Saturday, December 28, 2013

कारपोरेट कपट का बढ़ता कारोबार- प्रेम सिंह

 (राही मासूम रजा की अंतिम कृति नीम का पेड़ में एक संवाद है, कि राजनीति में तत्काल लाभ के लिए जो फैसले लिए जाते हैं, उनके उनके दूरगामी नतीजे बड़े भयावह होते हैं ..जनपक्षधर नजरिये से सियासत की जो तस्वीर फिलहाल नज़र नहीं आ रही ... सिस्टम के उन सवालों को बड़े सटीक ढंग से उठा रहे हैं डॉ प्रेम सिंह। )

वर्ग-स्वार्थ की प्रबलता
नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के बीस साल होने पर हमने कहा था कि इस दौरान उसके खिलाफ जो संघर्ष चला उसमें बाजी नवउदारवाद समर्थकों के हाथ रही है। पांच साल बाद भी वही स्थिति है। पिछले पांच सालों में वामपंथी और सामाजिक न्याय की पक्षधर समेत मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों, बुद्धिजीवियों, नागरिक समाज और मुख्यधारा मीडिया में नवउदारवादी व्यवस्था का समर्थन और स्वीकृति बढ़ी है। यह ध्यान देने और समझने की जरूरत है कि इस अरसे में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की परिघटना ने एक बड़ा फर्क डाला है। वह यह कि अब नवउदारवाद विरोध का पक्ष, जो अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग मुद्दों को लेकर अलग-अलग संगठनों@व्यक्तियों द्वारा संचालित जनांदोलनों के रूप में उभरा था और ज्यादातर नागरिक समाज व मुख्यधारा मीडिया की उपेक्षा के बावजूद लगातार अपनी ताकत बना रहा था, नवउदारवाद समर्थकों ने काफी पीछे धकेल दिया है। इसके साथ ही पिछले करीब दो दशकों में उभर कर आई वैकल्पिक राजनीति की विचारधारा और उस पर आधारित संघर्ष को मिटाने का काम भी तेज हुआ है। नवउदारवाद को मजबूत बनाने और गति प्रदान करने वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के पुरोधाओं ने राजनीतिक पार्टी बना कर पूंजीवाद के किसी भी विकल्प को पूरी तरह समाप्त करने का गहरा दांव चल दिया है। संविधान की विचारधारा पहले ही नवउदारवाद की एजेंट मुख्यधारा राजनीति द्वारा लगभग ध्वस्त की जा चुकी है। अब सीधे नवउदारवाद विरोधी संघर्ष की कोख से पैदा विकल्प की राजनीति को, सीधे नवउदारवाद की कोख से पैदा राजनीति ने धूमिल कर दिया है। 
आजादी के संघर्ष की सीख से हम जानते हैं पूंजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष के दौर में उतार-चढ़ाव आते हैं। अब हम यह भी जान गए हैं कि 1947 में हासिल की गई जीत निर्णायक नहीं थी। आजादी को अधूरी माना भी गया था और उसे पूरा करने के कई दावेदार प्रयास हुए थे। उस विस्तार में जाने का यह मौका नहीं है। हकीकत यह है कि समस्त दावेदारों और प्रयासों के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में ‘दूसरी आजादी’, ‘तीसरी आजादी’ ‘दूसरी क्रांति’, ‘तीसरी क्रांति’ का शोर करते हुए पूंजीवादी साम्राज्यवाद शायद पहले से ज्यादा मजबूती के साथ देश में स्थापित हो गया है। वैश्विक परिस्थितिजन्य कई जटिल कारण इसके लिए जिम्मेदार हैं। उपनिवेशवादी दौर में जो साम्राज्यवादी बीज पड़ा था, वह नवउदारवाद के प्रभावस्वरूप फल-फूल उठा। उसने देश की राजनीति पर कब्जा जमा लिया। वह कमोबेश कारपोरेट की एजेंट बना दी गई। उसीका नतीजा है कि बहुत-से सच्चे जनांदोलनों और लोगों के संघर्ष के बावजूद नवउदारवाद की जीत उत्तरोत्तर पक्की होती गई है। वह आगे भी पक्की रहे; उसके विरोध की मुख्यधारा राजनीति में निहित कतिपय संभावनाएं भी निरस्त हो जाएं, इसके लिए नवउदारवाद ने अपनी राजनीति तैयार कर ली है। आम आदमी पार्टी (आप) के नाम से इस राजनीति के तहत गांधी के आखरी आदमी को पीछे धकेल कर करोड़पति ‘आम आदमी’ को राजनीति के केंद्र में स्थापित करने की मुहिम चलाई जा रही है। उम्मीद करनी चाहिए कि 1947 में मिली अधूरी आजादी को पूरा करने के दावेदार इस परिघटना पर गंभीरता से सोचने का काम करेंगे; नवउदारवाद के लाभार्थियों की नहीं, वंचितों के पक्ष की राजनीति स्थापित करने का उद्यम करेंगे। तभी नवउदारवाद की जीत और वैकल्पिक राजनीति की पराजय की इस परिघटना को उलटने आशा की जा सकती है।
लेकिन इसमें रोड़े बहुत हैं। चिंता का विषय कारपोरेट राजनीति के नए उभार का होना नहीं है। सरकारों का एनजीओकरण होगा तो एक दिन राजनीति का भी होगा, यह हम पहले से जानते थे। यह गुबारा अपने अंतविर्रोधों के चलते जल्दी ही फूट भी सकता है। बल्कि उसके फूटने की आशा में मुख्यधारा राजनीतिक दल और आशंका में खुद नई पार्टी के नेता परेशान रहते हैं। लेकिन यह उनका घरेलू मामला है। गुबारा फूटने पर भी विकल्प की राजनीति के लिए कुछ रास्ता नहीं बनने जा रहा है। नवउदारवादी पेटे में ऐसे ज्वार आगे भी आते रहेंगे। चिंता का विषय यह है कि अपने को वाम, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष बताने वाले लोग इस राजनीति की न केवल प्रशंसा कर रहे हैं, उससे सीख लेने का पाठ पढ़ और पढ़ा रहे हैं। राहुल गांधी से लेकर करमरेड करात तक ने इस नई राजनीति से सबक सीखने की बात की है। हमें राहुल गांधी से कुछ नहीं कहना है। कामरेड करात कहीं असका असली सबक न सीख लें, यह चिंता होती है। वह सबक है - नवउदारवाद विरोध की राजनीति नहीं चलनी है, लिहाजा, वह करनी भी नहीं चाहिए।
दिल्ली के चुनाव में ‘आप’ नेताओं के धन के लेन-देन संबंधी स्टिंग आॅपरेशन की सच्चाई शक के दायरे में हो सकती है, लेकिन वाम, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मानी जाने वाली समझ का ‘स्टिंग आॅपरेशन’ शक के परे है।यह थोड़ा अजीब है कि सीपीआई और सीपीएम के मुकाबले सीपीआई (एमएल) के सदस्य@समर्थक ‘आप’ की प्रशंसा और जीत के जश्न में ज्यादा बढ़-चढ़ कर बोल रहे हैं। उनमें से एक साथी ने हमसे कहा कि ‘आप’ को उम्मीदवार मिलने में कठिनाई हो रही थी। वामपंथी पार्टियों को अपने उम्मीदवार ‘आप’ के उम्मीदवार बनाने चाहिए थे। हम उनकी बात सुन कर स्तब्ध रह गए। आगे यह नहीं पूछा कि वाम पार्टियों के उम्मीदवारों को सीधे ‘आप’ के टिकट पर चुनाव लड़ना चाहिए था या गठबंधन बना कर? और, क्या ‘आप’ की तरफ से वैसा कोई प्रस्ताव उनके पास आया था?
