Wednesday, July 31, 2013

नवउदारवाद के हमाम में - प्रेम सिंह

सोनिया के सलाहकारों की हकीकत 

‘‘सांप्रदायिकता का नंगा नाच जनभावना विरोधी है और उदारीकरण की नीतियां अर्थव्यवस्था की बरबादी हैं - ये दो सीख चुनाव नतीजों से उभर कर आई हैं और आगे के लिए चेतावनी का काम करेंगी। सचेत नागरिकों को देखना होगा कि राजग के काल में प्रचलित सामाजिक-आर्थिक नीतियों के स्थान पर नई नीतियां आ रही हैं या नहीं। आर्थिक नीति संबंधी सीख को मिटा देने का प्रयास मीडिया कर रहा है।’’ समाजवादी चिंतक किशन पटनायक

किशन जी का यह कथन 2004 के आम चुनाव में भाजपा नीत एनडीए की पराजय और कांग्रेस नीत यूपीए की जीत के बाद का है। इस कथन के कुछ ही दिनों बाद (27 सितंबर 2004 को) किशन जी हम लोगों के बीच नहीं रहे। वे ऐसे नेता और विचारक थे जिन्होंने नई आर्थिक नीतियों अथवा नवउदारवाद का सबसे पहले, सतत, सुचिंतित और मुकम्मल विरोध किया था। साथ ही उन्होंने उसका राजनीतिक व विचारधारात्मक विकल्प निर्मित करने का भी गहन प्रयास किया। किशन जी का कहना है कि राजनीति में उनकी कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। लेकिन वे अकेले ऐसे नेता व विचारक हैं जो आजादी के दौरान और प्राप्ति के बाद चले समाजवादी संघर्ष की चेतना और विचारधारा को नवउदारवाद के विकल्प में नई सोच, भाषा व रणनीति के साथ मजबूती से खड़ा करते हैं। बहुत ही मुश्किल दौर में उन्होंने देश के संविधान और समाजवाद को नए राजनीतिक विमर्शों के साथ जोड़े रखा।     
किशन पटनायक ने अपने उपर्युक्त कथन में इस बात पर जोर दिया है कि मीडिया चुनाव नतीजों से निकली आर्थिक नीतियों संबंधी सीख को मिटाने की कोशिश कर रहा है। जाहिर है, उनका सरोकार नवउदारीकरण के विरोध का ज्यादा है। क्योंकि जनभावना के विरुद्ध होने के चलते सांप्रदायिकता का नंगा नाच ज्यादा देर नहीं चल सकता। भारतीय और विश्व के इतिहास में यह देखा जा सकता है। जबकि नई आर्थिक नीतियां हमेशा के लिए लादी जा रही हैं@लादी जा सकती सकती हैं।  
इस कथन में एक और अर्थ पढ़ा जा सकता है। नवउदारवाद की मार से उसके विरुद्ध सन्नद्ध होने वाली जनता के प्रतिरोध का सरकारें कारपोरेट घरानों के साथ मिल कर कड़ाई से दमन करती हैं। पिछले बीस सालों से देश में यह दमन-चक्र चैतरफा चला हुआ है। इसके चलते अपने संवैधानिक हकों की मांग करने वाले अनेक लोगों को मौत से लेकर कारावास तक का दंड झेलना पड़ रहा है। नवउदारवाद के विरोधियों के लिए देश पुलिस राज्य में तब्दील हो गया। लिहाजा, सचेत नागरिको का पहले से ही कमजोर हालत में पड़ी जनता और जनभावना के साथ जुटना जरूरी है। हालांकि उसकी सार्थकता तभी है, जब सचेत नागरिक खुद भी नवउदारवाद का मुकम्मल विरोध करें। 
नवउदारवादी सत्ताप्रतिष्ठान मेहनतकश जनता को पराया और गुलाम मानता है। उसके संवैधानिक अधिकारों को वह नहीं मानता; क्योंकि वह संविधान को ही नहीं मानता है। उसे केवल ‘रूल’ करने के लिए संविधान चाहिए। ‘भारत उदय’ अथवा ‘भारत निर्माण’ के लिए उसके पास विश्व बैंक, आईएमएफ, डब्ल्यूटीओ, कारपोरेट घरानों और अमेरिका का ‘आदेशपत्र’ मौजूद है। किशन जी की समझ थी कि नवउदारवाद के खिलाफ जो जनभावना बन रही है, दमन और असहायता के चलते उसकी उठान गिरनी नहीं चाहिए। मूल प्रतिरोधी शक्ति वे उसे ही मानते थे। लेकिन सचेत नागरिकों की ईमानदार एकजुटता  की भी जरूरत देखते थे, ताकि एक दिन जनभावना की शक्ति नवउदारवाद को परास्त कर सके। यह उनका निर्णायक राजनीतिक ध्येय था।
आप समझ सकते हैं उनके कथन में देश के सचेत नागरिकों की भूमिका के बारे में एक भोली आशा झलकती है कि वे करीब 15 साल से जारी नवउदारवादी नीतियों को अब और आगे नहीं चलने देंगे। जाहिर है, सचेत नागरिकों, जिन्हें प्रचलित शब्दावली में नागरिक समाज एक्टिविस्ट कहा जाता है, ने उनकी बात पर कान नहीं दिया। भारत का नागरिक समाज, नागरिक समाज एक्टिविस्ट जिसके अगुआ हैं, उलटे नई आर्थिक नीतियों के तहत संसाधनों और मेहनतकश जनता के श्रम की खुली लूट से मिलने वाले लाभ को ज्यादा से ज्यादा अपने लिए लूटने की नीयत से परिचालित है।   
