक्त धारा पूरे देश में उठ खड़ी हुई थी। एक तरफ जहां एक के बाद एक संविधान की मूल संकल्पना के विपरीत कानून, ज्यादातर अध्यादेशों के जरिए, पारित व लागू हो रहे थे, दूसरी तरफ वहीं उनका जबरदस्त प्रतिरोध हो रहा था। उसमें मुख्यधारा राजनीति का भी एक स्वर शामिल था। आरएसएस ने भी स्वदेशी जागरण मंच बना कर देश की आजादी को गिरवीं रखने वाली उन नीतियों पर चिंता दर्ज की थी। उस प्रतिरोध का स्वरूप फुटकर और गैर-राजनीतिक था। लेकिन प्रतिरोध की प्रक्रिया में से वैकल्पिक राजनीति की समग्र अवधारणा की शुरुआत भी 1995 आते-आते हो चुकी थी। आजादी की चेतना से लैस नवसाम्राज्यवाद विरोधी इस धारा की कांग्रेस, भाजपा और विदेशी फंडिंग पर चलने वाले एनजीओ गुट से सीधी टक्कर थी। लेकिन जल्दी ही देश की तीसरी शक्ति कहे जाने वाली राजनीतिक पार्टियों और कम्युनिस्ट पार्टियों ने नवउदारवाद के बने-बनाए रास्ते पर चलना स्वीकार कर लिया। देवगौड़ा सरकार के वित्तमंत्री पी चिदंबरम थे। पश्चिम बंगाल में सिंदुर और नंदीग्राम का प्रकरण जगजाहिर है।
मुकाबला दो नितांत असमान पक्षों के बीच होने के बावजूद नवसाम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष मजबूती और व्यवस्थित ढंग से चल रहा था। हमारे दौर के कई बेहतरीन दिमाग और अनेक युवा उस संघर्ष में अपने कैरियर, यहां तक कि स्वास्थ्य की कीमत पर जुटे थे। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और उसके बाद दो बार की मनमोहन सिंह सरकार के ताबड़-तोड़ उदारीकरण के बावजूद नवसाम्राज्यवाद विरोध की धारा डटी रही। देश की सभी भाषाओं में नवसाम्राजयवाद विरोधी परचों, फोल्डरों, लघु पत्रिकाओं, पुस्तिकाओं, पुस्तकों की जैसे बाढ़ आ गई थी। तभी इंडिया अगेंस्ट करप्शन, (आईएसी) भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, आम आदमी पार्टी और मुख्यधारा मीडिया ने कांग्रेस का नकली प्रतिपक्ष खड़ा करके और आरएसएस समेत कम्युनिस्टों, समाजवादियों, गांधीवादियों, कारपोरेट घरानों, नागरिक समाज, रामदेव, श्री श्री रविशंकर जैसे तत्वों को साथ लेकर नवसाम्राज्यवाद के बरक्स चलने वाले संघर्ष को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। अन्ना हजारे द्वारा अनशन तोड़ने के लिए जूस का गिलास मुंह से लगाते ही ‘दूसरी आजादी’, ‘तीसरी आजादी’ के शोर में नवसाम्राज्यवादी गुलामी की चर्चा राजनीतिक विचारणा से बाहर हो गई; पिछले दो दशकों से पूरे देश में गूंजने वाली आजादी बचाओ, विदेशी कंपनियां भारत छोड़ो, डब्ल्यूटीओ भारत छोड़ो की मुखर आवाजें डूब गईं; वैकल्पिक राजनीति का अर्थ नवउदारवाद की पक्षधर पार्टियों के बीच हार-जीत तक सीमित हो गया; और नवसाम्राज्यवादी गुलामी का शिकंजा और ज्यादा मजबूती के साथ कस गया।
दरअसल, आजादी का अनादर 1947 में मिलने के साथ शुरू हो गया था। देश का विभाजन आजादी के लिए सबसे बड़ा झटका था। लोगों के लंबे संघर्ष और कुर्बानियों से जो घायल आजादी मिली थी, उसे आगे मजबूत बनाने के बजाय प्रगतिवादी खेमे द्वारा उसे झूठी, अधूरी, समझौतापरस्ती का परिणाम, अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम आदि बताना शुरू कर दिया गया। एक नुक्ता यह भी निकाला गया कि आजादी को अहिंसक रास्ते से नहीं, हिंसक रास्ते से हासिल किया जाना चाहिए था। हालांकि इसी दिमाग ने 1857 में जान की बाजी लगा देने वाले लाखों विद्रोहियों को पिछड़ा बता कर उनकी पराजय पर राहत की सांस ली थी। आज भी भारत के बुद्धिजीवी, वे आधुनिकतावादी