Monday, May 13, 2024
1857 का विद्रोह, ‘झंडा सलामी गीत’ और राष्ट्रीयता का विचार- प्रेम सिंह
(ये लेख डॉ प्रेम सिंह ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 167वीं वर्षगांठ पर जारी किया था, सबको पढ़ना चाहिए। पता चलेगा कि राष्ट्रीयता की भावना को लेकर शुरू में क्या सपना और कैसा संघर्ष था।)
ब्रिटिश शासकों, इतिहासकारों, अध्येताओं, लेखकों, लोकगीतकारों ने 10 मई 1857 को मेरठ से शुरू हुए सिपाही विद्रोह को कई नामों से अभिहित किया है। नोमन्क्लेचर की यह विविधता विद्रोह के प्रति लोगों के अलग-अलग नजरियों को दर्शाती है। नजारियों की जंग में विद्रोह को अपमानजनक संबोधन ‘गदर’ से लेकर ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ तक बताया गया है। हालांकि, अंग्रेजों द्वारा अपमानजनक सम्बोधन के रूप में प्रयुक्त किया गया गदर शब्द आगे चल कर भारतीयों के लिए सम्मानजनक अर्थ ग्रहण कर लेता है। भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा अमेरिका में 1913 में गठित संगठन का नाम गदर गया। अपने मुखपत्र का नाम भी उन्होंने ‘गदर’ रखा। 1857 के विद्रोह पर करीब 75 साल बाद लिखे गए पहले हिंदी उपन्यास का शीर्षक भी ‘गदर’ है। अमृतलाल नागर ने विद्रोह संबंधी ब्योरे एकत्रित किए तो उस पुस्तक का नाम ‘गदर के फूल’ रखा।
नोमन्क्लेचर के अलावा इस विद्रोह के चरित्र को लेकर भी कई धारणाएं मिलती हैं। उसे ‘सामंती’ से लेकर ‘जनवादी’ तक कहा जाता है। विद्रोह में मारे गए लोगों की संख्या के बारे में भी कई दावे मिलते हैं। ब्रिटिश रेकॉर्ड्स में विद्रोह में मारे जाने वाले अंग्रेजों - बच्चों और महिलाओं समेत – का आंकड़ा 6000 के करीब है। विद्रोह के दमन के दौरान और दमन के बाद अंग्रेजों द्वारा की गई बदले की कार्रवाई में मारे जाने वाले भारतीय पक्ष के लोगों की संख्या 8 लाख से 30 लाख तक बताई जाती है। इसमें विद्रोह से जुड़े अकाल और महामारी में मारे जाने वाले भारतीयों की संख्या को भी शामिल किया जाता है।
विद्रोह के इतिहासकारों, उससे जुड़ी विभिन्न घटनाओं और पात्रों पर आधारित संस्मरण एवं कथात्मक विवरण (फिक्शनल अकाउंट) लिखने वाले लेखकों के लेखन में सभ्य-असभ्य और क्रूर-क्रांतिकारी का परस्पर विरोधी विमर्श भी मिलता है।
1857 के विद्रोह के मूल में महज धार्मिक अस्मिता का प्रश्न था या विद्रोह मूलत: राष्ट्रीयता के विचार से परिचालित था - यह सवाल भी खासा विवादास्पद रहा है। कहने का आशय यह है कि 1857 के विद्रोह के विविध पहलुओं पर प्रस्तुत किए गए तर्कों-प्रतितर्कों की एक पूरी दुनिया हमारे सामने मौजूद है। विद्रोह की 167वीं वर्षगांठ पर लिखी गई इस टिप्पणी में क्रांतिकारियों के ‘झंडा सलामी गीत’ के माध्यम से यह जानने की कोशिश की गई है कि विद्रोह के मूल में पराधीनता की पीड़ा से पैदा हुआ राष्ट्रीयता का विचार था। दरअसल, राष्ट्रीयता का विचार, जब हम उसे राष्ट्रवाद के साथ जोड़ कर देखते हैं, एक सीधा और सरल विचार कभी नहीं रहा है। युग-विशेष, युगीन परिस्थितियां, सामाजिक ताना-बाना आदि कारक राष्ट्रीयता के विचार को एक जटिल, और कई बार अंतर्विरोधपूर्ण विचार बनाते हैं। 1857 के विद्रोह के मूल में स्थित राष्ट्रीयता के विचार को भी इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए।
‘झंडा सलामी गीत’ अथवा कौमी तराना 1857 के विद्रोह के एक प्रमुख पात्र अज़ीमुल्ला खान यूसुफजई ने लिखा था, और दिल्ली के ‘पयाम-ए-आजादी’ नामक दैनिक पत्र में प्रकाशित हुआ था। फरवरी 1857 में शुरू किए गए इस उर्दू-हिंदी पत्र के प्रकाशक अज़ीमुल्ला खान और मुख्य संपादक बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के पोते मिर्जा बेदार बख्त थे। (यह स्वाभाविक है कि पत्र को नाना साहिब का सरंक्षण प्राप्त था। क्योंकि उनके दीवान अज़ीमुल्ला खान फरवरी 1857 में एक फ्रेंच प्रिंटिंग प्रेस लेकर भारत आए थे, जिस पर यह पत्र छापा जाता था।) सितंबर 1857 से यह पत्र मराठी में झांसी से भी प्रकाशित हुआ। बादशाह ज़फ़र का प्रसिद्ध ‘पेंफलेट’ ‘पयाम-ए-आजादी’ में ही प्रकाशित हुआ था। पूरे उत्तर भारत में तेजी से इस पत्र का प्रसार फैल गया था। 29 मई 1857 को पत्र ने विद्रोह को अपना समर्थन घोषित कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने “देशद्रोह” के आरोप में पत्र के प्रकाशन पर तुरंत प्रतिबंध लगा दिया। बेदार बख्त को फांसी दे दी गई। अज़ीमुल्ला खान के बारे में माना जाता है कि वे कानपुर की पराजय के बाद नाना साहिब के साथ नेपाल की सीमा की ओर निकल गए थे, जहां 28 वर्ष की आयु में बीमारी से उनकी मौत हो गई।
कानपुर निवासी अज़ीमुल्ला खान न सिपाही थे न सामंत। वे अत्यंत साधारण सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से थे। उनके मिस्त्री पिता का निधन हो चुका था। 1837-38 के अकाल में अपनी माता के साथ वे संयोग से जीवित बच पाए थे। बाद में माता का भी निधन हो गया। उन्होंने अनाथालय में रह कर और एक अंग्रेज के घर में काम करते हुए शिक्षा प्राप्त की। वे पहले कई अंग्रेजों के सचिव बने, और फिर नाना साहिब के दीवान का पद सम्हाला। नाना साहिब ने बहुभाषाविद (उन्हें अंग्रेजी, फ्रेंच, उर्दू, फारसी और संस्कृत भाषाएं आती थीं) और कुशाग्र-बुद्धि अज़ीमुल्ला खान को प्रधानमंत्री के पद पर प्रोन्नत किया।
ऐसा माना जाता है कि आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी अज़ीमुल्ला खान अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान नाना साहिब की पेंशन तो बहाल नहीं करा पाए, लेकिन ब्रिटिश आधिपत्य से भारत को मुक्त कराने का विचार और दृढ़ इरादा लेकर भारत लौटे। ब्रिटिश साम्राज्य अजेय है, यह मिथक उन्होंने अपनी आंखों से टूटता हुआ देखा। उन्होंने देखा कि क्रीमिया युद्ध में इंग्लैंड और फ़्रांस की संयुक्त सेनाओं को रूस की सेना ने पराजित कर दिया है। अज़ीमुल्ला खान नवजागरण की चेतना के दायरे के बाहर की गई देश की स्वाधीनता की चिंता और प्रयासों का प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते हैं।
‘झंडा सलामी गीत’ इस प्रकार है:
हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा,
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा।
यह हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा,
इसकी रूहानियत से रौशन है जग सारा।
कितना कदीम कितना नईम सब दुनिया से न्यारा,
करती है जरखेज जिसे गंगो-जमुन की धारा।
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा,
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा।
इसकी खानें उगल रहीं सोना हीरा पारा,
इसकी शान-शौकत का दुनिया में जयकारा।