सचेत नागरिक कई रूपों में कई तरह से नवउदारवाद के संचालन में मददगार होते हैं। नवउदारवादी व्यवस्था चलती रहे, इसके लिए कई सचेत लोग सरकार के सलाहकार बन कर बिचैलिए की भूमिका निभाते हैं। सोनिया गांधी द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय सलाहकार समिति इस मामले में मशहूर है। उसमें स्थान पाने के लिए नागरिक समाज एक्टिविस्ट आतुर रहते हैं और आपस में झगड़ते भी हैं। नवउदारवाद के कुछ झंडाबरदार कहते हैं कि सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति के कतिपय सदस्यों को छोड़ कर देश में नवउदारवाद पर लगभग सर्वानुमति है। उनकी यह गलत धारणा है। सोनिया के सलाहाकार नवउदारवाद के कहीं ज्यादा काम के सिद्ध होते हैं। इस हकीकत को स्वीकार करके ही नवउदारवाद विरोध और समाजवाद की स्थापना का संघर्ष आगे बढ़ाया जा सकता है।  
सरकार के साथ होकर भी ये सचेत नागरिक जनता के साथ होने का भ्रम पालते और फैलाते हैं। आप अपनी पीठ ठोंकते हैं। कहते हैं जब से उन्होंने एनजीओ वर्क शुरू किया है तभी से लोग जागरूक हुए हैं और सवाल पूछते हैं। सोनिया की सलाहकार समिति में रह कर या बिना रहे वे जो योजनाएं और कानून बनवाते हैं, वही जनता का असली संघर्ष है। उनकी नजर में जनता के नाम पर राजनीति करने वालों से ज्यादा बुरा कोई नहीं होता। वे चाहते हैं लोग राजनीतिक पार्टी नहीं, एनजीओ बनाए। जबकि सरकारी सलाहकार समितियां हों या एनजीओ, नवउदारवाद का अभिन्न हिस्सा हैं। जिसे जनता का काम बताया जाता है वह अंदरखाने सरकार का काम होता है। नवउदारवादी सरकार की नीतियों का विरोध करके कोई सरकार की समितियों में रह ही नहीं सकता। यूपीए सरकार ने पूंजीवाद की पींगें बढ़ाने में ऐसे लोगों का बखूबी इस्तेमाल किया है। 
उदाहरण के लिए महात्मा गांधी राट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) को लिया जा सकता है। हमने शुरू से इस योजना का विरोध किया है। इस तरह की योजनाएं नवउदारवाद के सेफ्टी वाल्व के रूप में काम करती हैं। नवउदारवाद के कुछ झंडाबरदार कहते हैं कि सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति के कतिपय सदस्यों को छोड़ कर देश में नवउदारवाद पर लगभग सर्वानुमति है। उनकी यह गलत धारणा है। सोनिया के सलाहाकार नवउदारवाद के कहीं ज्यादा काम के सिद्ध होते हैं। वे अपने कांग्रेसी आकाओं के साथ सोनिया गांधी, मनमेाहन सिंह और राहुल गांधी की ढाल बन कर खड़े होते हैं। वे उन्हीं के आदमी हैं। (इस हकीकत को स्वीकार करके ही नवउदारवाद विरोध और समाजवाद की स्थापना का संघर्ष आगे बढ़ाया जा सकता है।)  
आइए इस चर्चा को थोड़ा आगे बढ़ाते हैं। यह अकारण नहीं है ऐसी योजनाओं का सुझाव देने वाले या तो पहले से एनजीओ वाले होते हैं या योजना बनने के बाद उसके कार्यान्वयन आदि में संलग्न होते हैं। ऐसी योजनाओं के समर्थन में वे कहते हैं कि गरीबों को कुछ तो मिला है। जबकि ऐसा कह कर वे अमीरों के सब कुछ हथियाने के ‘अधिकार’ की हिमायत कर रहे होते हैं। यह सब करने से नवउदारवादी व्यवस्था और उसके लाभों में उनका अपना हिस्सा सुरक्षित बना रहता है। समितियों की बैठकों में उपस्थित होने के लिए उन्हें मिलने वाले हवाई जहाज और टैक्सी के किराये, दैनिक भत्ते, आवास व भोजन के खर्च का हिसाब अलग, एक व्यक्ति का नाश्ता ही मनरेगा में मिलने वाली राशि की कीमत से ज्यादा का होता है। 
मामला केवल अपनी भूमिका और हित सुरक्षित करने तक ही सीमित नहीं है। इस तरह की योजनाओं की सरसरी पड़ताल से उनका समता और लोकतंत्र विरोधी चरित्र स्पष्ट हो जाता है। ऐसी योजनाओं से, एक तरफ, विषमता को व्यवस्थित रूप दिया जाता है और, दूसरी तरफ, जनता को सामंती दौर की तरह प्रजा बनाए रखने की व्यवस्था की जाती है। कहना न होगा कि विषमता कायम करने में समाजवाद का खुला उल्लंघन है और जनता को (नागरिक नहीं) प्रजा बनाए रखने में लोकतंत्र का। 