हों या मार्क्‍सवादी, इस आशंका से डर जाते हैं कि 1857 में विद्रोही जीत जाते तो देश अंधेरे के गर्त में डूबा रह जाता! आरएसएस ‘गांधी वध’ से संतुष्ट नहीं हुआ। भारत-विभाजन का विरोध और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए उसने मरने के बाद भी गांधी को माफ नहीं किया। ‘मुसलमान-मुक्त’ भारत बनाने यानी देश/समाज को एक बार फिर से तोड़ने की कवायद में लग गया। गांधी के साथ नेहरू व कांग्रेस की बदनामी का निम्नस्तरीय अभियान चलाया। इस तरह वह आजादी के पहले व आजादी के बाद राष्ट्र-निर्माण की जिम्मेदारी से पूर्णतः मुक्त ‘राष्ट्रवादी’ बन गया। 
देश को आजादी मिलना ही आजाद भारत में जैसे गुनाह हो गया; और आजादी के संघर्ष का नेतृत्व करने वाले गुनाहगार। आजादी की उपलब्धि को कटघरे में खड़ा करने वालों ने दरअसल जनता के संघर्ष का ही तिरस्कार कर डाला। ऐसी ‘अयोग्य’ जनता जिसने उनकी फेंटेसी का ‘कम्युनिस्ट राष्ट्र’ या ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने, वह भी आजादी हासिल किए बगैर ही, के बजाय गलत नेतृत्व का साथ दिया! आजकल ये दोनों पक्ष भगत सिंह को लेकर झगड़ रहे हैं, जिन्होंने अंग्रेजी दासता से मुक्ति को पहला मोर्चा माना था और उस मोर्चे पर जान की कुर्बानी दी थी। इस कदर निन्दित आजादी अवसरवादी और भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों, अफसरों के लिए खुली लूट और छूट का मौका बन गई तो आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसे में ‘अंग्रेज ही अच्छे थे’ - यह जुमला लोगों द्वारा अक्सर कहा जाने लगा। आजादी हमारे राष्ट्रीय/नागरिक जीवन का कोई मूल्य ही नहीं है तो आरएसएस के आजादी-द्रोह पर कान न देकर लोगों ने भाजपा की बहुमत सरकार बनवा दी। 
अब गांधी की हत्या की बात लें। सेकुलर, खास कर कम्युनिस्ट, गांधी की हत्या का रणनीतिक इस्तेमाल भले ही करते हों, उनके विचारों की हत्या करने में कांग्रेस के साथ सबसे आगे रहे हैं। आजादी के संघर्ष के दौर में ही उन्होंने गांधी को बूर्ज्‍वा, प्रतिक्रियावादी, साधारण जनता के स्तर पर उतर कर बात करने वाला, अंधविश्‍वास  फैलाने वाला आदि कहना शुरू कर दिया था। कांग्रेस ने आजादी के बाद गांधी को पहले पार्टी और फिर परिवार की सत्ता की ढाल बना दिया। नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह ने नवउदारवाद को गांधी के ‘सपने’ के साथ जोड़ दिया। अब भाजपा वह काम कर रही है। मौजूदा दलित कोप गांधी पर है ही। इच्छास्वातंत्र्यवादी (libertarians) सब कुछ स्थगित करके पहले गांधी को निपटाना चाहते हैं। जब से पिछड़ा विमर्श ने जोर पकड़ा है, गांधी उनके पहले निशाने पर आ गए हैं। पिछड़ा विमर्शकार अगर अति उत्साही हुआ तो कहेगा कि गांधी नहीं होता तो ब्राहम्णवाद कब का खत्म हो जाता! यानी गांधी को होना ही नहीं चाहिए था। अंध गांधी-विरोध की यह पराकाष्ठा है कि उनकी हत्या के बाद की समस्याओं के लिए भी उन्हें दोषी ठहराया जाता है। इधर बुद्धिजीवियों के स्तर पर जो कम्युनिस्ट-दलित-इच्छास्वातंत्र्यवादी एका बन रहा है, उसके मूल में तीनों का गांधी-विरोध है। हालांकि इस एका का एक परिणाम अंबेडकर को नवउदारवादी हमाम में खींचने में निकलता है। मुसलमानों में गांधी का सम्मान अभी बना हुआ है। लेकिन कट्टरता के दौर में वह ज्यादा दिनों तक नहीं बना रहेगा। आजादी की तरह गांधी की कद्र भी देश में नहीं बची है। फिर क्यों लोग गांधी की हत्या के लिए आरएसएस का विरोध करेंगे? 