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा,
लूटा दोनों हाथों से प्यारा वतन हमारा।
आज शहीदों ने है तुमको अहले-वतन ललकारा,
तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा।
हिंदू-मुसलमां-सिख हमारा भाई-भाई प्यारा,
यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा।।
इस गीत की व्याख्या करें तो पाते हैं कि इसमें ब्रिटिश आधिपत्य को भारत की राष्ट्रीय पराधीनता के रूप में चिन्हित किया गया है। क्योंकि हिंदुस्तानी इस मुल्क के स्वभाविक मालिक हैं। यह सही है कि 1857 के विद्रोह का भौगोलिक विस्तार मुख्यत: उत्तर, पूर्व और मध्य भारत तक था। लेकिन क्रांतिकारियों का दावा हिमालय से समुद्र-पर्यंत हिंदुस्तान का है। यह एक जरखेज धरती है, जिसकी संपदा को अंग्रेज लूट रहे हैं। “ऐसा मंतर मारा” की ध्वनि है कि अंग्रेजियत का जादू महत्वपूर्ण माने जाने वाले भारतीयों के सिर चढ़ कर बोल रहा था। इस ध्वनि की गूंज गांधी के ‘हिंद स्वराज्य’ में मिलती है, जहां वे कहते हैं कि अंग्रेजों ने हमें गुलाम नहीं बनाया, हमने खुद उनकी गुलामी कबूल की है।
यह सही है कि ज्यादातर राजे-रजवाड़ों और भारतीय ब्रिटिश आर्मी की बटालियनों ने विद्रोहियों का साथ न देकर अंग्रेजों का साथ दिया; अथवा तटस्थ रहे। नव-शिक्षित भद्रलोक द्वारा प्रवर्तित नवजागरण की चेतना का संबंध भी 1857 के विद्रोह के साथ नहीं जुड़ता। इस गीत में उस समय के प्रामाणिक भारतीय की कसौटी प्रस्तुत की गई है कि वही सच्चा भारतीय है जो शहीदों की ललकार पर गुलामी की जंजीरें तोड़ने का उद्यम करता है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि 1857 के विद्रोह के बाद चले आजादी के संघर्ष के फलस्वरूप जो भारत की आजादी संभव हुई, उसके खिलाफ राजे-रजवाड़े, सांप्रदायिक संगठन और कितने ही महत्वपूर्ण व्यक्ति खिलाफ थे। ऐसे अप्रामाणिक भारतीयों के चलते देश का बंटवारा भी हुआ।
यह सही है कि विद्रोह में कई बार धार्मिक, जातिवादी, जातीय (एथनिक), क्षेत्रीय आदि फॉल्टलाइंस उभरती हैं। एक उपमहाद्वीप के आकार के देश में, जिसका अत्यंत प्राचीन समाज विविधताओं और साथ ही विषमताओं से भरा हो, विद्रोह के दौरान फॉल्टलाइंस का उभरना स्वाभाविक था। गौरतलब है कि गीत में धार्मिक अस्मिता के सवाल पर देश की आजादी का आह्वान नहीं किया गया है। अलबत्ता, सभी धर्मावलंबियों के बीच एकता और प्यार का उल्लेख किया गया है। शायद अज़ीमुल्ला खान धार्मिक अस्मिता की पुकार को राष्ट्रीय अस्मिता की पुकार में बदलना चाहते थे। गीत में अगर भारत की नारियों का भी आह्वान होता तो गीत की सार्थकता दोगुनी हो जाती। क्योंकि 1857 के विद्रोह में सामाजिक-आर्थिक हाशियों पर आबाद महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
कहने की जरूरत नहीं कि इस गीत को वर्तमान नव-साम्राज्यवादी संकट और सांप्रदायिक वैमनस्य के संदर्भ में पढ़ा जा सकता है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की युवा पीढ़ियों को कम से कम यह जरूरी काम करना चाहिए।
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)
Monday, April 15, 2024
भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार- प्रेम सिंह
पूंजीवादी उपभोक्तावाद/उपभोगवाद पद में अर्थ-संकोच है। आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के मूल में निहित जीवन-दृष्टि की सही अभिव्यक्ति पूंजीवादी भोगवाद पद से होती है। पूंजीवादी भोगवाद सामंती भोगवाद को अपने में समाहित करके चलता है। पूंजीवादी भोगवाद की पिछली करीब तीन-चार शताब्दियों की प्रक्रिया में जो जीवन-दृष्टि विकसित हुई है, उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया जा सकता है - सृष्टि में जो भी संसाधन और ऊर्जा के स्रोत हैं, मनुष्य के भोग के लिए हैं; मनुष्य को अपनी समस्त इंद्रियों, प्रतिभा के समस्त आयामों और गतिविधियों को उसी एक दिशा में, यानि अधिकतम भोग की दिशा में लगाना है; अमापनीय विषमताओं और विकट जलवायु विनाश जैसे दुष्परिणामों की परवाह नहीं करनी है; युद्धों, गृह-युद्धों, नरसंहारों की भी परवाह नहीं करनी है; भले ही सत्य, सौंदर्य, औदात्य वं करुणा जैसे जीवन-मूल्य गंवाने पड़ जाएं। इस अर्थ में भोगवाद का समकक्ष अंग्रेजी शब्द अभी नहीं मिलता है।
भारतीय वाड़मय में भोग शब्द अनोखा है। अकेला भोग शब्द पवित्र धार्मिक एवं दार्शनिक अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है। जब यह ‘वाद’ प्रत्यय के साथ ‘भोगवाद’ बन जाता है, तो विलासितापूर्ण जीवन-शैली का अर्थ देता है। प्रतिदिन अथवा विशेष पूजा/कर्म-कांड के अवसरों पर भगवान का भोग लगाने की पुरानी प्रथा है। भोग में अर्पित की गई वस्तु को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। भोग निर्धनतम व्यक्ति को उपलब्ध हो सकने वाली वस्तु, और छप्पन व्यंजनों का लगाया जा सकता है। भगवान/देवता को भोग लगाने की प्रथा मुख्यत: सगुण भक्ति-धारा से जुड़ी है। लेकिन निर्गुणवादी संतों के संप्रदायों में भी किसी न किसी रूप में इस प्रथा का अपनाव मिलता है। सिख धर्म में जीवन और मृत्य से जुड़े विशेष अवसरों पर गुरुग्रंथ साहिब के पाठ के साथ भोग की प्रथा है। भारतीय इस्लाम और ईसाई धर्मों में भी भोग की प्रथा ने कुछ न कुछ संचरण किया है।
भोग पद का एक अर्थ दुख भोगने के साथ भी जुड़ा है। शंकर भगवान मनुष्य के दुखों से द्रवित पार्वती से यही कहते पाए जाते हैं कि ‘दुनिया में सुख कम और दुख ज्यादा हैं। इतने ज्यादा कि मैं भी सबके सभी दुख दूर नहीं कर सकता। मनुष्य है तो दुख भोगना है।’ इस रूप में भोग शब्द मनुष्य के जीवन की दशा (प्रिडिकेमेंट) की दार्शनिक जिज्ञासा के साथ जुड़ता है। यानि संसार में दुख क्यों होता है; और क्या दुख को रोका जा सकता है? क्या हमेशा सुख की स्थिति बनी रह सकती है? दुख-भोग पिछले कर्मों की देन है या उसके अन्य दुनियावी कारण हैँ? जो भी हो, इन दोनों अर्थों में भोग का अर्थ मनुष्य के विशिष्ट जीवन-बोध अथवा जीवन-दृष्टि से जुड़ा है – जो तुझसे मिला है, उसे तुझी को अर्पित करके हम ग्रहण करते हैं; ताकि हम दुखों से बचे रहें। इस जीवन-बोध अथवा जीवन-दृष्टि के तहत प्रकृति और मनुष्य के बीच परस्परता का रिश्ता है। हजारों साल का सामंती “भोग-विलास”, जिसका एक विस्तार (एक्सटेंशन) ठाकुरजी के “छप्पन-भोग” में भी देखने को मिलता है, प्रकृति और मनुष्य के बीच परस्परता के रिश्ते की हद के बाहर नहीं जाता। सामंती युग में भोगवाद का एक प्रबल सेक्स-केंद्रित आयाम भी रहा है। “योगी” का विलोम “भोगी”, उसकी हविस चाहे कितनी बढ़ी-चढ़ी हो, सामंती युग में इस दायरे के बाहर नहीं जा सकता था। ‘वैराग्य शतक’ के लेखक भर्तृहरि ने सावधान किया है – ‘हम भोगों को नहीं भोगते, भोग ही हमें भोगते हैं’। कहने का आशय है कि सामंती सभ्यता में भोगवाद एक प्रवृत्ति थी, जीवन-दृष्टि नहीं। भोगवादी प्रवृत्ति की भी सीमाएं निर्धारित थीं।