सामान्य नागरिक समाज कारपोरेट पूंजीवाद के डिजाइन को नहीं समझ पाता और उसके पक्ष में स्ट्रेटेजी बनाने वालों की मंशा को भी। दिन-रात दो जून की रोटी और बच्चों की शिक्षा नौकरी के लिए हलकान आबादी तो भला क्या समझ पाएगी। नागरिक समाज में जो सीधे कारपोरेट पूंजीवाद के समर्थक हैं उनका कारपोरेट राजनीति के साथ होना स्वाभाविक है। लेकिन अपने को राजनीतिक समझ से लैस मानने वाले परिवर्तन की राजनीति के पक्षधर बुद्धिजीवी और राजनीतिक-सामाजिक नेता-कार्यकर्ता भी ‘आप’ को  विकल्प मान रहे हैं। हमने कहा था कि दिल्ली में कांग्रेस या बीजेपी की सरकार बनेगी। इस चुनावी नतीजे से हम अपनी गलतफहमी दूर करते हैं। हमने ऐसा केवल इसलिए नहीं कहा था कि दिल्ली में ये दोनों दावेदार पार्टियां हैं, बल्कि यह सोच कर कहा था कि कारपोरेट कपट के जाल को दिल्ली में बैठे समाजवादी तथा धर्मनिरपेक्ष सोच और पृष्ठभूमि के लोग कारपोरेट कपट के जाल को जरूर काट देंगे। उसका फायदा समाजवाद की पक्षधर पार्टियों और कथनी में पूंजीवाद का विरोध करने वाली बसपा-सपा जैसी सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों को मिल सकेगा। जाहिर है, फिर भी सरकार कांग्रेस या भाजपा की ही बनती, लेकिन नवउदारवाद विरोध की राजनीति की जगह भी बढ़ती।
‘आप’ के रणनीतिकार खुश हो सकते हैं कि उन्होंने राजनीति और संस्कृति का केंद्र मानी जाने वाली दिल्ली में वहां के प्रबुद्ध नागरिक समाज को पूरी तरह अपने पक्ष में लामबंद करके विजय हासिल की है। हम आगे देखेंगे कि जो भाजपा के साथ रहे, वे ‘आप’ के साथ भी थे और जो सीधे ‘आप’ के साथ थे, वे भाजपा के साथ भी हैं। ‘बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास@किराए के विचारों का उद्भास’ और ‘रक्तपायी वर्ग के साथ नाभिनाल-बद्ध से सब लोग’ - मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ के काव्यनायक की इन पंक्तियों को दिल्ली के विद्वत व सुसंस्कृत समाज ने निर्णायक रूप से चरितार्थ किया है। उसने दिखा दिखा दिया है कि समाजवाद में उसका विश्वास दिखावे का और सामान्य मध्यवर्ग के साथ जुड़ा स्वार्थ असली है।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान ही उसने अपना वर्गस्वार्थी चरित्र प्रकट कर दिया था। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की हमने सतत समानांतर समीक्षा की है। उसमें हमने यह बताया कि भारत के नागरिक समाज ने अपने वर्ग-स्वार्थ से परिचालित होकर उसे और मजबूत करने के लिए यह आंदोलन खड़ा किया। साथ ही नवउदारवादी नीतियों के दुष्परिणाम स्वरूप तबाही का शिकार होने वाली मेहनतकश जनता को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की स्ट्रेटेजी के तहत आम आदमी पार्टी बनाई गई। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में उसकी स्ट्रेटी को काफी हद तक सफलता मिली है। दिल्ली में उसकी जीत का जश्न दरअसल भारत के ‘महान’ मध्यवर्ग के वर्ग-स्वार्थ की जीत का जश्न है। यह स्वार्थ केवल आर्थिक और सामाजिक मजबूती का ही नहीं है, अपने को ईमानदार और नैतिक जताने का भी है। उसे ‘शुचिता’, ‘ईमानदारी’, और ‘नैतिकता’ का ऐसा ‘फील गुड’ हुआ है कि ‘आप’ सुप्रीमो केजरीवाल और उसने जो भानुमति का कुनबा जोड़ा है, उसके बारे में जरा भी आलोचना सुनने को तैयार नहीं है।
किसी आंदोलन की एक खासियत यह होती है कि उससे समाज का नैतिक स्तर कितना ऊपर उठा है। आपके पास कोई ज्यादा वाजिब कसौटी हो तो जरूर बताएं, हमारी कसौटी है कि इस आंदोलन, जिसे राजनीति का विरोधी और समाज की शक्ति का द्योतक कहा गया, से कम से कम नागरिक समाज की सामाजिकता पुष्ट होती। यानी समाज का संपन्न तबका विपन्नों के बारे में विचार और संवेदना से कुछ जुड़ता। वह पूरे आंदोलन को विपन्नता पैदा करने वाले उस नवसाम्राज्यवाद की ओर मोड़ देता, जिसके खिलाफ पिछले 25 सालों से हमारे दौर की कई बेहतरीन शख्सियतें संघर्षरत रही हैं। इस संघर्ष में उन्होंने एक तरह से अपनी आहुति दी है। हम बहुत ही स्पष्टता से कहना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने नागरिक समाज के पिछले दो दशकों में गिरते नैतिक स्तर को और नीचे गिराया है। बल्कि जिनका कुछ न कुछ ईमान बना हुआ था, वे भी एकबारगी उसमें बह गए।
‘आप’ की जीत के जश्न में ऐसा जताया जा रहा है कि भ्रष्ट नेताओं और राजनीति का इस घोर ईमानदार और नैतिक नागरिक समाज से कोई वास्ता नहीं है। उसकी पैदाइश और मजबूती में उसकी कोई भूमिका नहीं है। जैसे भ्रष्टाचार कोई ऊपरी बला है, वैसे ही भ्रष्ट नेता और राजनीति कहीं ऊपर से आन टपके हैं! ध्यान दीजिए, कल तक मनमोहन सिंह इनके लिए ईमानदारी के पुतले थे और सोनिया गांधी बहुतों के लिए त्याग की देवी। नब्बे के दशक के शुरू में लागू की गईं नई आर्थिक नीतियां भ्रष्टाचार का स्रोत ही नहीं बनने वाली थीं, अपने में खुला भ्रष्टाचार थीं। इसी नागरिक समाज ने न केवल मनमोहन सिंह जैसे गैर-राजनीतिक व्यक्ति और विश्व बैंक के नौकरशाह को 1991 में सिर-आंखों पर बिठाया, दो बार देश का प्रधानमंत्री भी बनाया। तब मनमोहन सिंह और कांग्रेस बुरे नहीं थे क्योंकि वेतन-भत्ते खूब बढ़ रहे थे, बेटा-बेटी विदेशों में पढ़ने और बड़े पैकेज पर नौकरियां करने जा रहे थे, बैठे ठाले देश-दुनिया घूमने के लिए एनजीओ बनाए रहे थे, राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बिगाड़ा जा रहा था, वल्र्ड सोशल फोरम जैसे अंतराष्ट्रीय मजमे लगाए जा रहे थे। उस समय जो दिन-रात नागरिक समाज और पुलिस की प्रताड़नाएं सह कर नवसाम्राज्यवादी हमले का मुकाबला कर रहे थे, उन पर निर्लज्जतापूर्वक अव्यावहारिक, आदर्शवादी, असफल यहां तक कि देशद्रोही होने की तोहमत लगा रहे थे! एक के बाद एक घोटालों के बावजूद मनमोहन सिंह और कांग्रेस की नवउदारवादी नीतियों को बिना विराम दिए चलाने की हिम्मत के पीछे इसी ‘पाक दामन’ नागरिक समाज का बल रहा है, जो आज कांग्रेस को भ्रष्टाचार के लिए पानी पी-पी कर कोस रहा है।   
कारपोरेट राजनीति की नई बानगी का नयापन यही है कि उसने कारपोरेट लूट का शिकार जनता की सीधी स्वीकृति लेने का जाल बुन कर उस पर फेंका है। कारपोरेट और नागरिक समाज की मिलीभगत से जो कपटजाल तैयार किया गया, उसमें दिल्ली की झुग्गी-झोंपड़ियों और गंदी बस्तियों में रहने वाली अधपेट, कुपोषित, अशिक्षित मेहनतकश जनता फंस गई तो उसे दोष नहीं दिया जा सकता। बल्कि उसे अभी और फंसना है। ‘आप’ के स्ट्रेटेजिस्ट जाल को पूरे देश पर फैलाने की मुहिम में लग गए हैं। वे वहां भी पहुंचेंगे जहां कारपोरेट की लूट के खिलाफ विस्थापन, उत्पीड़न, हत्याओं और आत्महत्या के बावजूद लोग सीधा लोहा ले रहे हैं। हालांकि अब उनके साथ जुटने वाले लोगों में से कुछ साथ नहीं रह जाएंगे। वे ‘आप’ के एजेंट बनने को तैयार हो गए हैं।