हालांकि किंचित विषयांतर होगा, गांधी की हत्या पर थोड़ी चर्चा और करते हैं। गांधी की हत्या की कई व्याख्याएं हुई हैं। निस्संदेह उनमें लोहिया की व्याख्या अभी तक सबसे अहम है। गांधी की हत्या की उस तरह की व्याख्याओं की अब प्रासंगिकता नहीं बची है। एक साधारण व्याख्या यह हो सकती है कि भारत-विभाजन की घटना के चलते गांधी की हत्या हुई। भारत विभाजन में 10 लाख से ज्यादा लोग मारे गए। उस घटना के चलते अगर एक गांधी भी मारे गए तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ा। आजादी के जश्‍न को छोड़ कर वे दंगाग्रस्त इलाकों में घूम रहे थे। वहां कोई दंगाई कुछ दिन पहले ही नाथूराम गोडसे का काम पूरा कर सकता था। गांधी की हत्या करने वाले को अदालत से सजा मिल गई; कानून की भाषा में गांधी को न्याय मिल गया। सरकार ने पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनकी शवयात्रा निकाली और भव्य समाधि का निर्माण किया, जहां दुनिया के नेता आकर श्रद्धांजलि देते हैं। कांग्रेस ने गांधी का सरकारीकरण करके उनके अनुयायियों के लिए भी कई मठों का निर्माण कर दिया। जबकि विभाजन के चलते हत्या, बलात्कार, तबाही झेलने वाले करोड़ों लोगों को कोई न्याय नहीं मिला। गांधी, जब तक जीवित थे, खुद इस व्यथा को झेलते थे। लिहाजा, गांधी की हत्या की बार-बार चर्चा का औचित्य नहीं है। बल्कि उनकी हत्या में दोतरफा तसल्ली पाई जा सकती है। पहली, सकारात्मक तसल्ली यह कि गांधी ने उस समय के नेतृत्व के (भारत विभाजन के) खूनी पाप को अपने प्राणों की बलि देकर कुछ न कुछ धोने का काम किया। दूसरी, नकारात्मक तसल्ली यह कि बड़े नेताओं में से कम से कम एक विभाजन की त्रासदी का शिकार हुआ। 
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि आरएसएस के आजादी-द्रोह का उद्घाटन करने वाला सेकुलर खेमा खुद आजादी की सच्ची चेतना से परिचालित नहीं है। गांधी की हत्या पर आरएसएस को घेरते वक्त भी उसका गांधी के प्रति सम्मान नहीं होता। आरएसएस से सीख कर बदनाम करने की जो शैली एनजीओ सरगना केजरीवाल ने चलाई है, सेकुलर खेमा उसी तर्ज पर आरएसएस को बदनाम करके सत्ता हथियाना चाहता है। यह शैली आजादी और गांधी दोनों की गरिमा गिराने वाली है।
क्या सेकुलर खेमे द्वारा आरएसएस के विरोध से सांप्रदायिकता रुकती या कम होती है? इसकी पड़ताल इसलिए जरूरी है कि सेकुलर खेमे का कहना रहता है कि नवसाम्राज्यवाद की चुनौती से बाद में निपट लेंगे, सांप्रदायिकता से पहले लड़ना जरूरी है। यह सही है कि सेकुलरवादी सांप्रदायिक आरएसएस-भाजपा के पक्के विरोधी हैं। यह अच्छी बात है। लेकिन वे कांग्रेस से लेकर केजरीवाल तक की सांप्रदायिकता के विरोधी नहीं हैं। एक तरफ भाजपा है, जिसका जनाधार इस बार के आम चुनाव के नतीजों के आधार पर अगर एक चौथाई मान लिया जाए तो बाकी तीन-चौथाई की सांप्रदायिकता को पोसना पूरे समाज को सांप्रदायीकरण की प्रक्रिया में शामिल करना है। हमने पिछले 20 सालों में सेकुलर खेमे की सांप्रदायिक राजनीति के खतरे को कई बार रेखांकित किया है। यहां केवल दो उदाहरण देखे जा सकते हैं। 