अपने मूल में मनुष्य और प्रकृति के बीच प्रतिस्पर्धा का संबंध धारण करने वाली आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के भोगवाद की कोई सीमाएं नहीं हैं। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता में भोगवाद एक विवर्धित (इलेबोरटेड) जीवन-दृष्टि के रूप में स्थापित हो चुका है। व्यापारिक पूंजीवाद से लेकर निगम पूंजीवाद तक के “विकास” को इस नजरिए से पढ़ा जा सकता है। दुनिया के कतिपय नामचीन अर्थशास्त्री अथवा विचारक कभी-कभार विकास के इस मॉडेल को प्रश्नांकित करते हैं; लेकिन उसके मूल में स्थित भोगवादी जीवन-दृष्टि पर सवाल नहीं उठाते। गांधी ने हठपूर्वक इस भोगवादी जीवन-दृष्टि पर सवाल उठाया था; और आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का विकल्प प्रस्तुत किया था। पश्चिम के कई विचारकों ने भी आधुनिक औद्योगिक सभ्यता प्रसूत भोगवादी जीवन-दृष्टि की समीक्षा और विरोध किया है।
यह भूमिका बांधने के पीछे मेरा मकसद इस जटिल साभ्यतिक सवाल की गहरी पड़ताल में उतरना नहीं है। बल्कि इस सच्चाई का फिर से कथन करना है कि नए भारत के नाम पर बनाए जा रहे भोगवाद के बाजार में धड़ल्ले से गरीबी का कारोबार चलाया जा रहा है। पिछले 10 सालों से नरेंद्र मोदी यह कारोबार बड़ी तेजी और चाक-चौबंदी से चला रहे हैं। उनके पास गुजरात में यह कारोबार चलाने का लंबा अनुभव है। कुछ संदेह-विद्ध लोगों को लगता था कि प्रधानमंत्री कार्यालय मुख्यमंत्री कार्यालय जैसा नहीं होता। लेकिन नरेंद्र मोदी ने वैसे संदेह को दूर करके दिखा दिया। तेल-फुलेल, वस्त्र-परिधान, खान-पान से लेकर चप्पे-चप्पे पर अपने चित्र और नाम की छाप बिठाने, आयोजनों/योजनाओं/गारंटियों के नित नए विज्ञापन लहराने, भाषण के लिए महंगे से महंगे पंडाल लगाने, ताबड़-तोड़ विदेश यात्राएं करने, अपने लिए नया हवाई जहाज खरीदने, नया प्रधानमंत्री निवास बनाने, नया संसद भवन और सेंट्रल विस्ता आदि बनाने पर करदाताओं का नित्य रूप से अरबों रुपया खर्च कर डालने वाले नरेंद्र मोदी गरीबों के मसीहा भी हैं!
छोटे-बड़े कारपोरेट घरानों के अरबों रुपये उन्होंने अपनी पार्टी के खाते में खींच लिए हैं। उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का कार्यालय भी सबसे महंगा बनाया है। नेता जब कारोबारी है, तो पार्टी कारोबारी होगी ही। “ऑपरेशन लोटस” के तहत पार्टी के इस कारोबार की खबरें मीडिया की सुर्खियों में नित्य बनी रहती हैं। कारोबार का नियम ही है - जो दिखता है, वह बिकता है। नरेंद्र मोदी, उनके नव-रत्न, पार्टी, पितृ-संगठन और उनके अमेरिका-यूरोप में बसे समर्थक सब “बड़ा” सोचते हैं। इतना बड़ा कि छोटों की आंखें फटी रह जाएं।
मैंने अप्रैल 2019 में ‘नरेंद्र मोदी: पात्रता की पड़ताल’ लेख में मोदी की निगम पूंजीवाद के ताबेदार नेता के रूप में योग्यता की कुछ शिनाख्त की थी। भोगवाद के बाजार में गरीबी का सफल कारोबार करने वाले नरेंद्र मोदी की थोड़ी पड़ताल और करते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल होते हुए मोदी ने अपने गरीब होने का जम कर प्रचार कराया था। बताने की जरूरत नहीं कि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उनके रईसी ठाठ-बाट में कोई कमी नहीं थी। वे आधुनिक टेक्नॉलजी से जुड़े हर कम्फर्ट का लुत्फ उठाते दिखाई देते थे। वे किसी भी राज्य में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के सबसे बड़े पैरोकार थे। इसी नाते वे अटलबिहारी वाजपेयी और डॉ मनमोहन सिंह दोनों के प्रिय पात्र थे। कारपोरेट जगत के तो थे ही। बल्कि कारपोरेट जगत के कुछ धन्नासेठ उन्हें अपना खिलौना जैसा मानते थे। नरेंद्र मोदी को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। अदानी के निजी हवाई जहाज में उड़ना उन्हें अच्छा लगता था। अंबानी ने जियो सिम के विज्ञापन में नरेंद्र मोदी का चित्र इस्तेमाल साधिकार ही किया होगा। 500 रुपये का जुर्माना ही बताता है कि अंबानी की तरफ से किया गया वह “मैत्रीपूर्ण अपराध” था। नए भारत में कोई खुले आम कारपोरेट के साथ और खुले आम मुसलमानों के खिलाफ हो, तो उसका कारोबार चलते रहना है। मोदी के नेतृत्व में शिक्षित और आर्थिक/प्रशासनिक रूप से सशक्त भारतीयों की एक बड़ी संख्या ने यह मान लिया है कि “जागे हुए हिंदू” के लिए मुसलमानों और ईसाइयों के साथ निरंतर बैर-भाव रखना जरूरी है। इस बैर-भाव के स्रोत के रूप में उनके लिए इतिहास में अक्षय भंडार मौजूद है।
गुरबत भारत में नई नहीं है। लिहाजा, भारत में किसी नेता की गरीब पारिवारिक पृष्ठभूमि होना अनोखी बात नहीं। जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह को छोड़ कर यहां प्राय: सभी प्रधानमंत्री छोटे-मझोले किसान परिवारों से या निम्न-मध्य वर्गीय सेवा अथवा व्यावसायिक परिवारों से थे। नेहरू, इंदिरा गांधी, विश्वनाथ सिंह बड़े नेता होने के पहले ही देश की स्वतंत्रता और समाज की बेहतरी के हित में अपनी संपन्नता का परित्याग कर चुके थे। आजादी के लिए संघर्षरत और स्वतंत्र भारत में सादगी का सौंदर्य अपनाने वाले नेताओं की कमी नहीं रही है। राजनीति की सभी धाराओं और पार्टियों के बारे में यह कहा जा सकता है।
गरीब व्यक्ति का एक सामाजिक मनोविज्ञान विकसित हो जाता है - उसे पूरी उम्र गरीबी में काटनी पड़ी हो, तब भी, और किसी तरह की पद-प्रतिष्ठा पा गया हो, तब भी। गरीब पृष्ठभूमि के बावजूद पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की आमतौर पर तीन श्रेणियां देखने को मिलती है: एक, वह हमेशा रईसों की सोहबत में रहना चाहता है, उनसे दोस्ती चाहता है, पारिवारिक रिश्ते बनाना चाहता है, और उनके रहन-सहन, आचरण-रीतियों और शौकों की नकल करता है। गरीब उसके लिए भी “नाली का कीड़ा” हो जाते हैं। दो, ऐसे व्यक्ति के मन में रईसों/साहबों के प्रति एक गहरा पूर्वग्रह बन जाता है, जिसके चलते वह रईसों/साहबों के खिलाफ विद्रोही मुद्रा अपनाए रहता है; और उन्हें तिरस्कृत/ध्वस्त करने की कोशिश में लगा रहता है। तीन, ऐसा व्यक्ति पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने पर पूर्णत: उदार-हृदय हो जाता है; और वंचितों की सहायता के मौके तलाशता रहता है। मोदी पहली श्रेणी के गरीब हैं। मजेदारी यह है, पाखंड कहिए या गिल्ट, रईस-परस्ती और भोग-परस्ती के साथ वे “योगी-यति-फकीर” आदि होने का दावा भी ठोंकते हैं!
