Friday, March 11, 2016

दलित-चिंतन को मिटाने की मुहिम- डॉ प्रेम सिंह

मध्यकाल के रचनाकारों में कबीर का अध्ययन और मूल्यांकन सबसे जटिल और चुनौती भरा रहा है। साहित्य के इतिहासकारों और आलोचकों के  अलावा दूसरे विषयों के विद्वानों ने भी कबीर के अध्ययन में रुचि ली है। 
कबीर का एक विमर्श लोक में भी बराबर चलता रहा है। वहां भी अन्य रचनाकारों के मुकाबले कबीर सबसे आगे और विशिष्ट हैं। हिंदी में कबीर के अध्ययन की लंबी परंपरा है। उस परंपरा में 1997 में डाॅ. धर्मवीर की 
आलोचना-पुस्तक ‘कबीर के आलोचक’ प्रकाशित हुई। उस पुस्तक में कबीर के व्यक्तित्व और चिंतन के मूल्यांकन संबंधी पूर्व मान्यताओं को ध्वस्त कर डाॅ. धर्मवीर ने अपनी नई स्थापनाएं प्रस्तुत की हैं। इस पुस्तक से कबीर के अध्ययन की परंपरा में पहली बार एक बड़ा तूफान उठ खड़ा हुआ। हिंदी आलोचना के परिदृश्य में सक्रिय सभी रंगतों के आलोचक डाॅ. धर्मवीर की ‘हिमाकत’ से क्षुब्ध हो उठते हैं। और साथ ही उन्हें ठिकाने लगाने के लिए सन्नद्ध। जमे हुए आलोचकों को तजुर्बा है, खासकर प्रगतिवादी आलोचकों को, कि कैसे उनकी काट करने वाले को काटा जाता है। हिंदी के ज्यादातर आलोचक और लेखक डाॅ. धर्मवीर पर चैतरफा हमला बोल देते हैं। इस विश्वास के साथ कि मैदान में नया और अकेला उतरा यह शख्स उनके हमलों के आगे थोड़ी देर भी नहीं टिक पाएगा। लेकिन धर्मवीर उनके हमलों से किंचित भी परेशान नहीं होते। स्वागत और खुशी के साथ पूरी तसल्ली और तफसील से सबकी आपत्तियों और सवालों के नुक्ता दर नुक्ता जवाब देते हैं। बहस के साथ कबीर पर उनका शोध-कार्य जारी रहता है। इस दौरान उनकी एक के बाद एक पांच पुस्तकें सामने आती हैं। तीन 
पुस्तकें - ‘कबीर: डाॅ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रक्षिप्त चिंतन’ (2000), ‘कबीर और रामानंद: किंवदंतियां’ (2000), ‘कबीर: बाज भी, कपोत भी, पपीहा भी’ (2000) - नई सदी में कबीर श्रृंखला के अंतर्गत और दो पुस्तकें - ‘कबीर के कुछ और आलोचक’ (2002) और ‘सूत न कपास’ (2003) कबीर के आलोचक श्रृंखला के अंतर्गत। इन पुस्तकों से पता चलता है कि शुरुआती छोटी पुस्तक के पीछे लेखक की बड़ी तैयारी थी। चर्चा कबीर और उनकी आलोचना के दायरे से निकल कर ज्ञान की कई दिशाओं - दर्शन, धर्म, समाजशास्त्र, इतिहास, न्याय, कानून आदि - में व्याप्त हो जाती है। जो समझ रहे थे कि डाॅ. धर्मवीर को हवा में उड़ा देंगे, जान गए कि मुठभेड़ किसी सामान्य आलोचक से नहीं, एक गंभीर चिंतक से है। कबीर के आत्मविश्वास से लैस एक ऐसा चिंतक जिसने प्रगतिशीलता एवं आधुनिकता के झंडाबरदार ब्राह्मणों-ठाकुरों-वैश्यों को एक झटके में दलित-चिंतन की धार पर धर दिया है। ब्राह्मणवादी दर्षन और संस्कृति में पगे दिमाग को मानववाद, माक्र्सवाद, अस्तित्ववाद, मनोविश्लेषणवाद, उत्तर-आधुनिकतावाद आदि की पैकेजिंग से संवार कर आधुनिक बुद्धिजीवी बने विद्वानों के सामने यह कड़ी चुनौती थी। जो बड़े उत्साह और आत्मविश्वास के साथ डाॅ. धर्मवीर से उलझे थे, वे सब पीछे हट गए।  