सोशलिस्ट
पार्टी (इंडिया)
के प्रधान
महासचिव व प्रवक्ता और दिल्ली
विश्वविद्यालय में शिक्षक
डॉ प्रेम सिंह फरवरी 2015
से बुल्गारिया
की सोफिया यूनिवर्सिटी के
सेंटर ऑफ इस्टर्न लेंग्वेज
एंड कल्चर के अंतर्गत भारत
विद्या विभाग में विजिटिंग
प्रोफेसर के तौर पर अपनी सेवाएं
दे रहे हैं। डॉ सिंह की समाजवादी
विचारक, नेता
और राजनीतिक विश्लेषक के
तौर पर विशिष्ट पहचान है।
उन्होंने पिछले तीन दशकों में कायम हुए
नवउदारवादी-सांप्रदायिक
गठजोड की सटीक पहचान,
समीक्षा और
सक्रिय विरोध किया है। डॉ सिंह
की पहचान इस तौर पर भी होती है
कि उन्होंने अन्ना आंदोलन,
अरविंद केजरीवाल
गैंग, आम
आदमी पार्टी के सियासी इरादों
का शुरू में ही खुलासा कर दिया
था। इसके चलते उन्हें राजनीतिक
भविष्यवाणी कर्ता कहा जाने
लगा है। वे इसी 30 सितंबर
को बुल्गारिया से वापस वतन
लौट रहे हैं। क़रीब डेढ़ साल
तक देश से बाहर रहते हुए भी वे
देश की सियासत पर पैनी नजर
रखते रहे और और समय-समय
पर राजनीतिक टिप्पणी लिखते
रहे। डॉ प्रेम सिंह से ई मेल
और फोन के जरिए टीवी पत्रकार राजेश कुमार ने ऑनलाइन साक्षात्कार लिया।
- आप करीब डेढ साल से यूरोप में रह रहे हैं। वहां पूंजीवाद बनाम समाजवाद की बहस अब किस रूप में होती है? डॉ लोहिया अंतरराष्ट्रीय समाजवादी एका की बात करते थे, तब वो नहीं हो पाया। आज के दौर में आप इसकी क्या संभावना देखते हैं?
प्रेम सिंह- आम तौर पर यूरोप में अब यह बहस
नहीं है। क्योंकि यूरोप कुल
मिला कर अमेरिका के पीछे चलता
है। लिहाजा, यूरोप
का लोकतांत्रिक समाजवाद
पूंजीवाद का विकल्प नहीं
है। इसीलिए लोहिया ने पहले
तीसरी दुनिया के समाजवाद की
बात की।
पूंजीवाद
के दुष्परिणामों पर चिंता
करने वाले लोग और समूह यूरोप
में हैं लेकिन वह विरोध
विचारधारात्मक यानी राजनीतिक
नहीं है। पूंजीवादी उपभोक्तावाद
से अलग विकास के वैकल्पिक मॉडल
की ठोस विचारणा नहीं है। लगभग
हर देश में सोशलिस्ट पार्टियां
हैं जो डेमोक्रेटिक सोशलिज्म
के तहत कायम की गई थीं और जिनका
सोलिस्ट इंटरनेशल से संबंध
था। उनमें कई सीधे या गठबंधन
में सत्ता में भी हैं। पूर्व
कम्युनिस्ट ब्लॉक के देशों
में ज्यादातर पार्टियों ने
अपने को सोशलिस्ट पार्टी
में रूपांतरित कर लिया है।
उदाहरण के लिए बल्गारियन
कम्युनिस्ट पार्टी ही नाम
बदल कर बल्गारियन सोशलिस्ट
पार्टी है। यूरोप के सभी देशों
की सोशलिस्ट पार्टियों के
मंच पार्टी ऑफ यूरोपियन
सोशलिस्ट्स (पीईएस)
का यूरोपियन
कौंसिल में नेतृत्व बल्गारिया
के पूर्व प्रधानमंत्री सेरगी
स्तानिशेव करते हैं। रूस और
कम्युनिस्ट ब्लॉक के देशों
में कम्युनिस्ट पार्टियों
के नेता अपनी नई पार्टियां