समाजवाद और लोकतंत्र संविधान के तीन मूलभूत मूल्यों में से दो हैं। कांग्रेस के साथ जुटने वाले सचेत नागरिक सांप्रदायिक शक्तियों के बरक्स धर्मनिरपेक्षता की रक्षा की बात करते वक्त संविधान का वास्ता देते हैं। खास कर तब जब सांप्रदायिक शक्तियां अपना नंगा नाच दिखाती हैं। लेकिन संविधान के दो मूल्यों को गंवा कर तीसरे को बचाने की दुहाई देना पाखंड बन जाता है। यही कारण है कि वे धर्मनिरपेक्षता की नहीं, कांग्रेस की रक्षा करते नजर आते हैं। ऐसे पाखंड से समाज में सांप्रदायिकता और बढ़ती है। कहने का आशय है कि नवउदारवाद के पक्ष में संविधान का उल्लंघन केवल सरकारें ही नहीं करतीं, उनके सलाहकार सचेत नागरिक भी करते हैं।   
किशन पटनायक की आशा के विपरीत सचेत नागरिकों ने 2004 के चुनाव के नतीजों से उदारीकरण को बचाने की सीख ली और कांग्रेस को 2009 में फिर से जिता कर ले आए। कांग्रेसियों के साथ संगत करते हुए उन्होंने चुनाव के बाद ही यह ‘सिद्ध’ करना शुरू कर दिया था कि 2004 का परिणाम नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ जनादेश नहीं, ‘त्याग की मूर्ति’ सोनिया गांधी के करिश्मे का कमाल है। हालांकि 2004 के आम चुनाव के बाद होने वाले मध्यावधि व विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पराजित होती रही, लेकिन सचेत नागरिक सोनिया गांधी के करिश्मे का मिथक गढ़ते रहे। इतना ही नहीं, सोनिया गांधी के साथ राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाने का ‘करिश्माई’ कारनामा करने में वे आज तक जुटे हैं। 
पिछले दो सालों में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के तहत नागरिक समाज और उसके कुछ खास एक्टिवस्टिों ने कांग्रेस पर हमला बोला। लेकिन उस हमले में नवउदारवाद के खिलाफ कुछ नहीं कहा गया। जो भारतीय और वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संस्थाएं और कारपोरेट घराने कांग्रेस (और भाजपा) के साथ हैं, उन्होंने भ्रष्टाचार हटाने और विदेशों से काला धन वापस लाने का हल्ला मचाने वालों का भी पूरा साथ दिया। यह अकारण नहीं है कि ‘भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की राख से पैदा’ होने वाली आम आदमी पार्टी का भ्रष्टाचार और काले धन को लेकर कारपोरेट पूंजीवाद के अभिन्न अंग एनजीओ और कारपोरेट घरानों से कोई सवाल या शिकायत नहीं हैं। गोया भ्रष्टाचार और काला धन ऐसी ताली है जो एक ही हाथ से बजती हो!    ष्   

नवउदारवाद का नंगा नाच

2002 में गुजरात में सांप्रदायिकता का नंगा नाच चला। गुजरात में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सांप्रदायिकता की लहर पर सवार होकर चुनाव जीते। सांप्रदायिकता की लहर को गुजराती गौरव की भावना में ढाल कर वे उसके अगले दो चुनाव जीत चुके हैं। लेकिन 2004 में राष्ट्रीय स्तर पर जो जनादेश आया उसमें भाजपा सत्ता से बाहर हो गई। जैसा कि किशन जी ने कहा है, वह जनादेश नई आर्थिक नीतियों के भी खिलाफ था। लेकिन सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों की सरपरस्ती में उस जनादेश के विरुद्ध पिछले दस सालों से नवउदारवाद का नंगा नाच देश में चल रहा है। एक तरफ किसानों, आदिवासियों, मजदूरों, कारीगरों, दुकानदारों, छोटे व्यापारियों व कर्मचारियों से लेकर बेरोजगार नौजवानों तक नवउदारवाद की ध्वंसलीला और दूसरी तरफ देश के संसाधनों की लूट से मालामाल कारपोरेट हाउस, नेता, नौकरशाह और मध्यवर्ग की छोटी-बड़ी सोने की लंकाएं नवउदारवाद के नाच का स्वयं प्रमाण हैं। शिक्षा जैसा गंभीर और संवेदनशील विषय भी नवउदारवाद की भेंट चढ़ चुका है। हर शहर में कुकुरमुत्तों की तरह उगे प्राईवेट कॉलिज, और विश्वविद्यालय देखे जा सकते हैं। विदेशी विश्वविद्यालय आने वाले हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के विश्वविद्यालयों को नकलची लोग नष्ट करने में लगे हैं।
