कमरों में कॉमरेड बैठे हैं,
सड़कों पर खून बह रहा है।
क्रांति तो किताबों में बंद है,
खुले हैं किवाड़े इतिहासों के।
नारों की फसल उगे हैं होठों पर,
सौ टुकड़े होते विश्वासों के।
हरे भरे सपनों की कौन कहे,
जंगल में गीत दह रहा है।
लाशों को चीत रहे कौओं की,
अपनी क्या जात कहीं होती है।
दिन पर दिन बढ़ रहे नाखूनों की,
कोई तारीख नहीं होती है।
सन्नाटा मौसम पे भारी है,
कितना कुछ शब सह रहा है।
सूरज के माथे पे पसीना है,
सुबह कहीं कोई अफवाहों में।
थर थर कांपती मुंडेरे हैं,
सहमी है धूप कत्लगाहों में।
बदलेगा ये सबकुछ बदलेगा,
मूरख है कौन कह रहा है।
-यश मालवीय
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