बना कर राजनीति कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए रूस के राष्ट्रपति
पुतिन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट
पार्टी के एक महत्वपूर्ण
पूर्व नेता रहे हैं। यूरोक
की ये सभी पार्टियां वैश्विक
पूंजीवादी आर्थिक संस्थाओं
- विश्व
बैंक, आईएमएफ,
विश्व व्यापार
संगठन, विश्व
आर्थिक फोरम - की
आर्थिक नीतियों को मानतीं
हैं।
ज्यादातर यूरोपीय देश,
जिनमें पूर्व
सोवियत यूनियन में रहे देश
भी शामिल हैं, नेटो
के सदस्य हैं और पूंजीवाद
के आदर्श अमेरिका की समर्थक
हैं। जलवायु परिवर्तन के गंभीर
संकट पर भी वे पूंजीवादी विकास
के मॉडल के दायरे में विचार
करती हैं। जब महाराष्ट्र के
जैतापुर परमाणु संयत्र के
खिलाफ आंदोलन चल रहा था तब
सोशलिस्ट युवजन सभा के अध्यक्ष
डॉ अभिजीत वैद्य ने फ्रांस
के समाजवादी राष्ट्रपति
ओलेंदो को पत्र लिख कर निवेदन
किया था कि फ्रांस रियेक्टरों
की सप्लाई का करार रद्द कर
दे। उनका जवाब आया कि सोशलिस्ट
पार्टी को जैतापुर परमाणु
संयत्र का विरोध नहीं करना
चाहिए। हालांकि यूरोप में
कल्याणकारी राज्य की अवधारणा
अभी भी काम करती है। सोशलिस्ट
पार्टियों में ज्यादा।
2 जब से मोदी जी प्रधानमंत्री हुए हैं, उन्होंने सत्ता संभाली है, उनके
लगातार विदेशों में दौरे हो
रहे हैं। केंद्र सरकार और
बीजेपी के नेता देश में इस
तरीके से पेश करती है
कि इन दौरों के
बाद भारतीय विदेश नीति मजबूत
हुई है। यूरोप में भारत की
विदेश नीति को आपने किस तरीके
से देखा?
प्रेम सिंह- बिना
अपनी आर्थिक नीति के विदेश
नीति नहीं हो सकती। भारत जैसा
विशाल देश यह अफोर्ड नहीं कर
सकता कि नवउदारवाद की संचालक
वैश्विक आर्थिक संस्थाओं
के डिक्टेट पर विकसित देशों
के फायदे के लिए अपनी आर्थिक
नीतियां चलाए। ऐसा होने पर
विदेश नीति भी उन्हीं के
डिक्टेट पर चलती है। नवउदारवादी
शक्तियां भारत को पूंजीवादी
विकास के नाम पर संसाधनों की
लूट और उत्पादों की बिक्री
के विशाल बाजार के रूप में
इस्तेमाल कर रहीं है। इसी
रूप में भारत की छवि को मोदी
मजबूती प्रदान कर रहे हैं।
वे हिंदुत्ववाद की चूल
नवउदारवाद के साथ बिठाने में
लगे हैं। भारत की पूंजीवादी
विकास के मॉडल की नीतियां भी
अपनी नहीं हैं, जैसा
कि चीन में है। आदेश बजाने और
नकल करने वाले देश की विदेश
नीति नहीं होती। नेताओं और
कारपोरेट घरानों के दौरों को
विदेश नीति नहीं कहते।
3 हाल
के दिनों में देश में अभिव्यक्ति
की आज़ादी पर लगातार हमले के
मामले देखने को मिले। दलित
उत्पीड़न के भी मामले सामने
आए, जिसकी
चर्चा विदेशी मीडिया में भी
हुई। ऐसी घटनाओं के बाद विदेश
में देश की छवि पर किस तरीके
का असर देखते हैं?