1991 में संविधान निर्देशित ‘राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों’ की जगह विश्व-बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) निर्देशित ‘नई आर्थिक नीतियां’ लागू कर कांग्रेस अपने पथ से भ्रष्ट होती है। अटलबिहारी वाजपेयी कहते हैं कि कांग्रेस ने यह उनका काम किया है। यही वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के गठन के बाद दिसंबर 1980 में बंबई में आयोजित पहले राष्ट्रीय सम्मेलन के भाषण में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के साथ गांधीवादी समाजवाद के सिद्धांतों के प्रति नई पार्टी की निष्ठा का जोरदार बखान कर चुके थे। सम्मेलन स्थल का नाम ‘समता नगर’ रखा गया था। उसके पहले दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में अप्रैल 1980 में आयोजित पार्टी के स्थापना सम्मेलन के अवसर पर अपने भाषण में लालकृष्ण आडवाणी कह चुके थे कि नई पार्टी जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के विचार के प्रति प्रतिबद्ध है। जाहिर है, तब तक भारतीय संविधान और गरीब भारत का दबाव अमीर भारत पर बना हुआ था। लेकिन वही वाजपेयी और आडवाणी नई आर्थिक नीतियों का स्वागत करते हुए ‘शाइनिंग इंडिया’ के स्टार प्रचारक बन जाते हैं। हालांकि, यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि ऐसा करने वाले वाजपेयी और आडवाणी अकेले नहीं थे। आज जो बुद्धिजीवी संविधानवाद की धज्जियां उड़ाने के लिए मोदी को पानी पी-पी कर कोसते हैं, उनमें ज्यादातर प्रकट या प्रछन्न रूप में ‘शाइनिंग इंडिया’, ‘नया भारत’, ‘निगम भारत’, ‘विकसित भारत’, ‘आर्थिक महाशक्ति भारत’ के पक्ष में रहे हैं। आज भी उनकी पोजीशन बदली नहीं है। कांग्रेस और भाजपा के अलावा अन्य ज्यादातर नेताओं/पार्टियों ने संवैधानिक मूल्यों – समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र – के साथ लगातार क्षुद्र व्यवहार करके संविधान को मखौल की वस्तु बना दिया।
नई आर्थिक नीतियां लागू होने के कुछ साल बाद ही यह चिंता उठ खड़ी हुई कि आर्थिक बहिष्करण (इकनॉमिक एक्सक्लूजन) और बेरोजगारी पैदा करने वाली नवउदारवादी व्यवस्था में गरीबी/गरीबों का क्या किया जाए? यह चिंता अब संवैधानिक दायित्व के चलते नहीं, जैसा कि अस्सी के दशक तक प्राय: की जाती थी, गरीबों का वोट हासिल कर राजनीतिक सत्ता मजबूत करने के मकसद से परिचालित थी। साथ ही नवउदारवादी नीतियों के विरोध और विकल्प में मुखर आवाजों को झुठलाना और दबाना उनका मकसद था। इसके लिए मुख्य अर्थव्यवस्था के बाहर प्रधानमंत्रियों-मुख्यमंत्रियों और विभिन्न अनुप्रतीकों (आइकंस) के नाम पर कुछ राहत योजनाएं बनाने, भ्रष्टाचार मिटाने, गुड गवर्नेंस देने और विदेशियों की नजर में भारत को महान बनाने के वादों के साथ गरीबी का कारोबार किया जाने लगा। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और मंत्री स्तर के नेता बेहिचक यह काम करने में संलग्न हो गए।
इसके साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मार्फत धर्म के आध्यात्मिकता, करुणा, दर्शन और कला के स्रोतों को अवरुद्ध कर, उसे सचमुच जनता की अफीम बना दिया गया। धर्म की इस हानि को परंपरागत धार्मिक संप्रदायों, अखाड़ों और मठों-मंदिरों ने रोकने के प्रयास नहीं किए। भोगवादी बाजार की कोख से निकले बाबाओं ने भक्ति, अध्यात्म, योग और जीने की कला का बड़ा भारी व्यापार देश-विदेश में फैला दिया। भारतीय जीवन के भले-बुरे अनुभवों, सपनों और आदर्शों की टीवी सीरियलों और फिल्मों से लगभग विदाई हो गई। भोगवाद के बाजार में शानो-शौकत और भोग-विलास से भरा जीवन लोगों का एक-मात्र आदर्श बना दिया गया।
गांधी को यह कहते हुए एक बार फिर मारा गया कि ‘यह गांधी के सपनों का भारत बनाया जा रहा है।’ नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ने अमेरिकी कांग्रेस में बोलते हुए विश्व को यह “सच्चाई” बताई। भाजपा के संविधान से अभी तक गांधीवादी समाजवाद स्थापित करने का संकल्प हटाया नहीं गया है। जीवन में सादगी की वकालत की हिमाकत करने के लिए नवोदित (नवउदारवादी नीतियों के तहत नए सिरे से सशक्त हुआ) मध्य-वर्ग ने पलट कर गांधी से बदला लिया। गांधी को शादियों के भव्य पंडालों के स्वागत दरवाजों पर मेहमानों से भीख मांगने के लिए खड़ा किया गया। लोग ठिठोली करते और पांच-दस रुपया हाथ पर रख देते। ऐसे ही एक मंजर का जिक्र करते हुए मैंने बताया था कि एक शादी में गांधी और चार्ली चैप्लिन से शराब सर्व कराई गई। उसी दौर में शिमला के रिज पर गांधी की प्रतिमा के गले में शराब की बोतलों की माला डाल कर एक नया प्रयोग किया गया। यही वह समय था जब कतिपय बुद्धिजीवियों ने गांधी को अंबेडकर और भगत सिंह की छड़ी से पीटने का उद्यम तेज किया; और दलित नेताओं ने गांधी की प्रतिमा को नीचे गिरा उस पर पाद-प्रहार किया। गोया वे गांधी को गिरा कर, अंबेडकर और भगत सिंह के सपनों का भारत बना रहे थे!
भोगवाद के बाजार में गरीबी का कारोबार दुधारा है – एक तरफ राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए वोटों का कारोबार किया जाता है; और दूसरी तरफ राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल राष्ट्रीय संसाधनों, उद्यमों, परिसंपत्तियों को निजी कंपनियों के हवाले कर उनसे अकूत मात्रा में धन वसूला जाता है। यह काम खुले आम गांधी, अंबेडकर, भगत सिंह आदि के नाम पर किया जाता है। इस कारोबार में लोगों को मुफ़्त पांच किलो अनाज देने का अरबों रुपया खर्च करके विज्ञापन किया जाता है। गोया वे अस्सी करोड़ लोग भारत के नागरिक; और उस नाते देश की संपत्ति में बराबर के हिस्सेदार न होकर पड़ोसी देश से आए शरणार्थी हों! “मुफ़्त का माल” बंटता हो तो “भारत का महान मध्य-वर्ग” पीछे नहीं रहता। मैंने एक बार जिक्र किया था कि मेरे शिक्षक डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक बार मुझे अभिभूत भाव से कहा था कि बिजली-पानी मुफ़्त करके केजरीवाल ने क्रांति कर दी है!