शिक्षा में नवउदारवादी पैठ की एक बानगी देखी जा सकती है। पिछले दिनों हम सड़क के रास्ते पंजाब के जालंधर शहर जा रहे थे। शहर के पास लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के गेट पर एक बड़ा चमकदार होर्डिंग देखा, जिस पर देश के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का चित्र उकेरा गया था और साथ में उनका संदेश लिखा गया था। सवारी में होने के कारण हम राष्ट्रपति महोदय का संदेश नहीं पढ़ पाए। यूनिवर्सिटी के गेट और मुख्य सड़क के पास लगा वह बोर्ड देख कर हमारे नागरिक बोध को अलबत्ता गहरा धक्का लगा। देश के राष्ट्रपति एक प्राईवेट यूनिवर्सिटी का खुलेआम विज्ञापन कर रहे हैं! शहर जाने पर पता चला कि एक बड़े हलवाई ने 2005 में वह यूनिवर्सिटी बनाई है। राष्ट्रपति महोदय उस यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में उपाधियां बांटने आए थे। 
श्री प्रणब मुखर्जी जब से राष्ट्रपति बने हैं शिक्षा की मात्रा के बजाय गुणवत्ता बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं। इस संदर्भ में वे बार-बार विदेशी विश्वविद्यालयों का हवाला देते हैं। लेकिन उच्च शिक्षा की लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी सरीखी दुकानों में कौन-सी गुणवत्ता उन्हें दिखाई देती है कि वे उनके विज्ञापन तक के लिए अपना इस्तेमाल होने दे रहे हैं? हमारे संवैधानिक प्रमुख की यह कैसी भूमिका है? आजकल हर प्राईवेट यूनिवर्सिटी का मालिक समारोह के बहाने राष्ट्रपति को बुलाने की जुगत में लगा रहता है। स्थानीय और केंद्रीय नेताओं व मंत्रियों को तो बुलाया ही जाता है। इसके लिए पूरा लॉबिंग तंत्र विकसित हो गया है। जल्दी ही जो विदेशी विश्वविद्यालय आने वाले हैं, उनके समारोहों में तो राष्ट्रपति महोदय जाएंगे ही। देशभक्त लोग हमें माफ करें। ऐसे राष्ट्राध्यक्ष को लेकर हमारे भीतर आदर का भाव नहीं रह पाता। 
आपको याद होगा गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ (1957) को लेकर विवाद हुआ था कि मजबूर तवायफ के नृत्य पर नाचने वाले एक शख्स में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की छवि प्रक्ष्ेपित की गई है। उस फिल्म में साहिर लुधियानवी का गीत ‘जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं’ भी नेहरू के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। नेहरू-प्रेमियों ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। बताते हैं नेहरू जी ने खुद फिल्म देखी और प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया था। यह सही है कि उस दृश्य में नेहरू की छवि आई थी। फिल्म की संरचना में उसका गहन प्रभाव पड़ता है। वहां व्यक्ति नेहरू का नहीं, नेता@प्रधानमंत्री नेहरू से फिल्मकार का आशय था। 
ध्यान दें, उसी दौर में ‘अंधेरे में’ कविता लिखी गई जो हमारे अंतर्बाह्य यथार्थ की बुरी और भयानक खबरें लेकर आती है। अगर ‘अंधेरे में’ कविता को चाक्षुस माध्यम में प्रस्तुत किया जाए तो फिल्म बनाने वाला उस दौर के बड़े नेताओं की झलक दिखा सकता है। ‘प्यासा’ और ‘अंधेरे में’ कविता में प्रस्तुत किया गया यथार्थ अंधेरे के आवरण में लिपटा है। लेकिन नवउदारवाद के हमाम में कुछ भी पोशीदा नहीं रहा है। राष्ट्राध्यक्ष के चित्र और संदेश शिक्षा को मुनाफे का सौदा बनाने वाली सरकार और मुनाफा कमाने वाले शिक्षा के व्यापारियों के विज्ञापन में इस्तेमाल हो रहे हैं। ‘अंधेरे में’ कविता में कहीं आग लगने और कहीं गोली चलने का जिक्र है। अब ऐसी खबरें आम हो गई हैं। शिक्षा संस्थानों तक में बाऊंसर और पुलिस बल तैनात कर दिए गए हैं। कोई छात्र, कर्मचारी, शिक्षक अगर जरा भी शिक्षा के बाजारीकरण का विरोध करता है तो बाऊंसर और पुलिस वाले उन पर टूट पड़ते हैं। देश की राजधानी में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय में इस तरह की घटनाएं अक्सर होती हैं।

बच्चों के भोजन में जहर

