Wednesday, December 22, 2010

एक चिनगारी और।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ये कविता कभी लोहिया जी के न रहने पर छाए घोर अंधकार और निराशा के वातावरण को देखते हुए...उम्मीद के नए नारे के साथ लिखी थी। ठीक वही कविता आज भी प्रासंगिक है...जब सुरेन्द्र मोहन हमारे बीच नहीं हैं....

लो , और तेज हो गया
उनका
रोजगार

जो
कहते आ रहे हैं

पैसे
लेकर उतार देंगे पार।


बर्फ
में पड़ी गीली लकड़ियां

अपना
तिल-तिल जला कर

वह
गरमाता रहा

और
जब आग पकड़ने ही वाली थी

खत्म हो गया उसका दौर
मेरे देशवासियों

एक
चिनगारी और।


उसने थूका था इस
सड़ी
गली व्यवस्था पर

उलट
कर दिखा दिया था

कालीनों
के नीचे छिपा टूटा हुआ फर्श,

पहचानता था वह उन्हें
जो
रंगे चुने कूड़े के कनस्तरों से

सभी
के बीच खड़े रहते थे।


एक
चिनगारी और

जो
खाक कर दे

दुर्नीति को,ढोंगी व्यवस्था को
कायर
गति को

मूढ़
मति को

जो
मिटा दे दैन्य,शोक,व्याधि,

मेरे देशवासियों

यही
है उसकी समाधि।

मैं
साधारण...

मुझे
नहीं दीखती कोई राह और,

जिधर वह गया है
उधर उसके नाम पर
एक
चिनगारी और।

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