प्रेम सिंह- अभिव्यक्ति
की आजादी का संकट है। जीने की
आजादी का भी संकट है। नवउदारवादी
नीतियों से एक असहिष्णु समाज
ही बनता है। इसके लिए अकेली
भाजपा जिम्मेदार नहीं है।
कांग्रेस समेत बाकी राजनीतिक
पार्टियां भी बराबर की जिम्मेदार
हैं। यह तानाशाही की तरफ ले
जाने वाला रास्ता है। विदेश
में छवि से मतलब हमारे यहां
अमेरिका और विकसित यूरोप में
छवि से होता है। वे इसे महज
पूंजी निवेश की स्थितियों से
जोड कर देखते हैं। मैंने कहा
कि इस सब के लिए अकेला संघ
संप्रदाय जिम्मेदार नहीं
है, जैसा
कि कहा जा रहा है। दलित उत्पीडन,
महिला उत्पीडन,
आदिवासी उत्पीडन
करने वाले लोग हमारे आस-पास
ही रहते हैं। यही स्थिति उन
लोगों की है जो सांप्रदायिक
उन्माद फैलाते हैं। ये सब
आरएसएस तक सीमित और अमूर्त
‘तत्व’ नहीं हैं। जीते-जागते
लोग हैं।
4 जनता
परिवार ने निर्णय लिया था
एकजुट होने का,
लेकिन ये एका
हो नहीं पाया। बावजूद इसके
बिहार चुनाव
में बीजेपी को करारी हार झेलनी
पड़ी। आगे उत्तर प्रदेश और
पंजाब जैसे बड़े राज्यों में
चुनाव है। ऐसे में समाजवादी
धारा की पार्टियों और समाजवादी
नीतियों को मानने वाले दलों
को आप कहां पाते हैं?
प्रेम सिंह- मुख्यधारा
राजनीति में समाजवाद
के नाम पर कई क्षेत्रीय पार्टियां
हैं लेकिन समाजवादी विचारधारा
और आंदोलन से उनका रिश्ता
नहीं है। वे सभी नवउदारवाद
की समर्थक हैं। अलबत्ता
सत्ता के लिए जाति और क्षेत्र
की राजनीति करने वाली तथाकथित
समाजवादी पार्टियों का चुनावी
महत्व है। जनता परिवार के
एका को मुलायम सिंह ने तोड
दिया था जबकि वे ही उसके अध्यक्ष
थे। उत्तर प्रदेश की समाजवादी
पार्टी का एका लालू प्रसाद
यादव के राजद और नितीश कुमार
की जदयू से हो भी तो उससे समाजवादी
पार्टी को कोई चुनावी फायदा
नहीं होगा। फायदा तभी हो सकता
है जब सपा और बसपा का गठबंधन
हो। पंजाब में जनता परिवार
से जुडी कोई पार्टी नहीं है।
5. नरेंद्र
मोदी की अगुवाई में बीजेपी
की पूर्ण बहुमत की सरकार आने
के बाद भी क्या देश की सियासत में सांप्रदायिकता
बनाम धर्मनिरपेक्षता का
मुद्दा पहले की तरह केंद्र
में आ पाएगा ? अगर आएगा भी तो धर्मनिरपेक्ष होने का जो दल
दावा करते हैं, उनके
सामने क्या चुनौती है?
प्रेम सिंह- इस
मुद्दे मैं कई बार बोल और लिख
चुका हूं। मूल समस्या
सांप्रदायिकता नहीं,
नवसाम्राज्यवादी
गुलामी है। जैसे उपनिवेशवादी
दौर में अंग्रेजों ने सांप्रदायिकता
पैदा की, जिसके
चलते देश का विभाजन तक हो गया,
उसी तरह मौजूदा
नवसाम्राज्यवादी निजाम
सांप्रदायिकता की समस्या
को ज्यादा गंभीर बनाता जा
रहा है। संविधान की कसौटी पर
कोई भी दल धर्मनिरपेक्ष नहीं
है। गुजरात नरसंहार के बाद
नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार
करने वाली और भाजपा के समर्थन
से तीन बार मुख्यमंत्री बनने
वाली मायावती कैसे धर्मनिरपेक्ष
हैं? कल्याण
सिंह के साथ मिल कर सरकार बनाने
वाले मुलायम सिंह कैसे
धर्मनिरपेक्ष हैं? इन
दोनों की राजनीतिक ताकत बाबरी
मस्जिद के ध्वंस से बनी।
दोनों पार्टियों में ज्यादातर
मुस्लिम नेता, जो
एक-दूसरी
पार्टी में आवाजाही करते रहते
हैं, बाबरी
मस्जिद ध्वंस की देन हैं।
विडंबना देखिए कि मुख्यमंत्री