दरपेश चुनौती के सामने प्रभुत्वशाली प्रतिष्ठान अथवा महानुभाव कई बार चुप्पी की राजनीति (पाॅलिटिक्स आॅफ साइलेंस) का सहारा लेते हैं। वह किसी गंभीर चुनौती को निष्क्रिय करने की बोलने-लिखने से ज्यादा असरदार रणनीति होती है। डाॅ. धर्मवीर की चुनौती के सामने हिंदी के कुछ विद्वानों ने चुप्पी का हथियार इस्तेमाल किया। डाॅ. नामवर सिंह ने कहा कि वे डाॅ. धर्मवीर के विरोध में नहीं बालेंगे; हालांकि वे उनकी स्थापनाओं से सहमत नहीं हैं। उन्होंने पहेली बुझाई कि डाॅ. धर्मवीर का विरोध करने से ब्राह्मणवाद मजबूत होगा। शायद शुरू में डाॅ. नामवर सिंह को लगा होगा कि उनके दो शिष्य डाॅ. वीरभारत तलवार व डाॅ. पुरुषोत्तम अग्रवाल उनके साथी डाॅ. मैनेजर पांडे के साथ मिल कर ‘डेमेज कंट्रोल’ कर लेंगे। अथार्त् तूफान से माक्र्सवाद और डाॅ. हजारीप्रसाद द्विवेदी को सुरक्षित बचा कर ले आएंगे। ‘डेमेज कंट्रोल’ न हो पाने की स्थिति में वे खुद कुछ देर के लिए मैदान में उतर कर डाॅ. धर्मवीर को मर्यादा तोड़ने यानी ‘शास्त्र’ एवं ‘गुरु’ की निंदा का दंड देंगे। लेकिन लगता है वे जल्दी ही समझ गए कि इस बार चुनौती विकट है और अभी तक आजमाई ‘साहित्यिक’ युक्तियों से मामला रफा-दफा होने वाला नहीं है। यह कबीर पर कब्जे की लड़ाई नहीं, डाॅ. धर्मवीर ने ज्ञान पर ब्राह्मणी कब्जे को हटाने का ‘कांड’ उपस्थित कर दिया है। यह पहचानने में वे सबसे ज्यादा सयाने निकले कि पूरी तैयार से मैदान में उतरे डाॅ. धर्मवीर के सामने सीधी मुठभेड़ में जीतने का माद्दा इस समय हिंदी के किसी विद्वान में नहीं है। इसलिए चुप हो जाओ, झुक जाओ, नई रणनीति बनाओ! ‘कबीर के आलोेचक’ समेत उपर्युक्त छह पुस्तकों और लंबी बहस के बाद कबीर पर कोई नया और गंभीर अध्ययन डाॅ. धर्मवीर को नजरअंदाज करके नहीं किया जा सकता है। भले ही उसमें डाॅ. धर्मवीर की काट ही काट हो। अगर उस बहस में शामिल रहने वाला कोई विद्वान अपनेे कबीर संबंधी अध्ययन में डाॅ. धर्मवीर को नजरअंदाज करता है तो अकादमिक जगत के लिए यह चिंता का बायस होना चाहिए। अकादमिक ईमानदारी का विकल्प नहीं है और 
उसका समुचित निर्वाह सभी विद्वानों की सम्मिलित जिम्मेदारी है। जब डाॅ. पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ का प्रकाशन-पूर्व प्रचार शुरू हुआ तो हमने स्वाभाविक तौर पर माना कि आलोचक ने डाॅ. धर्मवीर की पुस्तकों और बहस को खाते में लेकर अपना अध्ययन प्रस्तुत किया होगा और इस रूप में वह कबीर पर एक महत्वपूर्ण आलोचना-कृति होगी। पुस्तक प्रकाशित होने पर हमें अपने एक शोधार्थी से यह जान कर आश्चर्य हुआ कि डाॅ. अग्रवाल की पुस्तक में डाॅ. धर्मवीर की पुस्तकों का कहीं जिक्र ही नहीं है। पांच साल पहले जो महाभारत