गरीबी का कारोबार करने वाला यह राजनीतिक नेतृत्व अगर लोगों को धर्म और जातियों के नाम पर गोलबंद नहीं करेगा, उन्हें आपस में नहीं लड़वाएगा, तो ठाठ-बाट के साथ अपने परिवार/पार्टियां चलाने और चुनाव लड़ने/जीतने के लिए अकूत दौलत कैसे हासिल कर पाएगा? जो लोकतंत्र हम चल रहे हैं, उसमें गरीबी का कारोबार दरअसल गरीबों की लोकतंत्र से बेदखली है। कारपोरेट राजनीति के तहत उन्हें अराजनीतिक बना कर उनके वोट खरीदने का पुख्ता इंतजाम किया गया है।
2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष के बिखराव, और केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई), राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) आदि सरकारी संस्थाओं के इस्तेमाल से विपक्ष को पंगु बनाने की कोशिशों से निराश कुछ भले लोग आशा करते हैं कि जनता पहल करके बदलाव करेगी। लोकतंत्र में यह आशा स्वाभाविक है। लेकिन यहां दो बातें है: पहली, पिछले दो चुनावों में क्रमश: करीब 70 और 64 प्रतिशत मतदाताओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया है। इसलिए चुनाव-सुधारों की चर्चा में आनुपातिक प्रतिनिधित्व चुनाव-प्रणाली लागू करना प्रमुख मुद्दा होना चाहिए। इसकी वकालत खुद वाजपेयी ने अपने 1980 के भाषण में की है। दूसरी, कारपोरेट राजनीति के तहत नेताओं/पार्टियों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और विज्ञापनों की मार्फत मतदाताओं को गोलबंद करने की प्रवृत्ति ने जनता से पहल का अधिकार छीन लिया है।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और आम आदमी पार्टी के गठन के साथ राजनीति में यह प्रवृत्ति धूम-धाम से स्थापित की गई। जनता के राजनीतिक विवेक पर बोले गए उस जबरदस्त हमले में अभी का गोदी मीडिया और प्रतिरोधी मीडिया दोनों सम्मिलित थे। आरएसएस और कारपोरेट तो थे ही। कहने की जरूरत नहीं कि उस हमले का सबसे ज्यादा फायदा मोदी और अरविंद केजरीवाल को मिला। तब से लोकतंत्र की नदी में काफी पानी बह चुका है। लोग भी बह रहे हैं। अब अंतर्प्रवाह (अंडरकरंट) भी मीडिया और विज्ञापन निर्मित करते हैं। इसके लिए नेताओं/पार्टियों को हजारों करोड़ की कारपोरेट फंडिंग चाहिए।
यह दुष्चक्र संवैधानिक चेतना से सम्पन्न नागरिकों के सतत प्रयासों से ही तोड़ा जा सकता है। नागरिक चेतना के साथ नई/वैकल्पिक राजनीति की संभावनाएं उन्मुक्त होंगी। यह विश्वास बना रहना चाहिए। मनुष्य न अकेला, न समुदाय/वर्ग के रूप में, हमेशा के लिए कारोबार की वस्तु होना स्वीकार नहीं कर सकता।
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)
Thursday, January 11, 2024
उनके राम और अपने राम - प्रेम सिंह
Sunday, January 7, 2024
लोकसभा चुनाव 2024: विपक्षी एकता के लिए एक नजरिया-प्रेम सिंह
(देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिन्हें विपक्षी दलों के गठजोड़ INDIA गठबंधन से ढेर सारी उम्मीदें हैं, अब ये अलग बात है कि विपक्षी दलों के नेताओं की भूमिका कई बार देश के समाजवादी और संविधान में आस्था रखने वाले लोगों को निराश कर जाती है। सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के पूर्व अध्यक्ष डॉ प्रेम सिंह उन लोगों में हैं जिन्होंने सबसे पहले 2014 में ही विपक्षी गठबंधन की वकालत की और आवश्यक सुझाव दिए। अगर डॉ प्रेम सिंह की बात मान ली जाती तो चीजें इतनी नहीं बिगड़ती। डॉ प्रेम सिंह मौजूदा वक्त के सबसे बेखौफ आवाजों में से एक हैं। अपने लेख के जरिये वो बता रहे हैं कि विपक्षी गठजोड़ को लेकर क्या सावधानी चाहिए और क्या जरूरी पहल की जानी चाहिए।)
यह लेख मेरे पिछले तीन लेखों – ‘तीसरे मोर्चे की प्रासंगिकता’ (मई 2014 ), ‘लोकसभा चुनाव 2019: विपक्षी एकता के लिए एक नजरिया – एक’ (जून 2018), ‘लोकसभा चुनाव 2019: विपक्षी एकता के लिए एक नजरिया – दो’ (अप्रैल 2019) - की अगली कड़ी है। इनके अलावा ‘विपक्षी गठबंधन की गांठें और मुसलमान’ (अक्तूबर 2018) लेख भी इनके साथ देखा जा सकता है। सभी लेखों के लिंक अंत में दिए गए हैं।
मेरा मानना था कि लोकसभा चुनाव 2014 में कांग्रेस और भाजपा से अलग राजनीति की तीसरी शक्ति कही जाने वाली पार्टियों का - तीसरा मोर्चा, राष्ट्रीय मोर्चा या किसी अन्य नाम से – एक स्वतंत्र गठबंधन होना चाहिए। चुनाव-पूर्व एक तीसरे मोर्चे के निर्माण को लेकर कुछ गंभीर प्रयास भी हुए थे। अगर वे प्रयास सफल होते तो कम से कम भारतीय राजनीति का वैसा बहुआयामी पतन नहीं होता जो हुआ है। लोकसभा चुनाव 2019 में भी मेरी यही मान्यता थी। और अब लोकसभा चुनाव 2024 में भी यही मान्यता है। मैं अपने कुछ साथियों के साथ होने वाली राजनीतिक चर्चा में यह कहता रहा हूं कि लोकसभा चुनाव 2024 में विपक्ष की कांग्रेसेतर पार्टियों का एक मोर्चा बने, उसका साझा न्यूनतम कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) जनता के सामने रखा जाए, और चुनाव के पहले प्रधानममंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए। मेरी राय में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मोर्चे के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जा सकता है। उनके साथ दक्षिण और उत्तर भारत से दो उप-प्रधानमंत्रियों का प्रावधान किया जाए। कांग्रेस की भाजपा से जहां सीधी टक्कर है, वहां मोर्चे को अपना उम्मीदवार नहीं उतारना चाहिए। कांग्रेस को भी मोर्चे के जनाधार वाली पार्टियों के उम्मीदवारों के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा करने से भरसक बचना चाहिए। जहां बात नहीं बन पाती, उन इक्का-दुक्का सीटों पर ‘फ़्रेंडली फाइट’ हो सकती है।
इसके साथ कांग्रेस को चुनावों से पहले यह घोषणा करनी चाहिए कि मोर्चे की जीत की स्थिति में वह बाहर से मोर्चे की सरकार को पूरे 5 साल तक समर्थन देगी। वह चाहे तो मोर्चे के नेतृत्व में सरकार में शामिल भी हो सकती है। इस चुनाव और उसके बाद अगले 5 सालों में राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस की स्थिति सुधरती है तो 2029 के चुनाव में मोर्चे को उसकी सरकार का साथ देने का वादा करना चाहिए। मेरा यह भी मानना रहा है कि मोर्चे का गठन और अस्तित्व केवल लोकसभा चुनाव 2024 तक सीमित नहीं होना चाहिए। लोकसभा चुनाव 2024 में मोर्चे कि हार की स्थिति में उसके कार्यक्रम और संगठन का काम निरंतर जारी रहना चाहिए।
ऐसा होने से भारतीय राजनीति के परिदृश्य में केंद्रीय स्तर पर त्रिकोणीय राजनीति को मान्यता मिलती जाएगी। यह देश की विविधता और संघीय ढांचे ((फेडरल स्ट्रक्चर) के हित में होगा। भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक-भौगोलिक विविधिता और संवैधानिक संघवाद (फेडरलिज़्म) की सार्थकता को चरितार्थ करने के लिए भारतीय राजनीति में तीसरी शक्ति पार्टियों की भूमिका की अहमियत को समझा जाना एक जरूरी कार्यभार है, जिसे नेताओं और राजनीतिक पंडितों को करना चाहिए। यह सही है कि तीसरी शक्ति पार्टियां, चाहे किसी भी दबाव (अर्ज) में बनी और ताकतवर हुई हों, मसलन क्षेत्रीय आकांक्षाओं एवं सामाजिक न्याय की पूर्ति की इच्छा के चलते, प्राय: व्यक्तिवाद/परिवारवाद के खोल में कैद होकर रह गईं हैं। उनमें आंतरिक लोकतंत्र भी नहीं होता है। राजनैतिक चिंतन/विमर्श में कोशिश की जानी चाहिए कि तीसरी शक्ति पार्टियों की इस नकारात्मक प्रवृत्ति में बदलाव आए और संवैधानिक विचारधारा के आधार पर उनका एक अलग राजनीतिक ब्लॉक अस्तित्व में रहे। ऐसा न होने की स्थिति में वे अवसरवादी रवैया अपना कर उग्र सांप्रदायिक भाजपा और नरम सांप्रदायिक कांग्रेस के साथ आती-जाती रहेंगी। और सारा देश बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के रंग में रंगता चला जाएगा। दूसरी तरफ देश के अल्पसंख्यक समुदायों में सांप्रदायिकता का जोर बढ़ेगा।
लालकृष्ण आडवाणी और डॉक्टर मनमोहन सिंह दोनों ने यह सुझाव रखा था कि भारत में केवल दो राजनीतिक पार्टियां – कांग्रेस और भाजपा – रहनी चाहिए; अन्य सभी पार्टियों को इन दो पार्टियों में से किसी एक में अपना विलय कर देना चाहिए। दोनों वरिष्ठ नेताओं की यह सलाह देश में निर्णायक रूप से नवउदारवादी आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद की है। यानि कांग्रेस और भाजपा ने उदारीकरण-निजीकरण का रास्ता अपना लिया है, तो अन्य राजनीतिक पार्टियों के लिए किसी अलग रास्ते की न जरूरत है, न गुंजाइश। ध्यान किया जा सकता है कि दोनों ही नेता और उनकी पार्टियां शायद यह मान कर चल रहे थे कि संविधान में निहित समाजवाद के मूल्य को त्याग देने के बावजूद राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य बना रहेगा। आडवाणी ने भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से सीधे (आउटराइट) इनकार नहीं किया था; उन दिनों वे कांग्रेस और अन्य पार्टियों की “छद्म” धर्मनिरपेक्षता के बरक्स “सकारात्मक” धर्मनिरपेक्षता की बात करते थे। पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष नेता बताने के “अपराध” में उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा था। तब से गंगा में काफी पानी बह चुका है। अब न वे राम रहे, न वह अयोध्या! राम-मंदिर निर्माण के लिए निकाली गई रथ-यात्रा में आडवाणी के सारथी रहे नरेंद्र मोदी, और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कारपोरेट घरानों और भारत सहित दुनिया में फैली बाजारवादी शक्तियों के आगे नतमस्तक होकर राजनीति से संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता का टंटा ही खत्म कर दिया है। कहा जाता है सच्चा चेला वही होता है जो गुरु की दुविधा को भी मिटा दे। “राम-रक्षक” आडवाणी की दुविधा भी नरेंद्र मोदी के देश का प्रधानमंत्री और अयोध्या में “भव्य” राम-मंदिर बनने के साथ मिट गई होगी! वे खुश भी होंगे कि उनके चेले ने सब अच्छी तरह सम्हाल लिया है; उसी के हाथों मंदिर का उद्घाटन हो रहा है; उद्घाटन महोत्सव से दूर बैठे उन्हें खुशी-मिश्रित आश्चर्य भी हो रहा होगा कि जिसे वे लोकसभा चुनाव 2004 में “शाइनिंग इंडिया” कह रहे थे वह तो जगमगाता “हिंदू-इंडिया” है!!