मान लिया कि व्यवस्था परिवर्तन न हो सकता है, न उसकी राजनीति चल सकती है। यह लक्ष्य लेकर चलने वाली राजनीति परास्त होने के लिए अभिशप्त है। शुचिता, ईमानदारी और नैतिकता से लबालब कारपोरेट क्रांति के सिपाहियों से दिल्ली में बहुत छोटी-सी बात हम कहना चाहते हैं। वह उतनी बड़ी भी नहीं है, जितनी हमने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान कही थी कि कारपोरेट घरानों से लेकर नागरिक समाज तक जितने लोग भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ जुटे हैं, वे खुद भ्रष्टाचार करना छोड़ दें तो देश की गरीब जनता को बहुत हद तक राहत मिल जाएगी। दिल्ली में गरीबों ने मंहगाई से राहत के वादे पर वोट दिया। कांग्रेस के पराजय का यही एक तात्कालिक कारण बना।
दिल्ली के ईमानदार ‘आप’ के समर्थक नागरिक समाज से हमारा बस इतना निवेदन है कि वे अपने यहां काम वाली, दूध वाले, धोबी, पलंबर, बिजली वाले, सब्जी वाले के श्रम के दाम थोड़े बढ़ा दें। अब ‘स्वराज’ आ ही गया है या आने वाला है तो उन्हें कुर्सी-सोफा पर बिठा कर अपने कप में चाय पिलाना शुरू कर दें, जब घर में जन्मदिन या कोई और उत्सव हो तो कम से कम उनके बच्चों को अपने साथ ही केक-खाना दे दें। दिहाड़ी पर काम करने वाले मिस्त्रियों-मजदूरों का थोड़ा नैतिक साहस बढ़ाने के लिए उन्हें यह कहना छोड़ दें कि उन्होंने लूट मचा रखी है, दिहाड़ी ज्यादा लेते हैं और काम कुछ नहीं करके देते।
ईमानदारी और नैतिकता का जैसा जोश दिखाया जा रहा है उससे उत्साहित होकर कुछ और भी पहल करने की फरमाइश भी की जा सकती है, जिससे गरीबों-बेरोजगारों को राहत मिलेगी। भ्रष्ट और बेईमान कांग्रेस सरकार ने सातवें वेतन आयोग की जो घोषणा की है या बीच-बीच में जो डीए-टीए घोषित किए हैं, उनका विरोध कर दें। सातवें वेतन आयोग की घोषणा को वापस लेने के लिए सरकार पर दबाव डालें। नहीं लेती है तो आंदोलन करें। क्योंकि आंदोलन करने में उन्हें महारत हासिल है।
ये लोग ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे। दिल्ली में ‘आप’ की सरकार के बावजूद गरीबों के लिए मंहगाई की समस्या रहनी है। मनमोहन सिंह का यह सार्वभौम और शाश्वत सत्य स्थापित हो जाएगा कि मंहगाई को तो रहना ही है। इसे मंहगाई पर मोहर का चुनाव कह सकते हैं, जो मनमोहन सिंह के बच्चों ने लगाई है। मंहगाई रहेगी तो ऊपरी कमाई करनी ही होगी। यानी भ्रष्टाचार पर भी मोहर। जाहिर है, ऊपरी कमाई झुग्गी-झोंपड़ी वाले तो कर नहीं सकते। वही करेंगे जो तीन बार कांग्रेस का समर्थन कर चुके हैं। इस बार भी विकास पर उसकी राय कांग्रेस के पक्ष में थी। लेकिन उन्हें लगा अगर इस विकास के साथ बिजली-पानी मुफ्त मिल जाए तो क्या बुराई है?
‘आप’ द्वारा जुटाए गए कोष की पारदर्शिता की बड़ी बातें की गई हैं, गोया बाकी पार्टियां अपना हिसाब नहीं देती हों। यह भी तो कहा जा सकता है कि जो 20 करोड़ रुपया, जिसका एक-तिहाई विदेशों से आया है, दिखाया गया है वह दिखाने के दांत हैं। दिखाया इसलिए गया है कि विदेशी धन बैंक की मार्फत ही आ सकता है। उसे छिपाया नहीं जा सकता। दिल्ली की सभी 70 सीटों के 1483 वर्गकिलोमीटर के एरिया के लिए 20 करोड़ जुटाए तो पूरे देश के लिए कितना जुटाना होगा, इसका कुछ हिसाब अनुराग मोदी ने अपने एक लेख में दिया है। विदेश में बैठे लोगों ने न केवल धन दिया, चुनाव क्षेत्रों को गोद लिया, उम्मीदवारों को जिताने की स्ट्रेटेजी बनाई, मतदाताओं को फोन किए। उनका क्या मकसद हो सकता है? सिवाय इसके कि जिस व्यवस्था ने उन्हें देश और विदेश में प्रिविलेज्ड हैसियत में पहुचाया है, उस पर आंच नहीं आए!
‘आप’ के नेता जहां शुरू से अंत तक कपट-क्रीड़ा में लिप्त हैं, नवउदारवाद के सवाल पर कांग्रेस ने कभी कपट नहीं किया। कुछ दिनों तक मनमोहन सिंह ने उसे मानवीय चेहरा प्रदान करने की गफलत भरी बातें जरूर कीं, लेकिन जल्दी ही उन्होंने कह दिया कि नवउदारवादी विकास में मंहगाई से लेकर भ्रष्टाचार तक और विस्थापन से लेकर आत्महत्याओं तक सब चलेगा। आज ईमानदार और नैतिक बने नागरिक समाज ने उनका समर्थन किया। कांग्रेसी यह भी साफ कहते हैं कि वे नेहरू परिवार की पूजा इसलिए करते हैं क्योंकि उसी वजह से पार्टी में एकता रहती है। भाजपा सांप्रदायिकता के मामले में जो भी छल-कपट करती हो, नवउदारवाद के एजेंट की भूमिका में पूरी तरह पारदर्शी और ईमानदार है। आरएसएस ने ‘स्वदेशी’ का राग अलापना छोड़ दिया है। मोदी के नेतृत्व में, जो कहते हैं भारत में पांच सौ बड़े शहर बना दिए जाएं तो सारी समस्याएं हल हो जाएंगी, नवउदारवाद कांग्रेसी राज से ज्यादा तेजी से चलेगा। ‘आप’ और उसका नेता सीधे कारपोरेट का उत्पाद हैं, इसलिए ज्यादा ईमानदारी से नवउदारवाद का काम करेंगे; अमेरिका को भ्रष्टाचार रहित नवउदारवाद का दान ये लोग ही दे सकते हैं - इस सच्चाई को छिपाना नहीं चाहिए।
केजरीवाल की ईमानदारी का बाजार भाव कुछ ज्यादा ही बढ़ा हुआ है। उनके गुरु अण्णा ने कहा कि आंदोलन के दौरान मिले धन का हिसाब नहीं दिया गया है तो केजरीवाल ने जवाब देने के बजाय कहा कि जीवन में उन्होंने ईमानदारी के अलावा कुछ नहीं कमाया है। नागरिक समाज यह भावना भावित उद्गार सुन कर भाव विह्वल हो गया और कल तक ईमानदारी और नैतिकता के प्रतीक अण्णा के खिलाफ केजरीवाल के साथ एकजुट हो गया। आंदोलन के दौरान जब सूचना आई कि केजरीवाल सरकारी खर्चे पर विदेश गए थे। लौटने के बाद उन्हें नियमतः तीन साल नौकरी करनी थी। वरना 9 लाख रुपया जमा कराना था। उन्होंने उन्हीं के शब्दों में ‘करोड़ों कमाने का मौका प्रदान करने वाली नौकरी’ और करोड़ों का चंदा दिलाने वाली एनजीओ ‘पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन’ की मार्फत ‘देशसेवा’ का काम पूरा करके सीधे राजनीति की मार्फत वह काम करने के लिए नौकरी से इस्तीफा दिया। लेकिन देय राशि नहीं लौटाई। आंदोलन के दौरान यह बात सामने आई तो नागरिक समाज को उसमें कांग्रेस का ‘हाथ’ नजर आ गया। उनके विभाग के साथियों ने पत्र लिख कर केजरीवाल की गलत और बचकाना बयानबाजी पर एतराज जताया। नागरिक समाज को शायद वह चिठ्ठी भी कांग्रेसी हाथ से लिखी नजर आई! ‘आप’ के तीन प्रमुख सदस्यों प्रशांत भूषण, मयंक गांधी, अंजलि दमनिया, पर संपत्ति संबंधी भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो जांच के लिए खुद पार्टी नेता ने ‘आंतरिक लोकपाल’ की नियुक्ति कर दी। शायद अंतरात्मा की आवाज पर! उस ‘स्वराजी’ जांच मेंं क्या निकला, आज तक पता नहीं चला है। ईमानदारों ने उन आरोपों को भी भ्रष्ट कांग्रेस की करतूत माना होगा। ‘आप’ से टूट कर बनी ‘बाप’ के कार्यकर्ता परचा निकाल कर अरविंद केजरीवाल के धोखों और बेईमानियों की ‘कहानी’ बताते घूमते हैं, लेकिन नागरिक समाज ने उधर कान देना मुनासिब नहीं समझा। ईमानदारों पर झूठे आरोप लगाने वाले असंतुष्ट तत्व कहां नहीं होते, जरूर उन्हें कांग्रेस ने उकसाया होगा, जैसे दिल्ली चुनाव के दौरान ‘आप’ नेताओं के धन के लेन-देन का स्टिंग आॅपरेशन करवा दिया!