होने के नाते ध्वंस के लिए
सीधे जिम्मेदार सांप्रदायिक
कल्याण सिंह आज कहीं नहीं
हैं जबकि धर्मनिरपेक्ष मुलायम
सिंह और मायावती न केवल यूपी
में राजनीति पर कब्जा किए
हुए हैं, देश
का प्रधानमंत्री बनने की
महत्वाकांक्षा रखते हैं।
कमोबेश पूरे देश में धर्मनिरपेक्ष
पार्टियों और नेताओं का यह
हाल है। ऐसे में आरएसएस-भाजपा
की सांप्रदायिकता को मजबूत
होते जाना है। राजनीतिक ऐषणाएं
रखने वाले सिविल सोसायटी
एक्टीविस्ट धर्मनिरपेक्षता
कायम नहीं कर सकते। आपने देखा
ही कि नामी वकील प्रशांत भूषण
ने आम आदमी पार्टी के नेता के
बतौर साफ तौर पर कहा था कि
दिल्ली में सरकार भाजपा के
साथ मिल कर बनानी चाहिए,
न कि कांग्रेस
के। आम आदमी पार्टी के एक और
नेता योगेंद्र यादव ने अपने
सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल
का बचाव करते हुए कहा था कि
उनकी डुबकी से बनारस की गंगा
कुछ पवित्र ही हुई है।
धर्मनिरपेक्षता का संवैधानिक
मूल्य नवउदारवाद के हमाम
में इधर से उधर ठोकरें खाने
को अभिशप्त बना दिया गया है। एका
नवउदारवाद के खिलाफ बनना
चाहिए। सांप्रदायिकता की जड
पर अपने आप चोट हो जाएगी।
6.1991 में
उदारीकरण की शुरुआत हुई,
बाजारवाद
फैला, उदारवाद
को नवउदारवाद कहा जाने लगा,
अब पूर्ण
बहुमत के साथ बीजेपी के
सत्ता में है।
उदारवाद-बाजारवाद
की बहस को अब आप किस रूप में
देखते हैं? अब
लगता है इस पर तकनीकी तौर पर
होने वाली बहस भी
दम तोडती नजर आती है जब
प्रधानमंत्री
खुद एक निजी कंपनी का विज्ञापन
करते नज़र आ रहे हैं।
प्रेम सिंह- यह
अब सीधे कारपोरेट पालिटिक्स
का दौर है। हालांकि भारत में
उसका स्तर बहुत ही घटिया है।
घटियापन और बढेगा इसका आगाज
तभी हो गया था जब नरेंद्र मोदी
के समर्थन में एक महिला
नग्नावस्था में फूलों के
ढेर में लेट गई थी। उसी क्रम
में भारत के प्रधानमंत्री को
एक धनिक द्वारा कई लाख का सूट
पहनाया गया। नवउदारवादी
नग्नता अपने को इसी तरह ढंकती
है! ‘महान
राष्ट्रवादी’ नेताओं की यह
राजनीति है, जिस
पर देश के सभी नागरिकों को गौर
करना चाहिए।
संविधान,
संस्थानों और
महत्वपूर्ण पदों की गरिमा
गिराने में यह सरकार पहले से
काफी आगे निकल गई है। खुद पूर्व
की भाजपा नीत राजग सरकार से
भी। लेकिन समस्या का गंभीरतम
पहलू यह कि अपने को किसी भी
तरह का समाजवादी अथवा सामाजिक
न्यायवादी कहने वाले ज्यादातर
बुदि़्धजीवी प्रछन्न नवउदारवादी
हैं। नवउदारीकरण, न
कि सांप्रदायिकता, भाजपा
को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता
में लेकर आया है। पहले की
वाजपेयी सरकार भी नवउदारीकरण
की देन थी। नवउदारवाद से निजात
स्वतंत्र और स्वावलंबी
आर्थिक नीतियों से ही पाई जा
सकती है।
7 आपने
पहले ही कहा था कि अन्ना हजारे
और अरविंद केजरीवाल का आंदोलन
दरअसल देश की केंद्रीय सत्ता
में नवउदारवादी और सांप्रदायिक
ताकतों के गठजोड़ को स्थापित
करने के लिए चलाया जा रहा है।
ऐसे में जो जनवादी राजनीति
में यक़ीन करते हैं उनके सामने
क्या चुनौतिया हैं?
प्रेम सिंह- यह
तो उन्हें देखना है कि सीधे
कारपोरेट की कोख से पैदा आंदोलन,
नेता
और पार्टी का अंध समर्थन
करते हुए वे कितने जनवादी रह
जाते हैं और कितने धर्मनिरपेक्ष?