हाल में बिहार के छपरा जिले में धर्मसती गंदमान स्कूल में विषाक्त भोजन खाने से हुई 23 बच्चों की दर्दनाक मौत पर काफी चिंता व्यक्त की गई। लाशों पर भी राजनीति की जाती है, सो वह बच्चों की लाशों पर भी की गई। मामले की जांच हुई और स्कूल के प्रिसिपल को दोषी ठहरा कर गिरफ्तार कर लिया गया है। मध्यान्ह भोजन योजना को सुधारने और सुचारू रूप से चलाने की बाबत अलग-अलग कोनों से कई सुझाव दिए गए। लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि देश के नौनिहाल घर से मनपसंद पौष्टिक नाश्ता करके और दोपहर का खाना लेकर स्कूल जाएं। उसी तरह जैसे नागरिक समाज के बच्चे जाते हैं। एक उम्र तक खाने और मस्ताने की छूट देश के सभी बच्चों को होनी चाहिए। 
हम मध्यान्ह भोजन योजना के भी शुरू से खिलाफ रहे हैं। बच्चे स्कूल शिक्षा हासिल करने के लिए जाने चाहिए, भोजन करने के लिए नहीं। अगर भूख है, कुपोषण है, बच्चे स्कूल नहंी जाते हैं, उनमें सामाजिक सामरस्य बढ़ाना है, तो इसका इलाज स्कूलों में कच्चा-पक्का घटिया भोजन देना नहीं, उनके समग्र शारीरिक-मानसिक विकास के लिए समतामूलक सामजिक-आर्थिक व्यवस्था कायम करना है। 12 लाख स्कूलों में 11 करोड़ बच्चे इस योजना के तहत दोपहर का खाना पाते हैं। पहली से पांचवी कक्षा तक के बच्चों को प्रति भोजन 100 ग्राम खाद्यान्न और 6 से 8 कक्षा तक के बच्चों को 150 ग्राम खाद्यान्न प्रतिभोजन दिया जाता है। यूपीए प्रथम के साझा न्यूनतम कार्यक्रम के तहत शुरू हुई इस योजना को दस साल हो गए हैं। लेकिन बच्चों की भूख और कुपोषण की समस्या में कमी नहीं आई है। सरकारी आंकड़ों से ही इस सच्चाई की पुष्टि होती है। 
यह योजना सुप्रीम कोर्ट के 28 नवंबर 2001 के ऐतिहासिक बताए गए निर्देश पर लागू की गई थी जो उसने पीयूसीएल राजस्थान की एक याचिका पर दिया था। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश उसकी बच्चों की भूख और स्वास्थ्य के प्रति चिंता को दर्शाता है। उस समाज में यह यह बड़ी अच्छी बात है जहां बच्चों पर सबसे कम ध्यान दिया जाता हो। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को सबसे पहले यह देखना चाहिए कि सरकारें संविधान के नीति निर्देशक तत्वों का अनुपालन कर रही हैं या नहीं। यह सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्र भी है और फर्ज भी। अगर सरकारें संविधान के नीति निर्देशों का अनुपालन करती होतीं तो इस निर्देश की जरूरत नहीं पड़ती। सुप्रीम कोर्ट को यह पता ही होगा कि उसके निर्देश के पालन से भूख और कुपोषण की गंभीर समस्या स्थायी रूप से कभी भी दूर नहीं हो पाएगी। 
इस मामले में भी सचेत नागरिक कहेंगे कि भूखे बच्चों को कुछ तो मिल रहा है; कोर्ट के निर्देश के दबाव में सरकारें कुछ तो गरीब बच्चों का भला कर रही हैं। मनरेगा के समर्थन में दिए जाने वाले तर्क से यह अलग नहीं है। कुछ लोग कह सकते हैं कि कतिपय विकसित देशों में भी कहीं-कहीं बच्चों को स्कूलों में भोजन दिया जाता है। यह तर्क भी सही नहीं है। विकसित देशों में बच्चों के पेट की भूख और कुपोषण मिटाने अथवा उन्हें स्कूल आने का लालच देने के लिए भोजन नहीं दिया जाता। भारत में भी ऐसे कुछ स्कूलों में बच्चों को भोजन दिया जाता है जहां अमीरों के बच्चे पढ़ते हैं। 
जिस नवउदारवादी व्यवस्था को देश के नेता, बुद्धिजीवी और नागरिक समाज एक्टिविस्ट एकजुटता से चला रहे हैं, उसके तहत बच्चों के बीच भी विभाजन और विषमता की गहरी खाइयां खोद दी गई हैं। डॉ. लोहिया का प्रस्ताव है कि दो नागरिकों के बीच की आय@आमदनी का फर्क 10 गुना से ज्यादा नहीं होना चाहिए। अगर हमारा नागरिक समाज बच्चों के प्रति जिम्मेदार और संवेदनशील होता तो कम से कम बच्चों के बीच का अंतर न्यूनतम रखता। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश भी बच्चों के बीच समानता कायम करने के मकसद से नहीं, भूखे और कुपोषित बच्चों के प्रति दया भावना से प्रेरित है। जिस देश में कई करोड़ बच्चे कृपा पर पलें, उस देश के नेता और नौजवान महाशक्ति होने या बनने का दावा करते हों तो उसे बेशर्मी ही कहा जा सकता है।      