दरअसल, मनमोहन सिंह के ये बच्चे यह सब अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। नवसाम्राज्यवाद के पुरोधा अमेरिकी प्रतिष्ठान की संस्थाओं से लेकर अप्रवासी भारतीयों और देश के कारपोरेट घरानों से धन लेने में उन्हें वाकई कोई नैतिक बाधा नहीं होती है। इस मामले में वे कानून को भी कुछ नहीं मानते हैं। नैतिकता और कानून को लेकर बैठेंगे तो देश का काम कैसे करेंगे? लोगों को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए कि वे अपने सौ काम छोड़ कर देश का काम करते हैं! ईमानदारी का अर्थ है नेता और सरकारें ईमानदारी से कारपोरेट का काम करें। ‘कारपोरेट ही सरकार हैं’, नवसाम्राज्यवाद के इस सूत्र को भारत और विदेशों में बसे मध्यवर्ग से पहले से ज्यादा व्यापक और पुख्ता स्वीकृति मिली है। इस पर कारपोरेट घरानों की भूमिका और खुशी स्वाभाविक है।
नागरिक समाज को ये बेईमानियां इसलिए बुरी नहीं लगतीं क्योंकि वह पूरा कैरियर यह करता रहा है। ऐसा नहीं करने वालों को वह पहले भी पागल करार देता था अब भी देता है। भारत माता की छाती पर जो भ्रष्टाचार का पहाड़ खड़ा हुआ है, वह इन्हीं बेईमानियों के सहारे खड़ा है। जो धन देता है वह अपना हित साधता है। अभी तक देश का यह कानून है कि चुनाव के लिए विदेशी धन नहीं लिया जा सकता। उस कानून में ऐसा प्रावधान नहीं है कि बाहर बसे भारतीयों या भारत में कारोबार करने वाली विदेशी कपनियों से धन लिया जा सकता है। इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने जनहित याचिका स्वीकार की। हमने खुद चुनाव आयोग को कांग्रेस, भाजपा और ‘आप’ को विदेशी स्रोत से मिले चुनावी चंदे की चुनाव के पूर्व जांच कराने का विस्तृत प्रतिवेदन दिया। नागरिक समाज या मीडिया ने उसका नोटिस लेना मुनासिब नहीं समझा। अलबत्ता गृह मंत्रालय ने जांच के आदेश जारी किए, जिसके बारे में अभी तक कोई जानकारी हासिल नहीं हुई है। बहरहाल, आगे काफी समय तक यह नागरिक समाज ‘आप’ बेईमानियों का ही नहीं, संविधान और कानून विरोधी कदमों का भी बचाव करेगा।   
हमारे एक मित्र ने हमें सलाह दी कि ‘आप’ ने सादगी से शासन चलाने की जो घोषणाएं की हैं, वे स्वागत योग्य हैं। कारपोरेट पूंजीवाद सादगी से चल सकता है, यह बड़ी मौलिक और रोचक कल्पना है! भारत में और भी ज्यादा, जहां पूंजीवाद में सामंतवाद नेहरू जी के जमाने से ही घुस कर बैठा हुआ है। चुनाव में घोषित 20 करोड़ रुपया खर्च करके दिल्ली में ‘आप’ की सरकार बनने जा रही है। शपथ ग्रहण समारोह के लिए रामलीला मैदान में इंतजाम किया जा रहा है। सारा अमला वहां लगेगा। इस कवायद में अतिरिक्त खर्चा होना ही है। यह एक बानगी है। देश में ऐसे कई नेता हुए हैं जिन्होंने नौटंकी के लिए नहीं, वास्तविकता में सादगी का निर्वाह किया। वे लोग एक छोटे राज्य में चुनाव के लिए 20 करोड़ रुपया बटोरने और खर्चने की बात सोच भी नहीं सकते थे। ‘आप’ ने शुचिता, ईमानदारी, नैतिकता की तरह सादगी को भी नया अर्थ दे दिया है!  
राजनीति की इस नई चाल से गरीबों के लिए संघर्ष करने की राजनीति खत्म होती चली जाएगी। कांग्रेस फिर उठ खड़ी होगी। भाजपा बढ़ती पर है ही। क्षेत्रीय पार्टियां भी आसानी से अपनी जमीन छोड़ने वाली नहीं हैं। जाति और क्षेत्र को आधार बना कर मजबूत हुईं पार्टियां भी हटने वाली नहीं हैं। क्योंकि ये सब कमोबेश नवउदारवाद की समर्थक हैं। तो नुकसान उन्हीं पार्टियों को पहुंचाने की कोशिश है जो नवउदारवाद विरोधी हैं। राजनीति धन और भीड़ इक्ठ्ठा करने से चलती, विचारधारा और संघर्ष से नहीं, यह संदेश इन लोगों ने दिया है। आजादी के संघर्ष के दौर से ही अनेक लोग और संगठन सामाजिक स्तर पर काम करने वाले रहे हैं। उन्हें दोहरा धक्का लगा है। एक तो लोग उन्हें शक की निगाह से देखेंगे कि ‘आप’ वाले भी पहले राजनीति को बुरा बताते थे, बल्कि सारी  समस्याओं की जड़ मानते थे, और फिर खुद राजनीति करने लगे। तो ये लोग भी अपनी राजनीतिक जमीन बना रहे हैं। दूसरा यह कि उनके काम को निरर्थक बताया जाएगा। ऐसे साथी चाहे तो गांधी से सीख सकते हैं जिन्होंने सक्रिय राजनीति के भीतर ही रचनात्मक काम की जगह निकाली थी।
गांधी की बात चली है तो चर्चा को थोड़ा और बढ़ाया जा सकता है। कपट का जाल में बड़ी कही जाने वाली विभूतियों को भी फांसा गया है। गांधी उनमें से एक हैं। गांधी को कांग्रेस ने अपने मतलब से आॅल परपज बनाया हुआ है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में गांधी को कारपोरेट हित में आॅल परपज बना दिया गया है। लोहिया और बाबा साहब को कारपोरेट के हमाम में खींचने की कोशिशें लगातार हो रही हैं। आपको याद होगा जब ‘गांधी’ कुछ ज्यादा हो गया तो कुछ लोगों ने अण्णा हजारे से डॉ. अंबेडकर का नाम लिवाया था। अब सुना है कुछ लोग केजरीवाल से उनका नाम लिवा रहे हैं। सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले लोगों को अपनी मान्यताओं का खुद जिम्मेदार होना चाहिए। किसी चिंतक के विचार आप नहीं मानते हैं तो झूठा नाम लेकर उनका अपमान करने का किसी को अधिकार नहीं है। खास कर तब जग आप आने को दूसरों को भ्रष्ट व अनैतिक और अपने को ईमानदार और नैतिक जता रहे हों। सभी जानते हैं केजरीवाल आरक्षण के विरोधी है। मंडल कमीशन की सिफारिशों के विरोध में भड़के आंदोलन से लेकर यूथ फॉर इक्वेलिटी तक उनकी भूमिका देखी जा सकती है। दिल्ली में सरकार बनाने के मामले में उनका बर्ताव संसदीय लोकतंत्र की अवहेलना करने वाला है। कारपोरेट सहित सांप्रदायिक तत्वों से सांठ-गांठ करने में कोई गुरेज नहीं है। तब बाबा साहब का नाम लेने की क्या जरूरत है?