पूरा
कम्युनिस्ट खेमा केजरीवाल
और उस आम आदमी पार्टी का समर्थक
है जिसमें सांप्रदायिक और
लुपेंन तत्वों की शुरू
से भरमार है।
8 लोकसभा
चुनाव में अभी वक्त है,
लेकिन देश की
राजनीति का केंद्रीय विषय इस
वक्त क्या है?
प्रेम सिंह- सरकार
का केंद्रीय विषय तो साफ ही
है – कारपोरेट की ताबेदारी
और सांप्रदायिक-प्रतिक्रियावादी
तत्वों को उकसा कर देश के
सामाजिक-सांस्कृतिक
ताने-बाने
को नुकसान पहुंचाना। जो विपक्ष
है वह धर्मनिरपेक्ष तो नहीं
ही है, भाजपा
से अलग आर्थिक नीतियां भी उसके
पास नहीं हैं। वह जानबूझ कर
सांप्रदायिकता को केंद्रीय
मुद्दा बता और बना रहा है।
कांग्रेसी खैरात पर पलने वाले
बुदि्धीजीवी भी यह कर रहे
हैं। हमारे लिए केंद्रीय विषय
इस वक्त भी और चुनाव के वक्त
भी नवसाम्राज्यवाद को उखाड
फेंकना है। साम्राज्यवाद
से बडा कोई फासीवाद नहीं है।
9 सोशलिस्ट
पार्टी (इंडिया)
का आने वाले
दिनों में क्या लक्ष्य है?
प्रेम सिंह- नवसाम्राज्यवाद
को उखाड फेंकने के लिए मुकम्मल
और निर्णायक जंग। यह हमारे
उपर विरासत का सौंपा हुआ
कार्यभार है। अगले आम चुनाव
तक हम पूरी ताकत से तैयारी
करेंगे ताकि सत्ता पर दावेदारी
ठोंकी जा सके। अगला आम चुनाव
हम सही केंद्रीय विषय पर लडेंगे
– नवसाम्राजयवादी दायरे में
आपस में लडने वाले देशद्रोही और नवसाम्राज्यवाद से सीधे भिडने वाले देशभक्त।
10. आपकी
अपनी क्या भूमिका होने जा
रही है्?
प्रेम सिंह- सोशलिस्ट
पार्टी का पूरे देश में
संगठनात्मक और सदस्यात्मक
आधार काफी मजबूत हुआ है। कई
मोर्चों पर हम काम कर रहे हैं।
सामाजिक क्षेत्र में काम करने
वाले कई महत्वपूर्ण साथियों
और संगठनों ने पार्टी के साथ
एकजुटता दिखाई है। पीयूसीएल,
अखिल भारतीय
शिक्षा अधिकार मंच, रिहाई
मंच, खुदाई
खिदमतगार जैसे महत्वपूर्ण
नागरिक संगठनों के साथ मिल
कर हम काम कर रहे हैं। मैं
नौजवानों में अपना काम और
ज्यादा मजबूती से जारी रखूंगा।
बडे शहरों से बाहर छोटे शहरों,
कस्बों और
गांवों में ज्यादा काम करेंगे।
मुख्यधारा मीडिया हमें बाहर
रखता है। सोशल मीडिया का ज्यादा
से ज्यादा उपयोग करेंगे।
सीमित साधनों में
समग्र प्रभाव बनाने की कोशिश
की जाएगी। वीडियो उसमें सहायक
होंगे। लिहाजा,
राजनीति,
समाज,
शिक्षा,
भाषा,
संस्कृति,
धर्म,
जाति जैसे
ज्वलंत मुद्दों को समझने और
उन्हें सुलझाने पर ऑडियों
कैसेट तैयार करके जारी करेंगे।
उनमें दी जाने वाली
सामग्री तथ्यात्मक के साथ
संवादधर्मी होगी। किसी भी
व्यक्ति या संगठन पर आरोप
या कटाक्ष का अब कोई अर्थ नहीं
रह गया है। अपने को सही जताने
का भी कोई अर्थ अब नहीं बचा
है। सभी विषयों पर सकारात्मक
सार्थक राजनीतिक विमर्श
चलाएंगे।
11 आप
लोगों से क्या कहेंगे उनका
समर्थन हासिल करने के लिए?
