Monday, July 14, 2014

विपक्ष पहले भी कहां था ?


16वीं लोकसभा का गठन हो चुका है, और संख्याबल के आधार पर नरेन्द्र मोदी की सरकार पिछली कई सरकारों से मजबूत है। ज़ाहिर है जिन नीतियों को लागू करने के लिए आरएसएस ने उन्हें पीएम की कुर्सी पर बिठाया है , वो धीरे धीरे इस देश पर लागू की जाएगी। लेकिन एक जुमला है जो हर तरफ सुनने को मिल रहा है कि इस बार लोकसभा में कमजोर विपक्ष है । गंगा आरती के दौरान जब नरेन्द्र मोदी बनारस गए तो उन्होंने भी कहा कि इस बार देश में पहली बार होगा जब विपक्ष गठबंधन से बनेगा । प्रधानमंत्री की बात सही है, क्योंकि संख्याबल के आधार पर इस बार वाकई विपक्ष कमजोर है । लेकिन बड़ा सवाल ये है कि पिछले 10 साल में जब बीजेपी के सांसदों की संख्या सौ से ज्यादा थी , और एनडीए 150 के पार था । तब भी क्या इस देश में विपक्ष था ?
  1. क्या किसी में भी इतना साहस था कि मनमोहन सिंह की उदारीकरण की नीतियों का विरोध कर सके ?
  2. वैश्वीकरण की आड़ में अमीरों की अर्थव्यवस्था में इस देश के आम आदमी के लिए भी थोड़ी जगह बनाई जा सके ?
  3. क्या बहुदलीय सरकार वाले सदन में भी विपक्ष ने केन्द्र की कांग्रेस सरकार का कभी नीतिगत विरोध किया ? 
  4. क्या अमेरिका से होने वाला परमाणु करार को रोका जा सका ? 
  5. क्या इस देश की 70 फीसदी आबादी की मंशा के खिलाफ लागू किए जाने वाले रिटेल में FDI  के फैसले को पलटा जा सका ? 
  6. क्या दिल्ली विश्वविद्यालय में शुरू किए जा रहे ग़रीब विरोधी चार साला स्नातक कोर्स को तब लागू होने से रोका जा सका ?
  7.  किसानों की लगातार होती आत्महत्याओँ पर क्या एक बार भी सदन में निर्णायक बहस करने की कोशिश की गई ? 
  8. पिछले 10 साल में विपक्ष ने क्या कभी भी सरकार को देश की मजबूत विदेश नीति पर जनता के प्रति जवाबदेह बनाने की कोशिश की ?