कबीर को लेकर मच चुका है उसके बाद यह संभव नहीं है कि कबीर पर तीस-बत्तीस साल लगा कर काम करने वाले विद्वान के सामने डाॅ. धर्मवीर के कबीर की तस्वीर न झूलती रहे। यह स्वीकृत मान्यता है कि भक्तिकालीन भक्त एवं संत कवियों ने अपनी-अपनी मनोभूमि से समवेत रूप में प्रेम को पांचवा पुरुषार्थ सिद्ध कर दिया था। यह भी माना जा सकता है कि कबीर और रैदास की प्रेमोपासना संभवतः सबसे निराली और सबसे उदात्त है। ऐसे में कबीर समेत समस्त भक्तिकालीन रचनाकारों के प्रेमोपासक होने से भला किसे ऐतराज हो सकता है? डाॅ. धर्मवीर ने कबीर की खोज मुक्त-ज्ञान के करुणानिधान के रूप में की है। वहां उनसे मुठभेड़ की जा सकती है जो कुछ हद तक हुई भी और धर्मवीर ने जवाब भी दिए। उनके जवाबों को अपर्याप्त, यहां तक कि गलत ठहराया जा सकता है। डाॅ. अग्रवाल की पुस्तक के शाीर्षक से ही यह समझा जा सकता है कि लेखक ने प्रेम की अकथ कहानी की आड़ में ज्ञान पर वर्चस्व की 
राजनीति की है। कबीर को डाॅ. धर्मवीर से छुड़ा कर प्रेम के पुराने अखाड़े में खींच कर ले जाना दरअसल प्रतिक्रियावाद कहा जाएगा। दलित-चिंतन की भूमि से इसे ब्राह्मणवादी साजिश भी कहा जा सकता है। हमने इस पुस्तक की राजनीति के बारे में बाहर से बताया है। बेहतर होगा कि डाॅ. धर्मवीर तीन दषक लगा कर लिखी गई डाॅ. अग्रवाल की बहुप्रशंसित पुस्तक को पढ़ें और उसकी अंदरूनी राजनीति की विस्तृत समीक्षा करें।  हमें विश्वास था कि डाॅ. धर्मवीर के कबीर को ‘गायब’ करने का डाॅ. अग्रवाल का ‘जादू’ सभी विद्वानों पर नहीं चलेगा। कहीं न कहीं से आवाज आएगी। हमारे कान पुस्तक की भूरी-भूरी प्रशंसा करने में लगे विद्वानों की तरफ लग गए कि वे डाॅ. धर्मवीर का कोई जिक्र करते हैं या नहीं? भले ही यह कह कर कि डाॅ. अग्रवाल ने कबीर के नाम पर डाॅ. धर्मवीर द्वारा फैलाया गया ‘कूड़ा-कर्कट’ साफ कर दिया है। डाॅ. अग्रवाल की पुस्तक का प्रकाशन और विमोचन समारोहपूर्वक हुआ। उस पर गोष्ठियों और समीक्षाओं का सिलसिला अभी जारी है। जिस सुनियोजित ढंग से पुस्तक को ‘लाॅन्च’ किया गया है उससे लगता है गोष्ठियों और समीक्षाओं का सिलसिला लंबा चलेगा। अब तक प्रायः हर रंगत का विद्वान पुस्तक पर न्यौछावर लुटा चुका है। इसमें कोई समस्या नहीं है - जब अफसर-लेखकों के लिए विद्वानों के दिल के दरवाजे खुल जाते हैं तो लेखक-अफसर के लिए छाती चैड़ी क्यों नहीं होगी! समस्या यह है कि किसी विद्वान ने अपनी लिखित या मौखिक राय रखते वक्त डाॅ. धर्मवीर और उनके कबीर का हवाला नहीं दिया है। डाॅ. नामवर सिंह ने भी नहीं, जो कहते थे कबीर पर आगे बात बिना डाॅ. धर्मवीर के नहीं हो सकती। ऐसा माहौल बना दिया गया है मानो कबीर पर धर्मवीर की पुस्तकें आई ही नहीं थीं, न कोई बहस थी, न धर्मवीर नाम का कोई विद्वान हिंदी में है। इसके बावजूद कि कबीर के बाद धर्मवीर की कई विषयों पर कई पुस्तकें आ चुकी हैं।