विभाजन और विषमता से यह सुनिश्चित होता है कि देश का वर्तमान और भविष्य उन्हीं बच्चाों का रहेगा जो भूखे ओर कुपोषित बच्चों की कीमत पर जरूरत से कई गुना ज्यादा खाते हैं। अगर हम अपने बच्चों को उनकी जरूरत और पसंद का खाना सही जगह और सही समय पर नहीं दे सकते तो इस देश को बंद कर देना चाहिए। ऐसे देश को चलाने की कोई जरूरत नहीं है जहां करोड़ों बच्चे भूख, कुपोषण और इसके चलते होने वाली बीमारियों से मर जाते हों; करोड़ों अशिक्षित रह जाते हों; करोड़ों बालमजदूर बनने के लिए अभिशप्त हों; करोड़ों अपराधी बन जाते हों; करोड़ों का यौनशोषण होता हो और लाखों हर साल गुम हो जाते हों।       

सांप्रदायिकता के हमसफर

2004 की चुनावी जीत के बाद सोनिया के सलाहकारों और सेकुलर सिपाहियों ने उन्हें त्याग के अलावा धर्मनिरपेक्षता की देवी भी घोषित कर दिया था; जिनके रहते कभी सांप्रदायिकता सिर नहीं उठाएगी। लेकिन सामने जो मंजर है, उसमें सांप्रदायिकता का नंगा नाच फिर से शुरू हो सकता है। बल्कि उसे शुरू ही मानना चाहिए। सांप्रदायिकता के नंगे नाच का ‘नायक’ मीडिया और नागरिक समाज का भी नायक है। याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के विरोध में किए गए अपने पहले धरने में सबसे पहले नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की थी। उनका प्रशंसा-प्रमाणपत्र पाकर आरएसएस और मोदी उनके दिल से शुक्रगुजार हुए थे। आजकल ‘आप’ पार्टी के जो एसएमएस ‘आम लोगों’ को आ रहे हैं, उनमें ‘अन्ना हजारे के साथी अरविंद केजरीवाल’ लिखा आता है। रामदेव ने हरिद्वार में मोदी के सम्मान में संत समागम करके खुद ही कह दिया दिया कि प्रधानमंत्री के लिए उनकी पहली और अंतिम पसंद नरेंद्र मोदी हैं। अरविंद केजरीवाल इन दोनों महानुभावों का ‘इस्तेमाल’ करके@करते हुए नेता बनने चले हैं। मोदी के उभार से त्रस्त अन्ना के समर्थक धर्मनिरपेक्षतावादियों ने उनसे कहलवाया है कि उन्होंने नरेंद्र मोदी को क्लिीन चिट नहीं दी है। गोया नरेंद्र मोदी अन्ना हजारे जैसों की क्लिीन चिट का भूखा बैठा है। दो साल पहले के नरेंद्र मोदी को अन्ना की प्रशंसा की जरूरत थी। अब उसका वार्तालाप अमेरिका और यूरोप से चल रहा है। अमेरिका ने कह दिया हे वे ‘अमेरिकी अभय’ के आवेदन करें। कहने का आशय है कि सांप्रदायिकता के नंगे नाच की अगली प्रस्तुति में इन सभी की संलिप्तता होगी। 
नरेंद्र मोदी के उभार पर धर्मनिरपेक्षतावादी परेशान हैं। कहते हैं मोदी का मिथक गढ़ा जा रहा है। अरे भाई अगर सोनिया गांधी को त्याग की देवी, मनमोहन सिंह को ईमानदारी का देवता और राहुल गांधी को होनहार बिरवान बताने के मिथक जनता पर थोपे जा सकते हैं तो मोदी का मिथक क्यों नहीं चलेगा? कहते हैं मोदी बिना समझे-बूझे हर मुद्दे पर बोलते-बबकारते हैं। मोदी की बोलती से शिकायत करने वालों को सोचना चाहिए कि वाचालता को जंतर-मंतर और रामलीला मैदान से प्रमाणपत्र मिल चुका है। प्रत्येक नागरिक समाज एक्टिविस्ट और अपने फन का माहिर शख्स वहां जाकर जबान साफ करने के लिए उतावला था। वहां थोक में हुई अनर्गल वाचालता को इलैकट्रॉनिक मीडिया ने अपना ‘स्वर’ मिला कर कई गुणा कर दिया। वरना बबकारते तो बाल ठाकरे टाइप नेता भी रहते थे। 
हम यह कहना चाहते हैं कि मोदी इस आंदोलन की राह से होकर राष्ट्रीय सीन पर आया है। उसे रोकने की ताकत सोनिया के सलाहकारों और सेकुलर सिपाहियों में नहीं है। आज की कांग्रेस में भी नहीं है। रोकने से हमारा आशय मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने से नहीं है। न ही वे प्रधानमंत्री बन सकते हैं। ‘हिंदू राष्ट्रवादी’, ‘कुत्ते का पप्पी’, ‘धर्मनिरपेक्षता का बुरका’ जैसी जुमलेबाजी के बावजूद गुजरात के बाहर सांसद का चुनाव जीतना अभी उनके बूते का नहीं है। हमारा आशय मोदी मार्का सांप्रदायिकता को रोकने से है। बुरका वाली बात को ही ले लीजिए। 
जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आते जाएंगे कांग्रेस और भाजपा के बीच  तू-तू-मैं-मैं और तेज होती जाएगी। शुरूआत को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि पहले से ही काफी नीचे गिर चुका राजनीतिक बहस का स्तर और नीचे गिर सकता है। यह भी अभी से देखा जा सकता है कि दोनों पार्टियों में कारपोरेट पूंजीवाद के समर्थन पर कोई मतभेद नहीं है। अमेरिका के सामने दोनों नतमस्तक हैं। झगड़ा वोटों का है। भाजपा को लगता है कि कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के आच्छद्द में मुसलमानों के वोट मार ले जाती है। भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बना कर कांग्रेस को कड़ी चुनौती दे दी है। मोदी के मुकाबले कांग्रेस की तरफ से लफ्फाजी की कमान कौन सम्हालेगा, अभी तय नहीं हुआ है। वहां अभी फुटकर व्यवस्था चल रही है। कभी कोई, कभी कोई नेता-प्रवक्ता नरेंद्र मोदी के हमलों का जवाब देते हैं। कांग्रेस को शायद लगता है कि ऐसे शख्स का मिल-जुल कर ही मुकाबला किया जा सकता है। नरेंद्र मोदी गजब के लफ्फाज हैं। उनके लिए ईजाद किया गया ‘फेंकू’ शब्द उनकी ‘प्रतिभा’ के सामने कमजोर ठहरता है। आशा करनी चाहिए कि लफ्फाजी का दौर-दौरा जैसे परवान चढ़ेगा, उनके कद का कोई सही शब्द किसी कोने से निकल कर आएगा। 
संघ में सांप्रदायिक तो हर नेता होता है। लेकिन उनमें सांप्रदायिक फासीवादी कोई-कोई हो पाता है। निकट अतीत में लालकृष्ण अडवाणी के बाद नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक फासीवादी के रूप मेंं स्थापित हुए हैं। वैसे भाजपा की धार्मिक शाखा विहिप और उसकी युवा शाखा बजरंग दल के अखड़े में छोटे-छोटे कई सांप्रदायिक फासीवादी जोर करते देखे जा सकते हैं। बड़ा सांप्रदायिक फासीवादी होने के लिए कारनामा भी बड़ा करना होता है। जैसे अडवाणी ने ‘राममंदिर आंदोलन’ चला कर एक 500 साल पुरानी मस्जिद का ध्वंस कराया और उसके आगे-पीछे भड़के दंगों में हजारों निर्दोष लोगों को मरवाया। उसी तरह नरेंद्र मोदी ने ‘गुजरात कांड’ कराया। अडवाणी आज भी राममंदिर आंदोलन की याद करके भावुक हो उठते हैं। उन्हें वह आजादी के बाद का सबसे बड़ा आंदोलन लगता है। उसी तरह नरेंद्र मोदी गुजरात कांड को अपने सीने पर तमगे-सा पहन कर घूमते हैं। 
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए यह सब करना जरूरी होता है। गुजरात कांड में नरेंद्र मोदी का एक-एक कारनामा अपने पक्ष में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नीयत से परिचालित रहा है। संभावना यही है कि आरएसएस ऐन मौके पर अडवाणी को ही आगे करे। लेकिन नरेंद्र मोदी के कारनामों से वह चकित और काफी खुश हुआ है। जैसे हिटलर के लाखों यहूदियों के सफाए पर गुरुजी (गोलवलकर) स्तंभित और आनंदित हुए थे! बतौर सांप्रदायिक फासीवादी नरेंद्र मोदी की प्रतिभा का कायल होने के चलते ही उसने अडवाणी के विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ाने का फैसला लिया है। आरएसएस को लग गया है कि नवउदारवाद के हमाम में हिंदू राष्ट्र का सपना अभूतपूर्व रूप से जवान हो उठा है। अन्यथा वे युवक जो खाकी निक्कर खुद पहनना तो दूर, घर में वरिष्ठों के पहनने पर नाक-भौं सिकोड़ते हों, मोदी के दीवाने बने हुए हैं। 
धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़ कर बच निकलने वाली कांग्रेस को सांप्रदायिक फासीवादी नरेंद्र मोदी ने ठिकाने लगाने की मुहिम छेड़ दी है। उनका पिछले दिनों बहुचर्चित पूना का भाषण उसी मुहिम का हिस्सा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने सलाह दी है कि सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की बहस चला कर भाजपा कांग्रेस के जाल में न फंसे। लेकिन उल्टे कांग्रेस भाजपा के जाल में फंसी नजर आती है। वह खुद कह रही है कि कांग्रेस पोशीदा तौर पर सांप्रदायिक करती है, जो भाजपा की खुली सांप्रदायिकता से बेहतर है। इसे नरेंद्र मोदी का कमाल कहना चाहिए कि उसने कांग्रेस से सच उगलवा लिया।    
नरेंद्र मोदी के बयान पर यह कह कर कि ‘नंगी सांप्रदायिकता से धर्मनिरपेक्षता का बुर्का बेहतर है’, कांग्रेस ने खुद ही अपने को भाजपा की बी टीम स्वीकार कर लिया है। कांग्रेस का बयान बताता है कि धर्मनिरपेक्षता उसके लिए एक आवरण है। यानी भाजपा खुले तौर पर सांप्रदायिकता करती है और कांग्रेस उस पर धर्मनिरपेक्षता का परदा डाले रखती है। इस स्वीकारोक्ति का सीधा अर्थ है कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य में सच्ची आस्था नहीं है। नेहरूयुगीन कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टी थी। लेकिन उनके बाद की कांग्रेस ने सत्ता के लिए कई बार सांप्रदायिक कार्ड खेला है। उसीका नतीजा है कि आज कांग्रेस के नेता खुद कह रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता कांग्रेस के लिए महज आवरण है। वे इस आवरण के चलते कांग्रेस को भाजपा से बेहतर बता रहे हैं। 
आरएसएस एक सांप्रदायिक संगठन है और भाजपा उसका राजनीतिक मंच है। भाजपा की विचारधारा और नेता आरएसएस से आते हैं। लिहाजा, सांप्रदायिकता भाजपा की राजनीति का मूल आधार है। नरेंद्र मोदी ने ‘धर्मनिरपेक्षता का बुर्का’ कह कर धर्मनिरपेक्ष संविधान के प्रति गहरी हिकारत व्यक्त की है। साथ ही अल्पसंख्यक मुसलमानों के प्रति भी, क्योंकि बुर्का मुस्लिम महिलाओं का लिबास है। कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता क आवरण को ही पर्याप्त बता रही है और उस नाते भाजपा से बेहतर होने का दावा कर रही है। बहस में पड़ी ये दोनों पार्टियां यह भूल रही हैं कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का एक मूलभूत मूल्य है और देश की प्रत्येक राजनीतिक पार्टी की उसमें संपूर्ण निष्ठा अनिवार्य है। देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों की निष्ठा धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य में नहीं है, यह समाज और भारतीय राष्ट्र के लिए गंभीर समस्या है। लेकिन न मीडिया, न सुप्रीम कोर्ट, न निर्वाचन आयोग और न ही देश के जागरूक नागरिक इस संवैधानिक विचलन का संज्ञान ले रहे हैं। कुछ महीने पहले नरेंद्र मोदी द्वारा हरिद्वार स्थित बाबा रामदेव के आश्रम में धर्म की राजनीति करने पर हमने सोशलिस्ट पार्टी की ओर निर्वाचन आयोग को एक पत्र लिख कर उसका संज्ञान लेने का निवेदन किया था। लेकिन आज तक उस पत्र का कोई जवाब निर्वाचन आयोग ने नहीं दिया है।
सांप्रदायिकता और नवउदारवाद के कीटाणु एक-दूसरे पर पलते हैं। आपने देखा ही कि सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की बहस के बीच कई क्षेत्रों में एफडीआई का प्रवेश हो गया है। खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश के पहले से हुए निर्णय में ‘कड़े’ प्रावधानों को खत्म कर दिया गया है। नागरिक समाज से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक किसी ने  कहीं से कोई विरोध नहीं किया। यह नवउदारवाद (कांग्रेस) और सांप्रदायिकता (भाजपा) और उलटे (वाइसवरसा) दोनों की जीत है। मुख्यधारा राजनीति और नागरिक समाज का समवेत नवउदारवाद का नाच आगे जारी रहना है। उसमें बीच-बीच में सांप्रदायिकता भी अपना प्रदर्शन करती है तो उनमें किसी को ऐतराज नहीं है।     
कहां किशन पटनायक को आशा थी कि जनादेश की रोशनी में सचेत नागरिक नवउदारवादी शक्तियों को पीछे धकेलते, कहां जनादेश को पीछे धकेल कर नवउदारवाद का वर्चस्व कायम हो चुका है। सांप्रदायिकता के नंगे नाच को जनता रोक देगी, लेकिन पिछले दस सालों से जारी नवउदारवाद के नंगे नाच का वह क्या करे? किशन जी होते तो बुद्धिजीवियों की तरह सचेत नागरिकों से भी निराश होकर राजनीतिक कार्यकर्ताओं को कसते कि वे अपनी भूमिका ज्यादा गहराई और मुस्तैदी से निभाएं।


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