Monday, January 23, 2017

ऐसे थे जननायक कर्पूरी ठाकुर-राजेश कुमार

गौरीशंकर नागदंश ने कभी कर्पूरी ठाकुर के लिए कहा था ....

हिंदुस्तान के करोड़ों शोषितों के हक के लिए, लाखों निरीह नंगे बच्चों की कमीज और स्लेट के लिए, आंखों में यंत्रणा का जंगल समेटे भटकती बलत्कृत आदिवासी और दलित महिलाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए, बेसहारा किसानों की कुदाल और ज़मीन के लिए, फूस के बूढ़े मकानों पर उम्मीद की छप्पर के लिए, हांफती सांसों वाले हारे हुए लोगों की जीत के लिए, गांधी, लोहिया और अंबेडकर के सफेद हो चुके सपनों को सतरंगा बनाने के लिए संघर्ष का नाम थे कर्पूरी ठाकुर।

संघर्षों की मिसाल इसी से समझी जा सकती है, कि बेदाग छवि के कर्पूरी आजादी से पहले 2 बार और आजादी मिलने के बाद 18 बार जेल गए। इतिहास में हालांकि किन्त-परन्तु की गुंजाईश नहीं होती। लेकिन कुछ सवाल हैं जो कर्पूरी की राजनीति को लेकर जानकार अक्सर उठाते हैं...

कि क्या बिहार की सियासत में पिछड़े धुरी बन पाते? क्या लालू प्रसाद यादव पिछड़ों के मसीहा बन पाते? क्या बिहार की सियासत में नीतीश कुमार का उभार हो पाता? और सबसे अहम सवाल तो ये कि क्या मंडल कमीशन की रिपोर्ट अस्तित्व में आती?

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर ज़िले के पितोंझिया में हुआ था। विरासत में कर्पूरी को अभाव, अशिक्षा और ग़रीबी मिली। उनकी शादी मुजफ्फरपुर के चंदनपट्टी की फुलेश्वरी देवी से हुई। लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने साफ कह दिया कि वे गुलाम भारत में गुलाम संतान पैदा नहीं करेंगे।

1952 में हुए बिहार विधानसभा के पहले चुनाव से लेकर 1988 तक बिहार की सियासत कर्पूरी ठाकुर के ही ईर्द-गिर्द घूमती रही। बिहार विधानसभा का चुनाव उन्हें कोई नहीं हरा पाया। डॉ लोहिया के ग़ैरकांग्रेसवाद के नारे के साथ 1967 में बिहार में संविद सरकार बनी। ये ऐसी अनूठी सरकार थी जिसमें जनसंघ भी था और कम्यूनिस्ट पार्टी भी। मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद बने और कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री। कर्पूरी ठाकुर के पास शिक्षा का महकमा भी था। कर्पूरी ठाकुर ने जो पहला फैसला लिया, वो था मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करने का। ये डॉ लोहिया के अंग्रेजी हटाओ के नारे को ज़मीन पर उतारने की तरह था। इस फैसले की तीखी आलोचना हुई, लेकिन इसने पिछड़े समुदाय के करोड़ों लोगों को मैट्रिक पास कराया । लोगों ने कर्पूरी डिवीजन कहकर मजाक उड़ाया, लेकिन कर्पूरी हार मानने वालों में से नहीं थे।

संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में कर्पूरी भूमिगत हो गए, और केंद्र सरकार लाख कोशिश के बावजूद कर्पूरी ठाकुर को पकड़ नहीं पाई। जनवरी 1977 को पटना के गांधी मैदान में कर्पूरी ठाकुर ने जयप्रकाश नारायण की सभा में सरेंडर किया। बिहार में जब चुनाव हुआ कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने और फिर वो फैसला किया जिसने सामाजिक न्याय का नारा बुलंद कर दिया। तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए, कर्पूरी ठाकुर ने 11 नवंबर 1978 को बिहार में आरक्षण लागू कर दिया। बिहार में महिलाओं को 3 फीसदी समेत पिछड़ी जातियों को कुल 26 फीसदी आरक्षण दिया गया। विपक्ष ने मुखर विरोध किया और उनके खिलाफ व्यक्तिगत हमले भी किेए गए। लेकिन कर्पूरी अपने फॉर्मूले पर कायम रहे। बाद में इसी कर्पूरी फॉर्मूले ने 12 साल के बाद मंडल कमीशन की शक्ल अख्तियार कर ली। 

कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। सियासत में इतना लंबा सफर करने के  
बाद जब उनका देहांत हुआ, तो परिवार को विरासत में देने के लिए उनके पास ना एक मकान था और ना ही कोई ज़मीन का टुकड़ा।

बिहार के सियासी गलियारों में आज भी कर्पूरी की ईमानदारी के किस्से सुने-सुनाए जाते हैं। एक बार कर्पूरी ठाकुर विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नाम का एलान कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि लिस्ट में उनके बेटे का भी नाम है। कर्पूरी ठाकुर ने मीडिया के सामने बोल दिया कि या तो वे चुनाव लड़ेंगे या फिर उनका बेटा। कर्पूरी ठाकुर से जुड़े लोग बताते हैं कि एक बार मुख्यमंत्री आवास में उनके बहनोई उनसे मिलने आए, और नौकरी लगवाने की बात कही। पूरी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए और जेब से पचास रूपये निकालकर उन्हें दिया। और कहा, कुछ काम नहीं है तो नाई का पुश्तैनी काम शुरू कर दीजिए। एक और कहानी मशहूर है, 1952 में विधायक बनने के बाद उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल होकर ऑस्ट्रिया जाने का मौका मिला, उनके पास कोट नहीं था। उन्होंने दोस्त से कोट उधार लिया। वे युगोस्लाविया गए, जहां मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी ठाकुर का कोट फटा हुआ है। मार्शल टीटो ने कर्पूरी को एक कोट भेंट किया। 

जनता के हित में लिए गए फैसलों और कर्पूरी ठाकुर की लोकप्रियता ने ही उन्हें राजनीति का जननायक बना दिया।

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