प्रेम सिंह- यह
करते हुए लोगों से पूछा जाएगा
कि क्या वे देश की राजनीति
को इसी ढर्रे पर चलने देना
चाहते हैं या इसमें वास्तविक
बदलाव की इच्छा रखते हैं?
बदलाव की
इच्छा रखते हैं तो वे किस
राजनीतिक पार्टी को बदलाव का
माध्यम बनाना चाहते हैं?
अगर सोशलिस्ट
पार्टी उनका चुनाव हो सकती
है तो क्या वे चाहते हैं कि
सोशलिस्ट पार्टी पहले प्रचलित
तरीकों से ताकत हासिल करे,
तब वे साथ
देंगे? या
वे साथ देकर सोशलिस्ट पार्टी
को ताकतवर बनाएंगे?
हमारी अपील
होगी कि वे सोशलिस्ट पार्टी
का साथ देकर उसे मजबूत बनाएं।
हमें यह विश्वास बना कर चलना
होगा कि सोशलिस्ट पार्टी की
विरासत, स्वतंत्रता
संघर्ष के मूल्यों और संविधान
की मूल संकल्पना के प्रति
अडिगता का लोग सम्मान करेंगे।
12 आप
शिक्षक आंदोलन से संबद्ध रहे
हैं। शिक्षा के स्वरूप पर
सुझाव देने के लिए अटल बिहारी
वाजपेयी द्वारा गठित अंबानी-बिड़ला
कमेटी की रपट की समीक्षा आपने
‘शिक्षा के बाजारीकरण की
अंबानी-बिडला
कमेटी की रपट’ लिख कर की थी।
वह पुस्तिका बहुत पढी और सराही
गई थी। शिक्षा पर नवउदारवादी
हमले को आप कैसे समझते हैं?
प्रेम सिंह- शिक्षा
का भट्टा ही बैठ गया है। मेरा
मानना है कि जब देश की पूरी
राजनीति नवउदारीकरण की वाहक
बन चुकी है तब हमें कुछ क्षेत्रों
को प्राथमिकता के आधार पर तय
करके नवउदारीकरण की इस चौतरफा
मुहिम को पीछे धकेलना चाहिए।
ये क्षेत्र शिक्षा, संसाधन
(जल,
जंगल,
जमीन) और
सुरक्षा (डिफेंस)
हैं। शिक्षा
को पहले नंबर पर रखने का कारण
है कि शिक्षा स्वतंत्र सोच
और चेतना का सर्वप्रमुख स्रोत
है। पूरे शिक्षा तंत्र को
नवउदारीकरण का तौक पहना कर
नवसाम्राज्यवादी गुलामी
को हमेशा के लिए आजादी देने
की कोशिश की जा रही है। इसमें
कांग्रेस की भूमिका भाजपा से
ज्यादा रही है।
13 आम
आदमी पार्टी से निकले कुछ नेता
स्वराज अभियान चला रहे हैं।
नई राजनीतिक पार्टी बनाने का
फैसला भी किया है। आपका क्या
कहना है?
प्रेम सिंह- मैं
क्या कह सकता हूं। अभी तो इसे
अरविंद केजरीवाल और मनीष
सिसोदिया की स्वराज पाठशाला
का ही एक विस्तार मानना चाहिए।
स्वराज अभियान और प्रस्तावित
नई पार्टी के बूते कुछ ताकत
बना कर अपनी असली पार्टी में
वापसी कर सकते हैं।
14 आप
असली समाजवादी किसे मानते
हैं? स्वराज
अभियान चलाने वाले समाजवादियों
के बारे में आपकी राय?
प्रेम सिंह- मैं
कैसे कह सकता हूं कि कौन असली
समाजवादी है और कौन नकली। हां,
यह चुटकी जरूर
ले सकता हूं कि जो आदमी ही नकली
हैं, वे
असली समाजवादी या कोई अन्य
राजनीतिक वादी कैसे हो सकते
हैं?
15 सर
आपका धन्यवाद इतना समय देने
के लिए। भारत लौटने पर आपसे
मुलाकात करूंगा।
प्रेम सिंह- जरूर
मिलेंगे। तुम्हारा भी धन्यवाद
एक अच्छी प्रश्नावली तैयार
करने के लिए।
(राजेश
कुमार, टीवी पत्रकार)
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