Thursday, January 3, 2013

मुअनजोदड़ो-अतीत के पार झांकने की सार्थक कोशिश


(ओम थानवी की पुस्तक मुअनजोदड़ो हिन्दी में यात्रा संस्मरणों के खजाने को और समृद्ध करती है । पूरी किताब बेहद ही रोचक और जानकारियों से लबरेज है। हिन्दुस्तान की सभ्यता और संस्कति में रुचि रखने वालों के लिए ये एक जरूरी क़िताब है। )

मैं इतिहास का विद्यार्थी कभी नहीं रहा। उसे मैंने अकादेमिक रूप से तभी तक पढ़ा जब तक पढ़ना जरूरी था। लेकिन साहित्य संस्कृति और समाज को जानने समझने की ललक हमेशा बनी रही।  कोर्स से इतर किताबों से चिपकने की आदत कब लगी याद नहीं। बचपन में किताबें कम उपलब्ध थी, लेकिन जो भी हाथ लगती बिना पढ़े नहीं चूकता। यूं तो मनपसंद लेखकों का कुछ भी पढ़ना अच्छा लगता है। लेकिन फनी·ार नाथ रेणु के रिपोर्ताज और यात्रा संस्मरण की बात ही कुछ और है। रेणु जी के रिपोर्ताजों ने लेखनी के नए आयाम गढ़े थे, पर  गुजरते वक्त के साथ हिन्दी में इस विद्या की बेहद कमी महसूस हुई। जिन्होंने काम किया वे पाठकों के साथ संबंध नहीं सृजित कर पाए।
यात्रा वृत्तांत जब तक पाठकों के साथ लय स्थापित ना कर पाए उसके साथ सफर नहीं किया जा सकता, फिर चाहे वो कितनी भी सार्थक विषय पर क्यों ना लिखी गई हो। हमारे देश में इतिहास को इस नजरिए से देखने - लिखने का चलन बहुत ही कम है। 'मुअनजोदड़ो' एक ऐसी क़िताब है जिसके जरिए ओम थानवी ने बेहद ही सरल शब्दों में सिंधु घाटी सभ्यता के अनसुलझे सवालों का जवाब ढूंढने की कोशिश की है। मुअनजोदड़ो के टीले की खुदाई के बाद हम वि·ा सभ्यता की पहली पंक्ति में आ खड़े हुए।  इस शहर की खोज ने हमारे अतित को प्राचीनत्तम बताया, और यहां खुदाई में मिली वस्तुओं ने हमें संस्कृति और कला के लिहाज से दुनिया में सर्वोच्च स्थान दिया।
असल मुअनजोदड़े को देखकर लिखना और पढ़ना दोनों एक संवेदनशील एहसास है। ये शहर की बसावट को देखकर और अतित के सन्नाटे को सुनकर लिखने वाला काम भर नहीं था। इसे इतिहास की किताबों के स्थापित मान्यताओं से सेंसर भी किया जाना था। लिहाजा कई जगहों पर थानवी जी कठिनाई में नज़र आते हैं । इस किताब में मुअनजोदड़ों शहर का विवरण पढ़ते पढ़ते मन भींग गया। एक बारगी तो ये मन से निकल गया कि अब वहां कोई नहीं रहता। बिल्कुल ऐसा लगता है, जैसे किसी आबादी वाले शहर की बात हो रही है। शायद मुअनजोदड़ो की वो सभ्यता आज भी हर संवेदनशील हिन्दुस्तानी के दिल में जीवित है। वो शहर थमा नहीं है , अपनी गरिमामय उपस्थिति से आज भी हमारा और हमारे पूरखों का मान बढ़ा रहा है। उस शहर के सन्नाटे को सुना जा सकता है। रसोईघर की दीवार से टिककर बैठा जा सकता है। और आंगन पार कर कमरे में दाखिल हुआ जा सकता है। ये किताब मन को झकझोरती है। किताब खरीदने में देरी हो गई इसे पहले ही पढ़नी चाहिए थी। लेकिन जब पढ़ने बैठा तो एक सांस में पढ़ गया। जब पूरी किताब खत्म की तो लगा कि मुअनजोदड़ो को इतिहास की बोझिल किताबों से निकालने की कोशिश में ओम थानवी पूरी तरह सफल रहे। उन्होंने अतित की खिड़की से झांक कर देखा और उसे कागज पर उकेरा।  नतीजा एक पढ़ने लायक जरूरी  किताब हाथ में आ गई।

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