बहरहाल, देश के राजनीतिक परिदृश्य में तीसरे मोर्चे की उपस्थिति से कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ की राजनीति की तेज रफ्तार पर कुछ ब्रेक लगता रहेगा। आम आदमी पार्टी (आप) का इरादा और योजना भविष्य में कांग्रेस को प्रतिस्थापित (रिप्लेस) करंने की है। कांग्रेस नेतृत्व ने खुद पहले दिल्ली और उसके बाद पंजाब आप को सौंप कर उसका हौसला बढ़ा दिया है। राजनीति में विचारधारा को नहीं मानने वाली आप कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के मामले में भाजपा की सच्ची लघु कॉपी है। जबकि कांग्रेस चाहे भी तो अपनी नेहरू-युगीन विरासत के चलते भाजपा की सच्ची कॉपी नहीं बन सकती। यही कारण है, नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) कांग्रेस को पहले निशाने पर ले कर चलते हैं। ताकि तीसरे मोर्चे का निर्माण और भूमिका कभी भी गंभीर राजनीतिक चर्चा का विषय नहीं बन पाए।
अगर लोकसभा चुनाव 2019 विचारधारा के दावों पर हारा जाता, तो 2024 में उसे जीता भी जा सकता था। लेकिन, दुर्भाग्य से कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ की राजनीति के युग में मुख्यधारा पार्टियों में विचारधारा के प्रति गंभीरता नहीं मिलती। स्थिति और खराब हो जाती है जब ज्यादातर जागरूक बुद्धिजीवी और नागरिक समाज भी राजनीति में विचारधारा की विदाई का सहयोगी बन जाता है। या निरपेक्ष तटस्थ भाव से सब होते देखता है। राजनीति में सक्रिय कतिपय प्रगतिशील संगठन/समूह विचारधारात्मक खोखलेपन को भरने के लिए प्रतीक-पुरुषों के चित्रों, वक्तव्यों, नारों, जयंती समारोहों, पुण्यतिथि समारोहों आदि का सहारा लेते हैं। वे समझ नहीं पाते कि कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ ने प्रतीक-पुरुषों को अपना बंधक बना लिया है।
संविधान की विचारधारा से गुजरते हुए ज्यादा प्रगतिशील/परिवर्तनवादी विचारधारा की तरफ बढ़ा जा सकता था। लेकिन पिछले तीन दशकों से संविधान की विचारधारा ही पनाह मांगती घूमती है। राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन में संविधान की विचारधारा के प्रति निष्ठा की बात करने पर भी आप पर “शुद्धतावादी” होने का ठप्पा लगा दिया जाएगा। दरअसल, वर्तमान माहौल में विचारधारा पर चर्चा एक अप्रिय प्रसंग है। लोग नाराज हो जाते हैं। जो लोग फासीवादी ताकतों के हाथों होने वाले लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों के हनन पर दिन-रात चिंता व्यक्त करते हैं, एक बार भी 1991 में किये गए संविधान की मूल आत्मा के हनन पर सवाल नहीं उठाते। राहुल गांधी कहते हैं कि वे निजीकरण के खिलाफ नहीं, एक-दो व्यापारिक घरानों को सारी सुविधाएं देने के खिलाफ हैं। यानि देश की दौलत और संसाधन सभी बड़े व्यापारिक घरानों में बंटने चाहिएं; छोटे-मझोले व्यापारियों का उन पर कोई में हक नहीं बनता। राहुल गांधी जब कहते हैं कि विचारधारा केवल कांग्रेस के पास है; और उनका जवाब सीताराम येचुरी यह कह कर देते हैं कि कांग्रेस नरम हिंदुत्व की लाइन पर चलती है, तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत का कम्युनिस्ट ब्लॉक भी समानाधिकारवादी (इगेलीटेरियन) विचारधारा की सीधे बात करने से बचता है। अलबत्ता, पूंजीवाद की बात वह खूब करता है। इस हद तक कि “केजरीवाल क्रांति” को उसने ठोंक कर “लाल सलाम” बजाया।
ऐसा भी नहीं है कि नई पीढ़ी के कम्युनिस्टों में संभावना बनी हुई हो। इस ब्लॉक की सबसे “गरम” पार्टी की छात्र-युवा इकाई ने छात्र राजनीति में आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई के साथ गठजोड़ बना कर छात्र-राजनीति में भी विचारधारा के अंत की घोषणा कर दी। कम्युनिस्ट साथी इस आलोचना को अन्यथा न लें। 1977 में सोशलिस्ट पार्टी के जनता पार्टी में विलय, जो दरअसल देश के राजनीतिक परिदृश्य से सोशलिस्ट पार्टी का विलोप सिद्ध हुआ, के बाद पार्टी संगठन, मजदूर संगठन, किसान संगठन, छात्र संगठन और सांस्कृतिक संगठनों से लैस कम्युनिस्ट ब्लॉक से ही कारपोरेट के बरक्स समाजवादी नीतियों की दृढ़ और सतत वकालत की आशा शेष रह गई थी। अन्य राजनीतिक पार्टियों के मुकाबले संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के प्रति निष्ठा भी कम्युनिस्ट ब्लॉक में ज्यादा है। भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के पास आज खोने के लिए कुछ भी नहीं है। अस्तित्व का संकट स्वतंत्र और नई पहल को जन्म दे सकता है।
विचारधारा के संदर्भ में भारत के सोशलिस्ट ब्लॉक की तरफ देखने पर एक मिला-जुला (मिक्स्ड) परिदृश्य नजर आता है। जबकि, 1991 में थोपी गईं नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ निर्णायक और तर्कपूर्ण प्रतिरोध इसी ब्लॉक की तरफ से हुआ था। मुख्यधारा राजनीति में चंद्रशेखर और मुख्यधारा राजनीति के बाहर किशन पटनायक ने बिना किसी झिझक और देरी के देश की राजनीतिक और बौद्धिक जमात को उन नीतियों के तात्कालिक और दूरगामी दुष्परिणामों के बारे में आगाह किया था। एक बार संसद में जब मनमोहन सिंह नई आर्थिक नीतियों के पक्ष में जवाहरलाल नेहरू को उद्धृत करने लगे तो चंद्रशेखर ने उन्हें टोका, “बराए मेहरबानी इन नीतियों के पक्ष में नेहरू को मत उद्धृत कीजिए।” समाजवादियों ने ही नवसाम्राज्यवादी गुलामी के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति के निर्माण की जरूरत रेखांकित की, और उस दिशा में प्रयास किए। हालांकि, यह भी सच है कि तरह-तरह के जनता दल चलाने वाले समाजवादियों को संकट का न तब बोध हुआ था, न अब है। ऐसे समाजवादियों ने व्यक्तिगत और परिवार की सत्ता मजबूत करने पर अपना ध्यान केंद्रित रखा, और आज भी वही कर रहे हैं। प्रछन्न नवउदारवादी अन्य समूहों की तरह सोशलिस्ट ब्लॉक में भी रहे हैं। प्रछन्न नवउदारवादियों की यह खूबी होती है कि वे सब जगह अपनी घुसपैठ बना लेते हैं। अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में उन्होंने वैकल्पिक राजनीति के प्रयासों में पलीता लगा दिया। आजकल उनमें से कुछ शिक्षा के एक सौदागर की निजी यूनिवर्सिटी में बैठ कर कभी गृहमंत्री राजनाथ सिंह, कभी (पूर्व)राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, कभी जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल मनोज सिन्हा और तरह-तरह के स्थानीय भाजपा/कांग्रेसी नेताओं के साथ बैठ कर डॉक्टर राममनोहर लोहिया की तिजारत करते हैं। जिस दिन खुद नरेंद्र मोदी ‘लोहिया स्मृति व्याख्यान’ देने पहुंच जाएंगे, उनकी साधना सफल हो जाएगी! उनमें से कुछ फिर से कांग्रेस की सेवा में लौट गए हैं।