अनुसूचित जाति@जनजाति संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ और जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष उदितराज ने दिल्ली में 16 दिसंबर 2013 को आयोजित रैली में केजरीवाल को आरक्षण पर अपना पक्ष रखने के लिए बुलावा दिया। एक विद्वान नेता के रूप में पहचान रखने वाले उदितराज पिछले करीब डेढ़ दशक से राजनीति में सक्रिय हैं। वे शुरू से ही नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के भी विरोधी रहे हैं, जिनका आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों के साथ विरोध है। यह हैरानी की बात है कि उदितराज को अभी तक अरविंद केजरीवाल का आरक्षण पर पक्ष पता नहीं है। यह आम जानकारी की बात है कि केजरीवाल और उनके सिपहसालार मनीष सिसोदिया आरक्षण विरोधी, दक्षिणपंथी और सवर्णवादी हैं। इसके प्रमाणस्वरूप इन दोनों लोगों के एनजीओ, इनके द्वारा बनाई ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की टीम और अब आम आदमी पार्टी के भागीदारों, विचारों और गतिविधियों को देखा जा सकता है। 2006 में केंद्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी, मेडिकल कॉलिज और प्रबंधन संस्थानों में पिछड़ा वर्ग के छात्रों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के सरकार के फैसले का विरोध करने के लिए बने संगठन ‘यूथ फॉर इक्वेलिटी’ के गठन, फंडिंग और नेतृत्व में इन दोनों की संलिप्तता जगजाहिर है। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने पर फैली आरक्षण विरोधी आग के दौरान उनका क्या पक्ष था, यह पता लगाया जाना चाहिए।
उदितराज कारपोरेट पूंजीवाद के चरित्र की गहरी परख रखते हैं। केजरीवाल और उनकी पार्टी कारपोरेट पूंजीवाद की सीधी उपज हैं और कारपोरेट पूंजीवाद में आरक्षण का सिद्धांत मान्य नहीं होता। केजरीवाल पिछड़ा वर्ग के ही नहीं, दलित वर्ग के आरक्षण के भी विरोधी हैं। उन्हें कारपोरेट घरानों और देश-विदेश के अगड़े सवर्णों का आर्थिक और राजनीतिक समर्थन इसीलिए मिला है। उस समर्थन के बल पर वे सत्ता के लालची कुछ दलितों और पिछड़ों को साथ लेकर कारपोरेट और सवर्ण हितों की राजनीति करना चाहते हैं। बाबा साहेब अंबेडकर के शब्दों में यह ‘राजनीतिक डाकाजनी’ है। रैली में केजरीवाल आए नहीं। आते तो हो सकता है एससी-एसटी के आरक्षण का समर्थन कर देते। लेकिन वह उनका राजनीतिक पैंतरा भर होता। सांप्रदायिक राजनीति के रास्ते एक हद तक चुनावी कामयाबी हासिल करके नरेंद्र मोदी भी अपने को आगे चल कर धर्मनिरपेक्ष नेता बता सकते हैं। अटलबिहारी वाजपेयी और अडवाणी पहले यह कर चुके हैं।
25 साल बाद निर्णायक रूप से कह सकते हैं कि नवउदारवाद महज आर्थिक परिघटना नहीं है। उसने आर्थिक संसाधनों और श्रम पर ही कब्जा नहीं जमाया है, राजनीति के साथ विचार-शक्ति और अनुसंधान-शक्ति को भी अपनी गिरफ्त में लिया है। बल्कि कह सकते हैं कि कुदरती जीवनी-शक्ति और मानवीय जिजीविषा पर भी उसका कब्जा होता जा रहा है। तीसरी दुनिया के संदर्भ में नवउदारीकरण का यह विशिष्ट नवसाम्राजयवादी पहलू है, जिसके चलते उसके मुकाबले में न राजनीतिक नेतृत्व खड़ा हो पाता है, न बौद्धिक। 
समाजवादियों की नई शादी
जिन समाजवादियों ने (वाया अन्ना-रामदेव) केजरीवाल की चूड़ियां पहनी हैं, यह उनका पहला वरण नहीं है। वे भ्रष्ट किंतु सफल समाजवादियों से लेकर ईमानदार किंतु असफल समाजवादियों तक, और कांग्रेस से लेकर भाजपा तक सत्तर घाटों का पानी पी चुके हैं। दिल्ली में हमने देखा है समाजवादी पार्टी के खाते की एक राज्यसभा सीट खाली होने पर खाली बैठे कई समाजवादी सक्रिय हो जाते हैं। सुनते है सामंती दौर में बूढ़ी होती रानियां इस डर से कि उनके रनिवास वृद्धा-आश्रम न बन जाएं, अपने कुल की युवतियों को रानी-सुख भोगने का लालच देकर राजा से शादी करा देती थीं। रनिवास पर कब्जा राजा पर कब्जा होता था। जिसका राजा पर कब्जा वही पटरानी। केजरीवाल की नजरों में चढ़े रहने के लिए बुढ़ाते समाजवादी एक तरफ दिन-रात मेहनत करके दिखाने में लगे हैं कि वे थके नहीं हैं; दूसरी तरफ समाजवादी युवाओं को केजरीवाल की ‘रानी’ बनाने का झांसा देकर फांसने में लगे हैं। उन्हें फुसलाते हैं उनके साथ आने पर सम्मान मिलेगा और सत्ता भी। अपना सम्मान गंवा चुके लोग दूसरों को सम्मान की गारंटी दे रहे हैं!
दिल्ली की जीत और सरकार बनने की संभावना के बाद कई समाजवादी वृद्धात्माएं युवाओं को पीछे धकेल कर आगे आने की धक्का-मुक्की कर रही हैं। कहते हैं आत्मा कभी बूढ़ी नहीं होती। अपने संघर्ष और अनुभव का वास्ता देते हैं कि केजरीवाल को समाजवादी बनाने में उनकी विशेषज्ञता सबसे ज्यादा काम आएगी। समाजवाद का कुछ ज्यादा ही दम भरने वाले एक पुराने समाजवादी ने बड़े नखरे के साथ केजरीवाल की चूड़ियां पहनी हैं। उन्हें सावधानी बरतनी चाहिए। बूढ़ी रानियों का नखरा ज्यादा नहीं सहा जाता है। हमें डर है सारे समाजवादी उधर टूट पड़े तो राशनिंग करनी पड़ेगी। कंप्युटर में लिस्ट बनेगी, टोपी देकर कहा जाएगा आप ‘वार रूम’ की उस खिड़की पर जाइए, अपना बायोडाटा लिखाइए, पहले आने वाले पहले पाएंगे, आते रहिए, टोपी उतारनी नहीं है, कुछ ज्यादा ले जाइए, घर वालों को भी पहनाइए! ये वही समाजवादी हैं जिनमें कोई कहता था ‘समाजवादियों पर किसी की सत्ता का रौब गालिब नहीं होता’ और कोई अपने को परम पवित्र समाजवादी मान कर दूसरों को हिकारत की नजर से देखते थे।
कारपोरेट पूंजीवाद की विचारधारा उत्तर आधुनिकता में इतिहास के अंत की काफी पहले घोषणा हो चुकी है। अब अकेला पूंजीवादी इतिहास ही नए-नए रूपों में नई देहरियां पार करता हुआ आगे बढ़ता है। एक साथी को ‘आप’ की जीत में इतिहास की ऐसी ही नई देहरी दिखाई दी है जिस पर खड़े होकर उन्होंने इस ‘नवेली’ राजनीति को ‘पालागन’ किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने नवेली के संभावनाओं से भरपूर गर्भ में भी झांक कर देख लिया है। बेहतर होता वे उस गर्भ पर भी नजर डाल लेते जिससे यह पार्टी पैदा हुई है। तब शायद उन्हें पता चलता कि नवउदारवाद की कोख से पैदा और उसीकी दाइयों द्वारा पोषित पार्टी में नवउदारवाद के खात्मे की नहीं, मजबूती की पूरी संभावनाएं निहित हैं।
एक अन्य समाजवादी साथी ने हमारे लेख ‘कारपोरेट राजनीति की नई बानगी’ पर हमें पत्र लिखा। उस पत्र में उन्होंने एक अजीब बात लिखी कि जिस पत्रिका (समयांतर, अक्तूबर 2013) में लेख छपा है, वह लोहियावादी नहीं है। हालांकि पत्र लेख का अंग्रेजी संस्करण (मेनस्ट्रीम, 9 नवंबर 2013) आने के बाद लिखा गया है। हम ‘मेनस्ट्रीम’ के संपादक सुमित चक्रवर्ती जी का लेख प्रकाशित करने के लिए हृदय से आभार व्यक्त करते हैं। वरना कुछ ‘बदनाम’ हिंदी पत्रिकाओं के अलावा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उस पार्टी, जिसके लिए वह आंदोलन खड़ा किया गया था, की समीक्षा करने वाला लेख कहीं भी छप नहीं सकता। जाहिर है, साथी ने हिंदी में लिखे लेख का नोटिस लेना मुनासिब नहीं समझा। उसी तरह जैसे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, उसकी टीम और अंत में बनाई गई राजनीतिक पार्टी के बारे में हिंदी में लिखे हमारे कई लेखों का नोटिस उन्होंने नहीं लिया जो ‘युवा संवाद’ में छपते रहे हैं। ‘युवा संवाद’ को लोहिया-विरोधी पत्रिका शायद ही कोई माने। नवउदारवादी दौर ने भारतीय भाषाओं को काफी पीछे धकेला है। ‘सामयिक वार्ता’ जैसी पत्रिका में एक साथी का लेख अंग्रेजी के पक्ष में छपा। उसका जवाब डॉ. मस्तराम कपूर ने दिया था। इस प्रकरण में हम आदरणीय साथी से इतना निवेदन करना चाहते हैं कि वे भले ‘लोकशक्ति’ पत्रिका में केजरीवाल के विचार-साक्षात्कार प्रकाशित करके उसे सच्ची लोहियावादी पत्रिका के रूप में प्रचारित-स्थापित करें; हमें लोहिया पर बहस करने लायक न समझें।
पत्र में यह भी लिखा था कि हम अगला लेख दिल्ली चुनाव के परिणाम आने के बाद लिखें। उन्हें इंतजार रहेगा। यानी जब पार्टी जीत कर आ जाएगी तब हम क्या कहेंगे? क्या कह पाएंगे? जीत सारी आलोचनाओं का मुंह बंद कर देती है। ‘आप’ की और भाजपा की जीत साझा है। कांग्रेस की हार कारपोरेट की हार नहीं है। मोदी ने इंग्लैंड और यूरोपियन यूनियन की हिमायत भी जीत ली है, कल को अमेरिका की हिमायत भी जीत ली जाएगी। तो क्या मोदी का समर्थन कर देना चाहिए? क्या कांग्रेस की जीत पर उसका विरोध बंद कर देना चाहिए था? 