केंद्र में भाजपा की बहुमत सरकार बनने के बाद दिल्ली में भाजपा को बुरी तरह परास्त करके जब केजरीवाल की सरकार बनी तो सेकुलर खेमे की खुशी का वारापार नहीं रहा। कई कम्युनिस्ट साथी कई सप्ताह तक थिरक-थिरक कर चलते थे। कम्युनिस्टों के एक हाथ में कांग्रेस और दूसरे हाथ में केजरीवाल है। केजरीवाल विदेशी  धन लेकर लंबे समय से ‘समाज सेवा’ के प्रोफेशन में थे। उस दौरान उन्होंने 1984 के सिख-विरोधी दंगों, 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस, 2002 के गुजरात कांड जैसी जघन्यतम सांप्रदायिक घटनाओं पर मुंह नहीं खोला। केजरीवाल के एनजीओ-गुरु अन्ना हजारे ने भी, जिन्होंने जंतर-मंतर से पहली प्रशंसा मोदी की की, जिसके प्रति मोदी ने उन्हें आभार का पत्र लिखा। रामदेव, श्री श्री रविशंकर जैसे धर्म, ध्यान, अध्यात्म, योग, आयुर्वेद आदि का व्यापार करने वाले तत्व उनके हमजोली थे। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की व्यवस्था का काम आरएसएस के जिम्मे था। आम आदमी पार्टी बनी तो उसमें सांप्रदायिक व लुंपेन तत्वों की भरमार थी। जब पश्चिम उत्तर प्रदेश सांप्रदायिक दंगों की आग से जल रहा था, तब केजरीवाल दिल्ली फतह होने पर हवन की अग्नि प्रज्चलित करके ईश्‍वर को धन्यवाद दे रहे थे। बनारस में चुनाव लड़ कर उसने मोदी की जीत सुनिश्चित की। इसके लिए बाबा विश्‍वनाथ का दर्शन और गंगाजी में डुबकी लगा कर आशीर्वाद प्राप्त किया। (यह चिंता का विषय है कि चुनाव संहिता लागू होने के बाद उम्मीदवारों के धार्मिक कर्मकांड में शामिल होने पर चुनाव आयोग द्वारा उनकी उम्मीदवारी रद्द नहीं की जाती।) 
जब दिल्ली में दोबारा चुनाव हुए तो शहर में सांप्रदायिक तनाव फैला था। आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के चुनाव प्रसारण में कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम और राष्ट्रवादी कांग्रेस के प्रसारणों में दिल्ली षहर में सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिशों का प्रमुखता से जिक्र था। साथ ही सांप्रदायिक ताकतों को चुनाव में परास्त करने की अपील थी। भाजपा और आम आदमी पार्टी के प्रसारण में शहर में होने वाली सांप्रदायिक घटनाओं पर एक शब्द भी नहीं था। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलने की आगे बढ़ कर सहर्ष स्वीकृति दी। मोदी के साथ मिल कर श्री श्री रविशंकर का मजमा जमाया। देश के अल्पसंख्यकों की स्थिति पर तैयार की गई सच्चर समिति की रपट को आए इस साल नवंबर में 10 साल हो जाएंगे। भाजपा और आम आदमी पार्टी को छोड़ कर सभी छोटे-बड़े दलों ने समय-समय पर इस रपट को लागू करने की घोषणा की है। .... यह आलोचना नहीं, केवल तथ्य हैं जो हम पहले भी कई बार रख चुके हैं। ध्यान दिया जा सकता है कि पुराने सेकुलर नेताओं का सांप्रदायिक राजनीति करने का ढेट खुलते-खुलते खुला। लंबे समय तक एक हद तक उन्होंने जनसंघ/भाजपा पर धर्मनिरपेक्षता का दबाव भी बना कर रखा। लेकिन केजरीवाल और उसकी मंडली किसी राजनीतिक विचारधारा, संगठन या संघर्ष से गुजर कर नहीं आए हैं। उनके लिए सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता में भेद नहीं है। सत्ता हथियाने के लिए जो सीढ़ी काम आ जाए! 