भारत की वर्तमान राजनीति में विचारधारा की बात को कुछ और आगे बढ़ाते हैं। जो प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी/ऐक्टिविस्ट नवउदारवादी नीतियों की ओर से इसलिए मुंह फेर कर चलते रहे हैं कि पहले सांप्रदायिकता से निपटना जरूरी है, यह देख सकते हैं कि देश की राजनीति ही नहीं, पूरा समाज सांप्रदायिक फासीवाद की गिरफ्त में आ चुका है। वे सांप्रदायिकता के विरुद्ध लड़ाई अपने नवउदारवाद के समर्थक बुद्धिजीवियों के साथ मिल कर लड़ते हैं। उनमें ख्याति-प्राप्त वकील, न्यायधीश, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, लेखक, एनजीओ सरगना, प्रोफेसर, पत्रकार आदि शामिल होते हैं। उनके पास धन, रुतबा, बड़े अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार होते हैं। मान लिया जा सकता है कि प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को लगता हो कि एक दिन उनके नवउदारवाद के समर्थक साथी अपने पक्ष (स्टैन्ड) पर पुनर्विचार करेंगे; और संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों की रोशनी में आर्थिक नीतियां बनाने की हिमायत करेंगे। लेकिन वे देख सकते हैं कि तीन दशकों के बाद भी नवउदारवाद के समर्थकों में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के भयंकर दुष्परिणामों को लेकर कोई खेद नहीं है। वे आज भी “सुधारों” को तीव्रतर करने का आह्वान करते पाए जाते हैं।
प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को किंचित भी खेद नहीं है कि उन्होंने 1991 में थोपी गई नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ उठे देशव्यापी विरोध और वैकल्पिक राजनीति की आवाज को ‘भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन’ का हथियार चला कर नष्ट कर दिया था। विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है कि वह आंदोलन खुद पूंजीवादी-सांप्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ का भारत के संविधान और मेहनतकश आबादी के खिलाफ एक अचूक हथियार था। भारत का प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बौद्धिक वर्ग पिछले 10 सालों से ऊंचे स्वर में आजादी के मूल्यों, संविधान के मूल्यों और लोकतांत्रिक संस्थाओं के विघटन की दुहाई दे रहा है। लेकिन उसकी बात कोई नहीं सुनता। क्योंकि अपने धतकर्मों पर वह किंचित भी खेद प्रकट करने को तैयार नहीं है। वह अपनी रचना “छोटे मोदी” को रिजर्व में रख कर एक बार फिर उसी “भ्रष्ट” कांग्रेस के साथ एकजुट हो गया है, जिसे 10 साल पहले उसने खत्म करने का जैसे बीड़ा उठा लिया था!
यहां एक बात पर और ध्यान दिया जा सकता है। राजनीतिक पार्टियों में जाति-आधारित जनगणना कराने का वादा करने की होड़ लगी है। नवउदारवाद के दरवाजे खोलने वाली कांग्रेस ने भी जाति-गणना के पक्ष में ऐलान कर दिया है; चुनाव जीतने में फायदा दिखेगा तो भाजपा भी पीछे नहीं रहेगी। सुना है देश को पिछड़ा प्रधानमंत्री और दलित तथा आदिवासी राष्ट्रपति देने वाला आरएसएस जाति-आधारित जनगणना के पक्ष में विचार कर रहा है। किसी भी राष्ट्र के समाज में कितनी सामाजिक-आर्थिक पहचानें निवास करती हैं, इसका आंकड़ा (डाटा) उपलब्ध होना ही चाहिए। कुछ हद तक यह काम होता भी रहा है, और सामाजिक पहचानों की राजनीति भी। सवाल है कि यह सब निगम भारत, जिसमें करीब 75 प्रतिशत दौलत करीब 10 प्रतिशत लोगों के पास इकट्ठा है, और नीचे के 50 प्रतिशत भारतीयों के हिस्से में 3 प्रतिशत दौलत आती है, की सत्ता और संपत्ति में हिस्सा सुनिश्चित करने के लिए है या संसाधनों और संपत्ति के समान बंटवारे के लिए? जाति-आधारित जनगणना को जातिवाद नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह कहा जा सकता है कि जाति-आधारित गणना के दावेदार समाजवाद के पैरोकार नहीं हैं। यानि राजनीति में सामाजिक न्याय की विचारधारा भी उनका सच्चा सरोकार नहीं है।
देश में सरेआम बाजारवादी अर्थ-व्यवस्था और उसके एजेंटों का गुणगान और प्रचार-प्रसार चल रहा है। गोया भारत में कभी समानाधिकारवादी विचारधारा/आंदोलन रहे ही न हों। नागरिक-बोध से परिचालित भारतीयों का आधुनिक भारत नष्ट करके, धर्म और जातियों की पहचान पर आधारित “नया भारत” बनाया जा रहा है। एक शानदार स्वतंत्रता संग्राम पर लोलुपता, अंधविश्वास, झूठ और घृणा की चादर ढंक दी गई है। लेकिन विचारधारा पर गंभीर चर्चा नहीं होती। इसके लिए केवल राजनेता ही जिम्मेदार नहीं हैं। बुद्धिजीवियों की इसमें ज्यादा बड़ी भूमिका है। वे चाहे वामपंथी हों, या दक्षिणपंथी। बौद्धिक वर्ग द्वारा अंजाम दी गई समाज की अधोगति (डेकेडेंस) समाज को और ज्यादा अधोगति के गर्त में धकेलती है।
लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा का मुकाबला करने के लिए विपक्ष ने ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूजिव अलाएंस) नाम से गठबंधन बनाया है। कांग्रेस से अलग मोर्चा बनाने कि संभावना अब नहीं लगती। ‘इंडिया’ गठबंधन के विवरण प्रेस में उपलब्ध हैं। इसलिए इस विषय पर ज्यादा कुछ लिखने की जरूरत नहीं है। अलबत्ता, यह देखा जा सकता है कि इस नवेले गठबंधन के ढांचे और संचालन का स्वरूप अभी तक तय नहीं हो पाया है। सीटों के बंटवारे का सवाल भी नहीं सुलझा है। कौन कितनी सीटें लड़ेगा, इस पर कांग्रेस समेत अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों के अपने-अपने दावे सामने आते रहते हैं। गोया, लोकसभा चुनाव केवल ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल पार्टियों के नेताओं का निजी मामला हो। लोकतंत्र में यह हैरत की बात है कि गठबंधन भाजपा को अपदस्थ करने के लिए देशवासियों के वोट तो चाहता है, लेकिन उन्हें सोचने और निर्णय करने के लिए थोड़ा भी समय नहीं देना चाहता। चुनाव में 6 महीने भी नहीं बचे हैं, जनता के सामने गठबंधन के एक अटपटे नाम के सिवाय अभी तक कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं पेश किया गया है। साझा न्यूनतम कार्यक्रम भी नहीं, जो गठबंधन के गठन की घोषणा के साथ सभी भारतीय भाषाओं में छप कर पूरे देश में वितरित हो जाना चाहिए था। भले ही गठबंधन में शामिल पार्टियों के अपने घोषणा-पत्र बाद में आते रहते। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम पर लोगों के सामने केवल अटकलबाजियां परोसी जा रही हैं।
यह तो स्पष्ट है कि गठबंधन सत्ता में आने पर निजीकरण-उदारीकरण की अंधी नीतियों के चलते आर्थिक-शैक्षिक विकास की प्रक्रिया से बाहर खदेड़े जाने वाली विशाल आबादी के बहिष्करण (एक्सक्लूजन) को रोकने का वादा नहीं करना चाहता। कोई बात नहीं, लेकिन क्या विपक्ष लोगों में भाजपा को परास्त करने के विश्वास का माहौल भी नहीं पैदा करना चाहता? अभी तक तो ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं में कोई सनातन धर्म को निपटाने में लगा है, कोई मनुवाद को, कोई रामायण को, कोई सरस्वती को; कोई हनुमान-भक्त बना घूम रहा है, कोई राम-भक्त, कोई शिव-भक्त। जैसे-जैसे मथुरा में शाही ईदगाह का मामला गरमाएगा, और वृंदावन में उज्जैन और बनारस जैसा कॉरीडोर बनेगा काफी कृष्ण-भक्त भी निकल आएंगे। ये नेता यह समझने को भी तैयार नहीं हैं कि उनके इन कारनामों से अल्पसंख्यक और भी असुरक्षित हो जाते हैं। इनसे कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ को निपटाने की आशा तो क्या की जाए, फिलहाल यह भी नहीं लगता कि ये लोकसभा चुनाव में भाजपा को निपटा पाएंगे? जनता के सहयोग और समर्थन से गठबंधन को जीत मिल भी जाती है, तो सरकार की अस्थिरता का अंदेशा बना रहेगा।