अब हम कह सकते हैं कि डाॅ. धर्मवीर को ‘गायब’ करने का काम चूक से या अकेले डाॅ. अग्रवाल के करने से नहीं हुआ है। यह जाना-बूझा और सम्मिलित उद्यम है। जिस तरह से आधुनिक और प्रगतिशील युग में डाॅ. धर्मवीर को ‘गायब’ करने का ‘तिलस्म’ रचा गया है, उससे यह आशंका मजबूत होती है कि पिछड़े सामंतकालों में दलित-चिंतन को दबाने और नष्ट करने की युक्तियां और रणनीतियां बड़े पैमाने पर ईजाद की गई होंगी और अमल में लाई गई होंगी। कम से कम शुरुआती दौर में तो जरूर ऐसा हुआ होगा - जब तक दलित और शूद्र जीवन को श्रम और सेवा का पर्याय बना कर ज्ञान-विहीन क्षेत्र में तब्दील नहीं कर दिया गया। यह तो खैर पीछे की बात है और उसे मध्यकाल के मत्थे मढ़ कर तसल्ली पाई जा सकती है। लेकिन प्रस्तुत और इस तरह के अन्य वाकये बताते हैं कि हाशिए के समूहों एवं अस्मिताओं के सशक्तिकरण की आधुनिक बुद्धिजीवियों की चिंता वास्तविक नहीं है। आधुनिक बौद्धिक प्रतिष्ठान हजारों साल तक दबा कर रखी गई हाशिए की अस्मिताओं को स्वतंत्र चिंतन की छूट देने को तैयार नहीं है। ऐसे चिंतन को तो कतई नहीं जिसमें प्रभुत्वशाली चिंतन के बरक्स समुचित ढांचा और दृष्टि मिलती हो।  डाॅ. धर्मवीर के चिंतन की पद्धति में एक हद के बाद तेर-मेर का रवैया हमें ठीक नहीं लगता रहा है। दुनिया में चिंतन का अभी तक का अनुभव बताता है कि चिंतन की एक मनोभूमि ऐसी होती है जहां अपने रास्ते और दृष्टि से पहुंच कर चिंतक विभक्त नहीं रह जाता है। अब बात हमारी समझ में आती है कि एक दलित-चिंतक अनेक खतरों के लिए खुला होता है। वह मिला कि रला! ब्राह्मणी चिंतन वाले लेखकों-विचारकों से दलितों को सावधन रहने की डाॅ. धर्मवीर की हिदायत का निहितार्थ भी अब हमारी समझ में आता है। रास्ते के बटमार दलित चिंतक को कभी पूर्णकाम नहीं होने दे सकते। दलित चिंतक प्रचलित अर्थ में समन्वयवादी नहीं हो सकता। अगर वह होता है तो ब्राह्मणी चिंतन कई तरह के हथकंडों से उसके चिंतन को रला सकता है। डाॅ. धर्मवीर ने दलित-चिंतन को सबसे बड़ा खतरा ‘माक्र्सवादी बटमारों’ से बताया है। षायद यही उनका सबसे बड़ा अपराध हो गया है?    डाॅ. धर्मवीर के स्वतंत्र दलित-चिंतन के विरोधियों ने पीछे हटते वक्त मुंह बनाते हुए जताया था कि ‘मूर्ख के मुंह कौन लगे’! बात वहीं समाप्त हो जा सकती थी। लेकिन हुई नहीं। डाॅ. धर्मवीर ने बारूद का जो ढेर इकठ्ठा कर दिया था, उसे निष्क्रिय करना जरूरी था। पुश्त दर पुश्त चले आए सत्ता पर कब्जे को बरकरार रखने के लिए ज्ञान पर कब्जा बनाए रखना अनिवार्य है। उन्हें यह अहसास अच्छी तरह हो गया कि डाॅ. धर्मवीर कब्जे में आने वाले नहीं हैं। लिहाजा, अंदर ही अंदर तय पाया गया कि उन्हें ध्वस्त करने की पुख्ता और दूरगामी रणनीति बनानी होगी। डाॅ. अग्रवाल की पुस्तक और उसके जन्म पर जो सोहर गाए जा रहे हैं, उसी रणनीति का प्रतिफल है। इस प्रतिफल