दूसरा उदाहरण बिहार का है जहां भाजपा की पराजय पर सेकुलर खेमा तुमुलनाद कर उठा कि ‘जनता ने सांप्रदायिक और ब्राहम्णवादी ताकतों को पटखनी दे दी है’। यहां विस्तार में जाए बगैर कुछ तथ्य देखे जा सकते हैं। नितीश कुमार और उनकी पार्टी 16 सालों तक आरएसएस/भाजपा के साथ रहे। 2002 में गुजरात में मुसलमानों के राज्य-प्रायोजित नरसंहार के समय भी यह साथ बना रहा। उस बीच बिहार की बहुत हद तक सेकुलर जमीन में सांप्रदायिकता के बीज बोने का श्रेय जनता दल यूनाइटेड को जाता है। जदयू के वरिष्ठ नेता एनडीए के संयोजक थे। उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ने के फैसले का विरोध किया। लिहाजा, सेकुलर खेमे का यह तर्क कि नवसाम्राज्यवाद से बाद में निपट लेंगे, सांप्रदायिकता से पहले लड़ना है, भ्रमित करने वाला है। इससे सांप्रदायिकता पर न रोक लगती है, न वह कम होती है।
सेकुलर खेमा जिस नवउदारवाद पर बाद में रोक लगाने की बात करता है, क्या भाजपा के सत्ता में नहीं रहने पर वह ऐसा करेगा? क्या उसकी यह नीयत और पक्का संकल्प है? आज की भारतीय राजनीति का यह यक्ष प्रश्‍न है। इसके उत्तर के बगैर जो राजनीति की जाती है वह अवैध है, जिसे शिष्ट भाषा में सत्ता की राजनीति कहते है। नवउदारवादी दायरे के भीतर सत्ता की राजनीति सांप्रदायिक खेमा करता है या सेकुलर खेमा, इससे खास फर्क नहीं पड़ता। आज के राजनीतिक परिदृश्‍य पर सरसरी नजर डालने से ही यक्ष प्रश्‍न का उत्तर निकल आता है। वर्तमान राजनीति के जो एक्टिव प्लेयर हैं, यानी जिन्हें कम-ज्यादा मुख्यधारा मीडिया कवर करता है, उनकी भूमिका और दिशा नवउदारवादी है। हमने करीब पांच साल पहले कहा था कि संघ की कोख से पैदा मोदी सारी कवायद के बावजूद गुजरात में ही छटपटा कर दम तोड़ सकते हैं। लेकिन कारपोरेट ने उनकी पीठ पर हाथ रखा; वे पीएम हाउस में पहुंच गए। केजरीवाल सीधे कारपोरेट की कोख की पैदाइश हैं। तीसरी शक्ति कही जाने वाले नेताओं पर केंद्रीय स्तर पर भरोसा नहीं किया जा सकता। अपने सामाजिक आधार के चलते वे देश को नवउदारवाद के रास्ते पर कांग्रेस और भाजपा की तरह तेजी से लेकर नहीं चल सकते। इसीलिए कारपोरेट ने अपना नया नेता खड़ा किया है। उसकी पीठ पर सेकुलर खेमे के पहले से मैगसेसे पुरस्कार घराना सहित कारपोरेट घरानों और देश-विदेश के एनजीओ तंत्र का हाथ है। कांग्रेस तक तो गनीमत थी; जिस तरह से सेकुलर खेमा केजरीवाल के साथ जुटा है उससे नीयत और संकल्प तो छोडि़ए, उसकी राजनीतिक समझदारी ही संदेह के घेरे में आ जाती है। वह इधर फिर से काफी खुश हुआ है कि केजरीवाल ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति में मोदी को पछाड़ दिया है। राजनीतिक दिवालिएपन की पराकाष्ठा पूरी हो जाती है जब सेकुलर खेमा मोदी के बरक्स केजरीवाल में देश का प्रधानमंत्री देखने लगता है। 