किशन पटनायक ने ‘गुलाम दिमाग का छेद’ शीर्षक से एक बहुचर्चित लेख लिखा है जिसमें भारतीय बुद्धिजीवियों की दिमागी गुलामी का विश्लेषण है। वे होते तो देख पाते कि समाजवादियों में दिमाग की जगह खाली छेद ही रह गया है। लगातार पराजयों के बीच राजनीतिक सरोकार और सक्रियता बनाए रखने के लिए जिजीविषा की जरूरत होती है। लोहिया लगातार हारते रहे। गरीब उनकी जिजीविषा का स्रोत थे। वे कहते थे कि मेरे लिए इतना बहुत है कि इस देश के गरीब लोग मुझे अपना आदमी मानते हैं। आज गरीबों के साथ कपट करके कारपोरेट का कारोबार बढ़ाने वाले नेता और पार्टी के साथ समाजवादी जुट गए हैं।
प्रायः सभी आंदोलनों और विचारधारात्मक समूहों में समय-समय पर विचलन होता है। विचलन सत्ता की फिसलन न मानी जाए, इसके लिए नेता उसे सैद्धांतिक अथवा रणनीतिक जामा पहनाने की कोशिश करते हैं। भारत की राजनीति में ऐसे अनेक उदाहरण है जिनकी अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग परिप्रेक्ष्य से व्याख्या करते हुए अक्सर मिसाल दी जाती है। समाजवादी जो कर रहे हैं वह विचलन नहीं, विचारधारात्मक व्यभिचार है। एक समय के महान आंदोलन की अभी तक की सबसे नीच टेªजेडी!
सांप्रदायिकता का सवाल और मुसलमानों की भूमिका
नवउदारवादी व्यवस्था आगे बढ़ेगी तो सांप्रदायिकता भी आगे बढ़ेगी, उपनिवेशवादी दौर से यह सबक मिला हमें मिला है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की अपनी समीक्षा (‘भ्रष्टाचार विरोध ः विभ्रम और यथार्थ’ शीर्षक से राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य) में हमने यह विशेष जोर देकर और बार-बार कहा है कि नवउदारवाद, सांप्रदायिकता और सामाजिक न्याय-विरोध के घोल से तैयार भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सबसे पहले और सबसे ज्यादा आरएसएस को फला है। इस परिघटना पर पर्दा डालने की कोशिश केवल खांटी नवउदारवादी और मुख्यधारा मीडिया ही नहीं कर रहे हैं, खुद सेकुलर खेमे के बुद्धिजीवी भी कर रहे हैं। वे प्रचारित करने में लगे हैं कि इस आंदोलन के प्रणेता केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ने से रोक दिया है। धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों के इस प्रचार पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
मान लिया जाए कि जीतने वाला ही सिंकदर होता है और उसका गुणगान जैसे राजतंत्र में होता था, उसी तरह लोकतंत्र में भी किया जाना जरूरी है। चुनाव जीतना ही कसौटी है तो फिर भाजपा, जिसने तीन राज्यों में भ्रष्ट कांग्रेस को परास्त करके सरकार बनाई है और दिल्ली में सबसे ज्यादा सीटें लेकर पहले नंबर की पार्टी है, का स्वागत भी होना चाहिए। उसे भी दिल्ली की जनता ने ही यह मेंडेट दिया है। भाजपा के सांप्रदायिक होने का तर्क नहीं चलेगा। सांप्रदायिक होने के बावजूद वह उस पूरे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शामिल थी, जिसने नागरिक समाज, खास कर धर्मनिरपेक्षतावादियों को नया ‘देवता’ प्रदान किया है। केजरीवाल ने आज तक नरेंद्र मोदी, उनके द्वारा गुजरात में तैयार की गई हिंदुत्व की प्रयोगशाला, फरवरी 2002 में मुसलमानों का राज्य-प्रायोजित नरसंहार, उसे छिपाने के लिए किए गए षड़यंत्रों और बहुप्रचारित विकास के गुजरात मॉडल पर कभी कुछ नहीं बोला है। अपने मुंह से यह भी नहीं कहा है कि वह मोदी को रोकने निकले हैं।
कल तक सोनिया के सेकुलर सिपाही बने लोग यह सब कह रहे हैं। गुजरात का तीसरा विधासभा चुनाव मोदी ने आसानी से जीत लिया। नरसंहार के समय से ही बहुत-से लोग और संगठन वहां पीड़ितों को न्याय दिलाने की जद्दोजहद में लगे हैं। देश बचाने का दिन-रात ढोल पीटने वाले केजरीवाल और उनके कारिंदे वहां एक शब्द नहीं बोले। उनके गुरु अण्णा हजारे और उनकी खुद की बाबरी मस्जिद ध्वंस के संविधान और सभ्यता विरोधी कृत्य पर कोई टिप्पणी कम से कम हमें नहीं मिलती। जगजाहिर है कि दिल्ली में झुग्गी-झोंपड़ी वालों को छोड़ कर भाजपा और ‘आप’ का साझा वोट बैंक था। उन्होंने साफ कहा है कि केजरीवाल के ऊपर वे मोदी को वोट देंगे। तो केजरीवाल उनके ‘छोटे मोदी’ हैं। जिस प्रशांत भूषण पर धर्मििनरपेक्षतावादी दम भरते हैं, उन्होंने सबसे पहले कहा कि ‘आप’ को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से नहीं, भाजपा से मुद्दा आधारित समर्थन लेना चाहिए। मोदी का वीटो नहीं होता तो ‘आप’ के विधायक खुद ही भाजपा की सरकार बनवा देते। केजरीवाल को ‘छोटे गांधी’ का खिताब अता करने वाली किरण बेदी ने कहा है कि ‘आप’ और भाजपा की विचारधारा एक है। शांति भूषण और अडवाणी की जोड़ी पुरानी है जो ‘आप’ तक कायम है।
जैसे आधुनिकता और विज्ञान का साम्राज्यवादी पहलू होता है, वैसे ही साम्राज्यवादी आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी काम करता है। हिंदुत्ववादियों के साथ मोदी को केवल अंधविश्वासी, प्रतिक्रियावादी और राजनीतिक अवसरवादी तत्व ही बढ़ावा नहीं दे रहे हैं, आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का दावा करने वाले भी दे रहे हैं। थोड़ा गहराई से देखें तो केजरीवाल को मोदी की काट बताने वाले ये लोग मोदी को ही बढ़ावा दे रहे हैं।   मजेदारी यह है कि मोदी के मामले में इनकी आपस में लाइन तय नहीं हुई है। बात-बात में गांधी का नाम लेने वाले एक ‘आप’ समर्थक साथी को देश की विदेशों तक फैली युवा शक्ति की तरह ‘आप’ और केजरीवाल की मजबूती में नरेंद्र मोदी का रास्ता साफ होता नजर आता है। ‘आप’ के चुनाव प्रचार में शामिल होने वाले ये साथी खुल कर कहते हैं कि मोदी जैसा दमदार नेता और कोई नहीं है। मजबूरी की धर्मनिरपेक्षता के बोझ तले दबी उनकी विकास के गुजरात मॉडल की प्रशंसा अवसर पाकर फूट निकली है।
दूसरी ओर माक्र्सवादियों, समाजवादियों और नवउदारवादियों की लाइन है जो केजरीवाल को मोदी को रोकने वाला ‘अवतार’ बता रहे हैं। दरअसल, सांप्रदायिकता का साइड बिजनेस करके कोई दूसरा शख्स सोनिया@कांग्रेस की जगह लेता है तो उसका सेकुलर सिपाही बनना होगा। वरना देश के संसाधनों की बिकवाली से नागरिक समाज का जो चोखा धंधा चल रहा है, उसे अकेले संघी हड़प जाएंगे। आजकल बड़े शहरों के अधिकांश वाम, लोकतांत्रिक और सेकुलर बुद्धिजीवियों के लिए धर्मनिरपेक्षता का यही मायना रह गया है। हमने सोचा था कि कारपोरेट कपट में साथ देने वाले ये लोग कम से कम धर्मनिरपेक्षता जैसे संगीन  सवाल पर जनता के साथ धोखा नहीं करेंगे। लेकिन, मुक्तिबोध के काव्यनायक के शब्दों में ‘पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता’!