तक आने के पहले काफी कुछ घटित हुआ है जिसके विस्तृत ब्यौरे में नहीं जाया जा सकता। लेकिन एक-दो मोटी बातें बताई जा सकती हैं। डाॅ. अग्रवाल के शिष्य बजरंगबिहारी तिवारी और रमणिका गुप्ता के निर्देशन में दलित महिलाओं से ‘नैतिकता के ठेकेदार’ धर्मवीर पर चप्पलें फिंकवाई गईं। डाॅ. धर्मवीर द्वारा ‘कफन’ की बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा बताने पर, सामंतवाद को पानी पी-पी कर कोसने वाले राजेंद्र यादव सरीखे प्रगतिशीलता के पर्याय लेखक हाहाकार कर उठे। बड़े-बड़े लेखकों ने गली के छोकरों के अंदाज में डाॅ. धर्मवीर की बौद्धिकता पर फब्तियां कसीं और लानत भेजी। गोया किसी ‘ठाकुर’ ने किसी दलित महिला का कभी शीलहरण किया ही न हो? काॅलिजों और विष्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में कबीर सभी जगह पढ़ाए जाते हैं। लेकिन लगभग सभी जगह कबीर के अध्ययन के लिए प्रस्तावित संदर्भग्रंथों में डाॅ. धर्मवीर की किताबें नहीं हैं। डाॅ. धर्मवीर पर शोध करने के इच्छुक शोधर्थियों को हतोत्साहित किया गया। चार साल पहले एमफिल के हमारे एक शोधार्थी को डाॅ. धर्मवीर की आलोचना-दृष्टि पर शोध का विषय मिला तो डाॅ. अग्रवाल ने उस पर विषय बदलने के लिए दबाव डाला। हमें यह सुन कर अपने पेषे पर गहरी ग्लानि हुई कि उन्होंने शोधार्थी के सामने डाॅ. धर्मवीर के प्रति असंसदीय भाषा का प्रयोग किया। एक चर्चित दलित लेखक ने भी शोधार्थी को लताड़ा कि वह डाॅ. धर्मवीर पर शोध करके क्यों उनका महत्व बढ़ाता है? हमारे नामचीन और जिम्मेदार पदों पर बैठे विद्वानों का यह क्या हाल हो गया है! डाॅ. सुधीश पचैरी ने जताया है कि वे चैतरफा विरोध के बीच डाॅ. धर्मवीर के समर्थक हैं। लेकिन वे पहली ही नजर में पकड़े जाते हैं जब भारतीय समाज और वांडमय की गहरी खुदाई करने वाली और अपने को आदि स्रोतों से जोड़ने वाली प्रतिभा को उत्तर-आधुनिकता की ‘संजीवनी’ से जाग्रत हुआ बताते हैं। यानी एक ‘आजीवक’ को आज के बाजार का जीव मानते हैं। समर्थन की आड़ में भ्रम फैलाने के और भी उदाहरण मिल सकते हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि डाॅ. धर्मवीर के चिंतन को निष्क्रिय करने के लिए जार-सत्ता, बाजार-सत्ता और सरकार-सत्ता के नुमांइदे बुद्धिजीवी एकजुट हो गए हैं। यह अलग विषय है कि उनकी संलिप्तता में भारत में पिछले डेढ़ हजार सालों से चली आ रही रूढि़ की बड़ी भूमिका है। क्योंकि वे इतने नादान नहीं हैं कि यह सच्चाई नहीं जानते हों कि मौलिक सृजन और चिंतन कुछ देर के लिए नजरअंदाज किए जा सकते हैं, उन्हें हमेशा के लिए निष्क्रिय नहीं किया जा सकता।

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उनके राम और अपने राम - प्रेम सिंह

(यह लेख करीब 25 साल पहले का है। 'जनसत्ता' में छपा था. 'कट्टरता जीतेगी या उदारता' (राजकमल प्रकाशन, 2004) पुस्तक में भी संकल...