यह सही है कि पिछले करीब तीन दशकों के नवउदारवादी शिकंजे को तोड़ना बहुत कठिन, बल्कि नामुमकिन-सा हो गया है। यह कठिन स्थिति बनने में वैश्विक दबावों की भी बड़ी भूमिका है। ऐसे में लगता नहीं कि इस जटिल समस्या का जल्दी कोई समाधान निकाला जा सकता है। सेकुलर खेमा कह सकता है कि नवउदारवादी दायरे के भीतर राजनीति करना आज की मजबूरी है। वह यह भी कह सकता है, बल्कि कहता है कि भीतर जाए बगैर शिकंजे को नहीं काटा जा सकता। वह भीतर रह कर की गईं अपनी उपलब्धियां भी गिनाता है, जैसे कांग्रेसी राज में हासिल सूचना अधिकार कानून, मनरेगा, आदिवासी जंगल अधिकार कानून, भूमि अधिग्रहण कानून आदि। लेकिन जिन नेताओं को कारपोरेट दायरे के भीतर राजनीति करनी है, जिन बुद्धिजीवियों को संस्थान चलाने हैं, जिन लेखकों-कलाकारों को पुरस्कार लेने हैं, जिन विशेषज्ञों/एनजीओ वालों को सरकारों के सलाहकार बनना है, समितियों में रहना है, जिन अभिनेताओं/खिलाडि़यों को ब्रांड एंबेसडर बनना है - उन्हें कहना चाहिए कि इस तरह की दिखावटी राहतों के साथ नवउदारवादी व्यवस्था जारी रहेगी। जिसका सीधा अर्थ है विश्‍व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्‍व व्यापार संगठन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कारपोरेट घरानों के डिक्टेट इसी तरह चलेंगे, डुंकेल से लेकर भारत-अमेरिका परमाणु करार जैसे देश की संप्रभुता को गिरवीं रखने वाले समझौते होते रहेंगे, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का विनिवेश जारी रहेगा, शिक्षा से रक्षा तक समस्त सेवाओं का निजीकरण होगा, खुदरा क्षेत्र में कारफर, टेस्को, वालमार्ट जैसी विदेशी कंपनियां अपना व्यापार फैलाएंगी, बड़े बिजनेस घरानों का कर्ज माफ किया जाता रहेगा, प्राकृतिक संसाधनों की लूट चलेगी, नगरों-गांवों की डूब और वाशिंदों का विस्थापन जारी रहेगा, किसान और छोटे उद्यमी आत्महत्या करते रहेंगे, बेरोजगारों की फौज की गिनती नहीं रहेगी, जमीन और श्रम की लूट और तेज होगी, आर्थिक विषमता की खाई का कोई अंत नहीं रहेगा, पांच सौ के आगे और ज्यादा स्मार्ट सिटी बनाए जाएंगे, नागरिक गरिमा/नागरिक सुरक्षा/नागरिक अधिकारों/अभिव्यक्ति की आजादी की कानूनी गारंटी नहीं रहेगी, नागरिक जीवन में पुलिस/सुरक्षा बलों/माफियाओं का दखल बढ़ता जाएगा ...। हमारे नागरिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, धार्मिक जीवन को कारपोरेट कंपनियों के मातहत करने वाली यह सूची जितना चाहो लंबी हो सकती है।
कारपोरेट को दोष देना बेकार है। उसे सांप्रदायिक भाजपा से प्रेम नहीं है। वह पिछले तीन दशकों से नेताओं/पार्टियों को उलट-पलट कर देख रहा है। पिछले तीन दशकों में तैयार हुए नागरिक समाज को भी। अगर उसे पक्का भरोसा हो जाएगा कि धर्मनिरपेक्षता की आड़ में नवउदारवाद को खुली छूट रहेगी, वह खुद भाजपा को सत्ता में नहीं आने देगा। उसे यह भरोसा सेकुलर खेमे के बूते ही होगा। नवसाम्राज्यवादी गुलामी से लड़ने वाली सच्ची चेतना को हमेशा हाशिए पर धकेलने का काम उसी के जिम्मे रहना है! कम्युनल खेमे में वह ताकत नहीं है।
1 अप्रैल 2016 

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उनके राम और अपने राम - प्रेम सिंह

(यह लेख करीब 25 साल पहले का है। 'जनसत्ता' में छपा था. 'कट्टरता जीतेगी या उदारता' (राजकमल प्रकाशन, 2004) पुस्तक में भी संकल...