सवाल है कि मोदी क्या एक नाम भर है? आरएसएस की कट्टर धारा किसी न किसी नेता में मूर्तिमान होती है। मोदी उसके सबसे बड़े प्रतिनिधि बन कर उभरे हैं। लेकिन इस कट्टर धारा के सार पर ध्यान देने की जरूरत है। वह वही है जो अभी लघु रूप में केजरीवाल में है। केजरीवाल के गुरु अण्णा हजारे ने पहली प्रशंसा मोदी की की थी। उनके आंदोलन के सहयोगी रामदेव ने मोदी को अपने आश्रम में बुला कर हिंदुओं का नेता घोषित किया। हमने चुनाव आयोग को पत्र लिख कर निवेदन किया था कि यह धर्म का राजनीति के लिए सीधे इस्तेमाल का मामला है, लिहाजा, इसकी जांच हो और रामदेव और नरेंद्र मोदी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो। धर्मनिरपेक्षता के इन झंडाबरदारों में से किसी ने साथ नहीं दिया। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के एक महत्वपूर्ण सदस्य चेतन भगत आरएसएस के मोदी के पक्ष में किए गए फैसले से काफी पहले से देश-विदेश में उनके प्रचार में जुटे थे। पूरा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन आरएसएस के इंतजाम में हुआ। प्रशांत भूषण को उनके चेंबर में घुस कर पीटने वालों और अफजल गुरु का शव मांगने दिल्ली आई कश्मीर घाटी की महिलाओं की मांग के पक्ष में प्रेसवार्ता को नहीं होने देने वालों की देशभक्ति आरएसएस मार्का थी। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में जुटे ज्यादातर ‘आदर्शवादी’ युवा मोदी के भक्त हैं। आरएसएस केवल संघ की शाखाओं और कार्यालयों के रजिस्टरों में ही नहीं चलता। वह वर्गस्वार्थ में अंधे नागरिक समाज की रगों में भी चलता है। आपने देखा ही घुर वामपंथियों से लेकर जनांदोलनकारियों तक अण्णा-रामदेव के आंदोलन में कूद पड़े थे।
मजेदारी देखिए इंडिया अगेंस्ट करप्शन की टीम के अण्णा हजारे, किरण बेदी, रामदेव, श्रीश्री रविशंकर, अग्निवेश जैसे ‘तत्वों’ से केजरीवाल को अलग निकाल लिया है। बाकियों की निंदा तथा केजरीवाल की प्रशंसा की जा रही है। हमारा कहना रहा है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन, कांग्रेस-भाजपा समेत ये सब एक ही टीम है। अण्णा हजारे तब बुरा नहीं था, जब उसने जंतर-मंतर से पहली प्रशंसा नरेंद्र मोदी की थी। केजरीवाल से चंदे का हिसाब मांग लिया तो बुरे बन गए। यह निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य के लिए संकट का समय है। जो शख्स मोदी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलता, उसे मोदी की काट बताया जा रहा है। कुछ उत्साही धर्मनिरपेक्षतावादी केजरीवाल से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने का आह्वान तक कर रहे हैं।                         
इस कठिन दौर में मुस्लिम अवाम बड़ी भूमिका निभा सकता है। सांप्रदायिकता का जहर उस पर दोहरी मार करता है। दंगों में तबाही और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप नौजवानों में अतिवादी भटकाव। अंतर्राष्ट्रीय हालातों के चलते उनमें से कुछ आतंकवादी बन जाते हैं। सेकुलर खेमे की पार्टियां उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती हैं। उससे कुछ मुसलमानों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी जरूर मिलती है, लेकिन बाकी समाज का अलगाव बढ़ता जाता है। हाल में हुए मुजफ्फर नगर दंगों के बाद वहां चल रहे राहत शिविर देखे जा सकते हैं। अलगावग्रस्त मुसलमान मुह देखी बातें करते हैं और कुछ भी खुल कर स्पष्ट नहीं कह पाते। सच्चर समिति की रपट ने यह बताया है कि यह अलगाव शिक्षा, रोजगार और व्यापार में उनकी बहुत कम हिस्सेदारी के चलते है। वे बिना राष्ट्रीय धारा में शामिल किए गए राष्ट्रवादी होने का बोझ ढोते हैं।
शिक्षित और तरक्की पसंद मुसलमानों से भी उनका अलगाव रहता है। उस अलगाव का शिक्षित और तरक्की पसंदों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन अपने दीन और हुनर में जीने वाले मुसलमानों पर पड़ता है। छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक धार्मिक हस्तियों पर उनकी निर्भरता बढ़ जाती है। अपने को टिकाए रहने के लिए उन्हें दीन को कुछ ज्यादा ही पकड़ कर रहना होता है। कई बार कट्टर धारा वाले मुल्ला-मौलवी इसका बेजा फायदा उठाते हैं।
हम यह नहीं कहते कि सच्चर कमेटी की सिफारिशें अंतिम हैं और उन पर बहस नहीं होनी चाहिए। लेकिन उनकी रोशनी में देश की सबसे बड़ी अकलियत को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का काम जल्दी और तेजी से करना हर राजनीतिक पार्टी और सरकार का ध्येय होना चाहिए। जैसे हिंदू कट्टरता के कारण हैं, वैसे ही मुस्लिम कट्टरता के कारण हैं। उन कारणों को दूर करने की जरूरत है, न कि तौकीर रजा खान जैसी शख्सियतों से मुलाकात करके इस धारणा को पुष्ट करने की कि मुसलमानों का वोट लेने के लिए कट्टरता को सहलाना जरूरी है।
हमें एक आधुनिक, तर्क प्रधान, शिक्षित, समतापूर्ण और स्वावलंबी राष्ट्र बनना है, पिछले करीब तीन दशकों में यह लक्ष्य लगभग भुला ही दिया गया है। ऐसे हालात में रोज कुआं खोदा जाता है और रोज पानी पिया जाता है। कम से कम मुसलमानों को यह कवायद बंद कर देनी चाहिए। हर बार धर्मनिरपेक्षता का कोई न कोई दावेदार खड़ा हो जाता है और उसका वोट पक्का मान लेता है। बीजेपी को हराने की जिम्मेदारी अकेले मुसलमानों पर डाल दी गई है। उनका वोट लेकर नेता भले ही भाजपा के साथ मिल कर सरकार बना लें। हमने कहा है कि एक बार मुसलमान इस प्रवृत्ति के खिलाफ सत्याग्रह स्वरूप अपना वोट रोक लें। संभव हो तो उम्मीदवार भी न बनें।
इसके लिए बहुत काम करने की जरूरत होगी। सारे समाजी, धार्मिक और सियासी इदारे इस दिशा में काम करें। अलग-अलग पार्टियों के मुस्लिम नेता इससे जुड़ें। आधुनिक और प्रगतिशील सोच के साथ राष्ट्रीय स्तर पर यह कार्यक्रम चले। जहां भी संविधान के साथ छेड़छाड़ हुई है अथवा होती है, उसका सत्याग्रही प्रतिकार हो और पार्टियों को संवैधानिक शासन के लिए बाध्य किया जाए। मुसलमान, जैसा कि सच्चर कमेटी की रपट से सबको पता चल गया है, खुद में एक वंचित अवाम है। वह देश की बाकी वंचित अवाम के साथ मिल कर समाजवाद की दिशा में काम करे। लोहिया ने इसका सूत्र दिया है - दलित, आदिवासी, पिछड़े, महिलाएं और गरीब मुसलमान। लेकिन यह चुनावी गणित नहीं होना चाहिए। नवउदारवाद के लिए वही असली चुनौती होगी। नवउदारवादियों को आपस में निपटने दो। तब शायद इस देश का शासक वर्ग गंभीरता से सांप्रदायिकता की समस्या और उसे खत्म करने के उपायों पर गौर करेगा। कड़े कानून बनाने से सांप्रदायिकता नहीं रोकी जा सकती।