अगर इन सवालों का जवाब नहीं है, तो बताईए कौन सा विपक्ष था ? और वो किसके लिए काम कर रहा था ? ये सब तो फसाने हैं सच्चाई तो ये है कि इस देश में पिछले कई सालों से विपक्ष नहीं है । पिछले 10 सालों में हमें विपक्ष इसीलिए नहीं दिखाई दिया क्योंकि बीजेपी और कांग्रेस की नीतियों में कोई बारीक विरोध नहीं था । और अब सदन में विपक्ष इसलिए नहीं दिखाई दे रहा क्योंकि केवल कुर्सियां बदली हैं , नीतियों में समानता अपनी जगह पर ही है । 
पिछले कई सालों से असली विपक्ष की भूमिका तो समाजवादी, और वामपंथी दलों और उनके बुद्धिजीवी निभा रहे हैं । उसे भी एनजीओ परस्त आम आदमी पार्टी ने तोड़ने की पूरी कोशिश की । AAP अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो पाई, लेकिन अभी भी कई अघाये सरकारी बुद्धिजीवी हैं जो पार्टी में बने हुए हैं । ऐसे में सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की जमात के आगे और भी बड़ी चुनौती है। बड़ी चुनौती उन राजनीतिक पार्टियों के आगे भी है , जो अपने को गांधी और लोहिया की विरासत का असली दावेदार बताते हैं । क्योंकि सदन में सरकार अगर संख्याबल के हिसाब से मजबूत है ? तो देश की आवाज़ सदन में उठाई जाए इसकी चिंता सबसे ज्यादा है । जो भी गिने चुने लोग समाजवादी और वामपंथी दलों  से जीतकर पहुंचे हैं। उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि ऐसी नहीं है जो बीजेपी सरकार के खिलाफ एक देशव्यापी वातावरण तैयार कर सकने के लिए चाहिए ।  ऐसे में हमें संसद में एक ऐसा नुमाइंदा चाहिए जो लोगों की आवाज सदन में उठा सके ।  निराशा के इस दौर में सभी सहमना दलों को चाहिए कि जो लोकसभा के उपचुनाव बचे हैं उसमें मिलकर एक ऐसा उम्मीदवार उतारना चाहिए जो नरेन्द्र मोदी की सरकार से लोहा ले सके । ये विकल्प राज्यसभा का भी हो सकता है । 
हालांकि देश भर में ऐसे कई लोग हैं जो वैचारिक और नैतिक ताक़त के जरिए संख्याबल के हिसाब से मजबूत नज़र आ रही इस सरकार से लोहा ले सकते हैं । लेकिन एक नाम पूर्वी दिल्ली से सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रेम सिंह का भी हो सकता है । जिन्होंने बीजेपी और कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ एक लंबे जनसंघर्ष की अगुवाई की है । वे लोकसभा चुनाव में सीमित संसाधनों और विचारधारा के नाम पर उतरे थे , ज़ाहिर है वे पराजित हो गए । लेकिन जो सवाल उन्होंने पूर्वी दिल्ली में उठाए , वो आज भी यहां के लोगों के जेहन में हैं। बतौर पत्रकार मैं डॉ प्रेम सिंह की कई नुक्कड़ सभाओं में शरीक हुआ था । ये चुनाव बिल्कुल उसी तरह का चुनाव था जैसा कभी सोशलिस्ट मूवमेंट के दौरान लड़ा जाता था । देश की राजधानी में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों का हुजूम उमड़ा था । नीतियों की बात हो रही थी, पम्पलेट छपवाकर बांटे जा रहे थे ।  । कार्पोरेट पॉलिटिक्स को दूर करने की बात हो रही थी । और सबसे ख़ास डंके की चोट पर सांप्रदायिक ताक़तों का विरोध किया जा रहा था ।मुजफ्फरनगर के जख्म ताज़ा थे जाहिर है उसका जिक्र चुनाव में बार बार आया । बाकी सारी पार्टियों ने वोट बैंक के डर से होंठ सिल लिए। लेकिन केवल पूर्वी दिल्ली संसदीय क्षेत्र में सोशलिस्ट पार्टी ही थी, जो मुजफ्फरनगर के दंगाईयों का पुरजोर विरोध कर रही थी । जस्टिस राजेन्द्र सच्चर ने उम्र के इस पड़ाव में भी चुनाव प्रचार में शिरकत की ।
डॉ प्रेम सिंह ने कॉर्पोरेट पॉलिटिक्स और उसकी आड़ में चल रहे सांप्रदायिकता के खेल को बहुत पहले ही भांप लिया था । यही वजह थी कि आम आदमी पार्टी और अन्ना हजारे के आंदोलन का उन्होंने पुरजोर विरोध किया । उनकी पुस्तक गुजरात दंगे के सबक, भ्रष्टाचार आंदोलन यथार्थ और विभ्रम, कट्टरता जीतेगी या उदारता और उदारीकरण की तानाशाही के जरिए उनके स्पष्ट विचारों और समाजवादी मूल्यों को समझा जा सकता है। 
इस वक्त देश में कई बुद्धिजीवी समाजवादी और साम्यवादी राजनीतिक दलों में एका की वकालत कर रहे हैं । केरल में इसकी पहले करते हुए 7 जुलाई को देश भर के समाजवादी और साम्यवादी चिंतक एकत्रित भी हुए । हालांकि इस तरह की पहल चुनाव से पहले ही की जानी थी । लेकिन अब भी अगर वैकल्पिक राजनीति के वाहक दलों का कोई एका बनकर सामने आता है । तो सांप्रदायिक और सामाजिक न्याय विरोधी ताक़तों से लोहा लिया जा सकता है । 

1 comment:

Shambhu kumar said...

राजनीति और देश के ताजा राजीनितक हालात की गहरी समझ

भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह

पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवा...