Friday, March 23, 2012

लोहिया मेरी नज़र में


जिस समय के साक्षी हम हैं वो विचारधाराओं के अतिक्रमण का या यूं कहें कि दरकने का वक्त है। खुद को ग़रीबों का स्वघोषित रहनुमा बताने वाले वामपंथी सत्ता के लिए हर बलि देने की होड़ में लगे हैं । गांधी नाम को पेटेंट कराकर आजादी की लड़ाई का इनाम मांगती कांग्रेस तो नेहरू से मनमोहन तक के सफर में बाजार की कठपुतली बनकर रह गई। बाजार के नाव पर सवार मनमोहन सिंह जब भी अपने शासनकाल में मुटाए कुछ उद्योगपतियों और बाजारवादियों की सूची दिखाने लगते हैं तो कोई न कोई सरकारिया आयोग सरकार का मुंह चिढ़ाने लगती है। फिर चाहे वो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट हो या तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट। अब बची सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और स्वदेशी का भजन गाने वाली भाजपा, तो फिलहाल पार्टी की पूरी ताकत, बाबरी विध्वंस की त्रास्दी, गुजरात दंगों , फर्जी मुठभेड़ों और अपने तमाम कारनामों को मनमोहन के महंगाई छाप साबुन से धोने में जुटी है। कट्टरवाद और बाजार के चोली-दामन के साथ ने शायद हिन्दुस्तान के लोकतंत्र से विपक्ष की भूमिका ही ग़ायब कर दी है। अब तो ग़रीबों के हक़ की सशस्त्र लड़ाई लड़ने वाले नक्सल आंदोलनकारी भी संदेह में घिरने लगे है। ऐसे वौचारिक तंगी के दौर में जब युवाओं का एक बड़ा तबका निराशा के गर्त में गिरता जा रहा है, तो लोहिया जी आते हैं, और उनकी याद कोई संयोग नहीं है, बल्कि दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे और बेरोजगारों के इस शाइनिंग राष्ट्र की मजबूरी है। डॉ राममनोहर लोहिया ने जिन चुनौतियों से सालों पहले आगाह किया था, इतने दिनों बाद उन्हीं के नज़रों से समाधान नज़र आता है।
आज की सियासत की सबसे बड़ी समस्या पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का घोर अभाव और राजनीतिक संगठनों में आई गिरावट है। अभी के दौर में कोई भी नेता संसदीय भागीदारी की कसौटियों पर खरा उतरने में सक्षम नहीं है। बेहतर सांगठनिक क्षमता तो अब बीते दिनों की बात हो गई है। लेकिन डॉ राम मनोहर लोहिया संसदीय राजनीति और सांगठनिक क्षमता के अगाध सिंह थे। संसदीय भागीदारी शुरू करने से पहले ही उन्होंने सियासत में अपनी जगह मुकम्मल कर ली थी। तभी तो 13 अगस्त 1963 को जब उत्तर प्रदेश की फर्रूखाबाद लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर डॉ लोहिया लोकसभा पहुंचे , तो उनके स्वागत में पूरा सदन उठ खड़ा हुआ। आज जब पूरा विपक्ष भी सरकार के आगे कमतर साबित होता है, उस जमाने में अकेले लोहिया जी का नाम ही सत्ता विरोधी संगठन बन गया था। भारतीय समाज में व्याप्त असमानता की गहरी खाई को पाटने के लिए समता और संपन्नता के मकसद के साथ उन्होंने समाजवाद का झंडा उस वक्त उठाया था जब कांग्रेस में धुर समाजवादी खेमा हावी था। जो किसी भी नये सिद्धान्त को स्वीकार करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। लेकिन जन्मजात विद्रोही लोहिया जी ने कांग्रेस के यथास्थितिवादी नेतृत्व को चुनौती दी। लिहाजा कांग्रेसियों को डॉ लोहिया की विचारधारा स्वीकार करनी पड़ी। इसे डॉ राम मनोहर लोहिया के व्यापक सांगठनिक क्षमता की एक छोटी सी मिसाल समझी जा सकती है। उन्होंने 1952 में एशियाई देशों के समाजवादियों का पहला सम्मेलन आयोजित किया गया जिस तरह की पहल फिर आगे नहीं की जा सकी।