एक रास्ता और हो सकता है। नवउदारवाद के साथ सांप्रदायिकता नत्थी है और बढ़ती है। मुसलमान सेकुलर पार्टियों के पास जाना छोड़ दें। उन पार्टियों का साथ दें जो नवउदारवाद का मुकम्मल विरोध करती हैं और सेकुलर हैं। इससे उन पार्टियों को राजनीतिक जमीन मिलेगी जिसके चलते संविधान सम्मत सरकार चलाने का काम आगे बढ़ेगा। भाजपा कई राज्यों में सत्ता में रहती है और 6 साल केंद्र में भी सरकार का नेतृत्व कर चुकी है। सेकुलर के नाम पर मुसलमानों के वोट लेने वाली लगभग सभी पार्टियां भाजपा के साथ राज्यों और केंद्र में रह चुकी हैं। ‘टेक्टिकल वोटिंग’ का फार्मूला पुराना पड़ चुका है। मुसलमानों के समर्थन का इस्तेमाल पार्टियां धर्मनिरपेक्षता कायम करने के लिए नहीं, नवउदारवादी एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए करती हैं। मुसलमान वोटों को लूटने के लिए निकले नए ‘ईमानदारों’ के ‘पुराने बेईमान’ खाते निकाल कर देख लीजिए। ये अमेरिका-इजरायल की धुरी से बंधे हैं और राजनीति में उसी धुरी की मजबूती करेंगे।
राजनीतिक मानस के निर्माण की चुनौती 
देश के श्रम और संसाधनों की लूट के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली-पानी-सड़क जैसी नागरिक सुविधाओं के निजीकरण में तेजी आई है। ग्रामीण और कस्बाई भारत सहित बड़े नगरों में अधिकांश आबादी न्यूनतम नागरिक सुविधाओं के अभाव में जीवन यापन करने को अभिशप्त है। गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में फैलाया जा रहा पूंजीवादी विकास का मॉडल उन्हें गंदी बस्तियों में तब्दील कर रहा है। इस सबके बीच तरह-तरह के सौदर्यीकृत आलीशान भवन, होटल, रिजोर्ट, अस्पताल, स्कूल-कॉलेज, हवाई अड्डे, हाई वे, मैट्रो रेल, पार्क, स्टेडियम आदि बन रहे हैं। दिल्ली में स्थित विभिन्न राज्यों के भवन-सदन अपनी नई छटा में होटलों को मात करने वाले हैं। देश की संसद को भी नया बनाने का प्रस्ताव है। कल राष्ट्रपति भवन भी नया बनाया जाएगा। देश के समस्त संसाधन और श्रम इस विकास कार्य में खप रहे हैं। श्रम वंचितों का है, संसाधन प्रकृति के और मौज-मजा शासक वर्ग का। मजेदारी यह है कि इस पूंजीवादी विकास से तबाह जनता से ही विकास की पुकार कराई जाती है।
विकास का यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है।  दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही उसे रोका जा सकता है। राजनीतिक इच्छाशक्ति राजनीतिक मानस से ही पैदा हो सकती है। राजनीतिक मानस के निर्माण की चुनौती नई आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद से कठिन से कठिनतर होती गई है। एनजीओ आधारित जनांदेालनों ने न केवल अपने को अराजनीतिक रखने की जिद ठानी हुई है, राजनीति को बुरा बताने का भी बड़ा प्रचार किया है। उनके इस अड़ंगे से नवउदारवाद के विकल्प की राजनीति तो नहीं ही खड़ी हो पाती, मुख्यधारा राजनीति में जो नवउदारवाद विरोध की गुंजाइश होती है, वह भी ताकत नहीं पकड़ पाती। ये जनांदोलनकारी उल्टा सरकारों से संपर्क बना कर कुछ कानून बनाने की अपील करते हैं। विदेशी और कारपोरेट घरानों का धन लेने वाले एनजीओ आधारित जनांदोलनों का आधा बल सामने पड़ते ही सरकार के शरीर में चला जाता है। काफी जद्दोजहद के बाद नवउदारवाद से तबाह जनता की दिखावे की भलाई के कुछ कानून बन जाते हैं। लेकिन इसी बीच परमाणु करार, खुदरा में विदेशी निवेश, शिक्षा के कंपनीकरण, स्वास्थ्य समेत सभी नागरिक सुविधाओं के निजीकरण के कानून भी पास हो जाते हैं। इस तरह नवउदारवाद और उसकी समर्थक की राजनीति मजबूत होती चली जाती है और विरोध की राजनीति खड़ी ही नहीं हो पाती।
किशन पटनायक ने जनांदोलनों के राजनीतिकरण का सिद्धांत ही नहीं दिया, उस दिशा में सक्रिय प्रयास भी किए। 1995 में समाजवादी जन परिषद के गठन में समता संगठन के साथ इक्का-दुक्का जनांदोलनकारी समूह शामिल हुए। बाद में लगातार कोशिश की गई कि वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों का विरोध करने वाले ज्यादा से ज्यादा समूह जनपरिषद में शामिल होकर संघर्ष को राजनीतिक बनाएं। जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) को राजनीतिक बनाने के लिए किशन जी ने काफी प्रयास किया। ऐसा नहीं हो पाया और हालात बदतर होते चले गए। इसके दो प्रमुख कारण समझ में आते हैं। जनांदोलनकारियों की व्यक्तिवादिता और विदेशी फंडिंग। आज मेधा पाटकर ज्यादा जोर से नारा लगवाती हैं - ‘राजनीति धोखा है, धक्का मारो मौका है’। लेकिन केजरीवाल की राजनीति से उन्हें परहेज नहीं है।
कारपोरेट के पेट से पैदा पार्टी का रातों-रात तामझाम खड़ा हो गया है और उसके सााि भारत का नागरिक समाज भी। इस पार्टी ने स्थापना दी है कि राजनीतिक संघर्ष नहीं, सीधे चुनाव जीतने की स्ट्रेटेजी होनी चाहिए। इस राजनीति में किसी भी मोर्चे पर संघर्ष करने की जरूरत इसलिए नहीं है, क्योंकि सत्ता मिलने पर काम तो कारपोरेट का करना है। मोदी ने यह काम बखूबी कर दिखाया है। मोदी और केजरीवाल की राजनीति से अराजनीतिकरण की प्रक्रिया और तेज होगी। कारपोरेट और नौकरशाही हलकों में पिछले दिनों यह चर्चा चली चुकी है कि देश में नेताओं की जरूरत नहीं है। कंपनियों के सीईओ को सब तय करने की जिम्मेदारी सौंप देनी चाहिए। राजनीति का स्वरूप बदलने के साथ नेता की परिभाषा और छवि बदलना स्वाभाविक है। कुछ लोगों ने कहना शुरू भी कर दिया है कि मुकाबला केजरीवाल और नीलकरणी के बीच है।
अब रास्ता सीधे स्वतंत्रता और समाजवादी आंदोलन की विरासत और संविधान में प्रस्थापित समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के आधार पर राजनीतिक विकल्प बनाने की जरूरत है। अभी तक की राजनीति से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में प्रगतिशील-परिवर्तकारी पार्टियों के लिए लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना ही लक्ष्य हो सकता है। और, जैसा कि रविकिरण जैन कहते हैं, वह बिना सत्ता के विकेंद्रकरण के संभव ही नहीं है जिसका प्रावधान संविधान में ही है।
देश में गरीब रहेंगे तो उनके हितों को लेकर संघर्ष करने वाले कुछ लोग हमेशा बने रहेंगे। लेकिन नागरिक समाज उन्हें नेता नहीं मानेगा। कारपोरेट की गोद में बैठ कर भावनाओं के साथ खिलवाड़ करके मजमा जमाने वाले नेता माने जाते हैं। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर अपना पहला लेख हमने लोहिया के इस कथन से शुरू किया था ः ‘‘भारतीय समाज के पास अभी तक कोई राजनीतिक मानस नहीं है। जातियों, राजनैतिक परिवर्तनों से अक्षुण्ण जीवनयापन आदि का लंबा अतीत उस पर मजबूती से हावी है।’’ (राममनोहर लोहिया, ‘एंड पावर्टी’, 1950) अराजनीतिकरण की इस चुनौती का सामना करना ही होगा। गरीब हमेशा पिटते और सहते ही जाएंगे, यह ध्रुव सत्य नहीं है। वर्ग-स्वार्थ की प्रबलता में जो एका शासक वर्ग ने किया है, उससे सबक लेकर हो सकता है मेहनतकश वर्ग भी संगठित हो जाए और सत्ता पर अपना कब्जा जमा ले। किसान मजदूरों के बुद्धिजीवी बेटे, जिनके बारे में हमने एक ‘समय संवाद’ में किशन पटनायक के हवाले से बताया था, शासक वर्ग का साथ छोड़ कर अपने स्वाभाविक वर्ग के साथ आ जाएं तो उन्हें रोकने का माद्दा किसमें होगा?
26 दिसंबर 2013

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