इसलिए जितना भी समय चुनावों में बचा है उसका गंभीरता से उपयोग किया जाना चाहिए। लेकिन कांग्रेस फिर एक यात्रा का आयोजन करने जा रही है। अगर यह चुनावों के मद्देनजर कि जाने वाली यात्रा है तो ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल सभी पार्टियां उसमें हिस्सेदारी क्यों नहीं करने जा रही हैं? इसका एक प्रभावी संदेश देशवासियों में जा सकता है। जो भी हो, ‘इंडिया’ के ढांचे और संचालन की औपचारिकताएं पूरी करने, गठबंधन सरकार का साझा न्यूनतम कार्यक्रम कार्यक्रम जारी करने और सीटों के बंटवारे की प्रक्रिया को जल्दी से जल्दी पूरा किया जाना चाहिए। अगर गठबंधन पहले के नागरिक संशोधन कानून, श्रम एवं कृषि कानूनों और संसद के शीतकालीन सत्र में बिना समुचित बहस के पारित किये गए आपराधिक न्याय संबंधी तीन कानूनों तथा मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित कानूनों पर अपना नजरिया लोगों के सामने रखे, तो उसके अभियान में गंभीरता आएगी। मसलन, सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लिया था, यह कहते हुए कि मौका आने पर उन्हें लागू किया जाएगा। गठबंधन यह बताए कि वह इन कृषि कानूनों का क्या करेगा? क्या वह सत्ता में आने पर भारत की खेती-किसानी के कारपोरेटीकरण का विरोध करेगा? इसी तरह से श्रम कानूनों, शिक्षा नीति आदि बहुत से विषयों पर स्थिति स्पष्ट की जानी चाहिए।
साथ ही 2017 में वित्त कानून में संशोधन करके की गई एलेक्टोरल बॉण्ड्स की मार्फत कारपोरेट फन्डिंग की व्यवस्था, जिसका 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा सत्तारूढ़ भाजपा को जा रहा है, को ‘इंडिया’ गठबंधन नकार दे। जीतने की स्थिति में लोकतंत्र के लिए नकारात्मक बताए जाने वाले इस कानून को बदलने का वादा करे। नई शिक्षा नीति 2020 की समीक्षा करने का वादा भी किया जाना चाहिए। साथ ही गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए), जो मुख्यत: आतंकी गतिविधियों में शामिल लोगों को चिन्हित करने और सजा देने के उद्देश्य से बनाया गया था, के तहत राजनीतिक द्वेष से जेलों में बंद किये गए नागरिकों को न्याय देने वादा भी। पुलिस समेत सभी जांच एजेंसियों को राजनीतिक और सरकारी दबाव से मुक्त रखने का वादा भी किया जाए। कहने की जरूरत नहीं कि साझा कार्यक्रम में रोजगार का मुद्दा प्रमुखता और गंभीरता से रखा जाए।
यहां एक संभावना पर और विचार किया जा सकता है। क्या ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ लोकसभा चुनाव 2024 में जनता से 1977 जैसे करिश्मे की उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं। घोषित आपातकाल से लेकर अघोषित आपातकाल तक देश काफी बदल चुका है। वह “पुराना” भारत था, यह “नया भारत” है। पूरी पोलिटिकल, इंटलेक्चुअल और बिजनस क्लास ने मिल कर नागरिकों की स्वतंत्रता की चेतना को गुलामी की चेतना में बदल कर रख देने का अभियान छेड़ा हुआ है। दिमाग में हुए “गुलामी के छेद” को भरने के लिए धर्मों और जातियों पर गर्व करके छाती फुलाई जाती है या अपने-अपने प्रतीक-पुरुषों के पोस्टर लहराए जाते हैं। “आत्मनिर्भर”, “विश्वगुरु”, “नए भारत” में यूरोप-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया में बसने-पढ़ने की होड़ मची हुई है। वहीं की तीसरे-चौथे दर्जे की टेक्नॉलॉजी उधार लेकर “डिजिटल”, “विकसित” और “महाशक्ति” भारत बनाया जा रहा है।
इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बड़ी अपघटना (कैजुएलिटी) यह हुई है कि लोगों, खास कर मेहनतकश आबादी को स्वतंत्र नागरिक से खैरात पर जीने वाली प्रजा बना दिया गया है। नवउदारवाद की खुरचन खाने वाला मध्य-वर्ग भी “मुफ़्त की मधुशाला” लूटने में पीछे नहीं रहना चाहता। नए भारत के निर्माताओं को पीने के लिए घी मिलना चाहिए, भले ही देश का रोआं-रोआं कर्ज में डूबा हो। बल्कि वे विश्व बैंक या आईएमएफ द्वारा भारत पर लदे कर्ज की स्थिति बताने पर तरह-तरह के घुमावदार तर्क देते हैं। गरीबी और कुपोषण पर वैश्विक संस्थाओं के आंकड़ों को झूठा बताने में वे सरकारों के साथ खड़े होते हैं। उनमें जो इक्का-दुक्का लोग कभी-कभार यह कहते हैं कि राजनीति धर्म के आधार पर नहीं, लोगों के सामने दरपेश आर्थिक कठिनाइयों, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी समस्याओं के आधार पर की जानी चाहिए, वे भयानक आर्थिक विषमताएं पैदा करने वाली आर्थिक नीतियों को बदलने की बात नहीं करते। यदि उन्हें कहा जाए कि शिक्षा राज्य की जिम्मेदारी है, शिक्षा को मुनाफे का बाजार बनाने वाले निजी और विदेशी विश्वविद्यालय बंद होने चाहिएं तो वे आपको अजूबे की तरह देखेंगे।
एक बात और, सरकारी खजाने का अरबों रुपया खर्च करके मोदी अपनी छवि बनाते हैं। जो कसर रह जाती है उसे मोदी-विरोधी विपक्ष और नागरिक समाज एक्टिविस्ट पूरा कर देते हैं। उनके मोदी के जुमलों पर छोड़े गए चुटकुले मोदी के लिए खाद-पानी का काम करते हैं। वे कभी चुनाव के पहले ही मोदी की हार की घोषणा कर देते हैं, कभी दिन में कई बार ‘आएगा तो मोदी ही’ कहते हुए उसकी अपराजेयता से त्रस्त नजर आते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि मोदी ज्यादातर विरोधियों से अपने प्रचारक का काम लिए जा रहे हैं। बेहतर होगा कि इस चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन मोदी को कोसने का काम छोड़ कर लोगों को बताए कि इस चुनाव में सरकार इसलिए बदलनी है कि लोकतंत्र में सरकारें बदलती रहनी चाहिएं। भाजपा को 2014 में 31.34 प्रतिशत और 2019 में 37.04 प्रतिशत वोट मिले थे। 2014 में लोकतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) का वोट शेयर 38 और 2019 में 45 प्रतिशत था। यानि 2014 में करीब 70 प्रतिशत और 2019 में करीब 63 प्रतिशत मतदाताओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया था। भाजपा नीत एनडीए को भी 2014 में करीब 62 और 2019 में करीब 55 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट नहीं दिया था। विपक्ष भले ही इस वास्तविकता से सबक न लेता हो, आरएसएस/भाजपा लेते हैं। तभी सांप्रदायिकता फैलाने के साथ वे मोदी की छवि पर अरबों सरकारी रुपया खर्च करते हैं। कारपोरेट घरानों का धन तो है ही।
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https://countercurrents.org/2018/06/lok-sabha-elections-2019-a-perspective-for-opposition-unity/
https://countercurrents.org/2019/04/lok-sabha-elections-2019-a-perspective-for-opposition-unity-2/
https://agnialok.com/the-knots-of-the-opposition-alliance-and-the-muslims/
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं)
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