पिछले कई सालों से हमारे यहां गठबंधन सरकारें चल रही हैं, जो भारतीय राजनीति को डॉ लोहिया का एक अनुपम उपहार है। परिवर्तन की राजनीति का मकसद लेकर अलग अलग विचारधाराओं वाली शक्तियों में मुद्दों के आधार पर एका कराकर देश में गठबंधन की नींव लोहिया जी ने ही डाली। अगर ऐसा नहीं कराया होता तो आज के दौर में शायद सरकार भी नहीं बन पाती। जब लोहिया जी ने गठबंधन की बात शुरू की थी तो बड़े से बड़े लोहियावादियों को भी उनकी बात पर एतबार नहीं हुआ था लेकिन उनकी बात तब सही साबित हुई जब 1967 के चुनावों के बाद अलग-अलग राज्यों में ग़ैर कांग्रेसी सरकारें बनी। उनका जुमला वोट , फावड़ा और जेल आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था। क्योंकि जमीन से जुड़े रहकर सत्ता के प्रतिकार की जरूरत आज लोहिया जी के जमाने से कहीं ज्यादा है। सिविल नाफरमानी तो दुनिया भर के लोकतंत्र का सबसे मजबूत कवच है ही। अगर आम लोगों को इसकी ताकत समझ में आ जाएगी तो एक झटके में दुनिया की सारी तानाशाही ताकतें चकनाचूर हो जाएंगी। आज देश पर चुनी हुई सरकारें मनमानी फैसले थोपती हैं। सत्ता में आने के बाद सरकारें ऐसा व्यवहार करने लगती हैं मानो चुनाव जीतने के बाद बहस बांझ हो जाती है। लेकिन डॉ लोहिया की बात...ज़िंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती.. पर अमल लाना शुरू कर दिया जाए, तो चुनी हुई सरकारों का सारा गुरूर काफूर हो जाएगा। लोहिया जी का साफ कहना था कि देश पर अगर कोई सरकार शासन करेगी तो उसे हर पल अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराना होगा।
डॉ. लोहिया सामाजिक समता और राष्ट्रप्रेम के ऐसे प्रचारक थे जो समाज में व्याप्त रुढ़ियों को तोड़ने के लिए आजीवन संघर्षरत रहे। लोहिया जी राजनीतिज्ञ , दार्शनिक और संस्कृति चितंक भी थे। उनका मानना था कि वि·ा क्रांति स्थानीयता के रथ पर ही आएगी..और असली समस्या तो देशी बनाम विदेशी की है। यहीं नहीं डॉ लोहिया पूंजीवाद के प्रसार.. ग़रीबी.. महंगाई.. हिंसा.. वर्णव्यवस्था..रंगभेद और पर्यावरण पर भी एक समान चिंतित थे। उनकी व्यापकता का कोई सानी नहीं था। वे समता और संपन्नता के सच्चे प्रवर्तक थे। राजनीति में इतनी गहरी पैठ रखने के बावजूद लोहिया जी की राजनीति महत्वाकांक्षा बिल्कुल नहीं थी..। और न ही वे राष्ट्र की सीमाओं में बंधकर ही चिंतन करते थे..। कई बार उनके संघर्षों का दूरगामी असर दिखता था। डॉ लोहिया ने अगर अमेरिका के एक रेस्टोरेंट में अ·ोत लोगों के प्रवेश के लिए लड़ाई नहीं लड़ी होती .. तो शायद आज दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क का राष्ट्रपति एक अ·ोत नहीं होता। यहीं नहीं वे पर्यावरण के भी सच्चे हितैषी थे। 1950 में ही जब पूरी दुनिया पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कुम्भकर्णी नींद में थी..तो लोहिया जी ने हिमालय बचाओ सम्मेलन आयोजित किया। उनका निर्णय आने वाले कल की परिस्थितियों के हिसाब से होता था। वे भारत की गुलामी और विभाजन से सबसे अधिक आहत थे। राजनीति को अल्पकालीन धर्म मानने वाले लोहिया खुद में तो नास्तिक रहे..लेकिन जब देश के लोगों को कुछ समझाया तो धर्मग्रंथो से प्रेरणा लेकर ही समझाया। राम की मर्यादा ..कृष्ण की पूर्णता और शिव की व्यापकता का उदाहरण रखकर रिुायों से सावित्री की बजाए द्रोपदी का आदर्श रखने की वकालत एक धुर विद्रोही ही कर सकता है। जबकि उन्हें मालूम था कि सीता और सावित्री का आवरण भारतीय समाज से उतारना कोई आसान काम नहीं है।
लोहिया जी अकेले ऐसे राजनेता थे जो उत्पादन से लेकर बाजार तक..धर्म से लेकर धर्मनिरपेक्षता तक..सत्ता से लेकर सिविल नाफरमानी तक..और क्षेत्रीय भाषाओं से लेकर अंग्रेजी हटाओ तक सक्रिय थे। कुल मिलाकर गांधी और माक्र्स तक की कमियां गिनाने वाले डॉ लोहिया गांधी के विचारों की अगली कड़ी थे।

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