दामन के दाग़
इतने दाग़ हैं दामन में,, खुद को ढूंढ नहीं पाता हूं।
इतने दाग़ हैं दामन में,, खुद को ढूंढ नहीं पाता हूं।
इतनी आह है ज़माने में,, खुद की आवाज़ सुन नहीं पाता हूं।
कहां जाऊं ये आशियाना छोड़कर यारों।
हिन्द से प्यारा कोई जहां नहीं पाता हूं।
मुझे शक है कि कहीं मैं आतंकी तो नहीं,
जमाने की सदायें ये बोलती हैं।
मुझे डर है कि मैं मर न जाऊं कहीं,
दिल से निकली हर धड़कन ये बोलती है।
इस क़दर है साया आतंक का मुझ पर,
उजाले में खुद की छाया ढूंढ नहीं पाता हूं।
वो कहतें हैं कि मैंने मासूमों को मारा है,
वो कहते हैं कि मैं ही उनकी बर्बादी का जिम्मेदार हूं।
कैसे दिलाऊं यकीं ज़माने को अपनी बेकसूरी का,
कि अपनी बेगुनाही का सबूत ढूंढ नहीं पाता हूं।
कहां जाऊं ये आशियाना छोड़कर यारो,
हिन्द से प्यारा कोई जहां नहीं पाता हूँ .
शेख मोहम्मद नईम
संप्रति - टीवी पत्रकार
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